रविवार, 27 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र

मङ्गलाचरण

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतः चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत् सूरयः ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा ।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि । १ ॥

जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थोंसे पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्पसे ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जलमें स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान-सत्तासे सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णत: मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र

मङ्गलाचरण

धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां ।
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भासगवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः ।
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिः तत् क्षणात् ॥ २ ॥

महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है । इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है । अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन । जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदयमें आकर बन्दी बन जाता है ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

मङ्गलाचरण

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं ।
शुकमुखाद् अमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं ।
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ ३ ॥

रसके मर्मज्ञ भक्तजन !
यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के [*] मुखका सम्बन्ध हो जानेसे यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है । इस फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है । जब तक शरीरमें चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्-रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो । यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ॥

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[*] यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र

कथाप्रारम्भ

नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः ।
सत्रं स्वर्गायलोकाय सहस्रसममासत ॥ ४ ॥
त एकदा तु मुनयः प्रातर्हुतहुताग्नयः ।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुः इदमादरात् ॥ ५ ॥

ऋषय ऊचुः ।

त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ ।
आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि यान्युत । ६ ॥
यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायणः ।
अन्ये च मुनयः सूत परावरविदो विदुः ॥ ७ ॥
वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतः तदनुग्रहात् ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ८ ॥
तत्र तत्राञ्जसाऽऽयुष्मन् भवता यद् विनिश्चितम् ।
पुंसां एकान्ततः श्रेयः तन्नः शंसितुमर्हसि । ०९ ॥

एक बार भगवान्‌ विष्णु एवं देवताओंके परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्यमें शौनकादि ऋषियोंने भगवत्-प्राप्तिकी इच्छासे सहस्र वर्षोंमें पूरे होनेवाले एक महान् यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ ४ ॥ एक दिन उन लोगोंने प्रात:काल अग्रिहोत्र आदि नित्यकृत्योंसे निवृत्त होकर सूतजी का पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्र किया ॥ ५ ॥
ऋषियोंने कहा—सूतजी ! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है ॥ ६ ॥ वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ बादरायणने एवं भगवान्‌के सगुण-निर्गुण रूपको जाननेवाले दूसरे मुनियोंने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयोंका ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूपमें जानते हैं। आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसीसे आप उनकी कृपा और अनुग्रहके पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं ॥ ७-८ ॥ आयुष्मन् ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनोंके उपदेशोंमें कलियुगी जीवोंके परम कल्याणका सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र
प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलौ अस्मिन् युगे जनाः ।
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ॥ १० ॥
भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः ।
अतः साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां येनात्मा संप्रसीदति ॥ ११ ॥
सूत जानासि भद्रं ते भगवान् सात्वतां पतिः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य चिकीर्षया ॥ १२ ॥
तन्नः शुष्रूषमाणानां अर्हस्यङ्गानुवर्णितुम् ।
यस्यावतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय च ॥ १३ ॥

(शौनकादि ऋषि, सूतजी से कह रहे हैं) आप संत समाजके भूषण हैं । इस कलियुगमें प्राय: लोगोंकी आयु कम हो गयी है। साधन करनेमें लोगोंकी रुचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकारकी विघ्र- बाधाओंसे घिरे हुए भी रहते हैं ॥ १० ॥ शास्त्र भी बहुत-से हैं। परन्तु उनमें एक निश्चित साधनका नहीं, अनेक प्रकारके कर्मोंका वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धिसे उनका सार निकालकर प्राणियोंके परम कल्याणके लिये हम श्रद्धालुओंको सुनाइये, जिससे हमारे अन्त:करणकी शुद्धि प्राप्त हो ॥ ११ ॥ प्यारे सूतजी ! आपका कल्याण हो । आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियोंके रक्षक भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण वसुदेवकी धर्मपत्नी देवकीके गर्भसे क्या करनेकी इच्छासे अवतीर्ण हुए थे ॥ १२ ॥ हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान्‌का अवतार जीवोंके परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी समृद्धिके लिये ही होता है ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र

आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम् ॥ १४ ॥
यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रशमायनाः ।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया ॥ १५ ॥
को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मणः ।
शुद्धिकामो न श्रृणुयाद् यशः कलिमलापहम् ॥ १६ ॥
तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभिः ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः कलाः ॥ १७ ॥

यह जीव जन्म-मृत्युके घोर चक्रमें पड़ा हुआ है—इस स्थितिमें भी यदि वह कभी भगवान्‌ के मङ्गलमय नामका उच्चारण कर ले तो उसी क्षण उससे मुक्त हो जाय; क्योंकि स्वयं भय भी भगवान्‌से डरता रहता है ॥ १४ ॥ सूतजी ! परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान्‌के श्रीचरणोंकी शरणमें ही रहते हैं, अतएव उनके स्पर्शमात्रसे संसारके जीव तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। इधर गङ्गाजीके जलका बहुत दिनों- तक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है ॥ १५ ॥ ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओंका गान करते रहते हैं, उन भगवान्‌का कलिमलहारी पवित्र यश भला आत्मशुद्धिकी इच्छा- वाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न करे ॥ १६ ॥ वे लीलासे ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओंने उनके उदार कर्मोंका गान किया है। हम श्रद्धालुओंके प्रति आप उनका वर्णन कीजिये ॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र

अथाख्याहि हरेर्धीमन् अवतारकथाः शुभाः ।
लीला विदधतः स्वैरं ईश्वरस्यात्ममायया ॥ १८ ॥
वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।
यत् श्रृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥ १९ ॥
कृतवान् किल वीर्याणि सह रामेण केशवः ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ॥ २० ॥

बुद्धिमान् सूतजी ! सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योग-मायासे स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरिकी मङ्गलमयी अवतार-कथाओंका अब वर्णन कीजिये ॥ १८ ॥ पुण्यकीर्ति भगवान्‌की लीला सुननेसे हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि रसज्ञ श्रोताओंको पद-पदपर भगवान्‌की लीलाओंमें नये-नये रसका अनुभव होता है ॥ १९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनेको छिपाये हुए थे, लोगोंके सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो कोई मनुष्य हों। परन्तु उन्होंने बलरामजीके साथ ऐसी लीलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते ॥ २० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियों का प्रश्र

कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन् वैष्णवे वयम् ।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ॥ २१ ॥
त्वं नः संदर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।
कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ॥ २२ ॥
ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि ।
स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ॥ २३ ॥

कलियुगको आया जानकर इस वैष्णवक्षेत्रमें हम दीर्घकालीन सत्रका संकल्प करके बैठे हैं। श्रीहरिकी कथा सुननेके लिये हमें अवकाश प्राप्त है ॥ २१ ॥ यह कलियुग अन्त:करणकी पवित्रता और शक्तिका नाश करनेवाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे समुद्रसे पार जानेवालोंको कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार इससे पार पानेकी इच्छा रखनेवाले हमलोगोंसे ब्रह्माने आपको मिलाया है ॥ २२ ॥ धर्मरक्षक, ब्राह्मणभक्त, योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णके अपने धाममें पधार जानेपर धर्मने अब किसकी शरण ली है—यह बताइये ॥ २३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

उद्धार का सुगम उपाय..(02)




|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

उद्धार का सुगम उपाय..(02)


हमारे भाई-बहनों में यह विचार उठता है कि हमारे को कोई विशेष साधन बताया जाय, और जब उनको कहते हैं कि ऐसे प्राणायाम करो, ऐसे बैठो, ऐसे आहार-विहार करो तो कह देंगे‒‘महाराज ! ऐसे तो हमारे से होता नहीं, हम तो साधारण आदमी हैं, हम गृहस्थी हैं, निभता नहीं है, क्या करें ? यह तो कठिन है ।फिर राम-रामकरो तो वे कहेंगे कि राम-रामहरेक बालक भी करते हैं । ‘राम-राममें क्या है ? अब कौन-सा बढ़िया साधन बतावें ? अगर विधियाँ बतावें तो होती नहीं हमारे से, और राम-राम तो हरेक बालक ही करता है । राम-राममें क्या है ! यह जवाब मिलता है । अब आप ही बताओ उनको क्या कहा जाय !

परमात्म तत्त्वसे विमुख होने का यह एक तरह से बढ़िया तरीका है । भगवन्नाम के प्रकट हो जाने से नाम में शक्ति कम नहीं हुई है । नाम में अपार शक्ति है और ज्यों-की-त्यों मौजूद है । इसको संतों ने हम लोगों पर कृपा करके प्रकट कर दिया; परंतु लोगों को यह साधारण दीखता है । नाम-जप साधारण तभी तक दीखता है, जब तक इसका सहारा नहीं लेते हैं, इसके शरण नहीं होते हैं । शरण कैसे होवें ? विधि क्या है ?

शरण लेनेकी विधि नहीं होती है । शरण लेनेकी तो आवश्यकता होती है । जैसे, चोर-डाकू आ जाये मारने-पीटने लगें, ऐसी आफतमें आ जायँ तो पुकारते हैं कि नहीं, ‘मेरी रक्षा करो, मुझे बचाओऐसे चिल्लाते हैं । कोई लाठी लेकर कुत्ते के पीछे पड़ जाय और वहाँ भागने की कहीं जगह नहीं हो तो बेचारा कुत्ता लाठी लगने से पहले ही चिल्लाने लगता है । यह चिल्लाना क्या है ? वह पुकार करता है कि मेरी रक्षा होनी चाहिये । उसके पुकार की कोई विधि होती है क्या ? मुहूर्त होता है क्या ? ‘हरिया बंदीवान ज्यूँ करिये कूक पुकार

शरणागति सुगम होती है, जब अपने पर आफत आती है और अपनेको कोई भी उपाय नहीं सूझता, तब हम भगवान्‌के शरण होते हैं । उस समय हम जितना भगवान्‌के आधीन होते हैं, उतना ही काम बहुत जल्दी बनता है । इसमें विधि की आवश्यकता नहीं है । बालक माँको पुकारता है तो क्या कोई विधि पूछता है, या मुहूर्त पूछता है कि इस समयमें रोना शुरू करूँ, यह सिद्ध होगा कि नहीं होगा अथवा ऐसा समय बाँधता है कि आधा घण्टा रोऊँ या दस मिनट रोऊँ; वह तो माँ नहीं मिले, तबतक रोता रहता है । इस माँके मिलनेमें सन्देह है । यह माँ मर गयी हो या कहीं दूर चली गयी हो तो कैसे आवेगी ? पर ठाकुरजी तो सर्वतः श्रुतिमल्लोकेसब जगह सुनते हैं । इसलिये हे नाथ ! हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’‒ऐसे भगवान्‌के शरण हो जायँ, उनके आश्रित हो जायँ । इसमें अगर कोई बाधक है तो वह है अपनी बुद्धिका, अपने वर्णका, अपने आश्रमका, अपनी योग्यता-विद्या आदिका अभिमान । भीतरमें उनका सहारा रहता है कि मैं ऐसा काम कर सकता हूँ । जबतक यह बल, बुद्धि, योग्यता आदिको अपनी मानता रहता है, तबतक सच्ची शरण हो नहीं सकता । इसलिये इनके अभिमानसे रहित होकर चाहे कोई शरण हो जाय और जब कभी हो जाय, उसी वक्त उसका बेड़ा पार है ।

राम ! राम !! राम !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे



उद्धार का सुगम उपाय..(01)



ॐ श्री परमात्मने नम: ||

उद्धार का सुगम उपाय..(01)


सत्ययुग, त्रेता, द्वापरमें आदमी शुद्ध होते थे, पवित्र होते थे, वे विधियाँ जानते थे, उन्हें ज्ञान होता था, समझ होती थी, उनकी आयु बड़ी होती थी । कलियुगके आनेपर इन सब बातों की कमी आ गयी, इसलिये जीवों के उद्धार के लिये बहुत सुगम उपाय बता दिया ।

कलियुग केवल नाम अधारा ।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहिं पारा ॥

