गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’ .....(स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित)






||ॐश्रीपरमात्मने नम:||

प्रश्नोत्तरी  

(स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’)

वक्तव्य

श्रीस्वामी शंकराचार्य जी की  प्रश्नोत्तर-मणिमाला बहुत ही उपादेय पुस्तिका है  | इसके प्रत्येक प्रश्न और उत्तर पर  मनन पूर्वक विचार करना आवश्यक है | संसार में स्त्री, धन और पुत्रादि पदार्थों के कारण ही मनुष्य विशेष रूप से बन्धन में रहता है, इन पदार्थों से वैराग्य होने में ही कल्याण है, यही समझकर उन्होंने स्त्री, धन और पुत्रादि की निन्दा की है | स्त्री के लिए  विशेष जोर देने का कारण भी स्पष्ट है | धन, पुत्रादि छोडने वाले भी प्राय: स्त्रियों में आसक्त देखे जाते हैं, वास्तव में यह दोष स्त्रियों का नहीं है, यह दोष तो पुरुषों के बिगड़े हुए मन का है; परन्तु मन बड़ा चंचल है, इसलिए संन्यासियों  को स्त्रियों से हर तरह से अलग ही रहना चाहिए | जान पड़ता है कि यह पुस्तिका खासकर संन्यासियों के लिए ही लिखी गयी थी | इसमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो सभी के काम की हैं | अत: उनसे हम लोगों को पूरा लाभ उठाना चाहिए  | स्त्री, पुत्र, धन आदि संसार के सभी पदार्थों से यथासाध्य ममता का त्याग करना आवश्यक है |


अपार संसार समुद्र मध्ये
निमज्जतो मे शरणं किमस्ति ।
गुरो कृपालो कृपया वदैत-
द्विश्वेश पादाम्बुज दीर्घ नौका ॥ १॥

प्रश्न :- हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसाररूपी समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है ?

उत्तर :- विश्वपति परमात्मा के चरणकमलरूपी जहाज |



बद्धो हि को यो विषयानुरागी
को वा विमुक्तो विषये विरक्तः ।
को वाऽस्ति घोरो नरकः स्वदेह-
स्तृष्णाक्षयः स्वर्ग पदं किमस्ति ॥ २॥

प्रश्न :- वास्तव में बँधा कौन है  ?

उत्तर:- जो विषयों में आसक्त है |

प्रश्न :- विमुक्ति क्या है?

उत्तर:- विषयों से वैराग्य |

प्रश्न :- घोर नरक क्या है ?

उत्तर:- अपना शरीर |

प्रश्न :- स्वर्ग का पद क्या है ?

उत्तर:- तृष्णा का नाश होना |



संसार हृत्क:श्रुतिजात्म बोधः
को मोक्ष हेतुः कथितः स एव ।
द्वारं किमेकं नरकस्य नारी
का स्वर्गदा प्राणभृतामहिंसा ॥ ३॥

प्रश्न :- संसार को हरने वाला कौन है ?

उत्तर:- वेद से उत्पन्न आत्मज्ञान |

प्रश्न :- मोक्ष का कारण क्या कहा गया है ?

उत्तर:- वही आत्मज्ञान |

प्रश्न :- नरक का प्रधान द्वार क्या है ?

उत्तर:- नारी |

स्वर्ग को देने वाली क्या है ?

उत्तर:- जीवमात्र की अहिंसा |


शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो
जागर्ति को वा सदसद्विवेकी ।
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि
तान्येव मित्राणि जितानि कानि ॥ ४॥

प्रश्न :- (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ?

उत्तर:- जो परमात्मा के स्वरूप में स्थित है |

प्रश्न :- और कौन जगता है ?

उत्तर:- सत् और असत् के तत्त्व का जानने वाला |

प्रश्न :- शत्रु कौन हैं ?

उत्तर:- अपनी इन्द्रियाँ; परन्तु जो जीती हुई हों तो वही मित्र हैं |



को वा दरिद्रो हि विशाल तृष्णः
श्रीमांश्च को यस्य समस्ति तोषः ।
जीवन्मृतो कस्तु निरुद्यमो यः
कोवाऽमृतः स्यात्सुखदा निराशा ॥ ५॥

प्रश्न :- दरिद्र कौन है ?

उत्तर:- भरी तृष्णा वाला |

प्रश्न :- और धनवान् कौन है ?

उत्तर:- जिसे सब तरह से संतोष है |

प्रश्न :- (वास्तव में) जीते-जी मरा कौन है ?

उत्तर:- जो पुरुषार्थहीन है |

प्रश्न :- और अमृत क्या हो सकता है ?

उत्तर:- सुख देने वाली निराशा (आशा से रहित होना)



पाशो हि को यो ममताभिधानः
संमोहयत्येव सुरेव का स्त्री ।
को वा महान्धो मदनातुरो यो
मृत्युश्च को वापयशः स्वकीयम् ॥ ६॥

प्रश्न :- वास्तव में फाँसी क्या है ?

उत्तर:- जो  ‘मैं’  और ‘मेरापन’  है |

प्रश्न :- मदिरा की तरह क्या चीज निश्चय ही मोहित कर देती है ?

उत्तर:- नारी ही |

प्रश्न : - और बड़ा भारी अन्धा कौन है ?

उत्तर:-जो कामवश व्याकुल है |

प्रश्न :- मृत्यु क्या है ?

उत्तर:- अपनी अपकीर्ति |



को वा गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा
शिष्यस्तु को यो गुरु भक्त एव ।
को दीर्घ रोगो भव एव साधो
किमौषधिं तस्य विचार एव ॥ ७॥

प्रश्न :- गुरु कौन है ?

