रविवार, 9 दिसंबर 2018

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)
( सम्पादक-कल्याण )
वे व्यक्तोपासक, भगवान्‌ की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रिताप-तप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। वयक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्त-तत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं। इसलिये भगवान्‌के मतमें वे ‘योगवित्तम’ हैं, योगियोंमें उत्तम है।
वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राजव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्य-सम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है। इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्तःपुर आदि सभी स्थानों में अबाधरूप से जा ही सकता है। ‘विहार-शय्यासन-भोजनादि’ में एकान्त देश में उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि राज्य-सम्बन्धी सारे काम उसी की सलाह से होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाकी इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीयसे गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने निःशंक भावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानी का पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है। जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानी का पद कौन बड़ी बात है ? परन्तु उस मन्त्री के पद को न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देने में ही सुभीता समझता है, क्योंकि दीवानी का पद दे देनेपर मर्यादा के अनुसार वह राजकार्य के सिवा राजा के निजी कार्यों में साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है। क्योंकि वह मन्त्रीत्व पदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है, इष्ट है। यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवान के स्थान में अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखा के स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा ( परमात्मा )का अन्तरंग सखा नहीं। उसकी निजी लीलाओं से न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्य का सेवक है, राजा का नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजा का निजी सेवक है। राजा का विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणों की नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान्‌ की लीला में शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)
( सम्पादक-कल्याण )
वे व्यक्तोपासक, भगवान्‌ की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रिताप-तप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। वयक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्त-तत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं। इसलिये भगवान्‌के मतमें वे ‘योगवित्तम’ हैं, योगियोंमें उत्तम है।
वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राजव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्य-सम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है। इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्तःपुर आदि सभी स्थानों में अबाधरूप से जा ही सकता है। ‘विहार-शय्यासन-भोजनादि’ में एकान्त देश में उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि राज्य-सम्बन्धी सारे काम उसी की सलाह से होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाकी इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीयसे गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने निःशंक भावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानी का पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है। जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानी का पद कौन बड़ी बात है ? परन्तु उस मन्त्री के पद को न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देने में ही सुभीता समझता है, क्योंकि दीवानी का पद दे देनेपर मर्यादा के अनुसार वह राजकार्य के सिवा राजा के निजी कार्यों में साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है। क्योंकि वह मन्त्रीत्व पदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है, इष्ट है। यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवान के स्थान में अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखा के स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा ( परमात्मा )का अन्तरंग सखा नहीं। उसकी निजी लीलाओं से न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्य का सेवक है, राजा का नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजा का निजी सेवक है। राजा का विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणों की नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान्‌ की लीला में शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)
( सम्पादक-कल्याण )
अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं। वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परमधाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्‌के संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परमधामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’के अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्यधाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधारण मनुष्योंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दुःख-लब्ध बता देते हैं कि लोग सहम जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है, क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्ग में वही देखे हैं । उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दर के सलोने मुखड़े का तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, तब वे उस दिव्य रस का स्वाद लोगों को कैसे बतलाते ? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्ति को भगवान्‌ के खजाने में धरोहर के रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञा से पुनः संसार में आते हैं और भगवत्प्रेम के परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए, देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्‌ के मंगलमय मनोहर साकाररूपमें एकान्तरूप से मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ा-कर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि ‘जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वञ्चित रहते हैं, वैसे ही साकार के उपासक ब्रह्मानन्दसे वञ्चित रहते होंगे।’ उन्हें परमात्मा का तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा, परन्तु यह बात नहीं है।
निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं, भगवान्‌ के प्रेमी साकारोपासकों को वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजी का इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे। ‘पद्म-पलाश-लोचन’ नारायण को आँखों से देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्तोपासक को अव्यक्तोपासकों का ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपा से मिल ही जाता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)
( सम्पादक-कल्याण )
अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं। वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परमधाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्‌के संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परमधामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’के अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्यधाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधारण मनुष्योंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दुःख-लब्ध बता देते हैं कि लोग सहम जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है, क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्ग में वही देखे हैं । उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दर के सलोने मुखड़े का तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, तब वे उस दिव्य रस का स्वाद लोगों को कैसे बतलाते ? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्ति को भगवान्‌ के खजाने में धरोहर के रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञा से पुनः संसार में आते हैं और भगवत्प्रेम के परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए, देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्‌ के मंगलमय मनोहर साकाररूपमें एकान्तरूप से मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ा-कर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि ‘जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वञ्चित रहते हैं, वैसे ही साकार के उपासक ब्रह्मानन्दसे वञ्चित रहते होंगे।’ उन्हें परमात्मा का तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा, परन्तु यह बात नहीं है।
निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं, भगवान्‌ के प्रेमी साकारोपासकों को वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजी का इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे। ‘पद्म-पलाश-लोचन’ नारायण को आँखों से देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्तोपासक को अव्यक्तोपासकों का ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपा से मिल ही जाता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

