॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०१)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
उद्धव
उवाच -
अथ
ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया
विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ १ ॥
तेषां
मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति
रवावासीत् वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २ ॥
भगवान्
स्वात्ममायाया गतिं तां अवलोक्य सः ।
सरस्वतीं
उपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ३ ॥
अहं
चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह ।
बदरीं
त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥ ४ ॥
उद्धवजीने
कहा—फिर ब्राह्मणोंकी आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी।
उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनोंसे एक दूसरेके हृदयको चोट पहुँचाने
लगे ॥ १ ॥ मदिराके नशेसे उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपसकी रगड़से बाँसोंमें आग
लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट
होने लगी ॥ २ ॥ भगवान् अपनी मायाकी उस विचित्र गतिको देखकर सरस्वती के जलसे आचमन
करके एक वृक्षके नीचे बैठ गये ॥ ३ ॥ इससे पहले ही शरणागतों का दु:ख दूर करने वाले
भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था
कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ ४ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०२)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
अथापि
तदभिप्रेतं जानन् अहं अरिन्दम् ।
पृष्ठतोऽन्वगमं
भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥ ५ ॥
अद्राक्षमेकमासीनं
विचिन्वन् दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं
सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ६ ॥
श्यामावदातं
विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्चतुर्भिः
विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥ ७ ॥
वाम
ऊरौ अवधिश्रित्य दक्षिणाङ्घ्रिसरोरुहम् ।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थं
अकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ८ ॥
तस्मिन्
महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा ।
लोकान्
अनुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥ ९ ॥
तस्यानुरक्तस्य
मुनेर्मुकुन्दः
प्रमोदभावानतकन्धरस्य ।
आश्रृण्वतो
मां अनुरागहास
समीक्षया विश्रमयन् उवाच ॥ १० ॥
(उद्धवजी
कहते हैं) विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका(भगवान का) आशय समझ गया था, तो भी स्वामीके चरणोंका वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे
प्रभासक्षेत्रमें पहुँच गया ॥ ५ ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु
जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम
श्यामसुन्दर सरस्वती के तटपर अकेले ही बैठे हैं ॥ ६ ॥ दिव्य विशुद्ध-सत्त्वमय
अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्तिसे भरी रतनारी आँखें
हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूरसे ही पहचान लिया ॥ ७
॥ वे एक पीपलके छोटे-से वृक्षका सहारा लिये बायीं जाँघपर दायाँ चरणकमल रखे बैठे
थे। भोजन-पानका त्याग कर देनेपर भी वे आनन्दसे प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ ८ ॥ इसी समय
व्यासजीके प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकोंमें स्वच्छन्द विचरते हुए
वहाँ आ पहुँचे ॥ ९ ॥ मैत्रेय मुनि भगवान्के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और
भक्तिभावसे उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरिने प्रेम एवं मुसकानयुक्त
चितवनसे मुझे आनन्दित करते हुए कहा ॥ १० ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०३)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
श्रीभगवानुवाच
–
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं
ते
ददामि यत्तद् दुरवापमन्यैः ।
सत्रे
पुरा विश्वसृजां वसूनां
मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥ ११ ॥
स
एष साधो चरमो भवानां
आसादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां
नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२ ॥
पुरा
मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं
परं मन्महिमावभासं
यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३ ॥
श्रीभगवान्
कहने लगे—मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं
तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ
है। उद्धव ! तुम पूर्व-जन्ममें वसु थे। विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियों और
वसुओंके यज्ञमें मुझे पानेकी इच्छासे ही तुमने मेरी आराधना की थी ॥ ११ ॥ साधुस्वभाव
उद्धव ! संसारमें तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें
तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मृत्युलोकको छोडक़र अपने धाममें
जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्तमें तुमने अपनी अनन्य भक्तिके कारण ही मेरा
दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है ॥ १२ ॥ पूर्वकालमें
पाद्मकल्पके आरम्भमें मैंने अपने नाभि-कमलपर बैठे हुए ब्रह्माको अपनी महिमाके