उत्तर:-जो केवल हित का ही उपदेश करने वाला है |

प्रश्न :- शिष्य कौन है ?

उत्तर:-जो गुरु का भक्त है वही |

प्रश्न :-  बड़ा भारी रोग क्या है ?

उत्तर:- हे साधो ! बार-बार जन्म लेना ही  |

प्रश्न :- उसकी दवा क्या है ?

उत्तर:-परमात्मा के स्वरूप का मनन ही |



किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं
तीर्थं परं किं स्वमनो विशुद्धम् ।
किमत्र हेयं कनकं च कान्ता
श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यम् ॥ ८॥

प्रश्न :- भूषणों में उत्तम भूषण क्या है ?

उत्तर :- उत्तम चरित्र |

प्रश्न :- सबसे उत्तम तीर्थ क्या है ?

उत्तर:- अपना मन जो विशेषरूप से शुद्ध किया हो |

प्रश्न :- इस संसार में त्यागने योग्य क्या है ?

उत्तर:- काञ्चन और कामिनी  |

प्रश्न :- सदा(मन लगाकर) सुनने योग्य क्या है ?

उत्तर:- वेद और गुरु का वचन |



के हेतवो ब्रह्म गतेस्तु सन्ति
सत्सङ्गतिर्दानविचार तोषाः ।
के सन्ति सन्तोऽखिल वीतरागा
अपास्तमोहाः शिवतत्त्वनिष्ठाः ॥ ९॥

प्रश्न :- परमात्मा की प्राप्ति के क्या क्या साधन हैं ?

उत्तर:- सत्संग, सात्त्विक दान, परमेश्वर के स्वरूप का मनन और संतोष |

प्रश्न :- महात्मा कौन हैं ?

उत्तर:- सम्पूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति  नष्ट हो गयी है, जिनका अज्ञान  नाश हो चुका है और जो कल्याणरूप परमात्म-तत्त्व में स्थित हैं |



को वा ज्वरः प्राणभृतां हि चिन्ता
मूर्खोऽस्ति को यस्तु विवेकहीनः ।
कार्या मया का शिव विष्णु भक्तिः
किं जीवनं दोष विवर्जितं यत् ॥ १०॥

प्रश्न :- प्राणियों के लिए वास्तव में ज्वर क्या है ?

उत्तर:- चिंता |

प्रश्न :- मूर्ख कौन है ?

उत्तर:- जो विचारहीन है |

प्रश्न :- करने योग्य प्यारी क्रिया क्या है ?

उत्तर:- शिव और विष्णु की भक्ति |

प्रश्न :- वास्तव में जीवन कौन सा है ?

उत्तर:- जो सर्वथा निर्दोष है |



विद्या हि का ब्रह्म गति प्रदा या
बोधो हि को यस्तु विमुक्ति हेतुः ।
को लाभ आत्मावगमो हि यो वै
जितं जगत् केन मनो हि येन ॥ ११॥

प्रश्न :- वास्तव में विद्या कौन सी है ?

उत्तर:- जो परमात्मा को प्राप्त करा देने वाली है |

प्रश्न :- वास्तविक ज्ञान क्या है ?

उत्तर:- जो (यथार्थ) मुक्ति का कारण है |

प्रश्न :- यथार्थलाभ क्या है ?

उत्तर:- जो परमात्मा की प्राप्ति है वही |

प्रश्न :- जगत को किसने जीता ?

उत्तर:- जिसने मन को जीता |



शूरान्महा शूरतमोऽस्ति को वा
मनोज बाणैर्व्यथितो न यस्तु ।
प्राज्ञोतिधीरश्च समस्तु को वा
प्राप्तो न मोहं ललना कटाक्षैः ॥ १२॥

प्रश्न :- वीरों में सबसे बड़ा वीर कौन है ?

उत्तर:- जो कामबाणों से पीड़ित नहीं होता |

प्रश्न :- बुद्धिमान्, समदर्शी और धीर पुरुष कौन है ?

उत्तर:- जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोह को प्राप्त न हो |



विषाद्विषं किं विषयाः समस्ता
दुःखी सदा को विषयानुरागी ।
धन्योऽस्ति को यस्तु परोपकारी
कः पूजनीयो शिवतत्त्वनिष्ठः ॥ १३॥

प्रश्न :-  विष से भी भारी विष क्या है ?

उत्तर:- सारे विषयभोग |

प्रश्न :- सदा दु:खी कौन है ?

उत्तर:- जो संसार के भोगों में आसक्त है |

प्रश्न :- और धन्य कौन है ?

उत्तर:-  जो परोपकारी है |

प्रश्न :- पूजनीय कौन है ?

उत्तर:- कल्याणरूप परमात्मतत्त्व में स्थित महात्मा |




सर्वास्ववस्थास्वपि किं न कार्यं
किंवा विधेयं विदुषा प्रयत्नात् ।
स्नेहं च  पापं पठनं च धर्मः
संसारमूलं हि किमस्ति चिन्ता ॥ १४॥

प्रश्न :- सभी अवस्थाओं में विद्वानों को बड़े जतन से क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए ?

उत्तर:- संसार से स्नेह और पाप नहीं करना तथा सद्ग्रन्थों  का पठन और धर्म का पालन करना चाहिए |

प्रश्न :- संसार की जड़ क्या है ?

उत्तर:- (उसका ) चिन्तन ही |



विज्ञान्महाविज्ञतमोऽस्ति को वा
नार्या पिशाच्या न च वञ्चितो यः ।
का शृङ्खला प्राणभृतां हि  नारी
दिव्यं व्रतं किं च समस्त दैन्यम् ॥ १५॥

प्रश्न :- समझदारों में सबसे अच्छा समझदार कौन है ?

