रविवार, 12 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

तं विचक्ष्य खलं पुत्रं शासनैः विविधैर्नृपः ।
यदा न शासितुं कल्पो भृशं आसीत् सुदुर्मनाः ॥ ४२ ॥
प्रायेणाभ्यर्चितो देवो येऽप्रजा गृहमेधिनः ।
कदपत्यभृतं दुःखं ये न विन्दन्ति दुर्भरम् ॥ ४३ ॥
यतः पापीयसी कीर्तिः अधर्मश्च महान् नृणाम् ।
यतो विरोधः सर्वेषां यत आधिरनन्तकः ॥ ४४ ॥
कस्तं प्रजापदेशं वै मोहबन्धनमात्मनः ।
पण्डितो बहु मन्येत यदर्थाः क्लेशदा गृहाः ॥ ४५ ॥
कदपत्यं वरं मन्ये सदपत्याच्छुचां पदात् ।
निर्विद्येत गृहान्मर्त्यो यत्क्लेशनिवहा गृहाः ॥ ४६ ॥
एवं स निर्विण्णमना नृपो गृहात्
     निशीथ उत्थाय महोदयोदयात् ।
अलब्धनिद्रोऽनुपलक्षितो नृभिः
     हित्वा गतो वेनसुवं प्रसुप्ताम् ॥ ४७ ॥
विज्ञाय निर्विद्य गतं पतिं प्रजाः
     पुरोहितामात्यसुहृद्ग्णादयः ।
विचिक्युरुर्व्यामतिशोककातरा
     यथा निगूढं पुरुषं कुयोगिनः ॥ ४८ ॥
अलक्षयन्तः पदवीं प्रजापतेः
     हतोद्यमाः प्रत्युपसृत्य ते पुरीम् ।
ऋषीन् समेतान् अभिवन्द्य साश्रवो
     न्यवेदयन् पौरव भर्तृविप्लवम् ॥ ४९ ॥

वेन की ऐसी दुष्ट प्रकृति देखकर महाराज अङ्गने उसे तरह-तरहसे सुधारनेकी चेष्टा की; परन्तु वे उसे सुमार्गपर लानेमें समर्थ न हुए। इससे उन्हें बड़ा ही दु:ख हुआ ॥ ४२ ॥ (वे मन-ही-मन कहने लगे—) ‘जिन गृहस्थोंके पुत्र नहीं हैं, उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्ममें श्रीहरिकी आराधना की होगी; इसीसे उन्हें कुपूतकी करतूतोंसे होनेवाले असह्य क्लेश नहीं सहने पड़ते ॥ ४३ ॥ जिसकी करनीसे माता-पिताका सारा सुयश मिट्टीमें मिल जाय, उन्हें अधर्मका भागी होना पड़े, सबसे विरोध हो जाय, कभी न छूटनेवाली चिन्ता मोल लेनी पड़े और घर भी दु:खदायी हो जाय—ऐसी नाममात्रकी सन्तानके लिये कौन समझदार पुरुष ललचावेगा ? वह तो आत्माके लिये एक प्रकारका मोहमय बन्धन ही है ॥ ४४-४५ ॥ मैं तो सपूतकी अपेक्षा कुपूतको ही अच्छा समझता हूँ; क्योंकि सपूतको छोडऩेमें बड़ा क्लेश होता है। कुपूत घरको नरक बना देता है, इसलिये उससे सहज ही छुटकारा हो जाता है’ ॥ ४६ ॥
इस प्रकार सोचते-सोचते महाराज अङ्गको रातमें नींद नहीं आयी। उनका चित्त गृहस्थीसे विरक्त हो गया। वे आधी रातके समय बिछौनेसे उठे। इस समय वेनकी माता नींदमें बेसुध पड़ी थी। राजाने सबका मोह छोड़ दिया और उसी समय किसीको भी मालूम न हो, इस प्रकार चुपचाप उस महान् ऐश्वर्यसे भरे राजमहलसे निकलकर वनको चल दिये ॥ ४७ ॥ महाराज विरक्त होकर घरसे निकल गये हैं, यह जानकर सभी प्रजाजन, पुरोहित, मन्त्री और सुहृदगण आदि अत्यन्त शोकाकुल होकर पृथ्वीपर उनकी खोज करने लगे। ठीक वैसे ही जैसे योगका यथार्थ रहस्य न जाननेवाले पुरुष अपने हृदयमें छिपे हुए भगवान्‌को बाहर खोजते हैं ॥ ४८ ॥ जब उन्हें अपने स्वामीका कहीं पता न लगा, तब वे निराश होकर नगरमें लौट आये और वहाँ जो मुनिजन एकत्रित हुए थे, उन्हें यथावत् प्रणाम करके उन्होंने आँखोंमें आँसू भरकर महाराजके न मिलनेका वृत्तान्त सुनाया ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖🥀🌺जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 🙏

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