गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

छठा अध्याय

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०१)
सप्ताहयज्ञ की विधि
कुमारा ऊचुः
अथ ते संप्रवक्ष्यामः सप्ताहश्रवणे विधिम् ।
सहायैर्वसुभिश्चैव प्रायः साध्यो विधिः स्मृतः ॥ १ ॥
दैवज्ञं तु समाहूय मुहूर्तं पृच्छ्य यत्‍नतः ।
विवाहे यादृशं वित्तं तादृशं परिकल्पयेत् ॥ २ ॥
नभस्य आश्विनोर्जौ च मार्गशीर्षः शुचिर्नभाः ।
एते मासाः कथारम्भे श्रोतॄणां मोक्षसूचकाः ॥ ३ ॥
मासानां विप्र हेयानि तानि त्याज्यानि सर्वथा ।
सहायाश्चेतरे तत्र कर्तव्याः सोद्यमाश्च ये ॥ ४ ॥
देशे देशे तथा सेयं वार्ता प्रेष्या प्रयत्‍नतः ।
भविष्यति कथा चात्र आगन्तव्यं कुटुम्बिभिः ॥ ५ ॥
दूरे हरिकथाः केचित् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयो ये च तेषां बोधो यतो भवेत् ॥ ६ ॥

श्रीसनकादि कहते हैंनारदजी ! अब हम आपको सप्ताहश्रवणकी विधि बताते हैं। यह विधि प्राय: लोगोंकी सहायता और धनसे साध्य कही गयी है ॥ १ ॥ पहले तो यत्नपूर्वक ज्योतिषीको बुलाकर मुहूर्त पूछना चाहिये तथा विवाहके लिये जिस प्रकार धनका प्रबन्ध किया जाता है उस प्रकार ही धनकी व्यवस्था इसके लिये करनी चाहिये ॥ २ ॥ कथा आरम्भ करनेमें भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, आषाढ़ और श्रावणये छ: महीने श्रोताओंके लिये मोक्षकी प्राप्तिके कारण हैं ॥ ३ ॥ देवर्षे ! इन महीनोंमें भी भद्रा-व्यतीपात आदि कुयोगोंको सर्वथा त्याग देना चाहिये। तथा दूसरे लोग जो उत्साही हों, उन्हें अपना सहायक बना लेना चाहिये ॥ ४ ॥ फिर प्रयत्न करके देश-देशान्तरोंमें यह संवाद भेजना चाहिये कि यहाँ कथा होगी, सब लोगोंको सपरिवार पधारना चाहिये ॥ ५ ॥ स्त्री और शूद्रादि भगवत्कथा एवं संकीर्तनसे दूर पड़ गये हैं। उनको भी सूचना हो जाय, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तककोड 1535 से                                                
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०२)
सप्ताहयज्ञ की विधि

देशे देशे विरक्ता ये वैष्णवाः कीर्तनोत्सुकाः ।
तेष्वेव पत्रं प्रेष्यं च तल्लेखनं इतीरितम् ॥ ७ ॥
सतां समाजो भविता सप्तरात्रं सुदुर्लभः ।
अपूर्वरसरूपैव कथा चात्र भविष्यति ॥ ८ ॥
श्रीमद्‌भागवत पीयुष पानाय रसलम्पटाः ।
भवन्तश्च तथा शीघ्रं आयात प्रेमतत्पराः ॥ ९ ॥
नावकाशः कदाचित् चेत् दिनमात्रं तथापि तु ।
सर्वथाऽऽगमनं कार्यं क्षणोऽत्रैव सुदुर्लभः ॥ १० ॥
एवमाकारणं तेषां कर्तव्यं विनयेन च ।
आगन्तुकानां सर्वेषां वासस्थानानि कल्पयेत् ॥११ ॥

देश-देशमें जो विरक्त वैष्णव और हरिकीर्तनके प्रेमी हों, उनके पास निमन्त्रणपत्र अवश्य भेजे। उसे लिखनेकी विधि इस प्रकार बतायी गयी है ॥ ७ ॥ महानुभावो ! यहाँ सात दिनतक सत्पुरुषोंका बड़ा दुर्लभ समागम रहेगा और अपूर्व रसमयी श्रीमद्भागवतकी कथा होगी ॥ ८ ॥ आपलोग भगवद्रसके रसिक हैं, अत: श्रीभागवतामृतका पान करनेके लिये प्रेमपूर्वक शीघ्र ही पधारनेकी कृपा करें ॥ ९ ॥ यदि आपको विशेष अवकाश न हो, तो भी एक दिनके लिये तो अवश्य ही कृपा करनी चाहिये; क्योंकि यहाँका तो एक क्षण भी अत्यन्त दुर्लभ है।॥ १० ॥ इस प्रकार विनयपूर्वक उन्हें निमंत्रित करे और जो लोग आयें, उनके लिये यथोचित निवासस्थानका प्रबन्ध करे ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०३)
सप्ताहयज्ञ की विधि

तीर्थे वापि वने वापि गृहे वा श्रवणं मतम् ।
विशाला वसुधा यत्र कर्तव्यं तत्कथास्थलम् ॥ १२ ॥
शोधनं मार्जनं भूमेः लेपनं धातुमण्डनम् ।
गृहोपस्करमुद्ध्रुत्य गृहकोणे निवेशयेत् ॥ १३ ॥
अर्वाक् पंचाहतो यत्‍नात् आस्तीर्णानि प्रमेलयेत् ।
कर्तव्यो मण्डपः प्रोच्चैः कदलीखण्डमण्डितः ॥ १४ ॥
फलपुष्पदलैर्विष्वक् वितानेन विराजितः ।
चतुर्दिक्षु ध्वजारोपो बहुसम्पद्विराजितः ॥ १५ ॥
ऊर्ध्वं सप्तैव लोकाश्च कल्पनीयाः सविस्तरम् ।
तेषु विप्रा विरक्ताश्च स्थापनीयाः प्रबोध्य च ॥ १६ ॥
पूर्वं तेषां आसनानि कर्तव्यानि यथोत्तरम् ।
वक्तुश्चापि तदा दिव्यं आसनं परिकल्पयेत् ॥ १७ ॥
उदङ्‌मुखो भवेद्‌वक्ता श्रोता वै प्राङ्‌मुखस्तदा ।
प्राङ्‌मुखश्चेत् भवेद्‌वक्ता श्रोता च उदङ्‌मुखस्तदा ॥ १८ ॥
अथवा पूर्वदिग्ज्ञेया पूज्यपूजकमध्यतः ।
श्रोतॄणां आगमे प्रोक्ता देशकालादिकोविदैः ॥ १९ ॥