उत्तर:- जो स्त्रीरूप पिशाचिनी से नहीं ठगा गया है |

प्रश्न :- प्राणियों के लिए साँकल क्या है ?

उत्तर:- नारी ही |

प्रश्न :- श्रेष्ठ व्रत क्या है ?

उत्तर:- पूर्णरूप से विनयभाव |




ज्ञातुं न शक्यं हि किमस्ति सर्वै-
र्योषिन्मनो यच्चरितं तदीयम् ।
का दुस्त्यजा सर्वजनैर्दुराशा
विद्याविहीनः पशुरस्ति को वा ॥ १६॥

प्रश्न :- सब किसी के लिये क्या जानना सम्भव नहीं है ?

उत्तर:- स्त्री का मन और उसका चरित्र |

प्रश्न:- सब लोगों के लिए क्या त्यागना अत्यंत कठिन है ?

उत्तर:- बुरी वासना (विषयभोग और पाप की इच्छाएं)

प्रश्न :- पशु कौन है ?

उत्तर:- जो सद्विद्या से रहित (मूर्ख) है |



वासो न सङ्गः सह कैर्विधेयो
मूर्खैश्च नीचैश्च खलैश्च पापैः ।
मुमुक्षुणा किं त्वरितं विधेयं
सत्सङ्गतिर्निर्ममतेश भक्तिः ॥ १७॥

प्रश्न :- किन किन के साथ निवास और संग नहीं करना चाहिए ?

उत्तर:- मूर्ख, नीच, दुष्ट और पापियों के साथ |

प्रश्न :- मुक्ति चाहने वालों को तुरंत क्या करना चाहिए ?

उत्तर:- सत्संग, ममता का त्याग और परमेश्वर की भक्ति |



लघुत्व मूलं च किमर्थितैव
गुरुत्व बीजं यदयाचनं किम् ।
जातो हि  को यस्य पुनर्न जन्म
को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः ॥ १८॥

प्रश्न :- छोटेपन की जड़  क्या है ?

उत्तर:- याचना ही |

प्रश्न :- बड़प्पन की जड़ क्या है ?

उत्तर:- कुछ भी न मांगना |

प्रश्न :- किसका जन्म सराहनीय है ?

उत्तर:- जिसका फिर जन्म न हो |

प्रश्न :- किसकी मृत्यु सराहनीय है ?

उत्तर:- जिसकी फिर मृत्यु नहीं होती |



मूकोऽस्ति को वा बधिरश्च को वा
वक्तुं न युक्तं समये समर्थः ।
तथ्यं सुपथ्यं न शृणोति वाक्यं
विश्वासपात्रं न किमस्ति नारी ॥ १९॥

प्रश्न :- गूंगा कौन है ?

उत्तर:- जो  समय पर उचित वचन कहने में समर्थ नहीं है |

प्रश्न :-  और बहिरा कौन है ?

उत्तर:- जो यथार्थ और हितकर वचन नहीं सुनता |

प्रश्न :- विश्वास के योग्य कौन नहीं है ?

उत्तर:- नारी |



तत्त्वं किमेकं शिवमद्वितीयं
किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति ।
त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव सम्यग्
देयं परं किं त्वभयं सदैव ॥ २०॥

प्रश्न :- एक तत्त्व क्या है ?

उत्तर:- अद्वितीय कल्याण-तत्त्व(परमात्मा) |

प्रश्न :- सबसे उत्तम क्या है ?

उत्तर:- जो उतम आचरण है |

प्रश्न :- कौन सा सुख तज देना चाहिए ?

उत्तर:- सब प्रकार से स्त्री सुख ही |

प्रश्न :- देने योग्य उत्तम दान क्या है ?

उत्तर:- सदा अभय ही |


शत्रोर्महाशत्रु तमोऽस्ति को वा
कामःसकोपानृत लोभतृष्णः ।
न पूर्यते को विषयैः स एव
किं दुःखमूलं ममताभिधानम् ॥ २१॥

प्रश्न :- शत्रुओं में सबसे बड़ा भारी शत्रु कौन है ?

उत्तर:- क्रोध, झूठ, लोभ और तृष्णासहित काम |

प्रश्न :- विषयभोगों से कौन तृप्त नहीं होता ?

उत्तर:- वही काम |

प्रश्न :- दु:ख की जड़ क्या है ?

उत्तर:- ममता नामक दोष |



किं मण्डनं साक्षरता मुखस्य
सत्यं च किं भूतहितं सदैव ।
किं कर्म कृत्वा न हि शोचनीयं ।
कामारि कंसारि समर्चनाख्यम् ॥ २२॥

प्रश्न :- मुख का भूषण क्या है ?

उत्तर:- विद्वत्ता |

प्रश्न :- सच्चा कर्म क्या है ?

उत्तर:- सदा ही प्राणियों का हित करना |

प्रश्न :-  कौन सा कर्म करके पछताना नहीं पड़ता ?

उत्तर:- भगवान् श्रीकृष्ण और शिव का पूजनरूप कर्म |



कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्षः
क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ ।
शल्यं परं किं निज मूर्खतैव
के के ह्युपास्या गुरुदेववृद्धाः ॥ २३॥

प्रश्न :- किसके नाश में मोक्ष है ?

उत्तर:-मन के ही |

प्रश्न : - किसमें सर्वथा भय नहीं है ?

उत्तर:- मोक्ष में |

प्रश्न :- सबसे अधिक चुभने वाली चीज कौन चीज है ?