संसार से पार होना चाहते हो तो नाम का जप करो ।

जुगति बताओ जालजी राम मिलनकी बात ।
मिल जासी ओ मालजी थे राम रटो दिन रात ॥

रात-दिन भगवान्‌ के नाम का जप करते चले जाओ । हरिरामदास जी महाराज भी कहते हैं

जो जिव चाहे मुकुतिको तो सुमरिजे राम ।
हरिया गेले चालतां जैसे आवे गाम ॥

जैसे रास्ते चलते-चलते गाँव पहुँच ही जाते हैं, ऐसे ही राम-रामकरते-करते भगवान् आ ही जाते हैं, भगवान्‌ की प्राप्ति अवश्य हो जाती है । इसलिये यह रामनाम बहुत ही सीधा और सरल साधन है ।

रसनासे रटबो करे आठुं पहर अभंग ।
रामदास उस सन्त का राम न छाड़े संग ॥

संत-महापुरुषों ने नाम को बहुत विशेषता से सबके लिये प्रकट कर दिया, जिससे हर कोई ले सके; परंतु लोगोंमें प्रायः एक बात हुआ करती है कि जो वस्तु ज्यादा प्रकट होती है, उसका आदर नहीं करते हैं । अतिपरिचयादवज्ञा’‒अत्यधिक प्रसिद्धि हो जानेसे उसका आदर नहीं होता । नामकी अवज्ञा करने लग जाते हैं कि कोरा राम-रामकरनेसे क्या होता है ? ‘राम-रामतो हरेक करता है । टट्टी फिरते बच्चे भी करते रहते हैं । इसमें क्या है ! ऐसे अवज्ञा कर देते हैं ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे
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जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 02)



श्री परमात्मने नम:

जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 02)

एक कथा आती है । एक सज्जनने एकादशीका व्रत किया । द्वादशीके दिन किसीको भोजन कराकर पारणा करना था, पर कोई मिला नहीं । वर्षा हो रही थी । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर एक बूढ़े साधु मिल गये । उनको भोजनके लिये घर बुलाया । उनको बैठाकर उनके सामने पत्तल परोसी तो वे चट खाने लग गये । उन सज्जनने कहा कि महाराज, आपने भगवान्‌को भोग तो लगाया ही नहीं !वह साधु बोला कि भगवान्‌ क्या होता है ? तुम तो मूर्ख हो, समझते नहीं ।यह सुनते ही उन सज्जनने पत्तल खींच ली और बोला कि भगवान्‌ कुछ नहीं होता तो तुम कौन होते हो ? हम भगवान्‌के नाते ही तो आपको भोजन कराते हैं ।उसी समय आकाशवाणी हुई कि अरे ! मेरी निन्दा करते-करते यह साधु बूढ़ा हो गया, पर अभीतक मैं इसको भोजन दे रहा हूँ, तू एक समय भी भोजन नहीं दे सकता और मेरा भक्त कहलाता है ! अगर मैं भोजन न दूँ तो यह कितने दिन जीये ?’ आकाशवाणी सुनकर उनको बड़ी शर्म आयी और फिर उस साधुसे माफ़ी माँगकर उसको प्रेमपूर्वक भोजन कराया ।

ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं ॥
..............(विनयपत्रिका १६२)

ऐसे परम उदार भगवान्‌के रहते हुए हम दुःख पा रहे हैं और गुरुजी हमें सुखी कर देंगे, हमारा उद्धार कर देंगेयह कितनी ठगाई है ! अपने उद्धारके लिये हम खुद तैयार हो जायँ, बस, इतनी ही जरूरत है ।

भगवान्‌ महान् दयालु हैं । वे सबके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध करते हैं तो क्या कल्याणका प्रबन्ध नहीं करेंगे ? इसलिये आप सच्चे- हृदयसे अपने कल्याणकी चाहना बढ़ाओ और भगवान्‌से प्रार्थना करो कि हे नाथ ! मेरा कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय । मैं नहीं जानता कि कल्याण क्या होता है, पर मैं किसी भी जगह फँसूँ नहीं, सदाके लिये सुखी हो जाऊँ । हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ भगवान्‌ सच्ची प्रार्थना अवश्य सुनते हैं

सच्चेह हृदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है ।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥

हमें अपने कल्याणकी जितनी चिन्ता है, उससे ज्यादा भगवान्‌को और सन्त-महात्माओंको चिन्ता है ! बच्चे को अपनी जितनी चिन्ता होती है, उससे ज्यादा माँको चिन्ता होती है, पर बच्चा! इस बातको समझता नहीं ।

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
........... (मानस, उत्तरकाण्ड ४७/३)

जो सच्चे हृदयसे भगवान्‌की तरफ चलता है, उसकी सहायताके लिये सभी सन्त-महात्मा उत्कण्ठित रहते हैं । सन्तोंके हृदयमें सबके कल्याणके लिये अपार दया भरी हुई रहती है । बच्चा भूखा हो तो उसको अन्न देनेका भाव किसके मनमें नहीं आता ?

अगर कोई सच्चे हृदयसे अपना कल्याण चाहते है तो भगवान्‌ अवश्य उसका कल्याण करते हैं । भगवान्‌ समान हमारा हित करनेवाला गुरु भी नहीं है

उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
............. (मानस, किष्किन्धाकाण्ड १२/१)

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक से




जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 01)


श्री परमात्मने नम:
जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 01)
भगवान्‌में अनन्त गुण हैं, जिनका कोई पार नहीं पा सकता । आजतक भगवान्‌के गुणोंका जितना शास्त्रमें वर्णन हुआ है, जितना महात्माओंने वर्णन किया है, वह सब-का-सब मिलकर भी अधूरा है । भगवान्‌के परम भक्त गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं‒ ‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ (मानस, बालकाण्ड २६/४)। सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि अपनी शक्तिको खुद भगवान्‌ भी नहीं जानते !ऐसे अनन्त गुणोंवाले भगवान्‌में कम-से-कम तीन गुण मुख्य हैंसर्वज्ञता, सर्वसमर्थता और सर्वसुहृत्ता । तात्पर्य है कि भगवान्‌के समान कोई सर्वज्ञ नहीं है, कोई सर्वसमर्थ नहीं है और कोई सर्वसुहृद् (परम दयालु) नहीं है । ऐसे भगवान्‌के रहते हुए भी आप दुःख पा रहे हैं, आपकी मुक्ति नहीं हो रही है तो क्या गुरु आपको मुक्त कर देगा ? क्या गुरु भगवान्‌से भी अधिक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु है ? कोरी ठगाईके सिवाय कुछ नहीं होगा ! जबतक आपके भीतर अपने कल्याणकी लालसा जाग्रत नहीं होगी, तबतक भगवान्‌ भी आपका कल्याण नहीं कर सकते, फिर गुरु कैसे कर देगा ?
आपको गुरुमें, सन्त-महात्मामें जो विशेषता दिखती है, वह भी उनकी अपनी विशेषता नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌से आयी हुई और आपकी मानी हुई है ।जैसे कोई भी मिठाई बनायें, उसमें मिठास चीनीकी ही होती है, ऐसे ही जहाँ भी विशेषता दीखती है, वह सब भगवान्‌की ही होती है । भगवान्‌ने गीतामें कहा भी है
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
.............(१०/४१)
जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा पदार्थ है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात्‌ सामर्थ्य) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो ।
भगवान्‌का विरोध करनेवाले राक्षसोंको भी भगवान्‌से ही बल मिलता है तो क्या भगवान्‌का भजन करनेवालोंको भगवान्‌से बल नहीं मिलेगा ? आप भगवान्‌के सम्मुख हो जाओ तो करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे, पर आप सम्मुख ही नहीं होंगे तो पाप कैसे नष्ट होंगे ? भगवान्‌ अपने शत्रुओंको भी शक्ति देते हैं, प्रेमियोंको भी शक्ति देते हैं और उदासीनोंको भी शक्ति देते हैं । भगवान्‌की रची हुई पृथ्वी दुष्ट-सज्जन, आस्तिक-नास्तिक, पापी-पुण्यात्मा सबको रहनेका स्थान देती है । उनका बनाया हुआ अन्न सबकी भूख मिटाता है । उनका बनाया हुआ जल सबकी प्यास बुझाता है । उनका बनाया हुआ पवन सबको श्वास देता है । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापीके लिये भी भगवान्‌की दयालुता समान है । हम घरमें बिजलीका एक लट्टू भी लगाते हैं तो उसका किराया देना पड़ता है, पर भगवान्‌के बनाये सूर्य और चन्द्रने कभी किराया माँगा है ? पानीका एक नल लगा लें तो रुपया लगता है, पर भगवान्‌की बनायी नदियाँ रात-दिन बह रही हैं । क्या किसीने उसका रुपया माँगा है ? रहनेके लिये थोड़ी-सी जमीन भी लें तो उसका रुपया देना पड़ता है, पर भगवान्‌ने रहनेके लिये इतनी बड़ी पृथ्वी दे दी । क्या उसका किराया माँगा है ? अगर उसका किराया माँगा तो किसमें देनेकी ताकत है ? जिसकी बनायी हुई सृष्टि भी इतनी उदार है, वह खुद कितना उदार होगा !
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
शेष आगामी पोस्ट में ......
.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक से