कथा का श्रवण किसी तीर्थमें, वनमें अथवा अपने घरपर भी अच्छा माना गया है। जहाँ लंबा- चौड़ा मैदान हो, वहीं कथास्थल रखना चाहिये ॥ १२ ॥ भूमिका शोधन, मार्जन और लेपन करके रंग-बिरंगी धातुओंसे चौक पूरे। घरकी सारी सामग्री उठाकर एक कोनेमें रख दे ॥ १३ ॥ पाँच दिन पहलेसे ही यत्नपूर्वक बहुत-से बिछानेके वस्त्र एकत्र कर ले तथा केलेके खंभोंसे सुशोभित एक ऊँचा मण्डप तैयार कराये ॥ १४ ॥ उसे सब ओर फल, पुष्प, पत्र और चँदोवेसे अलंकृत करे तथा चारों ओर झंडियाँ लगाकर तरह-तरहके सामानोंसे सजा दे ॥ १५ ॥ उस मण्डपमें कुछ ऊँचाईपर सात विशाल लोकोंकी कल्पना करे और उनमें विरक्त ब्राह्मणोंको बुला-बुलाकर बैठाये ॥ १६ ॥ आगेकी ओर उनके लिये वहाँ यथोचित आसन तैयार रखे। इनके पीछे वक्ताके लिये भी एक दिव्य सिंहासनका प्रबन्ध करे ॥ १७ ॥ यदि वक्ताका मुख उत्तरकी ओर रहे, तो श्रोता पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ता पूर्वाभिमुख रहे तो श्रोताको उत्तरकी ओर मुख करके बैठना चाहिये ॥ १८ ॥ अथवा वक्ता और श्रोताको पूर्वमुख होकर बैठना चाहिये। देश-काल आदिको जाननेवाले महानुभावोंने श्रोताके लिये ऐसा ही नियम बताया है ॥ १९ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०४)
सप्ताहयज्ञ की विधि

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽति निःस्पृह ॥ २० ॥
अनेकधर्मनिभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः ।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि पण्डिताः ॥ २१ ॥
वक्तुः पार्श्वे सहायार्थं अन्यः स्थाप्यस्तथाविधः ।
पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः ॥ २२ ॥
वक्त्रा क्षौरं प्रकर्तव्यं दिनाद् अर्वाक् व्रताप्तये ।
अरुणोदयेऽसौ निर्वर्त्य शौचं स्नानं समाचरेत् ॥ २३ ॥
नित्यं संक्षेपतः कृत्वा संध्याद्यं स्वं प्रयत्‍नतः ।
कथाविघ्नविघाताय गणनाथं प्रपूजयेत् ॥ २४ ॥

जो वेद-शास्त्रकी स्पष्ट व्याख्या करनेमें समर्थ हो, तरह-तरहके दृष्टान्त दे सकता हो तथा विवेकी और अत्यन्त नि:स्पृह हो, ऐसे विरक्त और विष्णुभक्त ब्राह्मणको वक्ता बनाना चाहिये ॥ २० ॥
श्रीमद्भागवतके प्रवचन में ऐसे लोगोंको नियुक्त नहीं करना चाहिये जो पण्डित होनेपर भी अनेक धर्मोंके चक्करमें पड़े हुए, स्त्री- लम्पट एवं पाखण्डके प्रचारक हों ॥ २१ ॥ वक्ताके पास ही उसकी सहायताके लिये एक वैसा ही विद्वान् और स्थापित करना चाहिये। वह भी सब प्रकार के संशयों की निवृत्ति करने में समर्थ और लोगों को समझाने में कुशल हो ॥ २२ ॥ कथा-प्रारम्भ के दिनसे एक दिन पूर्व व्रत ग्रहण करनेके लिये वक्ताको क्षौर करा लेना चाहिये। तथा अरुणोदयके समय शौचसे निवृत्त होकर अच्छी तरह स्नान करे ॥ २३ ॥ और संध्यादि अपने नित्यकर्मोंको संक्षेपसे समाप्त करके कथाके विघ्रोंकी निवृत्तिके लिये गणेशजीका पूजन करे ॥ २४ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०५)
सप्ताहयज्ञ की विधि

पितॄन् संतर्प्य शुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं समाचरेत् ।
मण्डलं च प्रकर्तव्यं तत्र स्थाप्यो हरिस्तथा ॥ २५ ॥
कृष्णमुद्दिश्य मंत्रेण चरेत् पूजाविधिं क्रमात् ।
प्रदक्षिण नमस्कारान् पूजान्ते स्तुतिमाचरेत् ॥ २६ ॥
संसारसागरे मग्नं दीनं मां करुणानिधे ।
कर्ममोहगृहीताङ्‌गं मामुद्धर भवार्णवात् ॥ २७ ॥
श्रीमद्‌भागवतस्यापि ततः पूजा प्रयत्‍नतः ।
कर्तव्या विधिना प्रीत्या धूपदीपसमन्विता ॥ २८ ॥
ततस्तु श्रीफलं धृत्वा नमस्कारं समाचरेत् ।
स्तुतिः प्रसन्नचित्तेन कर्तव्या केवलं तदा ॥ २९ ॥
श्रीमद्‌भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि ।
स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे ॥ ३० ॥
मनोरथो मदीयोऽयं सफलः सर्वथा त्वया ।
निर्विघ्नेनैव कर्तव्य दासोऽहं तव केशव ॥ ३१ ॥
एवं दीनवचः प्रोच्य वक्तारं चाथ पूजयेत् ।
सम्भूष्य वस्त्रभूषाभिः पूजान्ते तं च संस्तवेत् ॥ ३२ ॥
शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय ॥ ३३ ॥