उत्तर:- अपनी मूर्खता ही |

प्रश्न :- उपासना योग्य कौन कौन हैं ?

उत्तर:- देवता, गुरु और वृद्ध |


उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते
किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात् ।
वाक्कायचित्तैः सुखदं यमघ्नं
मुरारि पादाम्बुजचिन्तनं च  ॥ २४॥

प्रश्न :- प्राण हरने वाले काल के उपस्थित होने पर अच्छी बुद्धि वालों को बड़े जतन से तुरंत क्या     करना चाहिए ?

उत्तर:-  सुख देने वाले और मृत्यु का नाश करने वाले भगवान् मुरारि के चरण-कमलों का तन, मन, वचन से चिन्तन करना |

के दस्यवः सन्ति कुवासनाख्याः
कः शोभते यः सदसि प्रविद्यः ।
मातेव का या सुखदा सुविद्या
किमेधते दान वशात्सुविद्या ॥ २५॥

प्रश्न :- डाकू कौन है ?

उत्तर:- बुरी वासनाएं |

प्रश्न :- सभा में शोभा कौन पाता  है ?

उत्तर:-जो अच्छा विद्वान है |

प्रश्न :- माता के समान सुख देने वाली कौन है ?

उत्तर:-उत्तम विद्या |

प्रश्न :- देने से क्या बढ़ती है ?

उत्तर:-अच्छी विद्या |


कुतो हि भीतिः सततं विधेया
लोकापवादाद्भव काननाच्च ।
को वातिबन्धुः पितरश्च के वा
विपत्सहायः परिपालका ये ॥ २६॥

प्रश्न :- निरन्तर किससे डरना चाहिए ?

उत्तर:-लोकनिन्दा से और संसार रूपी वन से |

प्रश्न :- अत्यंत प्यारा बन्धु कौन है ?

उत्तर:-जो विपत्ति में सहायता करे  |

प्रश्न :- और पिता कौन है ?

उत्तर:-जो सब प्रकार से पालन-पोषण करे |



बुद्ध्वा न बोध्यं परिशिष्यते किं
शिवप्रसादं सुख बोध रूपम् ।
ज्ञाते तु कस्मिन् विदितं जगत्स्या-
त्सर्वात्मके ब्रह्मणि पूर्ण रूपे ॥ २७॥

प्रश्न :- क्या समझने के बाद कुछ भी समझना बाकी नहीं रहता ?

उत्तर:-शुद्ध विज्ञान, आनन्दघन कल्याणरूप परमात्मा को |

प्रश्न :- किसको जान लेने पर (वास्तव में) जगत् जाना जाता है  ?

उत्तर:-सर्वात्मरूप परिपूर्ण ब्रह्म के स्वरूप को |



किं दुर्लभं सद्गुरुरस्ति लोके
सत्सङ्गतिर्ब्रह्म विचारणा च ।
त्यागो हि सर्वस्य निजात्म बोधः
को  दुर्जयः सर्व जनैर्मनोजः ॥ २८॥

प्रश्न :- संसार में दुर्लभ क्या है ?

उत्तर:-सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्म-विचार, सर्वस्व का त्याग और कल्याणरूप परमात्मा का ज्ञान  |

प्रश्न :- सब के लिए क्या जीतना कठिन है ?

उत्तर:-कामदेव |



पशोः पशुः को न करोति धर्मं
प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः ।
किं तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री
के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः ॥ २९॥

प्रश्न :- पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ?

उत्तर:-शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ |

प्रश्न :- वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है  ?

उत्तर:- नारी |

प्रश्न :- शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ?

उत्तर:-पुत्र आदि |


|
विद्युच्चलं किं धन यौवनायु-
र्दानं परं किं च सुपात्रदत्तम् ।
कण्ठंगतेरप्यसुभिर्न कार्यं
किं किं विधेयं मलिनं शिवार्चा ॥ ३०॥

प्रश्न :- बिजली की तरह क्षणिक क्या है ?

उत्तर:-धन, यौवन और आयु |

प्रश्न :- सबसे उतम दान कौन सा है ?

उत्तर:-जो सुपात्र को दिया जाये |

प्रश्न :- कंठगत प्राण होने पर भी क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए ?

उत्तर:-पाप नहीं करना चाहिए और कल्याणरूप परमात्मा की पूजा करनी चाहिए |



अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं
संसार मिथ्यात्वशिवात्म तत्त्वम् ।
किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः
क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ ॥ ३१॥

प्रश्न :- रात-दिन विशेषरूप से रूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?

उत्तर:-संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व  |

प्रश्न :- वास्तव में कर्म क्या है ?

उत्तर:-जो भगवान् श्रीकृष्ण को प्रिय हो |

प्रश्न :- सदैव किस में  विश्वास नहीं करना चाहिए  ?

उत्तर:-संसार-समुद्र में |

कण्ठं गता वा श्रवणं गता वा
प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला ।
तनोतु मोदं विदुषां सुरम्यं
रमेश गौरीशकथेव  सद्य: ॥ ३२॥

( यह प्रश्नोत्तर नाम के मणिरत्नमाला कंठ में या कानों में जाते ही लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु  और उमापति भगवान् शंकर की कथा की तरह विद्वानों के सुन्दर आनन्द को बढ़ावे )