सोमवार, 10 दिसंबर 2018

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥




कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। 
प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥


जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ भगवान्‌ तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्ति से ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ 

येषां चित्ते वसेद्‌भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ 
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ 
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ 
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ 

………. (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य २|१६-१९)



रविवार, 9 दिसंबर 2018

“सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||”



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा |
यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||”


श्रीमद्भागवत की कथा का सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिए | इसके श्रवणमात्र से श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं |

इस ग्रन्थमें अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध हैं तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित्‌ का संवाद है । यह जीव तभी तक अज्ञानवश इस संसारचक्र में भटकता है, जबतक क्षणभर के लिये भी कानों में इस शुकशास्त्र की कथा नहीं पड़ती | बहुत-से शास्त्र और पुराण सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थ का भ्रम बढ़ता है । मुक्ति देने के लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है | जिस घर में नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं | हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्र की कथा का सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते | जब तक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवत का श्रवण नहीं करते, तभी तक उनके शरीर में पाप निवास करते हैं | फल की दृष्टि से इस शुकशास्त्रकथा की समता गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयागकोई तीर्थ भी नहीं कर सकता |

जो पुरुष अन्तसमय में श्रीमद्भागवत का वाक्य सुन लेता है, उस पर प्रसन्न होकर भगवान् उसे वैकुण्ठधाम देते हैं |

अन्तकाले तु येनैव श्रूयते शुकशास्त्रवाक् |
प्रीत्या तस्यैव वैकुण्ठं गोविन्दोऽपि प्रयच्छति ||”

कलियुग में जीवों के उद्धार के लिए श्रीमद्भागवत ही एकमात्र उपाय है।

|| ॐ तत्सत् ||



निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं, मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः||



निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् |
पिबत भागवतं रसमालयं, मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः||

महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फलकी कामना से रहित परम धर्मका निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषोंके जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्माका निरूपण हुआ है, जो तीनों तापोंका जड़से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्रसे क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदयमें आकर बन्दी बन जाता है |

रसके मर्मज्ञ भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के [*] मुखका सम्बन्ध हो जानेसे यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है । इस फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है । जब तक शरीरमें चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्-रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो । यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ॥ 

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[*] यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है


|| ॐ तत्सत् ||






सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः



सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः

 
श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीयरहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्त वेदोंका सार है। संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये आध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है।
यदि आपको परम गति की इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवत के आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये ॥ ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ‘ॐनमो भगवते वासुदेवाय’—यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्यभगवान्‌, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान्‌ पुरुषोत्तमइन सब में बुद्धिमान् लोग वस्तुत: कोई अन्तर नहीं मानते ॥ जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवत-शास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता हैइसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञों का फल मिलता है ॥ नित्य भागवतका पाठ करना, भगवान्‌ का चिन्तन करना, तुलसी को सींचना और गौ की सेवा करनाये चारों समान हैं ॥ जो पुरुष अन्तसमय में श्रीमद्भागवत का वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ उसे वैकुण्ठधाम देते हैं ॥ जो पुरुष इसे सोने के सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्त को दान करता है, वह अवश्य ही भगवान्‌ का सायुज्य प्राप्त करता है ॥

हरिः ॐ तत्सत् !