तदनन्तर पितृगणका तर्पण कर पूर्व पापोंकी शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरिको स्थापित करे ॥ २५ ॥ फिर भगवान्‌ श्रीकृष्णको लक्ष्य करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमश: षोडशोपचारविधिसे पूजन करे और उसके पश्चात् प्रदक्षिणा तथा नमस्कारादि कर इस प्रकार स्तुति करे ॥ २६ ॥ करुणानिधान ! मैं संसार-सागरमें डूबा हुआ और बड़ा दीन हूँ। कर्मोंके मोहरूपी ग्राहने मुझे पकड़ रखा है। आप इस संसार-सागरसे मेरा उद्धार कीजिये॥ २७ ॥ इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियोंसे श्रीमद्भागवतकी भी बड़े उत्साह और प्रीतिपूर्वक विधि-विधानसे पूजा करे ॥ २८ ॥ फिर पुस्तकके आगे नारियल रखकर नमस्कार करे और प्रसन्नचित्तसे इस प्रकार स्तुति करे॥ २९ ॥ श्रीमद्भागवतके रूपमें आप साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान हैं। नाथ ! मैंने भवसागरसे छुटकारा पानेके लिये आपकी शरण ली है ॥ ३० ॥ मेरा यह मनोरथ आप बिना किसी विघ्र-बाधाके साङ्गोपाङ्ग पूरा करें। केशव ! मैं आपका दास हूँ॥ ३१ ॥ इस प्रकार दीन वचन कहकर फिर वक्ताका पूजन करे। उसे सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करे और फिर पूजाके पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे॥ ३२ ॥ शुकस्वरूप भगवन् ! आप समझानेकी कलामें कुशल और सब शास्त्रोंमें पारंगत हैं; कृपया इस कथाको प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें॥ ३३ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०६)
सप्ताहयज्ञ की विधि

तदग्रे नियमः पश्चात् कर्तव्यः श्रेयसे मुदा ।
सप्तरात्रं यथाशक्त्या धारणीयः स एव हि ॥ ३४ ॥
वरणं पंचविप्राणां कथाभङ्‌गनिवृत्तये ।
कर्तव्यं तैः हरेर्जाप्यं द्वादशाक्षरविद्यया ॥ ३५ ॥
ब्राह्मणान् वैष्णवान् चान्यान् तथा कीर्तनकारिणः ।
नत्वा संपूज्य दत्ताज्ञः स्वयं आसनमाविशेत् ॥ ३६ ॥
लोकवित्तधनागार पुत्रचिन्तां व्युदस्य च ।
कथाचित्तः शुद्धमतिः स लभेत्फलमुत्तमम् ॥ ३७ ॥
आसूर्योदयमारभ्य सार्धत्रिप्रहरान्तकम् ।
वाचनीया कथा सम्यक् धीरकण्ठं सुधीमता ॥ ३८ ॥
कथाविरामः कर्तव्यो मध्याह्ने घटिकाद्वयं ।
तत्कथामनु कार्यं वै कीर्तनं वैष्णवैस्तदा ॥ ३९ ॥

फिर अपने कल्याणके लिये प्रसन्नतापूर्वक उसके सामने नियम ग्रहण करे और सात दिनोंतक यथाशक्ति उसका पालन करे ॥ ३४ ॥ कथामें विघ्र न हो, इसके लिये पाँच ब्राह्मणोंको और वरण करे; वे द्वादशाक्षर मन्त्रद्वारा भगवान्‌के नामोंका जप करें ॥ ३५ ॥ फिर ब्राह्मण, अन्य विष्णुभक्त एवं कीर्तन करनेवालोंको नमस्कार करके उनकी पूजा करे और उनकी आज्ञा पाकर स्वयं भी आसनपर बैठ जाय ॥ ३६ ॥ जो पुरुष लोक, सम्पत्ति, धन, घर और पुत्रादिकी चिन्ता छोडक़र शुद्धचित्तसे केवल कथामें ही ध्यान रखता है, उसे इसके श्रवणका उत्तम फल मिलता है ॥ ३७ ॥
बुद्धिमान् वक्ताको चाहिये कि सूर्योदयसे कथा आरम्भ करके साढ़े तीन पहरतक मध्यम स्वरसे अच्छी तरह कथा बाँचे ॥ ३८ ॥ दोपहरके समय दो घड़ीतक कथा बंद रखे। उस समय कथाके प्रसङ्गके अनुसार वैष्णवोंको भगवान्‌के गुणोंका कीर्तन करना चाहियेव्यर्थ बातें नहीं करनी चाहिये ॥ ३९ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०७)
सप्ताहयज्ञ की विधि

मलमूत्रजयार्थं हि लघ्वाहारः सुखावहः ।
हविष्यान्नेन कर्तव्यो हि, एकवारं कथार्थिना ॥ ४० ॥
उपोष्य सप्तरात्रं वै शक्तिश्चेत् श्रुणुयात् तदा ।
घृतपानं पयःपानं कृत्वा वै श्रृणुयात् सुखम् ॥ ४१ ॥
फलाहारेण वा भाव्यं एकभुक्तेन वा पुनः ।
सुखसाध्यं भवेद् यत्तु कर्तव्यं श्रवणाय तत् ॥ ४२ ॥
भोजनं तु वरं मन्ये कथाश्रवणकारकम् ।
नोपवासो वरः प्रोक्तः कथाविघ्नकरो यदि ॥ ४३ ॥