जय श्री हरि !!!!
                                    -----------------------



॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

अवगुणोंको छोड़नेसे लाभ होता है, गुणोंको धारण करनेसे लाभ होता है और तात्त्विक बातोंको समझनेसे लाभ होता है । अपनी कमीका पता लगे तो उसका त्याग करना है, कोई अच्छी बात मिले तो उसको ग्रहण करना है, कोई तात्त्विक बात मिले तो उसको ठीक तरहसे समझना है ऐसी लगन लोगोंमें कम दीखती है । जैसे खेतको पहले साफ करते हैं, फिर उसमें बीज डालते हैं तो खेती बढ़िया होती है,  ऐसे ही दुर्गुण-दुराचारका त्याग और सद्‌गुण-सदाचारका ग्रहण करके अन्तःकरण शुद्ध किया जाय,  फिर तात्त्विक बातोंको समझा जाय तो बहुत जल्दी उन्नति होती है । जल्दी और सुगमतासे परमात्माकी प्राप्ति हो जाय ऐसी मेरी एक धुन है । मेरेको ऐसी बातें मिली हैं, जिनसे मनुष्य बहुत जल्दी उन्नति कर सकता है । परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है,  खराब आदतको छोड़नेमें कठिनता होती है ।

-        परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज




बुधवार, 13 दिसंबर 2017

उद्धार का सुगम उपाय..(01)


||ॐ श्री परमात्मने नम: ||

उद्धार का सुगम उपाय..(01)

सत्ययुग, त्रेता, द्वापरमें आदमी शुद्ध होते थे, पवित्र होते थे, वे विधियाँ जानते थे, उन्हें ज्ञान होता था, समझ होती थी, उनकी आयु बड़ी होती थी । कलियुगके आनेपर इन सब बातों की कमी आ गयी, इसलिये जीवों के उद्धार के लिये बहुत सुगम उपाय बता दिया ।

कलियुग केवल नाम अधारा ।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहिं पारा ॥
संसार से पार होना चाहते हो तो नाम का जप करो ।
“जुगति बताओ जालजी राम मिलनकी बात ।
मिल जासी ओ मालजी थे राम रटो दिन रात ॥“

रात-दिन भगवान्‌ के नाम का जप करते चले जाओ । हरिरामदास जी महाराज भी कहते हैं ‒

“जो जिव चाहे मुकुतिको तो सुमरिजे राम ।
हरिया गेले चालतां जैसे आवे गाम ॥“

जैसे रास्ते चलते-चलते गाँव पहुँच ही जाते हैं, ऐसे ही ‘राम-राम’ करते-करते भगवान् आ ही जाते हैं, भगवान्‌ की प्राप्ति अवश्य हो जाती है । इसलिये यह ‘राम’ नाम बहुत ही सीधा और सरल साधन है ।

“रसनासे रटबो करे आठुं पहर अभंग ।
रामदास उस सन्त का राम न छाड़े संग ॥“

संत-महापुरुषों ने नाम को बहुत विशेषता से सबके लिये प्रकट कर दिया, जिससे हर कोई ले सके; परंतु लोगोंमें प्रायः एक बात हुआ करती है कि जो वस्तु ज्यादा प्रकट होती है, उसका आदर नहीं करते हैं । ‘अतिपरिचयादवज्ञा’‒अत्यधिक प्रसिद्धि हो जानेसे उसका आदर नहीं होता । नामकी अवज्ञा करने लग जाते हैं कि कोरा ‘राम-राम’ करनेसे क्या होता है ? ‘राम-राम’ तो हरेक करता है । टट्टी फिरते बच्चे भी करते रहते हैं । इसमें क्या है ! ऐसे अवज्ञा कर देते हैं ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
यदि आपको परम गतिकी इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवतके आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये ॥ ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ‘ॐनमो भगवते वासुदेवाय’—यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्यभगवान्‌, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्रिहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान्‌ पुरुषोत्तम—इन सबमें बुद्धिमान् लोग वस्तुत: कोई अन्तर नहीं मानते ॥ जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवत-शास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता है—इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका फल मिलता है ॥ नित्य भागवतका पाठ करना, भगवान्‌का चिन्तन करना, तुलसीको सींचना और गौकी सेवा करना—ये चारों समान हैं ॥ जो पुरुष अन्तसमयमें श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ उसे वैकुण्ठधाम देते हैं ॥ जो पुरुष इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्तको दान करता है, वह अवश्य ही भगवान्‌का सायुज्य प्राप्त करता है ॥
हरिः ॐ तत्सत्
(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ३|३३-४१)


जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 02)



