बुधवार, 13 दिसंबर 2017

भगवान् के भक्त




अर्थार्थीऔर आर्तभक्त तो वे कहलाते हैं, जो धनके लिये केवल भगवान् के ऊपर ही भरोसा रखते हैं । धन प्राप्त करेंगे तो केवल भगवान् से ही, दूसरे किसीसे नहीं ऐसा उनका दृढ़ निश्चय होता है ।

- परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज
मानसमें नाम-वन्दनापुस्तकसे (पृ. २७)


मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

हनुमान जी शिशु श्रीराम के साथ



जय सियाराम जय जय सियाराम ! जय सियाराम जय जय सियाराम !
हनुमान जी शिशु श्रीराम के साथ
पापनिवारण-ताप-निवारण, धर्म-संस्थापन एवं प्राणियों के अशेष मंगल के लिए जब जब भगवान् श्रीराम धरती पर अवतरित होते हैं, तब-तब सर्वलोकमहेश्वर शिव भी अपने प्रियतम श्रीराम के मुनिमनमोहिनी मधुर मंगलमयी लीला के दर्शनार्थ धरनी पर उपस्थित हो जाते हैं | वे अपने एक अंश से अपने प्राणप्रिय श्रीराम की लीला में सहयोग करते हैं, पर दूसरे रूप में उनकी भुवनपावनी लीला के दर्शन कर मन-ही-मन मुदित भी होते रहते हैं | उस समय उनके आनंद की सीमा नहीं रहती |
निखिल भुवन-पावन भगवान् श्रीराम महाभागा कौसल्या के सम्मुख प्रकट हुए और अवध की गलियों में उमानाथ लगे घूमने | वे अयोध्यापति दशरथ के राजद्वार पर कभी प्रभु-गुण-गायक साधु के रूप में तो कभी भिक्षा प्राप्त करने के लिए विरक्त महात्मा के वेष में दर्शन देते | कभी परमप्रभु के अवतारों की मंगलमयी कथा सुनाने प्रकांड विद्वान के रूप में राज-सदन पधारते तो कभी त्रिकालदर्शी दैवज्ञ बनकर राजा दशरथ के कमल-नयन शिशु का फलादेश बताने पहुँच जाते | इस प्रकार वे किसी न किसी बहाने घूम फिरकर श्रीराम के समीप जाते ही रहते | भगवान् शंकर कभी अपने आराध्य को अङ्क में उठा लेते, कभी हस्तरेखा देखने के बहाने उनका कोमलतम दिव्य हस्त-पद्म सहलाते और कभी अपनी जटाओं से उनके नन्हे नन्हे कमल-सरीखे लाल-लाल तलवे झाड़ते तो कभी उन देव-दुर्लभ सुकोमल अरुणोत्पल चरणों को अपने विशाल नेत्रों से स्पर्श कर परमानंद में निमग्न हो जाते | धीरे धीरे कौसल्यानंदन राज द्वार तक आने लगे |
एक बार की बात है कि पार्वती-वल्लभ मदारी के वेष में डमरू बजाते, राजद्वार पर उपस्थित हुए | उनके साथ, नाचने वाला एक अत्यंत सुन्दर बन्दर था | मदारी के साथ अवध के बालकों का समुदाय लगा हुआ था |
डमरू बजने लगा और कुछ ही देर में श्रीराम सहित चारों भाई राजद्वार पर आ पहुंचे | मदारी ने डमरू बजाया और बन्दर ने दोनों हाथ जोड़ लिए | भ्राताओं सहित राघवेन्द्र हंस पड़े | मदारी जैसे निहाल हो गया | डमरू और जोर से बजा | बन्दर ने नाचना आरम्भ कर दिया | वह ठुमुक-ठुमुक कर नाचने लगा |
भगवान् वृषभध्वज अपने एक अंश से अपने प्राणाराध्य के सम्मुख नाच रहे थे और अपने दूसरे अंश से स्वयं ही नचा रहे थे | नाचने और नचाने वाले आप ही थे –श्रीरामचरणानुरागी पार्वतीवल्लभ और बन्दर के नाच से मुग्ध होकर ताली बजाने वाले थे –सम्पूर्ण सृष्टि को नट-मरकट की भाँति नचाने वाले अखिल-भुवनपति कौसल्याकुमार भगवान् श्रीराम !
अंत में भगवान् श्रीराम प्रसन्न होगये और मचल उठे –“मुझे यह बन्दर चाहिए” !!!!
{कल्याण-श्रीहनुमान-अंक}