कथाके समय मल-मूत्रके वेगको काबूमें रखनेके लिये अल्पाहार सुखकारी होता है; इसलिये श्रोता केवल एक ही समय हविष्यान्न भोजन करे ॥ ४० ॥ यदि शक्ति हो तो सातों दिन निराहार रहकर कथा सुने अथवा केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक श्रवण करे ॥ ४१ ॥ अथवा फलाहार या एक समय ही भोजन करे। जिससे जैसा नियम सुभीते से सध सके, उसीको कथाश्रवण के लिये ग्रहण करे ॥ ४२ ॥ मैं तो उपवास की अपेक्षा भोजन करना अच्छा समझता हूँ, यदि वह कथाश्रवण में सहायक हो। यदि उपवास से श्रवण में बाधा पहुँचती हो तो वह किसी काम का नहीं ॥ ४३ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०८)
सप्ताहयज्ञ की विधि

सप्ताहव्रतिनां पुंसां नियमान् श्रुणु नारद ।
विष्णुदीक्षाविहीनानां नाधिकारः कथाश्रवे ॥ ४४ ॥
ब्रह्मचर्यमधः सुप्तिः पत्रावल्यां च भोजनम् ।
कथासमाप्तौ भुक्तिं च कुर्यात् नित्यं कथाव्रती ॥ ४५ ॥
द्विदलं मधु तैलं च गरिष्ठान्नं तथैव च ।
भावदुष्टं पर्युषितं जह्यात् नित्यं कथाव्रती ॥ ४६ ॥
कामं क्रोधं मदं मानं मत्सरं लोभमेव च ।
दम्भ मोहं तथा द्वेषं दूरयेच्च कथाव्रती ॥ ४७ ॥
वेदवैष्णवविप्राणां गुरुगोव्रतिनां तथा ।
स्त्रीराजमहतां निन्दां वर्जयेत् यः कथाव्रती ॥ ४८ ॥
रजस्वला अन्त्यज म्लेच्छ पतित व्रात्यकैस्तथा ।
द्विजद्विड् वेदबाह्यैश्च न वदेत् यः कथाव्रती ॥ ४९ ॥

नारदजी ! नियमसे सप्ताह सुननेवाले पुरुषोंके नियम सुनिये। विष्णुभक्तकी दीक्षासे रहित पुरुष कथाश्रवणका अधिकारी नहीं है ॥ ४४ ॥ जो पुरुष नियम से कथा सुने, उसे ब्रह्मचर्यसे रहना, भूमिपर सोना और नित्यप्रति कथा समाप्त होनेपर पत्तलमें भोजन करना चाहिये ॥ ४५ ॥ दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्नइनका उसे सर्वदा ही त्याग करना चाहिये ॥ ४६ ॥ काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह और द्वेषको तो अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये ॥ ४७ ॥ वह वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक तथा स्त्री, राजा और महापुरुषोंकी निन्दासे भी बचे ॥ ४८ ॥ नियमसे कथा सुननेवाले पुरुषको रजस्वला स्त्री, अन्त्यज, म्लेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, ब्राह्मणोंसे द्वेष करनेवाले तथा वेदको न माननेवाले पुरुषोंसे बात नहीं करनी चाहिये ॥ ४९ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०९)
सप्ताहयज्ञ की विधि

सत्यं शौचं दयां मौनं आर्जवं विनयं तथा ।
उदारमानसं तद्वत् एवं कुर्यात् कथाव्रती ॥ ५० ॥
दरिद्रश्च क्षयी रोगी निर्भाग्यः पापकर्मवान् ।
अनपत्यो मोक्षकामः श्रुणुयाच्च कथामिमाम् ॥ ५१ ॥
अपुष्पा काकवन्ध्या च वन्ध्या या च मृतार्भका ।
स्रवत् गर्भा च या नारी तया श्राव्या प्रयत्‍नतः ॥ ५२ ॥
एतेषु विधिना श्रावे तदक्षयतरं भवेत् ।
अत्युत्तमा कथा दिव्या कोटियज्ञफलप्रदा ॥ ५३ ॥
एवं कृत्वा व्रतविधिं उद्यापनं अथाचरेत् ।
जन्माष्टमी व्रतमिव कर्तव्यं फलकांक्षिभिः ॥ ५४ ॥
अकिंचनेषु भक्तेषु प्रायो नोद्यापनाग्रहः ।
श्रवणेनैव पूतास्ते निष्कामा वैष्णवा यतः ॥ ५५ ॥

सर्वदा सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारताका बर्ताव करना चाहिये ॥ ५० ॥ धनहीन, क्षयरोगी, किसी अन्य रोगसे पीडि़त, भाग्यहीन, पापी, पुत्रहीन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करे ॥ ५१ ॥ जिस स्त्रीका रजोदर्शन रुक गया हो, जिसके एक ही संतान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसकी संतान होकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भ गिर जाता हो, वह यत्नपूर्वक इस कथाको सुने ॥ ५२ ॥ ये सब यदि विधिवत् कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फलकी प्राप्ति हो सकती है। यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञोंका फल देनेवाली है ॥ ५३ ॥
इस प्रकार इस व्रतकी विधियोंका पालन करके फिर उद्यापन करे। जिन्हें इसके विशेष फलकी इच्छा हो, वे जन्माष्टमी-व्रतके समान ही इस कथाव्रतका उद्यापन करें ॥ ५४ ॥ किन्तु जो भगवान्‌के अकिञ्चन भक्त हैं, उनके लिये उद्यापनका कोई आग्रह नहीं है। वे श्रवणसे ही पवित्र हैं; क्योंकि वे तो निष्काम भगवद्भक्त हैं ॥ ५५ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१०)
सप्ताहयज्ञ की विधि