*श्री परमात्मने नम:**
जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 02)
एक कथा आती है । एक सज्जनने एकादशीका व्रत किया । द्वादशीके दिन किसीको भोजन कराकर पारणा करना था, पर कोई मिला नहीं । वर्षा हो रही थी । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर एक बूढ़े साधु मिल गये । उनको भोजनके लिये घर बुलाया । उनको बैठाकर उनके सामने पत्तल परोसी तो वे चट खाने लग गये । उन सज्जनने कहा कि ‘महाराज, आपने भगवान्‌को भोग तो लगाया ही नहीं !’ वह साधु बोला कि ‘ भगवान्‌ क्या होता है ? तुम तो मूर्ख हो, समझते नहीं ।’ यह सुनते ही उन सज्जनने पत्तल खींच ली और बोला कि ‘भगवान्‌ कुछ नहीं होता तो तुम कौन होते हो ? हम भगवान्‌के नाते ही तो आपको भोजन कराते हैं ।’ उसी समय आकाशवाणी हुई कि ‘अरे ! मेरी निन्दा करते-करते यह साधु बूढ़ा हो गया, पर अभीतक मैं इसको भोजन दे रहा हूँ, तू एक समय भी भोजन नहीं दे सकता और मेरा भक्त कहलाता है ! अगर मैं भोजन न दूँ तो यह कितने दिन जीये ?’ आकाशवाणी सुनकर उनको बड़ी शर्म आयी और फिर उस साधुसे माफ़ी माँगकर उसको प्रेमपूर्वक भोजन कराया ।
ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं ॥
..............(विनयपत्रिका १६२)
ऐसे परम उदार भगवान्‌के रहते हुए हम दुःख पा रहे हैं और गुरुजी हमें सुखी कर देंगे, हमारा उद्धार कर देंगे‒ यह कितनी ठगाई है ! अपने उद्धारके लिये हम खुद तैयार हो जायँ, बस, इतनी ही जरूरत है ।
भगवान्‌ महान् दयालु हैं । वे सबके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध करते हैं तो क्या कल्याणका प्रबन्ध नहीं करेंगे ? इसलिये आप सच्चे- हृदयसे अपने कल्याणकी चाहना बढ़ाओ और भगवान्‌से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! मेरा कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय । मैं नहीं जानता कि कल्याण क्या होता है, पर मैं किसी भी जगह फँसूँ नहीं, सदाके लिये सुखी हो जाऊँ । हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ भगवान्‌ सच्चीस प्रार्थना अवश्य सुनते हैं‒
सच्चेह हृदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है ।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥
हमें अपने कल्याणकी जितनी चिन्ता है, उससे ज्यादा भगवान्‌को और सन्त-महात्माओंको चिन्ता है ! बच्चे को अपनी जितनी चिन्ता होती है, उससे ज्यादा माँको चिन्ता होती है, पर बच्चा! इस बातको समझता नहीं ।
हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
........... (मानस, उत्तरकाण्ड ४७/३)
जो सच्चे हृदयसे भगवान्‌की तरफ चलता है, उसकी सहायताके लिये सभी सन्त-महात्मा उत्कण्ठित रहते हैं । सन्तोंके हृदयमें सबके कल्याणके लिये अपार दया भरी हुई रहती है । बच्चा भूखा हो तो उसको अन्न देनेका भाव किसके मनमें नहीं आता ?
अगर कोई सच्चे हृदयसे अपना कल्याण चाहते है तो भगवान्‌ अवश्य उसका कल्याण करते हैं । भगवान्‌ समान हमारा हित करनेवाला गुरु भी नहीं है‒
उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
............. (मानस, किष्किन्धाकाण्ड १२/१)
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०७)



|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०७)

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् आज्ञा देते हैं‒

“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥“
............ (९ । २७)

‘हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ।’ यहाँ यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त ‘यत्करोषि’ और ‘यदश्रासि’‒ये दो क्रियाएँ और आयी हैं । तात्पर्य यह है कि यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त हम जो कुछ भी शास्त्र-विहित कर्म करते हैं और शरीर-निर्वाहके लिये खाना, पीना, सोना आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं, वे सब भगवान्‌के अर्पण करनेसे ‘सत्’ हो जाती हैं । साधारण-से-साधारण स्वाभाविक-व्यावहारिक कर्म भी यदि भगवान्‌के लिये किया जाय तो वह भी ‘सत्’ हो जाता है । भगवान् कहते हैं‒

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
..................(गीता १८ । ४६)

‘अपने स्वाभाविक कर्मोंके द्वारा उस परमात्माकी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’ जैसे, एक व्यक्ति प्राणियोंकी साधारण सेवा केवल भगवान्‌के लिये ही करता है और दूसरा व्यक्ति केवल भगवान्‌के लिये ही जप करता है । यद्यपि स्वरूपसे दो प्रकारकी छोटी-बड़ी क्रियाएँ दीखती हैं, परंतु दोनों (साधकों) का उद्देश्य परमात्मा होनेसे वस्तुतः उनमें किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं है; क्योंकि परमात्मा सर्वत्र समानरूपसे परिपूर्ण हैं । वे जैसे जप-क्रियामें हैं, वैसे ही साधारण सेवा-क्रियामें भी हैं ।

भगवान् ‘सत्’ स्वरूप हैं । अतः उनसे जिस किसीका भी सम्बन्ध होगा, वह सब ‘सत्’ हो जायगा । जिस प्रकार अग्निसे सम्बन्ध होनेपर लोहा, लकड़ी, ईंट, पत्थर, कोयला‒ये सभी एक-से चमकने लगते हैं, वैसे ही भगवान्‌के लिये ( भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे) किये गये छोटे-बड़े सब-के-सब कर्म ‘सत्’ हो जाते हैं, अर्थात् सदाचार बन जाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीतामें सदाचार-सूत्र[*] यही बतलाया गया है कि यदि मनुष्यका लक्ष्य (उद्देश्य) केवल सत् (परमात्मा) हो जाय तो उसके समस्त कर्म भी ‘सत्‌’ अर्थात्‌ सदाचाररूप ही हो जायँगे । अतएव सत्‌स्वरूप एवं सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन परमात्माकी ओर ही अपनी वृत्ति रखनी चाहिये, फिर सद्गुण, सदाचार स्वतः प्रकट होने लगेंगे ।