ज्ञानी भक्त..(01)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
ज्ञानी भक्त..(01)
“नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी ।
बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा ।
अकथ अनामय नाम न रूपा ॥“
………………………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २२ । १-२)
ब्रह्माजीके बनाये हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत्) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्त्वज्ञानरूपी दिनमें) जागते हैं और नाम तथा रूपसे रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं ।
संसारमें जितने जीव हैं, वे सब नींद में पड़े हुए हैं । जैसे नींद आ जाती है तो बाहर का कुछ ज्ञान नहीं रहता, इसी तरह परमात्मा की तरफ से जीव प्रायः सोये हुए रहते हैं । परमात्मा क्या हैं, क्या नहीं हैं‒इस बातका उनको ज्ञान नहीं है । इसका जो कोई ज्ञान करना चाहते हैं और अपने स्वरूपका बोध भी करना चाहते हैं, वे योगी होते हैं । मानो उनका संसार से वियोग होता है और परमात्मा के साथ योग होता है । वे जीभ से नाम-जप करके जाग जाते हैं । उनको सब दीख जाता है ।
“या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥“
………………………….(गीता २ । ६९)
मानो साधारण मनुष्य परमात्मतत्त्व की तरफ से बिलकुल सोये हैं । जैसे अँधेरी रात में दीखता नहीं, ऐसे उनको भी कुछ नहीं दीखता, पर संयमी पुरुष उसमें जागते हैं । जिसमें सभी प्राणी जाग रहे हैं, मेरा-तेरा कहकर बड़े सावधान होकर संसार का काम करते हैं, संसार के तत्त्व को जानने वाले मुनि की दृष्टि में वह रात है । ये लोग अपनी दृष्टि से इसे जागना भले ही मानें, परंतु बिलकुल सोये हुए हैं, उनको कुछ होश नहीं है । वे समझते हैं कि हम तो बड़े चालाक, चतुर और समझदार हैं । यह तो पशुओं में भी है, पक्षियों में भी है, वृक्षों भी है, लताओं में भी है और जन्तुओं में भी है । खाना-पीना, लड़ाई-झगड़ा, मेरा-तेरा आदि संसारभर में है । इसमें जागना मनुष्यपना नहीं है । मनुष्यपन तो तभी है, जब परमात्म-स्वरूप को जान लें अर्थात् उसमें जाग जायँ । उसे कैसे जानें ? उसका उपाय क्या है ? परमात्माके नामको जीभसे जपना शुरू कर दें और परमात्माको चाहनेकी लगन हो जाय तो वे जाग जाते हैं ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 01)