एवं नगाहयज्ञेऽस्मिन् समाप्ते श्रोतृभिस्तदा ।
पुस्तकस्य च वक्तुश्च पूजा कार्यातिभक्तितः ॥ ५६ ॥
प्रसादतुलसीमाला श्रोतृभ्यश्चाथ दीयताम् ।
मृदंगतालललितं कर्तव्यं कीर्तनं ततः ॥ ५७ ॥
जयशब्दं नमःशब्दं शंखशब्दं च कारयेत् ।
विप्रेभ्यो याचकेभ्यश्च वित्तं अन्नं च दीयताम् ॥ ५८ ॥
विरक्तश्चेत् भवेत् श्रोता गीता वाद्या परेऽहनि ।
गृहस्थश्चेत् तदा होमः कर्तव्यः कर्मशान्तये ॥ ५९ ॥
प्रतिश्लोकं तु जुहुयात् विधिना दशमस्य च ।
पायसं मधु सर्पिश्च तिलान् आदिकसंयुतम् ॥ ६० ॥
अथवा हवनं कुर्याद् गायत्र्या सुसमाहितः ।
तन्मयत्वात् पुराणस्य परमस्य च तत्त्वतः ॥ ६१ ॥

इस प्रकार जब सप्ताहयज्ञ समाप्त हो जाय, तब श्रोताओंको अत्यन्त भक्तिपूर्वक पुस्तक और वक्ताकी पूजा करनी चाहिये ॥ ५६ ॥ फिर वक्ता श्रोताओंको प्रसाद, तुलसी और प्रसादी मालाएँ दे तथा सब लोग मृदङ्ग और झाँझकी मनोहर ध्वनिसे सुन्दर कीर्तन करें ॥ ५७ ॥ जय-जयकार, नमस्कार और शङ्खध्वनिका घोष कराये तथा ब्राह्मण और याचकोंको धन और अन्न दे ॥ ५८ ॥ श्रोता विरक्त हो तो कर्मकी शान्तिके लिये दूसरे दिन गीतापाठ करे; गृहस्थ हो तो हवन करे ॥ ५९ ॥ उस हवनमें दशमस्कन्धका एक-एक श्लोक पढक़र विधिपूर्वक खीर, मधु, घृत, तिल और अन्नादि सामग्रियोंसे आहुति दे ॥ ६० ॥ अथवा एकाग्र चित्तसे गायत्री-मन्त्रद्वारा हवन करे; क्योंकि तत्त्वत: यह महापुराण गायत्री- स्वरूप ही है ॥ ६१ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.११)
सप्ताहयज्ञ की विधि

होमाशक्तौ बुधो हौम्यं दद्यात् तत्फल सिद्धये ।
नानाच्छिद्रनिरोधार्थं न्यूनताधिकतानयोः ॥ ६२ ॥
दोषयोः प्रशमार्थं च पठेत् नामसहस्रकम् ।
तेन स्यात् सफलं सर्वं नास्त्यस्मादधिकं यतः ॥ ६३ ॥
द्वादश ब्राह्मणान् पश्चात् भोजयेत् मधुपायसैः ।
दद्यात् सुवर्णं धेनुं च व्रतपूर्णत्वहेतवे ॥ ६४ ॥
शक्तौ पलत्रयमितं स्वर्णसिंहं विधाय च ।
तत्रास्य पुस्तकं स्थाप्यं लिखितं ललिताक्षरम् ॥ ६५ ॥
संपूज्य आवाहनाद्यैः तद् उपचारैः सदक्षिणम् ।
वस्त्रभूषण गन्धाद्यैः पूजिताय यतात्मने ॥ ६६ ॥
आचार्याय सुधीर्दत्त्वा मुक्तः स्याद् भवबंधनैः ।
एवं कृते विधाने च सर्वपापनिवारणे ॥ ६७ ॥
फलदं स्यात् पुराणं तु श्रीमद्‌भागवतं शुभम् ।
धर्मकामार्थमोक्षाणां साधनं स्यात् न संशयः ॥ ६८ ॥

होम करनेकी शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करनेके लिये ब्राह्मणोंको हवनसामग्री दान करे तथा नाना प्रकारकी त्रुटियोंको दूर करनेके लिये और विधिमें फिर जो न्यूनाधिकता रह गयी हो, उसके दोषोंकी शान्तिके लिये विष्णुसहस्रनामका पाठ करे। उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं; क्योंकि कोई भी कर्म इससे बढक़र नहीं है ॥ ६२-६३ ॥ फिर बारह ब्राह्मणोंको खीर और मधु आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ खिलाये तथा व्रतकी पूर्तिके लिये गौ और सुवर्णका दान करे ॥ ६४ ॥ सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाये, उसपर सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई श्रीमद्भागवतकी पोथी रखकर उसकी आवाहनादि विविध उपचारोंसे पूजा करे और फिर जितेन्द्रिय आचार्यकोउसका वस्त्र, आभूषण एवं गन्धादिसे पूजनकरदक्षिणाके सहित समर्पण कर दे ॥ ६५-६६ ॥ यों करनेसे वह बुद्धिमान् दाता जन्म- मरणके बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है। यह सप्ताहपारायणकी विधि सब पापोंकी निवृत्ति करनेवाली है। इसका इस प्रकार ठीक-ठीक पालन करनेसे यह मङ्गलमय भागवतपुराण अभीष्ट फल प्रदान करता है तथा अर्थ, धर्म, काम और मोक्षचारोंकी प्राप्तिका साधन हो जाता हैइसमें सन्देह नहीं ॥ ६७-६८ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१२)
सप्ताहयज्ञ की विधि

कुमारा ऊचुः -
इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
श्रीमद्‌भागवतेनैव भुक्तिमुक्ति करे स्थिते ॥ ६९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा ते महात्मानः प्रोचुर्भागवतीं कथाम् ।
सर्वपापहरां पुण्यां भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ॥ ७० ॥
श्रृण्वतां सर्वभूतानां सप्ताहं नियतात्मनाम् ।
यथाविधि ततो देवं तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥ ७१ ॥
तदन्ते ज्ञानवैराग्य-भक्तीनां पुष्टता परा ।
तारुण्यं परमं चाभूत् सर्वभूतमनोहरम् ॥ ७२ ॥
नारदश्च कृतार्थोऽभूत् सिद्धे स्वीये मनोरथे ।
पुलकीकृतसर्वाङ्‌ग परमानन्दसम्भृतः ॥ ७३ ॥
एवं कथां समाकर्ण्य नारदो भगवत्प्रियः ।
प्रेमगद्‌गदया वाचा तानुवाच कृताञलिः ॥ ७४ ॥