...........(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ३|३३-४१)

 गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से



गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०७)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०७)

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् आज्ञा देते हैं‒

“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥“
............ (९ । २७)

‘हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ।’ यहाँ यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त ‘यत्करोषि’ और ‘यदश्रासि’‒ये दो क्रियाएँ और आयी हैं । तात्पर्य यह है कि यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त हम जो कुछ भी शास्त्र-विहित कर्म करते हैं और शरीर-निर्वाहके लिये खाना, पीना, सोना आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं, वे सब भगवान्‌के अर्पण करनेसे ‘सत्’ हो जाती हैं । साधारण-से-साधारण स्वाभाविक-व्यावहारिक कर्म भी यदि भगवान्‌के लिये किया जाय तो वह भी ‘सत्’ हो जाता है । भगवान् कहते हैं‒

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
..................(गीता १८ । ४६)

‘अपने स्वाभाविक कर्मोंके द्वारा उस परमात्माकी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’ जैसे, एक व्यक्ति प्राणियोंकी साधारण सेवा केवल भगवान्‌के लिये ही करता है और दूसरा व्यक्ति केवल भगवान्‌के लिये ही जप करता है । यद्यपि स्वरूपसे दो प्रकारकी छोटी-बड़ी क्रियाएँ दीखती हैं, परंतु दोनों (साधकों) का उद्देश्य परमात्मा होनेसे वस्तुतः उनमें किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं है; क्योंकि परमात्मा सर्वत्र समानरूपसे परिपूर्ण हैं । वे जैसे जप-क्रियामें हैं, वैसे ही साधारण सेवा-क्रियामें भी हैं ।

भगवान् ‘सत्’ स्वरूप हैं । अतः उनसे जिस किसीका भी सम्बन्ध होगा, वह सब ‘सत्’ हो जायगा । जिस प्रकार अग्निसे सम्बन्ध होनेपर लोहा, लकड़ी, ईंट, पत्थर, कोयला‒ये सभी एक-से चमकने लगते हैं, वैसे ही भगवान्‌के लिये ( भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे) किये गये छोटे-बड़े सब-के-सब कर्म ‘सत्’ हो जाते हैं, अर्थात् सदाचार बन जाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीतामें सदाचार-सूत्र[*] यही बतलाया गया है कि यदि मनुष्यका लक्ष्य (उद्देश्य) केवल सत् (परमात्मा) हो जाय तो उसके समस्त कर्म भी ‘सत्‌’ अर्थात्‌ सदाचाररूप ही हो जायँगे । अतएव सत्‌स्वरूप एवं सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन परमात्माकी ओर ही अपनी वृत्ति रखनी चाहिये, फिर सद्गुण, सदाचार स्वतः प्रकट होने लगेंगे ।

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[*] यद्यपि गीता सर्वशास्त्रमयी है और उसमें सर्वत्र सदाचार की ही चर्चा है, फिर भी भगवान्‌ ने कृपा करके इतने छोटे से ग्रन्थ में अनेक प्रकार से कई स्थानों पर सदाचारी पुरुष के लक्षणों का विभिन्न रूपों में वर्णन किया है, जिनमें निम्नलिखित स्थल प्रमुख हैं‒(१) दूसरे अध्याय के ५५वें श्लोकसे ७१वें श्लोक तक स्थितप्रज्ञ-सदाचारी का वर्णन, (२) बारहवें अध्यायके १३वें श्लोक से २०वें श्लोक तक भक्तसदाचारी का वर्णन, (३) तेरहवें अध्याय के ७वें श्लोकसे ११वें श्लोक तक ज्ञान के नामसे सदाचार का वर्णन, (४) चौदहवें अध्यायके २२वें श्लोकसे २५वें श्लोकतक गुणातीत सदाचारी के लक्षण-आचरण और प्राप्ति के उपाय का वर्णन और (५) सोलहवें अध्याय के पहले श्लोकसे तीसरे श्लोकतक दैवी (भगवान्‌की) सम्पत्तिरूप सदाचार का वर्णन ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...