अन्नमय कोश

पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यंगेऽपि जीवनात् ।
तत्तच्छक्तेरनाशाच्च न नियम्यो नियामकः ॥ १५८ ॥

(यह हाथ-पैरों वाला शरीर आत्मा नहीं हो सकता,क्योंकि उसके अंग-भंग होने पर भी अपनी शक्ति का नाश न होने के कारण पुरुष जीवित रहता है | इसके सिवा जो शरीर स्वयं शासित है , वह शासक आत्मा कभी नहीं हो सकता)

देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः ।
स्वत एव स्वतः सिद्धं तद्वैलक्षण्यमात्मन: ॥ १५९ ॥

(देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं के साक्षी आत्मा की उससे पृथकता स्वयं ही स्वत:सिद्ध है)

कुल्यराशिर्मांसलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः ।
कथं भवेदयं वेत्ता स्वयमेतद्विलक्षणः ॥ १६० ॥

(हड्डियों का समूह, मांस से लिथड़ा हुआ और मल से भरा हुआ यह अति कुत्सित देह, अपने से भिन्न अपना जानने वाला स्वयं ही कैसे हो सकता है ?)

त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशा-
वहंमतिं मूढजनः करोति ।
विलक्षणं वेत्ति विचारशीलो
निजस्वरूपं परमार्थभूतम् ॥ १६१ ॥

(त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल की राशिरूप इस देह में मूढजन ही अहंबुद्धि करते हैं | विचारशील तो अपने पारमार्थिक स्वरूप को इससे पृथक् ही जानते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४८)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४८)

अन्नमय कोश 

देहोऽयमन्नभवनोऽन्नमयस्तु कोश-
श्चान्नेन जीवति विनश्यति तद्विहीनः ।
त्वक्चर्ममांसरुधिरास्थिपुरीषराशि-
र्नायं स्वयं भवितुमर्हति नित्यशुद्धः ॥ १५६ ॥

(अन्न से उत्पन्न हुआ यह देह ही अन्नमय कोश है , जो अन्न से ही जीता है और उसके बिना नष्ट हो जाता है | यह त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर,अस्थि और मल आदि का समूह स्वयं नित्यशुद्ध आत्मा नहीं हो सकता)

पूर्वं जनेरपि मृतेरपि नायमस्ति
जातःक्षणां क्षणगुणोऽनियतस्वभावः ।
नैको जडश्च घटवत्परिदृश्यमानः
स्वात्मा कथं भवति भावविकारवेत्ता ॥ १५७ ॥

(यह जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् भी नहीं रहता, क्षण में जन्म लेता है, क्षणिक गुण वाला है और अस्थिर-स्वभाव है; तथा अनेक तत्वों का संघात, जड और घट के समान दृश्य है, फिर यह भाव-विकारों का जानने वाला अपना आत्मा कैसे हो सकता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)

आत्मानात्म - विवेक 

कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति ।
निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् ॥ १५१ ॥

(अन्नमय आदि पाँच कोशों से आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न हुए शिवाल-पटल से ढँके हुए वापी के जल की भाँति नहीं भासता)

तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम् ।
तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥ १५२ ॥
पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः ।
नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥ १५३ ॥

(जिस प्रकार उस शिवाल के पूर्णतया दूर हो जाने पर मनुष्यों के तृषारूपी ताप को दूर करने वाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख प्रदान करने वाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशों का अपवाद करने पर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरस-स्वरूप , अंतर्यामी, स्वयंप्रकाश परमात्मा भासता है)

आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा ।
तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥

(बन्धन की निवृत्ति के लिए विद्वान् को आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिए | उसी से अपने-आप को सच्चिदानन्दरूप जानकार वह आनंदित हो जाता है)

मुञ्जादिषीकमिव दृश्यवर्गात्
प्रत्यंचमात्मानमसङ्गमक्रियम् ।
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्वं
तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ॥ १५५ ॥

(जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्मा को मूँज में से सींक के समान दृश्यवर्ग से पृथक् करके आत्मभाव में ही स्थित रहता है, वही मुक्त है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४६)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४६)

आत्मानात्म - विवेक 

नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वह्निना 
छेत्तुं न शक्यो न च कर्मकोटिभिः ।
विवेकविज्ञानमहासिना विना 
धातुः प्रसादेन सितेन मञ्जुना ॥ १४९ ॥

(यह बन्धन विधाता की विशुद्ध कृपा से प्राप्त हुए विवेक-विज्ञान-रूप शुभ्र और मंजुल महाखड्ग के बिना और किसी अस्त्र, शस्त्र, वायु, अग्नि अथवा करोड़ों कर्मकलापों से भी नहीं काटा जा सकता)

श्रुतिप्रमाणैकमतेः स्वधर्म-
निष्ठा तयैवात्मविशुद्धिरस्य ।
विशुद्धबुद्धैः परमात्मवेदनं 
तेनैव संसारसमूलनाशः ॥ १५० ॥

जिसका श्रुतिप्रामाण्य में दृढ निश्चय होता है, उसी की स्वधर्म में निष्ठा होती है और उसी से उसकी चित्तशुद्धि हो जाती है ; जिसका चित्त शुद्ध होता है उसी को परमात्मा का ज्ञान होता है और इस ज्ञान से ही संसाररूपी वृक्ष का समूल नाश होता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४५)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४५)

बन्ध निरूपण 

बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरङ्कुरो 
रागः पल्लवमम्बु कर्म तु वपुः स्कन्धोऽसवः शाखिकाः ।
अग्राणीन्द्रिसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं 
नानाकर्मसमुद्भवं बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः ॥ १४७ ॥

(संसाररूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, देहात्म -बुद्धि उसका अंकुर है, राग पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर स्तंभ (तना) है, प्राण शाखाएं हैं, इन्द्रियाँ उपशाखाएँ (गुद्दे ) हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुआ दु:ख फल है तथा जीवरूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है)

अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो 
नैसर्गिकोऽनादिरनन्त ईरितः ।
जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःख-
प्रवाहपातं जनयत्यमुष्य ॥ १४८ ॥

(यह अज्ञानजनित अनात्म-बन्धन स्वाभाविक तथा अनादि और अनंत कहा गया है | यही जीव के जीवन, मरण, व्याधि और जरा(वृद्धावस्था) आदि दु:खों का प्रवाह उत्पन्न कर देता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४४)

आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति 

कवलितदिननाथे दुर्दिने सान्द्रमेघै
र्व्यथयति हिमझञ्झावायुरुग्रोयथैतान् ।
अविरततमसात्मन्यावृते मूढबुद्धिं 
क्षपयति बहुदुःखैस्तीव्रविक्षेपशक्तिः ॥ १४५ ॥

(जिस प्रकार किसी दुर्दिन में [जिस दिन आंधी, मेघ आदि का विशेष उत्पात हो] सघन मेघों के द्वारा सूर्यदेव के आच्छादित होने पर अति भयंकर और ठण्डी ठण्डी आंधी सबको खिन्न कर देती है, उसी प्रकार बुद्धि के निरन्तर तमोगुण से आवृत होने पर मूढ़ पुरुष को विक्षेप-शक्ति नाना प्रकार के दु:खों से सन्तप्त करती है)

एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः ।
याभ्यां विमोहितो देहं मत्वात्मानं भ्रमत्ययम् ॥ १४६ ॥

(इन दोनों [आवरण और विक्षेप] शक्तियों से ही पुरुष को बन्धन की प्राप्ति हुई है और इन्हीं से मोहित होकर यह देह को आत्मा मानकर संसार-चक्र में भ्रमता रहता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...