नारद उवाच -
धन्योस्मि अनुगृहितोऽस्मि भवद्‌भिः करुणापरैः ।
अद्य मे भगवान् लब्धः सर्वपापहरो हरिः ॥ ७५ ॥
श्रवणं सर्वधर्मेभ्यो वरं मन्ये तपोधनाः ।
वैकुण्ठस्थो यतः कृष्णः श्रवणाद् यस्य लभ्यते ॥ ७६ ॥

सनकादि कहते हैंनारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताहश्रवण की विधि हमने पूरी-पूरी सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो ? इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं ॥ ६९ ॥
सूतजी कहते हैंशौनक जी ! यों कहकर महामुनि सनकादि ने एक सप्ताह तक विधिपूर्वक इस सर्वपापनाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली भागवतकथा का प्रवचन किया। सब प्राणियोंने नियमपूर्वक इसे श्रवण किया। इसके पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥ ७०-७१ ॥ कथाके अन्तमें ज्ञान-वैराग्य और भक्तिको बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवोंका चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे ॥ ७२ ॥
अपना मनोरथ पूरा होनेसे नारदजीको भी बड़ी प्रसन्नता हुई, उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्दसे पूर्ण हो गये ॥ ७३ ॥ इस प्रकार कथा श्रवणकर भगवान्‌के प्यारे नारदजी हाथ जोडक़र प्रेमगद्गद वाणीसे सनकादिसे कहने लगे ॥ ७४ ॥
नारदजीने कहामैं धन्य हूँ, आपलोगोंने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आज मुझे सर्वपापहारी भगवान्‌ श्रीहरिकी ही प्राप्ति हो गयी ॥ ७५ ॥ तपोधनो ! मैं श्रीमद्भागवत- श्रवणको ही सब धर्मोंसे श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि इसके श्रवणसे वैकुण्ठ( गोलोक)-विहारी श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है ॥ ७६ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१३)
सप्ताहयज्ञ की विधि

सूत उवाच –

एवं ब्रुवति वै तत्र नारदे वैष्णवोत्तमे ।
परिभ्रमन् समायातः शुको योगेश्वरास्तदा ॥ ७७ ॥
तत्राययौ षोडशवार्षिकस्तदा
     व्यासात्मजो ज्ञानमहाब्धिचन्द्रमाः ।
कथावसाने निजलाभपूर्णः
     प्रेम्णा पठन् भागवतं शनैः शनैः ॥ ७८ ॥
दृष्ट्वा सदस्याः परमोरुतेजसं
     सद्यः समुत्थाय ददुर्महासनम् ।
प्रीत्या सुरर्षिस्तमपूजयत् सुखं
     स्थितोऽवदत् संश्रृणुतामलां गिरम् ॥ ७९ ॥

श्रीशुक उवाच –

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
     शुकमुखात् अमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं
     मुहुरको रसिका भुवि भावुकाः ॥ ८० ॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! वैष्णवश्रेष्ठ नारदजी यों कह ही रहे थे कि वहाँ घूमते-फिरते योगेश्वर शुकदेवजी आ गये ॥ ७७ ॥ कथा समाप्त होते ही व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी वहाँ पधारे। सोलह वर्षकी-सी आयु, आत्मलाभसे पूर्ण, ज्ञानरूपी महासागरका संवर्धन करनेके लिये चन्द्रमाके समान वे प्रेमसे धीरे-धीरे श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे ॥ ७८ ॥ परम तेजस्वी शुकदेवजीको देखकर सारे सभासद् झटपट खड़े हो गये और उन्हें एक ऊँचे आसनपर बैठाया। फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेमपूर्वक पूजन किया। उन्होंने सुखपूर्वक बैठकर कहा—‘आपलोग मेरी निर्मल वाणी सुनिये॥ ७९ ॥
श्रीशुकदेवजी बोलेरसिक एवं भावुक जन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका परिपक्व फल है। श्रीशुकदेवरूप शुकके मुखका संयोग होनेसे अमृतरससे परिपूर्ण है। यह रस-ही-रस हैइसमें न छिलका है न गुठली। यह इसी लोकमें सुलभ है। जबतक शरीरमें चेतना रहे, तबतक आपलोग बार-बार इसका पान करें ॥ ८० ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१४)
सप्ताहयज्ञ की विधि

धर्मप्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
     वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्‌भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
     सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ ८१ ॥
श्रीमद्‌भागवतं पुराणतिलकं यद्‌वैष्णवानां धनं
     यस्मिन् पारमहंस्यमेवममलं ज्ञानं परं गीयते ।
यत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं
     तत् श्रुण्वन् प्रपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः ॥ ८२ ॥
स्वर्गे सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः ।
अतः पिबन्तु सद्‌भाग्या मा मा मुञ्चत कर्हिचित् ॥ ८३ ॥

महामुनि व्यासदेवने श्रीमद्भागवत महापुराणकी रचना की है। इसमें निष्कपटनिष्काम परमधर्मका निरूपण है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषोंके जानने योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तुका वर्णन है, जिससे तीनों तापोंकी शान्ति होती है। इसका आश्रय लेनेपर दूसरे शास्त्र अथवा साधनकी आवश्यकता नहीं रहती। जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदयमें अवरुद्ध हो जाता है ॥ ८१ ॥ यह भागवत पुराणोंका तिलक और वैष्णवोंका धन है। इसमें परमहंसोंके प्राप्य विशुद्ध ज्ञानका ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके सहित निवृत्तिमार्गको प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मननमें तत्पर रहता है, वह मुक्त हो जाता है ॥ ८२ ॥ यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठमें भी नहीं है। इसलिये भाग्यवान् श्रोताओ ! तुम इसका खूब पान करो; इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो ॥ ८३ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१५)
सप्ताहयज्ञ की विधि