**श्री परमात्मने नम:**
जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 01)
भगवान्‌में अनन्त गुण हैं, जिनका कोई पार नहीं पा सकता । आजतक भगवान्‌के गुणोंका जितना शास्त्रमें वर्णन हुआ है, जितना महात्माओंने वर्णन किया है, वह सब-का-सब मिलकर भी अधूरा है । भगवान्‌के परम भक्त गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं‒ ‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ (मानस, बालकाण्ड २६/४)। सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि अपनी शक्तिको खुद भगवान्‌ भी नहीं जानते !ऐसे अनन्त गुणोंवाले भगवान्‌में कम-से-कम तीन गुण मुख्य हैं‒सर्वज्ञता, सर्वसमर्थता और सर्वसुहृत्ता । तात्पर्य है कि भगवान्‌के समान कोई सर्वज्ञ नहीं है, कोई सर्वसमर्थ नहीं है और कोई सर्वसुहृद् (परम दयालु) नहीं है । ऐसे भगवान्‌के रहते हुए भी आप दुःख पा रहे हैं, आपकी मुक्ति नहीं हो रही है तो क्या गुरु आपको मुक्त कर देगा ? क्या गुरु भगवान्‌से भी अधिक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु है ? कोरी ठगाईके सिवाय कुछ नहीं होगा ! जबतक आपके भीतर अपने कल्याणकी लालसा जाग्रत नहीं होगी, तबतक भगवान्‌ भी आपका कल्याण नहीं कर सकते, फिर गुरु कैसे कर देगा ?
आपको गुरुमें, सन्त-महात्मामें जो विशेषता दिखती है, वह भी उनकी अपनी विशेषता नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌से आयी हुई और आपकी मानी हुई है ।जैसे कोई भी मिठाई बनायें, उसमें मिठास चीनीकी ही होती है, ऐसे ही जहाँ भी विशेषता दीखती है, वह सब भगवान्‌की ही होती है । भगवान्‌ने गीतामें कहा भी है‒
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
.............(१०/४१)
‘जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा पदार्थ है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात्‌ सामर्थ्य) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो ।’
भगवान्‌का विरोध करनेवाले राक्षसोंको भी भगवान्‌से ही बल मिलता है तो क्या भगवान्‌का भजन करनेवालोंको भगवान्‌से बल नहीं मिलेगा ? आप भगवान्‌के सम्मुख हो जाओ तो करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे, पर आप सम्मुख ही नहीं होंगे तो पाप कैसे नष्ट होंगे ? भगवान्‌ अपने शत्रुओंको भी शक्ति देते हैं, प्रेमियोंको भी शक्ति देते हैं और उदासीनोंको भी शक्ति देते हैं । भगवान्‌की रची हुई पृथ्वी दुष्ट-सज्जन, आस्तिक-नास्तिक, पापी-पुण्यात्मा सबको रहनेका स्थान देती है । उनका बनाया हुआ अन्न सबकी भूख मिटाता है । उनका बनाया हुआ जल सबकी प्यास बुझाता है । उनका बनाया हुआ पवन सबको श्वास देता है । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापीके लिये भी भगवान्‌की दयालुता समान है । हम घरमें बिजलीका एक लट्टू भी लगाते हैं तो उसका किराया देना पड़ता है, पर भगवान्‌के बनाये सूर्य और चन्द्रने कभी किराया माँगा है ? पानीका एक नल लगा लें तो रुपया लगता है, पर भगवान्‌की बनायी नदियाँ रात-दिन बह रही हैं । क्या किसीने उसका रुपया माँगा है ? रहनेके लिये थोड़ी-सी जमीन भी लें तो उसका रुपया देना पड़ता है, पर भगवान्‌ने रहनेके लिये इतनी बड़ी पृथ्वी दे दी । क्या उसका किराया माँगा है ? अगर उसका किराया माँगा तो किसमें देनेकी ताकत है ? जिसकी बनायी हुई सृष्टि भी इतनी उदार है, वह खुद कितना उदार होगा !
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
शेष आगामी पोस्ट में ......
.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०५)


|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०५)
सद्‌गुण-सदाचारकी स्वतन्त्र सत्ता है, पर दुर्गुण-दुराचारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कारण कि असत्‌को तो सत्‌की जरूरत है, पर सत्‌को असत्‌की जरूरत नहीं है । झूठ बोलनेवाला व्यक्ति थोड़े-से पैसोंके लोभमें सत्य बोल सकता है, पर सत्य बोलनेवाला व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोल सकता ।
(३) ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते’‒‘तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भी ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है ।’ दान, पूजा, पाठादि जितने भी शास्त्र-विहित शुभकर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होनेसे सत्कर्म हैं, किंतु इन प्रशस्त कर्मोंका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध नहीं रखनेसे वे ‘सत्’ न कहलाकर केवल शास्त्र-विहित कर्ममात्र रह जाते हैं । यद्यपि दैत्य-दानव भी प्रशंसनीय कर्म तपस्यादि करते हैं, परन्तु असद् भाव‒दुरुपयोग करनेसे इनका परिणाम विपरीत हो जाता है‒
“मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥“
.............(गीता १७ । १९)
‘जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है ।’ वस्तुतः प्रशंसनीय कर्म वे होते हैं, जो स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावसे किये जाते हैं । शास्त्र-विहित सत्कर्म भी यदि अपने लिये किये जायँ तो वे असत्कर्म हो जाते हैं, बाँधनेवाले हो जाते हैं । उनसे यदि ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँसे लौटकर आना पड़ता है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।’ (गीता ८ । १६)
भगवान्‌के लिये कर्म करनेवाले सदाचारी पुरुषका कभी नाश नहीं होता‒
“पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥“
..................(गीता ६ । ४०)
‘हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही । क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी (भगवत्प्राप्तिके लिये) कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता ।’
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


