|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)
भगवान्ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रको सदाचारयुक्त जीवन बनाने तथा दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करनेकी अनेक युक्तियाँ श्रीमद्भगवद्गीतामें बतलायी हैं । वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुरूप विहित कर्तव्य-कर्म करनेके लिये प्रेरणा करते हुए भगवान् कहते हैं‒
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।“
......................(गीत ा ३ । २१)
‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं ।’
वस्तुतः मनुष्यके आचरणसे ही उसकी वास्तविक स्थिति जानी जा सकती है । आचरण दो प्रकारके होते हैं‒(१) अच्छे आचरण, जिन्हें सदाचार कहते हैं और (२) बुरे आचरण, जिन्हें दुराचार कहते हैं ।
सदाचार और सद्गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्गुण से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्गुण दृढ़ होते हैं । इसी प्रकार दुर्गुण-दुराचार का भी परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्गुण-सदाचार (सत् होनेसे) प्रकट होते हैं, पैदा नहीं होते । ‘प्रकट’ वही तत्त्व होता है, जो पहलेसे (अदर्शनरूपसे) रहता है । दुर्गुण-दुराचार मूल में हैं नहीं, वे केवल सांसारिक कामना और अभिमान से उत्पन्न होते हैं । दुर्गुण-दुराचार स्वयं मनुष्यने ही उत्पन्न किये हैं । अतः इनको दूर करनेका उत्तरदायित्व भी मनुष्य पर ही है । सद्गुण-सदाचार कुसंग के प्रभाव से दब सकते हैं, परंतु नष्ट नहीं हो सकते, जब कि दुर्गुण-दुराचार सत्संगादि सदाचार के पालन से सर्वथा नष्ट हो सकते हैं । सर्वथा दुर्गुण-दुराचाररहित सभी हो सकते हैं, किंतु कोई भी व्यक्ति सर्वथा सद्गुण-सदाचार से रहित नहीं हो सकता ।
यद्यपि लोक में ऐसी प्रसिद्धि है कि मनुष्य सदाचारी होने पर सद्गुणी और दुराचारी होने पर दुर्गुणी बनता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सद्गुणी होनेपर ही व्यक्ति सदाचारी और दुर्गुणी होने पर ही दुराचारी बनता है । जैसे‒दयारूप सद्गुणके पश्चात् दानरूप सदाचार प्रकट होता है । इसी प्रकार पहले चोरपने (दुर्गुण) का भाव अहंता (मैं) में उत्पन्न होनेपर व्यक्ति चोरीरूप दुराचार करता है । अतः मनुष्यको सद्गुणों का संग्रह और दुर्गुणोंका त्याग दृढ़तासे करना चाहिये । दृढ़ निश्चय होनेपर दुराचारी-से-दुराचारी को भी भगवत्प्राप्तिरूप सदाचार के चरम लक्ष्यकी प्राप्ति हो सकती है ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)
भगवान्ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रको सदाचारयुक्त जीवन बनाने तथा दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करनेकी अनेक युक्तियाँ श्रीमद्भगवद्गीतामें बतलायी हैं । वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुरूप विहित कर्तव्य-कर्म करनेके लिये प्रेरणा करते हुए भगवान् कहते हैं‒
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।“
......................(गीत
‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं ।’
वस्तुतः मनुष्यके आचरणसे ही उसकी वास्तविक स्थिति जानी जा सकती है । आचरण दो प्रकारके होते हैं‒(१) अच्छे आचरण, जिन्हें सदाचार कहते हैं और (२) बुरे आचरण, जिन्हें दुराचार कहते हैं ।
सदाचार और सद्गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्गुण से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्गुण दृढ़ होते हैं । इसी प्रकार दुर्गुण-दुराचार का भी परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्गुण-सदाचार (सत् होनेसे) प्रकट होते हैं, पैदा नहीं होते । ‘प्रकट’ वही तत्त्व होता है, जो पहलेसे (अदर्शनरूपसे) रहता है । दुर्गुण-दुराचार मूल में हैं नहीं, वे केवल सांसारिक कामना और अभिमान से उत्पन्न होते हैं । दुर्गुण-दुराचार स्वयं मनुष्यने ही उत्पन्न किये हैं । अतः इनको दूर करनेका उत्तरदायित्व भी मनुष्य पर ही है । सद्गुण-सदाचार कुसंग के प्रभाव से दब सकते हैं, परंतु नष्ट नहीं हो सकते, जब कि दुर्गुण-दुराचार सत्संगादि सदाचार के पालन से सर्वथा नष्ट हो सकते हैं । सर्वथा दुर्गुण-दुराचाररहित सभी हो सकते हैं, किंतु कोई भी व्यक्ति सर्वथा सद्गुण-सदाचार से रहित नहीं हो सकता ।
यद्यपि लोक में ऐसी प्रसिद्धि है कि मनुष्य सदाचारी होने पर सद्गुणी और दुराचारी होने पर दुर्गुणी बनता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सद्गुणी होनेपर ही व्यक्ति सदाचारी और दुर्गुणी होने पर ही दुराचारी बनता है । जैसे‒दयारूप सद्गुणके पश्चात् दानरूप सदाचार प्रकट होता है । इसी प्रकार पहले चोरपने (दुर्गुण) का भाव अहंता (मैं) में उत्पन्न होनेपर व्यक्ति चोरीरूप दुराचार करता है । अतः मनुष्यको सद्गुणों का संग्रह और दुर्गुणोंका त्याग दृढ़तासे करना चाहिये । दृढ़ निश्चय होनेपर दुराचारी-से-दुराचारी को भी भगवत्प्राप्तिरूप सदाचार के चरम लक्ष्यकी प्राप्ति हो सकती है ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से