प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वही मैं
तुम्हें देता हूँ ॥ १३ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०४)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
इत्यादृतोक्तः
परमस्य पुंसः
प्रतिक्षणानुग्रहभाजनोऽहम् ।
स्नेहोत्थरोमा
स्खलिताक्षरस्तं
मुञ्चञ्छुचः प्राञ्जलिराबभाषे ॥ १४ ॥
को
न्वीश ते पादसरोजभाजां
सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह ।
तथापि
नाहं प्रवृणोमि भूमन्
भवत्पदाम्भोज निषेवणोत्सुकः ॥ १५ ॥
कर्माण्यनीहस्य
भवोऽभवस्य
ते दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम् ।
कालात्मनो
यत्प्रमदायुताश्रयः
स्वात्मन् रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥ १६ ॥
(उद्धवजी
कहते हैं) विदुरजी ! मुझपर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुषकी कृपा बरसा करती थी।
इस समय उनके इस प्रकार आदरपूर्वक कहनेसे स्नेहवश मुझे रोमाञ्च हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। उस समय
मैंने हाथ जोडक़र उनसे कहा— ॥ १४ ॥ ‘स्वामिन्
! आपके चरण-कमलोंकी सेवा करनेवाले पुरुषोंको इस संसारमें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—इन चारोंमेंसे कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि
मुझे उनमेंसे किसीकी इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलोंकी सेवाके लिये ही
लालायित रहता हूँ ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप नि:स्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी
शत्रुके डरसे भागते हैं और द्वारकाके किलेमें जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम
होकर भी सोलह हजार स्त्रियोंके साथ रमण करते हैं—इन विचित्र
चरित्रोंको देखकर विद्वानोंकी बुद्धि भी चक्करमें पड़ जाती है ॥ १६ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०५)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
मन्त्रेषु
मां वा उपहूय यत्त्वं
अकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः ।
पृच्छेः
प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तः
तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७ ॥
ज्ञानं
परं स्वात्मरहःप्रकाशं
प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम् ।
अपि
क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः
वदाञ्जसा यद् वृजिनं तरेम ॥ १८ ॥
इत्यावेदितहार्दाय
मह्यं स भगवान् परः ।
आदिदेश
अरविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥ १९ ॥
(उद्धवजी
भगवान् से कहरहे हैं) देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर
भी आप सलाह लेनेके लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्योंकी तरह बड़ी सावधानीसे मेरी
सम्मति पूछा करते थे,
प्रभो ! आपकी वह लीला मेरे मनको मोहित-सा कर देती है ॥ १७ ॥
स्वामिन् ! अपने स्वरूपका गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान
आपने ब्रह्माजीको बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो
मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दु:खको सुगमतासे पार
कर जाऊँ’ ॥ १८ ॥ जब मैंने इस प्रकार अपने हृदयका भाव निवेदित
किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे अपने
स्वरूपकी परम स्थितिका उपदेश दिया ॥ १९ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०६)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
स
एवं आराधितपादतीर्थाद्
अधीततत्त्वात्मविबोधमार्गः ।
प्रणम्य
पादौ परिवृत्य देवं
इहागतोऽहं विरहातुरात्मा ॥ २० ॥
सोऽहं
तद्दर्शनाह्लाद वियोगार्तियुतः प्रभो ।
गमिष्ये
दयितं तस्य बदर्याश्रममण्डलम् ॥ २१ ॥
यत्र
नारायणो देवो नरश्च भगवान् ऋषिः ।
मृदु
तीव्रं तपो दीर्घं तेपाते लोकभावनौ ॥ २२ ॥
(उद्धवजी
कहते हैं) इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्णसे आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका
साधन सुनकर तथा उन प्रभुके चरणोंकी वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस
समय उनके विरहसे मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है ॥ २० ॥ विदुरजी ! पहले तो
उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे
हृदयको उनकी विरहव्यथा अत्यन्त पीडि़त कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र
बदरिकाश्रमको जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नर—ये दोनों ऋषि लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये दीर्घकालीन सौम्य दूसरोंको सुख
पहुँचानेवाली एवं कठिन तपस्या कर रहें हैं ॥ २१-२२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०७)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
श्रीशुक
उवाच -
इति
उद्धवाद् उपाकर्ण्य सुहृदां दुःसहं वधम् ।
ज्ञानेनाशमयत्
क्षत्ता शोकं उत्पतितं बुधः ॥ २३ ॥
स
तं महाभागवतं व्रजन्तं कौरवर्षभः ।
विश्रम्भाद्
अभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥ २४ ॥
विदुर
उवाच -
ज्ञानं
परं स्वात्मरहःप्रकाशं
यदाह योगेश्वर ईश्वरस्ते ।
वक्तुं
भवान्नोऽर्हति यद्धि विष्णोः
भृत्याः स्वभृत्यार्थकृतश्चरन्ति ॥ २५ ॥
उद्धव
उवाच ।
ननु
ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्ति मे ।
साक्षाद्
भगवतादिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥ २६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—इस प्रकार उद्धवजी के मुखसे अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार
सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे
उन्होंने ज्ञानद्वारा शान्त कर दिया ॥ २३ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में
प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब
कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा ॥ २४ ॥
विदुरजीने
कहा—उद्धवजी ! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप के गूढ़ रहस्य को
प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी
सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य
सिद्ध करनेके लिये ही विचरा करते हैं ॥ २५ ॥
उद्धवजीने
कहा—उस तत्त्वज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोकको
छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान्ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा
दी थी ॥ २६ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०८)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
श्रीशुक
उवाच –
इति
सह विदुरेण विश्वमूर्तेः
गुणकथया सुधया प्लावितोरुतापः ।
क्षणमिव
पुलिने यमस्वसुस्तां
समुषित औपगविर्निशां ततोऽगात् ॥ २७ ॥
राजोवाच
-
निधनमुपगतेषु
वृष्णिभोजेषु
अधिरथयूथपयूथपेषु मुख्यः ।
स
तु कथमवशिष्ट उद्धवो
यद्धरिरपि तत्यज आकृतिं त्र्यधीशः ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंकी चर्चा
होनेसे उस कथामृतके द्वारा उद्धवजीका वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुनाजी के
तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। फिर प्रात:काल होते ही वे वहाँ से
चल दिये ॥ २७ ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! वृष्णिकुल और भोजवंशके सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो
गये थे। यहाँ तक कि त्रिलोकी नाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोडऩा पड़ा था। फिर उन
सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ? ॥ २८ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०९)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
श्रीशुक
उवाच -
ब्रह्मशापापदेशेन
कालेनामोघवाञ्छितः ।
संहृत्य
स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन् देहमचिन्तयत् ॥ २९ ॥
अस्मात्
लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम् ।
अर्हत्युद्धव
एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥ ३० ॥
नोद्धवोऽण्वपि
मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दितः प्रभुः ।
अतो
मद्वयुनं लोकं ग्राहयन् इह तिष्ठतु ॥ ३१ ॥
एवं
त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्टः शब्दयोनिना ।
बदर्याश्रममासाद्य
हरिमीजे समाधिना ॥ ३२ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरिने
ब्राह्मणोंके शापरूप कालके बहाने अपने कुलका संहार कर अपने श्रीविग्रहको त्यागते
समय विचार किया ॥ २९ ॥ ‘अब इस लोकसे मेरे चले जानेपर
संयमीशिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करनेके सच्चे अधिकारी हैं ॥ ३० ॥ उद्धव
मुझ से अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं,
विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अत: लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा
देते हुए वे यहीं रहें’ ॥ ३१ ॥ वेदों के मूल कारण जगद्गुरु
श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देनेपर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधि- योग द्वारा
श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट१०)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
विदुरोऽप्युद्धवात्
श्रुत्वा कृष्णस्य परमात्मनः ।
क्रीडयोपात्तदेहस्य
कर्माणि श्लाघितानि च ॥ ३३ ॥
देहन्यासं
च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम् ।
अन्येषां
दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम् ॥ ३४ ॥
आत्मानं
च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम् ।
ध्यायन्
गते भागवते रुरोद प्रेमविह्वलः ॥ ३५ ॥
कालिन्द्याः
कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ ।
प्रापद्यत
स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनिः ॥ ३६ ॥
(श्रीशुकदेवजी
कहते हैं) कुरुश्रेष्ठ परीक्षित् ! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना
श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह
अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ाने वाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर
पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजी के मुखसे उनके प्रशंसनीय
कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होनेका समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान् ने
परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजीके
चले जानेपर प्रेमसे विह्वल होकर रोने लगे ॥ ३३—३५ ॥ इसके
पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुनातटसे चलकर कुछ दिनोंमें गङ्गाजीके किनारे जा
पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
विदुरोद्धवसंवादे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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