ब्रह्माजीके बनाये हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत्) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्त्वज्ञानरूपी दिनमें) जागते हैं और नाम तथा रूपसे रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं ।
संसारमें जितने जीव हैं, वे सब नींद में पड़े हुए हैं । जैसे नींद आ जाती है तो बाहर का कुछ ज्ञान नहीं रहता, इसी तरह परमात्मा की तरफ से जीव प्रायः सोये हुए रहते हैं । परमात्मा क्या हैं, क्या नहीं हैं‒इस बातका उनको ज्ञान नहीं है । इसका जो कोई ज्ञान करना चाहते हैं और अपने स्वरूपका बोध भी करना चाहते हैं, वे योगी होते हैं । मानो उनका संसार से वियोग होता है और परमात्मा के साथ योग होता है । वे जीभ से नाम-जप करके जाग जाते हैं । उनको सब दीख जाता है ।
“या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥“
………………………….(गीता २ । ६९)
मानो साधारण मनुष्य परमात्मतत्त्व की तरफ से बिलकुल सोये हैं । जैसे अँधेरी रात में दीखता नहीं, ऐसे उनको भी कुछ नहीं दीखता, पर संयमी पुरुष उसमें जागते हैं । जिसमें सभी प्राणी जाग रहे हैं, मेरा-तेरा कहकर बड़े सावधान होकर संसार का काम करते हैं, संसार के तत्त्व को जानने वाले मुनि की दृष्टि में वह रात है । ये लोग अपनी दृष्टि से इसे जागना भले ही मानें, परंतु बिलकुल सोये हुए हैं, उनको कुछ होश नहीं है । वे समझते हैं कि हम तो बड़े चालाक, चतुर और समझदार हैं । यह तो पशुओं में भी है, पक्षियों में भी है, वृक्षों भी है, लताओं में भी है और जन्तुओं में भी है । खाना-पीना, लड़ाई-झगड़ा, मेरा-तेरा आदि संसारभर में है । इसमें जागना मनुष्यपना नहीं है । मनुष्यपन तो तभी है, जब परमात्म-स्वरूप को जान लें अर्थात् उसमें जाग जायँ । उसे कैसे जानें ? उसका उपाय क्या है ? परमात्माके नामको जीभसे जपना शुरू कर दें और परमात्माको चाहनेकी लगन हो जाय तो वे जाग जाते हैं ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे