॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
सूत
उवाच ।
विदुरस्तीर्थयात्रायां
मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाt
हास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥ १ ॥
यावतः
कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः ।
जातैकभक्तिः
गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २ ॥
तं
बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः ।
धृतराष्ट्रो
युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा ॥ ३ ॥
गान्धारी
द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च
जामयः पाण्डोः ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः ॥ ४ ॥
प्रत्युज्जग्मुः
प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम् ।
अभिसङ्गम्य
विधिवत् परिष्वङ्गाभिवादनैः ॥ ५ ॥
मुमुचुः
प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्य कातराः ।
राजा
तमर्हयां चक्रे कृतासन परिग्रहम् ॥ ६ ॥
तं
भुक्तवन्तं विश्रान्तं आसीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो
राजा प्राह तेषां च श्रृण्वताम् ॥ ७ ॥
सूतजी
कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके
हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी, वह
पूर्ण हो गयी थी ॥ १ ॥ विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्र किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले ही श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे
उत्तर सुननेसे उपराम हो गये ॥ २ ॥ शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज
युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र,
ययुत्सु, संजय, कृपाचार्य,
कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी,
सुभद्रा, उत्तरा, कृपी
तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमें प्राण
आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये।
यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर
होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये। युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया
॥ ३—६ ॥ जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे
थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
युधिष्ठिर
उवाच ।
अपि
स्मरथ नो युष्मत् पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्गणाद्
विषाग्न्यादेः मोचिता यत्समातृकाः ॥ ८ ॥
कया
वृत्त्या वर्तितं वः चरद्भिः क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि
क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥ ९ ॥
भवद्विधा
भागवताः तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति
तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ १० ॥
अपि
नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः ।
दृष्टाः
श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११ ॥
इत्युक्तो
धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत् ।
यथानुभूतं
क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥ १२ ॥
नन्वप्रियं
दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत्
सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः ॥ १३ ॥
युधिष्ठिर
ने
(विदुरजी से) कहा—चाचाजी ! जैसे पक्षी अपने
अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने कर-कमलों की छत्रछाया में हमलोगों को
पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृहके दाह आदि
विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हमलोगोंकी भी याद करते रहे हैं ? ॥ ८ ॥ आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह किया ?
आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रोंका सेवन किया ?
॥ ९ ॥ प्रभो ! आप-जैसे भगवान्के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप
होते हैं। आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान् के द्वारा तीर्थोंको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ॥ १० ॥
चाचाजी ! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे
सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव
श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ ११ ॥ युधिष्ठिरके
इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा,
सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया,
केवल यदुवंशके विनाश की बात नहीं कही ॥ १२ ॥ करुणहृदय विदुरजी
पाण्डवोंको दुखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना
पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट
होनेवाली थी ॥ १३ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
कञ्चित्
कालमथ अवात्सीत् सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य
श्रेयस्कृत् सर्वेषां सुखमावहन् ॥ १४ ॥
अबिभ्रदर्यमा
दण्डं यथावत् अघकारिषु ।
यावद्
दधार शूद्रत्वं शापात् वर्षशतं यमः ॥ १५ ॥
युधिष्ठिरो
लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैः
मुमुदे परया श्रिया ॥ १६ ॥
एवं
गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामत्
अविज्ञातः कालः परमदुस्तरः ॥ १७ ॥
विदुरस्तत्
अभिप्रेत्य धृतराष्ट्रं अभाषत ।
राजन्
निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम् ॥ १८ ॥
प्रतिक्रिया
न यस्येह कुतश्चित् कर्हिचित् प्रभो ।
स
एष भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः ॥ १९ ॥
पाण्डव
विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई
धृतराष्ट्र की कल्याण-कामना से सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक
हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ १४ ॥ विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे [*]। इतने दिनों तक
यमराज के पदपर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ १५ ॥ राज्य प्राप्त
हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित् को
देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने लगे ॥ १६ ॥ इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके
काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही
हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके
सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ॥ १७ ॥
परन्तु
विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है,
झटपट यहाँसे निकल चलिये ॥ १८ ॥ हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ
काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है
॥ १९ ॥
.......................................................................
[*]
एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा।
उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरी में शामिल होंगे। अत: वे भी पकड़ लिये गये और
राजाज्ञासे सबके साथ उनको भी सूलीपर चढ़ा दिया गया। राजाको यह पता लगते ही कि ये
महात्मा हैं—ऋषिको सूलीसे उतरवा दिया और हाथ जोडक़र उनसे अपना अपराध क्षमा कराया।
माण्डव्यजीने यमराजके पास जाकर पूछा—‘मुझे किस पापके
फलस्वरूप यह दण्ड मिला ?’ यमराजने बताया कि ‘आपने लडक़पनमें एक टिड्डीको कुशकी नोकसे छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इसपर मुनिने कहा—‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटेसे अपराधके
लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्षतक शूद्रयोनिमें रहोगे।’
माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया
था।
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
येन
चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि ।
जनः
सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैः धनादिभिः ॥ २० ॥
पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा
हतास्ते विगतं वयः ।
आत्मा
च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे ॥ २१ ॥
अहो
महीयसी जन्तोः जीविताशा यया भवान् ।
भीमापवर्जितं
पिण्डं आदत्ते गृहपालवत् ॥ २२ ॥
अग्निर्निसृष्टो
दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं
क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ २३ ॥
तस्यापि
तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।
परैत्यनिच्छतो
जीर्णो जरया वाससी इव ॥ २४ ॥
गतस्वार्थमिमं
देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः ।
अविज्ञातगतिः
जह्यात् स वै धीर उदाहृतः ॥ २५ ॥
यः
स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि
कृत्वा हरिं गेहात् प्रव्रजेत् स नरोत्तमः ॥ २६ ॥
अथोदीचीं
दिशं यातु स्वैरज्ञात गतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक्
प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः ॥ २७ ॥
(विदुरजी
धृतराष्ट्र से कहते हैं) काल के वशीभूत
होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है
॥ २० ॥ आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे- सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया,
आप पराये घरमें पड़े हुए हैं ॥ २१ ॥ ओह ! इस प्राणी को जीवित रहने की
कितनी प्रबल इच्छा होती है ! इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर
कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता
पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है ॥ २३ ॥ आपके
अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा;
पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी
क्षीण हुआ जा रहा है ॥ २४ ॥ अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधनेवाला नहीं है;
इसमें फँसिये मत, इसकी ममता का बन्धन काट
डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग
करता है, वही धीर कहा गया है ॥ २५ ॥ चाहे अपनी समझ से हो या
दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दु:खरूप समझकर इससे विरक्त
हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान् को धारण कर संन्यास के
लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ २६ ॥ इसके
आगे जो समय आनेवाला है, वह प्राय: मनुष्यों के गुणों को
घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर
उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ॥ २७ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
एवं
राजा विदुरेणानुजेन
प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा
स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८ ॥
पतिं
प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं
न्यस्तदण्डप्रहर्षं
मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९ ॥
अजातशत्रुः
कृतमैत्रो हुताग्निः
विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं
प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च ॥ ३० ॥
तत्र
सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे
क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१ ॥
अम्बा
च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि
मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः
शमलं गङ्गायां दुःखितोऽपतत् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते
पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां
व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३ ॥
जब
छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार समझाया, तब उनकी
प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़
स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ २८ ॥
जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी
यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है,
जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए
न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल
पड़ीं ॥ २९ ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके
ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये
राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्रचित्त
होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और
नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥ पुत्रशोकसे
पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ?
ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे दुखी थे। मैं
बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके
वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजीमें तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥ जब हमारे पिता पाण्डुकी
मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं
दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दु:खोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे।
हाय ! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥
शेष
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प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
सूत
उवाच ।
कृपया
स्नेहवैक्लव्यात् सूतो विरहकर्शितः ।
आत्मेश्वरमचक्षाणो
न प्रत्याहातिपीडितः ॥ ३४ ॥
विमृज्याश्रूणि
पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
अजातशत्रुं
प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन् ॥ ३५ ॥
सञ्जय
उवाच ।
नाहं
वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन ।
गान्धार्या
वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः ॥ ३६ ॥
अथाजगाम
भगवान् नारदः सहतुम्बुरुः ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह
सानुजोऽभ्यर्चयन् मुनिम् ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिर
उवाच ।
नाहं
वेद गतिं पित्रोः भगवन् क्व गतावितः ।
अम्बा
वा हतपुत्रार्ता क्व गता च तपस्विनी ॥ ३८ ॥
कर्णधार
इवापारे भगवान् पारदर्शकः ।
अथाबभाषे
भगवान् नारदो मुनिसत्तमः ॥ ३९ ॥
नारद
उवाच ।
मा
कञ्चन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत् ।
लोकाः
सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः ।
स
संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ॥ ४० ॥
सूतजी
कहते हैं—सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलतासे अत्यन्त
पीडि़त और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिरको कुछ उत्तर न दे सके ॥ ३४ ॥ फिर
धीरे-धीरे बुद्धिके द्वारा उन्होंने अपने चित्तको स्थिर किया, हाथों से आँखों के आँसू पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्रके चरणोंका स्मरण
करते हुए युधिष्ठिरसे कहा ॥ ३५ ॥
सञ्जय
बोले—कुलनन्दन ! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारीके सङ्कल्पका कुछ भी पता नहीं
है। महाबाहो ! मुझे तो उन महात्माओंने ठग लिया ॥ ३६ ॥ सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे
थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिरने
भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले— ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिरने
कहा—‘भगवन् ! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोकसे व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँसे
कहाँ चले गये ॥ ३८ ॥ भगवन् ! अपार समुद्रमें कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक
हैं।’ तब भगवान्के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारदने कहा—
॥ ३९ ॥ ‘धर्मराज ! तुम किसीके लिये शोक मत करो
क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही
आज्ञाका पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग
करता है ॥ ४० ॥
शेष
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श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
यथा
गावो नसि प्रोताः तन्त्यां बद्धाः स्वदामभिः ।
वाक्तन्त्यां
नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितुः ॥ ४१ ॥
यथा
क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया
क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम् ॥ ४२ ॥
यन्मन्यसे
ध्रुवं लोकं अध्रुवं वा न चोभयम् ।
सर्वथा
न हि शोच्यास्ते स्नेहात् अन्यत्र मोहजात् ॥ ४३ ॥
तस्माज्जह्यङ्ग
वैक्लव्यं अज्ञानकृतमात्मनः ।
कथं
त्वनाथाः कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना ॥ ४४ ॥
कालकर्म
गुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः ।
कथमन्यांस्तु
गोपायेत् सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥ ४५ ॥
अहस्तानि
सहस्तानां अपदानि चतुष्पदाम् ।
फल्गूनि
तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ ४६ ॥
तदिदं
भगवान् राजन् एक आत्मात्मनां स्वदृक् ।
अन्तरोऽनन्तरो
भाति पश्य तं माययोरुधा ॥ ४७ ॥
(देवर्षि
नारद युधिष्ठिर से कहते हैं) जैसे बैल
बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से नथे रहकर अपने स्वामीका भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकारके नामोंसे वेदरूप रस्सीमें
बँधकर ईश्वरकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं ॥ ४१ ॥ जैसे संसारमें खिलाड़ीकी इच्छासे
ही खिलौनोंका संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्की
इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना-बिछुडऩा होता है ॥ ४२ ॥ तुम लोगोंको जीवरूपसे नित्य
मानो या देहरूपसे अनित्य अथवा जडरूपसे अनित्य और चेतन-रूपसे नित्य अथवा
शुद्धब्रह्मरूपमें नित्य- अनित्य कुछ भी न मानो—किसी भी
अवस्थामें मोहजन्य आसक्तिके अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ ४३ ॥ इसलिये
धर्मराज ! वे दीन-दुखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विकलताको छोड़ दो ॥ ४४ ॥ यह पाञ्चभौतिक शरीर काल,
कर्म और गुणोंके वशमें है। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह
पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है ॥ ४५ ॥ हाथवालोंके बिना हाथवाले,
चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े
जीवोंके छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है
॥ ४६ ॥ इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्,
जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके
द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं। तुम केवल उन्हींको देखो ॥ ४७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
सोऽयमद्य
महाराज भगवान् भूतभावनः ।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यां
अभावाय सुरद्विषाम् ॥ ४८ ॥
निष्पादितं
देवकृत्यं अवशेषं प्रतीक्षते ।
तावद्
यूयं अवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वरः ॥ ४९ ॥
धृतराष्ट्रः
सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन
हिमवत ऋषीणां आश्रमं गतः ॥ ५० ॥
स्रोतोभिः
सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां
प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते ॥ ५१ ॥
स्नात्वानुसवनं
तस्मिन् हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि ।
अब्भक्ष
उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः ॥ ५२ ॥
जितासनो
जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः ।
हरिभावनया
ध्वस्तः अजःसत्त्वतमोमलः ॥ ५३ ॥
(देवर्षि
नारद युधिष्ठिर से कहरहे हैं) महाराज ! समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले
वे ही भगवान् इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से
अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४८ ॥ अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं। थोड़ा-सा काम और
शेष है,
उसीके लिये वे रुके हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं, तब तक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ॥ ४९ ॥
धर्मराज
! हिमालयके दक्षिण भागमें,
जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गङ्गाजीने अलग- अलग सात
धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे
‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये
हैं ॥ ५०-५१ ॥ वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्रिहोत्र करते हैं। अब उनके
चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर
शान्तचित्तसे निवास करते हैं ॥ ५२ ॥ आसन जीतकर प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी
छहों इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है। भगवान्की धारणासे उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं ॥ ५३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
विज्ञानात्मनि
संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम् ।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे
घटाम्बरमिवाम्बरे ॥ ५४ ॥
ध्वस्तमायागुणोदर्को
निरुद्धकरणाशयः ।
निवर्तिताखिलाहार
आस्ते स्थाणुरिवाचलः ।
तस्यान्तरायो
मैवाभूः सन्न्यस्ताखिलकर्मणः ॥ ५५ ॥
स
वा अद्यतनाद् राजन् परतः पञ्चमेऽहनि ।
कलेवरं
हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति ॥ ५६ ॥
दह्यमानेऽग्निभिर्देहे
पत्युः पत्नी सहोटजे ।
बहिः
स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति ॥ ५७ ॥
विदुरस्तु
तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद्
गन्ता तीर्थनिषेवकः ॥ ५८ ॥
इत्युक्त्वाथारुहत्
स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः ।
युधिष्ठिरो
वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः ॥ ५९ ॥
(देवर्षि
नारद युधिष्ठिर से कहरहे हैं कि) उन्होंने (दोनों चाचाओं और गांधारी ने) अहंकार को
बुद्धि के साथ जोडक़र और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में
घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्ममें एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त
इन्द्रियों और मनको रोककर समस्त विषयोंको बाहरसे ही लौटा दिया है और माया के गुणों
से होनेवाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मोंका संन्यास करके वे इस
समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अत: तुम उनके मार्गमें
विघ्ररूप मत बनना [*] ॥ ५४-५५ ॥ धर्मराज ! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का
परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ५६ ॥ गाहर्पत्यादि अग्रियों के
द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृतदेह को जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी
भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी ॥ ५७ ॥ धर्मराज ! विदुरजी
अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुखित होते हुए वहाँसे
तीर्थ-सेवनके लिये चले जायँगे ॥ ५८ ॥ देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरुके साथ
स्वर्गको चले गये। धर्मराज युधिष्ठिरने उनके उपदेशोंको हृदयमें धारण करके शोकको
त्याग दिया ॥५९॥
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[*] देवर्षि नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। वे
धृतराष्ट्र के भविष्य जीवन को वर्तमान की भाँति प्रत्यक्ष देखते हुए उसी रूपमें वर्णन
कर रहे हैं। धृतराष्ट्र पिछली रातको ही हस्तिनापुर से गये हैं, अत: यह वर्णन भविष्यका ही समझना चाहिये ।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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