रविवार, 10 दिसंबर 2017

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०४)



|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०४)
अच्छे आचरण करनेवालेको कोई यह नहीं कहता कि तुम अच्छे आचरण क्यों करते हो, पर बुरे आचरण करनेवाले को सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों करते हो ? प्रसन्न रहनेवाले को कोई यह नहीं कहता कि तुम प्रसन्न क्यों रहते हो, पर दुःखी रहनेवाले को सब कहते हैं कि तुम दुःखी क्यों रहते हो ? तात्पर्य है कि भगवान्‌ का ही अंश होने से जीवमें दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है‒‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ (मानस ७ । ११७ । १) । आसुरी सम्पत्ति स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है और नाशवान्‌के संगसे आती है । जब जीव भगवान्‌से विमुख होकर नाशवान् (असत्) का संग कर लेता है अर्थात् शरीरमें अहंता-ममता कर लेता है, तब उसमें आसुरी सम्पत्ति आ जाती है और दैवी सम्पत्ति दब जाती है । नाशवान्‌का संग छूटते ही सद्‌गुण-सदाचार स्वतः प्रकट हो जाते हैं ।
(२) ‘साधुभावे च सदित्येतत्ययुज्यते’‒अन्तःकरणके श्रेष्ठ भावोंको ‘साधुभाव’ कहते हैं । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे श्रेष्ठ भावोंके लिये ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है । श्रेष्ठ भाव अर्थात् सद्‌गुण-सदाचार दैवी सम्पत्ति है । ‘देव’ नाम भगवान्‌का है और उनकी सम्पत्ति ‘दैवी सम्पत्ति’ कहलाती है । भगवान्‌की सम्पत्तिको अपनी माननेसे अथवा अपने बलसे उपार्जित माननेसे अभिमान आ जाता है, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है । अभिमानकी छायामें सभी दुर्गुण-दुराचार रहते हैं ।
सद्‌गुण-सदाचार किसीकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है । अगर ये व्यक्तिगत होते तो एक व्यक्तिमें जो सद्‌गुण-सदाचार हैं, वे दूसरे व्यक्तियोंमें नहीं आते । वास्तवमें ये सामान्य धर्म हैं, जिनको मनुष्यमात्र धारण कर सकता है । जैसे पिता की सम्पत्तिपर सन्तानमात्र का अधिकार होता है, ऐसे ही भगवान्‌ की सम्पत्ति (सद्‌गुण-सदाचार) पर प्राणिमात्र का समान अधिकार है ।
अपने में सद्‌गुण-सदाचार होने का जो अभिमान आता है, वह वास्तवमें सद्‌गुण-सदाचारकी कमीसे अर्थात् उसके साथ आंशिकरूपसे रहनेवाले दुर्गुण-दुराचारसे ही पैदा होता है । जैसे, सत्य बोलनेका अभिमान तभी आता है; जब सत्यके साथ आंशिक असत्य रहता है । सत्यकी पूर्णतामें अभिमान आ ही नहीं सकता । असत्य साथमें रहनेसे ही सत्यकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । जैसे, किसी गाँवमें सब निर्धन हों और एक लखपति हो तो उस लखपतिकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । परन्तु जिस गाँवमें सब-के-सब करोडपति हों, वहाँ लखपतिकी महिमा नहीं दीखती और उसका अभिमान नहीं आता । तात्पर्य है कि अपनेमें विशेषता दीखनेसे ही अभिमान आता है । अपनेमें विशेषता दीखना परिच्छिन्नताको पुष्ट करता है ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