एवं ब्रुवाणे सति बादरायणौ
     मध्ये सभायां हरिराविरासीत् ।
प्रह्रादबल्युद्धवफाल्गुनादिभिः
     वृत्तं सुरर्षिस्तमपूजयच्च तान् ॥ ८४ ॥
दृष्ट्वा प्रसन्नं महदासने हरिं
     ते चक्रिरे कीर्तनमग्रतस्तदा ।
भवो भवान्या कमलासनस्तु
     तत्रागमत् कीर्तनदर्शनाय ॥ ८५ ॥
प्रह्लादस्तालधारी तरलगतितया चोद्धवः कांस्यधारी
     वीणाधारी सुरर्षि स्वरकुशलतया रागकर्तार्जुनोऽभूत् ।
इन्द्रोऽवादीन्मृदङ्‌गं जय जय सुकराः कीर्तने ते कुमारा
     यत्राग्रे भववक्ता सरसरचनया व्यासपुत्रो बभूव ॥ ८६ ॥
ननर्त मध्ये त्रिकमेव तत्र
     भक्त्यादिकानां नटवत्सुतेजसाम् ।
अलौलिकं कीर्तनमेतदीक्ष्य
     हरिः प्रसन्नोऽपि वचोऽब्रवीत् तत् ॥ ८७ ॥
मत्तो वरं भाववृताद्‌वृणुध्वं
     प्रीतः कथाकीर्तनतोऽस्मि साम्प्रतम् ।
श्रुत्वेति तद्वाक्यमतिप्रसन्नाः
     प्रेमार्द्रचित्ता हरिमूचिरे ते ॥ ८८ ॥
नगाहगाथासु च सर्वभक्तैः
     एभिस्त्वया भाव्यमिति प्रयत्‍नात् ।
मनोरथोऽयं परिपूरनीयः
     तथेति चोक्त्वान्तरधीयताच्युतः ॥ ८९ ॥

सूतजी कहते हैंश्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभाके बीचोबीच प्रह्लाद, बलि, उद्धव, और अर्जुन आदि पार्षदोंके सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये। तब देवर्षि नारदने भगवान्‌ और उनके भक्तों की यथोचित पूजा की ॥ ८४ ॥ भगवान्‌को प्रसन्न देखकर देवर्षिने उन्हें एक विशाल सिंहासनपर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने संकीर्तन करने लगे। उस कीर्तनको देखनेके लिये श्रीपार्वतीजीके सहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी आये ॥ ८५ ॥ कीर्तन आरम्भ हुआ। प्रह्लादजी तो चञ्चलगति (फुर्तीले) होनेके कारण करताल बजाने लगे, उद्धवजीने झाँझें उठा लीं, देवर्षि नारद वीणाकी ध्वनि करने लगे, स्वर-विज्ञान (गान-विद्या) में कुशल होनेके कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्रने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया, सनकादि बीच-बीचमें जयघोष करने लगे और इन सबके आगे शुकदेवजी तरह-तरहकी सरस अङ्गभङ्गी करके भाव बताने लगे ॥ ८६ ॥ इन सबके बीचमें परम तेजस्वी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नटोंके समान नाचने लगे। ऐसा अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान्‌ प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहने लगे॥ ८७ ॥ मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तनसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे भक्तिभावने इस समय मुझे अपने वशमें कर लिया है। अत: तुमलोग मुझसे वर माँगो। भगवान्‌के ये वचन सुनकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और प्रेमाद्र्र चित्तसे भगवान्‌से कहने लगे ॥ ८८ ॥ भगवन् ! हमारी यह अभिलाषा है कि भविष्यमें भी जहाँ-कहीं सप्ताह-कथा हो, वहाँ आप इन पार्षदोंके सहित अवश्य पधारें। हमारा यह मनोरथ पूर्ण कर दीजिये। भगवान्‌ तथास्तुकहकर अन्तर्धान हो गये ॥८९॥

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१६)
सप्ताहयज्ञ की विधि

ततोऽनमत्तत् चरणेषु नारदः
     तथा शुकादीनपि तापसांश्च ।
अथ प्रहृष्टाः परिनष्टमोहाः
     सर्व ययुः पीतकथामृतास्ते ॥ ९० ॥
भक्तिः सुताभ्यां सह रक्षिता सा
     शास्त्रे स्वकीयेऽपि तदा शुकेन ।
अतो हरिर्भागवतस्य सेवनात्
     चित्तं समायाति हि वैष्णवानाम् ॥ ९१ ॥
दारिद्र्यदुःखज्वरदाहितानां
     मायापिशाचीपरिमर्दितानाम्
संसारसिन्धौ परिपातितानां
     क्षेमाय वै भागवतं प्रगर्जति ॥ ९२ ॥

इसके पश्चात् नारदजी ने भगवान्‌ तथा उनके पार्षदों के चरणों को लक्ष्य करके प्रणाम किया और फिर शुकदेव जी आदि तपस्वियों को भी नमस्कार किया। कथामृत का पान करनेसे सब लोगों- को बड़ा ही आनन्द हुआ, उनका सारा मोह नष्ट हो गया। फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ९० ॥ उस समय शुकदेवजीने भक्तिको उसके पुत्रोंसहित अपने शास्त्रमें स्थापित कर दिया। इसीसे भागवतका सेवन करनेसे श्रीहरि वैष्णवोंके हृदयमें आ विराजते हैं ॥ ९१ ॥ जो लोग दरिद्रताके दु:खज्वरकी ज्वालासे दग्ध हो रहे हैं, जिन्हें माया-पिशाचीने रौंद डाला है तथा जो संसार-समुद्रमें डूब रहे हैं, उनका कल्याण करनेके लिये श्रीमद्भागवत सिंहनाद कर रहा है ॥ ९२ ॥

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१७)
सप्ताहयज्ञ की विधि

शुकेनोक्तं कदा राज्ञे गोकर्णेन कदा पुनः ।
सुरर्षये कदा ब्राह्मैः छिन्धि मे संशयं त्विमम् ॥ ९३ ॥