----------------------------------------
[*] यद्यपि गीता सर्वशास्त्रमयी है और उसमें सर्वत्र सदाचार की ही चर्चा है, फिर भी भगवान्‌ ने कृपा करके इतने छोटे से ग्रन्थ में अनेक प्रकार से कई स्थानों पर सदाचारी पुरुष के लक्षणों का विभिन्न रूपों में वर्णन किया है, जिनमें निम्नलिखित स्थल प्रमुख हैं‒(१) दूसरे अध्याय के ५५वें श्लोकसे ७१वें श्लोक तक स्थितप्रज्ञ-सदाचारी का वर्णन, (२) बारहवें अध्यायके १३वें श्लोक से २०वें श्लोक तक भक्तसदाचारी का वर्णन, (३) तेरहवें अध्याय के ७वें श्लोकसे ११वें श्लोक तक ज्ञान के नामसे सदाचार का वर्णन, (४) चौदहवें अध्यायके २२वें श्लोकसे २५वें श्लोकतक गुणातीत सदाचारी के लक्षण-आचरण और प्राप्ति के उपाय का वर्णन और (५) सोलहवें अध्याय के पहले श्लोकसे तीसरे श्लोकतक दैवी (भगवान्‌की) सम्पत्तिरूप सदाचार का वर्णन ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०६)


|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०६)
(४) ‘यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते’ (गीता १७ । २७)‒‘यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’‒कही जाती है ।’ सदाचारमें यज्ञ, दान और तप‒ये तीनों प्रधान हैं; किंतु इनका सम्बन्ध भगवान्‌से होना चाहिये । यदि इन (यज्ञादि) में मनुष्यकी दृढ़ स्थिति (निष्ठा) हो जाय तो स्वप्नमें भी उसके द्वारा दुराचार नहीं हो सकता । ऐसे दृढ़निश्रयी सदाचारी पुरुषके विषयमें ही कहा गया है‒
“निष्पीडितोऽपि मधु ह्युद्गमतीक्षुदण्डः ।“
‘ईखको पेरनेपर भी उसमेंसे मीठा रस ही प्राप्त होता है ।’
(५) ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता १७ । २७)‒‘उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‒ऐसे कहा जाता है ।’ अपना कल्याण चाहनेवाला निषिद्ध आचरण कर ही नहीं सकता । जबतक अपने जाननेमें आनेवाले दुर्गुण-दुराचारका त्याग नहीं करता, तबतक वह चाहे कितनी ज्ञान-ध्यानकी ऊँची-ऊँची बातें बनाता रहे, उसे सत्-तत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता । निषिद्ध और विहित कर्मोंके त्याग-ग्रहणके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
“तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
..........(गीता १६ । २४)
‘इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’ विहित कर्म करनेकी अपेक्षा निषिद्धका त्याग श्रेष्ठ है । निषिद्ध आचरणके त्यागके बाद जो भी क्रियाएँ होंगी, वे सब भगवदर्थ होनेपर सत्-आचार (सदाचार) ही कहलायेगी । भगवदर्थ कर्म करनेवालोंसे एक बड़ी भूल यह होती है कि वे कर्मोंके दो विभाग कर लेते हैं । (१) संसार और शरीरके लिये किये जानेवाले कर्म अपने लिये और (२) पूजा-पाठ, जप-ध्यान, सत्संगादि सात्त्विक कर्म भगवान्‌के लिये मानते हैं; वास्तवमें जैसे पतिव्रता स्त्री घरका काम, शरीरकी क्रिया, पूजा-पाठादि सब कुछ पतिके लिये ही करती है, वैसे ही साधकको भी सब कुछ केवल भगवदर्थ करना चाहिये । भगवदर्थ कर्म सुगमतापूर्वक करनेके लिये पाँच बातें (पंचामृत) सदैव याद रखनी चाहिये‒(१) मैं भगवान्‌का हूँ, (२) भगवान्‌के घर (दरबार) में रहता हूँ, (३) भगवान्‌के घरका काम करता हूँ, (४) भगवान्‌का दिया हुआ प्रसाद पाता हूँ और (५) भगवान्‌के जनों (परिवार) की सेवा करता हूँ । इस प्रकार शास्त्र-विहित कर्म करनेपर सदाचार स्वतः पुष्ट होगा ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


ज्ञानी भक्त..(03)




|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

ज्ञानी भक्त..(03)

दार्शनिकों का जहाँ विचार हुआ है, वहाँ शब्द में अचिन्त्य शक्ति मानी है । जीभ वागिन्द्रिय है, उससे ‘राम-राम’ ऐसे जप की क्रिया होती है, पर इस नाम-जपमें इतनी अलौकिक शक्ति है कि ज्ञानेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियों से आगे अन्तःकरण और अन्तःकरणसे आगे प्रकृति और प्रकृतिसे अतीत परमात्म तत्त्व है, उस परमात्मतत्त्व को यह नाम महाराज जना दे, ऐसी इस में शक्ति है । ‘शब्द’ में अचिन्त्य शक्ति होनेसे मोह का नाश हो जाता है । साधारण रीति से अपने अनुभव में भी देखते हैं कि कोई गहरी नींद में सोया हुआ है तो सोते समय सभी इन्द्रियाँ, मन में, मन बुद्धिमें , बुद्धि प्रकृति में अर्थात् अविद्या में लीन हो जाती हैं, तब गाढ़ नींद आती है । गाढ़ नींदमें सभी इन्द्रियाँ लीन हो जाती हैं, किसी इन्द्रिय का कोई ज्ञान नहीं; परंतु उस आदमी का नाम उच्चारण करके पुकारा जाय तो वह आदमी उस अविद्या में से जग जाता है ।

विचार करो‒नाम का सम्बन्ध तो कर्णेन्द्रिय के साथ है । कर्णेन्द्रिय पर गाढ़ नींद में इतने पर्दे आ जाते हैं; परंतु नाम में‒शब्द में वह अचिन्त्य, अलौकिक शक्ति है, जो अविद्या में लीन हुई बुद्धि, बुद्धि में लीन हुई कर्णेन्द्रिय; उस कर्णेन्द्रिय के द्वारा सुनाकर सोते हुए को जगा दे । शब्दमें इतनी शक्ति है कि जो सम्पूर्ण जीवों का मालिक परमात्म तत्त्व है, उस परमात्म तत्त्व का केवल जीभ से नाम जपने से अनुभव करा दे ।