कर्म फल भोग में परतन्त्रता



***ॐ जय श्री हरि:***
कर्म फल भोग में परतन्त्रता
कर्म बंधन में जकडा हुआ यह अखिल जगत् परिवर्तनशील तो है ही, जीव को नीच योनियों में भी जाना पड़ता है | यदि जीव कर्म-परतंत्र न होकर स्वतंत्र होता तो यह परिस्थिति सामने क्यों आती ! भला, स्वर्ग में रहने और अनेक प्रकार के सुख भोगने की सुविधा को छोड़कर विष्ठा एवं मूत्र के भण्डार में भयभीत होकर रहना कौन चाहता है ? त्रिलोकी में गर्भवास से बढ़कर दूसरा कोई नरक नहीं है | गर्भवास से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या में तत्पर हो जाते हैं | गर्भ में कीड़े काटते हैं | नीचे से जठराग्नि ताप पहुंचाती है | निर्दयतापूर्वक बंधे रहना पड़ता है | गर्भ से बाहर निकलते समय भी वैसे ही कठिन परिस्थिति सामने आती है; क्योंकि निकलने का मार्ग जो योनियंत्र है, वह स्वयं दारुण है | फिर बचपन में नाना प्रकार के दारुण दु:ख भोगने पड़ते हैं | विवेकी पुरुष किस सुख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा कर सकते हैं; परन्तु देवता, मनुष्य एवं पशु आदि का शरीर धारण करके किये हुए अच्छे-बुरे कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | तप यज्ञ और दान के प्रभाव से मनुष्य इंद्र बन सकता है और पुण्य समाप्त हो जाने पर इन्द्र भी धरातल पर आते हैं | इसमें कोई संशय नहीं है !
.....(महर्षि व्यास)
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के पुनर्जन्मांक से)


कर्म फल भोग में परतन्त्रता



***ॐ जय श्री हरि:***
कर्म फल भोग में परतन्त्रता
कर्म बंधन में जकडा हुआ यह अखिल जगत् परिवर्तनशील तो है ही, जीव को नीच योनियों में भी जाना पड़ता है | यदि जीव कर्म-परतंत्र न होकर स्वतंत्र होता तो यह परिस्थिति सामने क्यों आती ! भला, स्वर्ग में रहने और अनेक प्रकार के सुख भोगने की सुविधा को छोड़कर विष्ठा एवं मूत्र के भण्डार में भयभीत होकर रहना कौन चाहता है ? त्रिलोकी में गर्भवास से बढ़कर दूसरा कोई नरक नहीं है | गर्भवास से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या में तत्पर हो जाते हैं | गर्भ में कीड़े काटते हैं | नीचे से जठराग्नि ताप पहुंचाती है | निर्दयतापूर्वक बंधे रहना पड़ता है | गर्भ से बाहर निकलते समय भी वैसे ही कठिन परिस्थिति सामने आती है; क्योंकि निकलने का मार्ग जो योनियंत्र है, वह स्वयं दारुण है | फिर बचपन में नाना प्रकार के दारुण दु:ख भोगने पड़ते हैं | विवेकी पुरुष किस सुख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा कर सकते हैं; परन्तु देवता, मनुष्य एवं पशु आदि का शरीर धारण करके किये हुए अच्छे-बुरे कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | तप यज्ञ और दान के प्रभाव से मनुष्य इंद्र बन सकता है और पुण्य समाप्त हो जाने पर इन्द्र भी धरातल पर आते हैं | इसमें कोई संशय नहीं है !
.....(महर्षि व्यास)
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के पुनर्जन्मांक से)


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०३)