सूत उवाच –

आकृष्णनिर्गमात् त्रिंशत् वर्षाधिकगते कलौ ।
नवमीतो नभस्ये च कथारंभं शुकोऽकरोत् ॥ ९४ ॥
परीक्षित् श्रवणान्ते च कलौ वर्षशतद्वये ।
शुद्धे शुचौ नवम्यां च धेनुजोऽकथयत्कथाम् ॥ ९५ ॥
तस्मादपि कलौ प्राप्ते त्रिंशत् वर्षगते सति ।
ऊचुरूर्जे सिते पक्षे नवम्यां ब्रह्मणः सुताः ॥ ९६ ॥
इत्येत्तते समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
कलौ भागवती वार्ता भवरोगविनाशिनी ॥ ९७ ॥

शौनकजीने पूछासूतजी ! शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌को, गोकर्ण ने धुन्धुकारी को और सनकादि ने नारदजीको किस-किस समय यह ग्रन्थ सुनाया थामेरा यह संशय दूर कीजिये ! ॥ ९३ ॥

सूतजीने कहाभगवान्‌ श्रीकृष्णके स्वधामगमनके बाद कलियुगके तीस वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर भाद्रपद मासकी शुक्ला नवमीको शुकदेवजीने कथा आरम्भ की थी ॥ ९४ ॥ राजा परीक्षित्‌के कथा सुननेके बाद कलियुगके दो सौ वर्ष बीत जानेपर आषाढ़ मासकी शुक्ला नवमीको गोकर्णजीने यह कथा सुनाई थी ॥ ९५ ॥ इसके पीछे कलियुगके तीस वर्ष और निकल जानेपर कार्तिक शुक्ला नवमीसे सनकादिने कथा आरम्भ की थी ॥ ९६ ॥ निष्पाप शौनकजी ! आपने जो कुछ पूछा था, उसका उत्तर मैंने आपको दे दिया। इस कलियुगमें भागवतकी कथा भवरोगकी रामबाण औषध है ॥ ९७ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१८)
सप्ताहयज्ञ की विधि

कृष्णप्रियं सकलकल्मषनाशनं च
     मुक्त्येकहेतुमिह भक्तिविलासकारि
सन्तः कथानकमिदं पिबतादरेण
     लोके हि तीर्थपरिशीलनसेवया किम् ॥ ९८ ॥
स्वपुरुषमपि वीक्ष्य पाशहस्तं
     वदति यमः किल तस्य कर्णमूले ।
परिहर भगवत्कथासु मत्तान्
     प्रभुरहमन्युनृणां न वैष्णवानाम् ॥ ९९ ॥

सूत जी कहते हैं -संतजन ! आपलोग आदरपूर्वक इस कथामृतका पान कीजिये। यह श्रीकृष्णको अत्यन्त प्रिय, सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला, मुक्ति का एकमात्र कारण और भक्ति को बढ़ानेवाला है। लोकमें अन्य कल्याणकारी साधनोंका विचार करने और तीर्थों का सेवन करने से क्या होगा ॥ ९८ ॥ अपने दूतको हाथमें पाश लिये देखकर यमराज उसके कानमें कहते हैं—‘देखो, जो भगवान्‌की कथा- वार्तामें मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों को ही दण्ड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवोंको नहीं॥ ९९ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१९)
सप्ताहयज्ञ की विधि

असारे संसारे विषयविषसङ्‌गाकुलधियः
     क्षणार्धं क्षेमार्थं पिबत शुकगाथातुलसुधाम् ।
किमर्थं व्यर्थं भो व्रजथ कुपथे कुत्सितकथे
     परीक्षित्साक्षी यत् श्रवणगतमुक्त्युक्तिकथने ॥ १०० ॥
रसप्रवाहसंस्थेन श्रीशुकेनेरिता कथा ।
कण्ठे संबध्यते येन स वैकुण्ठप्रभुर्भवेत् ॥ १०१ ॥
इति च परमगुह्यं सर्वसिद्धान्तसिद्धं
     सपदि निगदितं ते शास्त्रपुञ्जं विलोक्य ।
जगति शुककथातो निर्मलं नास्ति किञ्चित्
     पिब परसुखहेतोर्द्वादशस्कन्धसारम् ॥ १०२ ॥
एतां यो नियततया श्रृणोति भक्त्या
     यश्चैनां कथयति शुद्धवैष्णवाग्रे ।
तौ सम्यक् विधिकरणात्फलं लभेते
     याथार्थ्यान्न हि भुवने किमप्यसाध्यम् ॥ १०३ ॥

इस असार संसारमें विषयरूप विषकी आसक्तिके कारण व्याकुल बुद्धिवाले पुरुषो ! अपने कल्याणके उद्देश्यसे आधे क्षणके लिये भी इस शुककथारूप अनुपम सुधाका पान करो। प्यारे भाइयो ! निन्दित कथाओंसे युक्त कुपथमें व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? इस कथाके कानमें प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बातके साक्षी राजा परीक्षित्‌ हैं ॥ १०० ॥ श्रीशुकदेवजी  ने प्रेमरसके प्रवाहमें स्थित होकर इस कथा को कहा था। इसका जिसके कण्ठ से सम्बन्ध हो जाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है ॥ १०१ ॥ शौनकजी ! मैंने अनेक शास्त्रोंको देखकर आपको यह परम गोप्य रहस्य अभी-अभी सुनाया है। सब शास्त्रोंके सिद्धान्तोंका यही निचोड़ है। संसारमें इस शुकशास्त्रसे अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है; अत: आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये इस द्वादशस्कन्धरूप रसका पान करें ॥ १०२ ॥ जो पुरुष नियमपूर्वक इस कथाका भक्ति-भावसे श्रवण करता है, और जो शुद्धान्त:करण भगवद्भक्तोंके सामने इसे सुनाता है, वे दोनों ही विधिका पूरा-पूरा पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल पाते हैंउनके लिये त्रिलोकीमें कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता ॥ १०३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

|| श्रीमद्भागवत माहात्म्य समाप्त ||


इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये
श्रवणविधिकथनं नाम षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...