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ ।
नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ॥
साधक नाम जपहि लय लाएँ ।
होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ॥
………………. (मानस, बालकाण्ड, दोहा २२ । ३-४)

अब दूसरे भक्तों की बात बताते हैं कि जो ‘गूढ़ गति’‒मानो सबसे गूढ़ बात को जानना चाहते हैं, जिनके यह जानने की मन में है कि हम भी उस परमात्मतत्त्व को जानें, जो कि सबसे गूढ़ तत्त्व है, उसके लिये कहा कि जीभ से नाम जप करेंगे तो उस तत्त्वको वे जान लेंगे । अब साधक के विषय में कहते हैं कि साधक अगर लौ लगाकर नाम-जप करता है तो वह सिद्ध हो जाता है । अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वशिता आदि जो आठ सिद्धियाँ हैं, उन सब सिद्धियों को वह पा लेता है ।

जपहिं नामु जन आरत भारी ।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ॥
…………….(मानस, बालकाण्ड, दोहा २२ । ५)

जो दुःखी, संतप्त होता है और संकट से छूटना चाहता है, वह आर्त होकर व्याकुलता पूर्वक नाम का जप करता है तो उसके सब संकट मिट जाते हैं । वह सुखी हो जाता है । ऐसे भगवान्‌ के नाम की महिमा कही ।

राम ! राम !! राम !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


ज्ञानी भक्त..(02)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

ज्ञानी भक्त..(02)

नाम-जपसे सब कुछ मिलता है । हृदयसे जो चाहना होगी, वह चीज उसको मिल जायगी । जैसे कल्पवृक्षके नीचे बैठकर मनुष्य जो कामना करता है,वह कामना पूरी होती है, ऐसे ही यदि हृदयमें नाम-जपकी सच्ची लगन होगी तो नाम महाराज उसी तत्त्वको जना देंगे । इसलिये वह जाग जायगा । जागनेसे क्या होगा ? जो अनुपम ब्रह्मसुख है, उसका वह अनुभव कर लेगा । ब्रह्मसुख कैसा होता है ? उसकी कोई उपमा नहीं है । भोजन करनेसे जैसे तृप्ति होती है, ऐसा वह सुख नहीं है । सम्पत्ति, वैभव मिलनेसे एक खुशी आती है, इसकी उस सुखसे तुलना नहीं कर सकते । ब्रह्मसुखमें कभी भी किंचिन्मात्र कमी नहीं आ सकती । दुःख नजदीक नहीं आ सकता । नाम जपनेवाले उस सुखका अनुभव कर लेते हैं ।

‘अकथ अनामय नाम न रूपा’‒अभी पहले कहा था कि नाम और रूप अकथनीय हैं । अब कहते हैं वह जो निर्गुण ब्रह्मसुख है, वह भी अकथनीय है । निर्गुण और सगुण दोनों अकथनीय हैं और इनके नामकी महिमा भी कथनमें नहीं आ सकती । तात्पर्य क्या निकला ? लौकिक इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि तो सांसारिक पदार्थोंका वर्णन और दर्शन कराते हैं, परंतु परमात्माकी तरफ चलनेमें ये सब कुण्ठित हो जाते हैं; क्योंकि परमात्मा इनका विषय नहीं है । परमात्मतत्त्व प्रकृतिसे भी अतीत है । प्रकृतिका वर्णन दार्शनिक लोगोंने किया है; परंतु प्रकृतिका वर्णन भी पूरा नहीं हो सकता । जो साधन हमें प्राप्त हैं, उनमें सबसे बढ़िया बुद्धि है, वह बुद्धि भी प्रकृतितक नहीं पहुँच पाती । प्रकृतिके कार्यों (शरीर, मन,इन्द्रियाँ) में बुद्धि काम करती है, पर कारणमें अर्थात् प्रकृतिमें काम नहीं करती । जैसे, मिट्टीसे बना हुआ घड़ा है, वह कितना ही बड़ा बना हो, सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने भीतर समा लेगा क्या ? क्या घड़ेमें पूरी पृथ्वी भरी जायगी ? नहीं भरी जा सकती । ऐसे प्रकृतिके कार्य‒मन, बुद्धि आदि प्रकृतिको ही अपने कब्जेमें नहीं ला सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मातक कैसे पहुँच सकते हैं ?

परमात्मा अनामय है अर्थात् विकार रहित है । उसमें विकार सम्भव नहीं है । उसका न नाम है, न रूप है । उसका स्वरूप देखा जाय तो काला, पीला या सफेद‒ऐसा नहीं है । उसको जाननेके लिये उसका नाम रखकर सम्बोधित करते हैं; क्योंकि हमलोग नाम-रूपमें बैठे हैं, इसलिये उसको ब्रह्म कहते हैं । संतोंने उसके विषयमें कहा है‒

“न को रस भोगी । न को रहत न्यारा ।
न को आप हरता । न को कर्तु व्यवहारा ॥
ज्यु देख्या त्यु मैं कह्या । काण न राखी काय ।
हरिया परचा नामका । तन मन भीतर थाय ॥“

वहाँ तुरीय पद भी नहीं है, वहाँ मोक्ष, मुक्ति भी नहीं है, बन्धन भी नहीं है । ऐसा अलौकिक तत्त्व है ! तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जीभसे नाम-जप करके उस ब्रह्मसुखका स्वयं अपने-आपमें जहाँ नाम पहुँचता ही नहीं, वहाँ अनुभव कर लेते हैं ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...