|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०३)
यह सत्-तत्त्व ही सद्‌गुणों और सदाचारका मूल आधार है । अतः उपर्युक्त सत् शब्दका थोड़ा विस्तारसे विचार करें ।
(१) ‘सद्भावे’‒सद्भाव कहते हैं‒परमात्माके अस्तित्व या होनेपनको । प्रायः सभी आस्तिक यह बात तो मानते ही हैं कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति सदासे है और वह अपरिवर्तनशील है । जो संसार प्रत्यक्ष प्रतिक्षण बदल रहा है, उसे ‘है’ अर्थात् स्थिर कैसे कहा जाय ? यह तो नदीके जलके प्रवाहकी तरह निरन्तर बह रहा है । जो बदलता है, वह ‘है’ कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि इन्द्रियों, बुद्धि आदिसे जिसको जानते, देखते हैं, वह संसार पहले नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी जा रहा है‒यह सभीका अनुभव है । फिर भी आश्चर्य यह है कि ‘नहीं’ होते हुए भी वह ‘है’ के रूपमें स्थिर दिखायी दे रहा है । ये दोनों बातें परस्पर सर्वथा विरुद्ध हैं । वह होता, तब तो बदलता नहीं और बदलता है तो ‘है’ अर्थात् स्थिर नहीं । इससे सिद्ध होता है कि यह ‘होनापन’ संसार-शरीरादिका नहीं है, प्रत्युत सत्-तत्त्व (परमात्मा) का है, जिससे नहीं होते हुए भी संसार ‘है’ दीखता है । परमात्माके होनेपनका भाव दृढ़ होनेपर सदाचारका पालन स्वतः होने लगता है ।
भगवान् हैं‒ऐसा दृढ़तासे माननेपर न पाप, अन्याय, दुराचार होंगे और न चिन्ता, भय आदि ही । जो सच्चे हृदयसे सर्वत्र परमात्माकी सत्ता मानते हैं, उनसे पाप हो ही कैसे सकते हैं ?[1] परम दयालु, परम सुहद् परमात्मा सर्वत्र हैं, ऐसा माननेपर न भय होगा और न चिन्ता होगी । भय लगने अथवा चिन्ता होनेपर ‘मैंने भगवान्‌को नहीं माना’‒इस प्रकार विपरीत धारणा नहीं करनी चाहिये, किंतु भगवान्‌के रहते चिन्ता, भय कैसे आ सकते हैं‒ऐसा माने । दैवी सम्पत्ति (सदाचार) के छब्बीस लक्षणोंमें प्रथम ‘अभय’ है (गीता १६ । १) ।
[1] जो व्यक्ति भगवान्‌को भी मानता हो और असत्-आचरण (दुराचार) भी करता हो, उसके द्वारा असत्-आचरणोंका विशेष प्रचार होता है, जिससे समाजका बड़ा नुकसान होता है । कारण कि जो व्यक्ति भीतरसे भी बुरा हो और बाहरसे भी बुरा हो, उससे बचना बड़ा सुगम होता है; क्योंकि उससे दूसरे लोग सावधान हो जाते हैं । परन्तु जो व्यक्ति भीतरसे बुरा हो और बाहरसे भला बना हो, उससे बचना बड़ा कठिन होता है । जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्‌जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्‌जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उनका वेश साधुओंका था ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)



|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)
भगवान् घोषणा करते हैं‒
“अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥“
(गीता ९ । ३०)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’
तात्पर्य है कि बाहर से साधु न दीखने पर भी उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने यह पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मेरे को केवल भजन ही करना है । स्वयं का निश्चय होने के कारण वह किसी प्रकार के प्रलोभन से अथवा विपत्ति आने पर भी अपने ध्येय से विचलित नहीं किया जा सकता ।
साधक तभी अपने ध्येय-लक्ष्यसे विचलित होता है, जब वह असत्‒संसार और शरीरको ‘है’ अर्थात् सदा रहनेवाला मान लेता है । असत्‌की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी भूलसे मनुष्यने उसे सत् मान लिया और भोग-संग्रहकी ओर आकृष्ट हो गया । अतः असत्‒संसार, शरीर, परिवार, रुपये-पैसे, जमीन, मान, बड़ाईसे विमुख होकर (इन्हें अपना मानकर इनसे सुख न लेकर और सुख लेनेकी इच्छा न रखकर) इनका यथायोग्य सदुपयोग करना है तथा सत्‌-तत्त्व (परमात्मा) को ही अपना मानना है । श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार असत् (संसार) की सत्ता नहीं है और सत्-तत्त्व (परमात्मा) का अभाव नहीं है‒
“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.......... (२ । १६)
जिस वास्तविक तत्त्वका कभी अभाव अथवा नाश नहीं होता, उसका अनुभव हम सबको हो सकता है । हमारा ध्यान उस तत्त्वकी ओर न होनेसे ही वह अप्राप्त-सा हो रहा है । उस सत्-तत्त्वका विवेचन गीतामें भगवान्‌ने पाँच प्रकारसे किया है ।
(१) सद्भावे (१७ । २६)
(२) साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
(३) प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
(१७ । २६)
(४) यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
(१७ । २७)
(५) कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
(१७ । २७)
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...