॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
वीरभद्रकृत
दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
मैत्रेय
उवाच -
भवो
भवान्या निधनं प्रजापतेः
असत्कृताया अवगम्य नारदात् ।
स्वपार्षदसैन्यं
च तदध्वरर्भुभिः
विद्रावितं क्रोधमपारमादधे ॥ १ ॥
क्रुद्धः
सुदष्टौष्ठपुटः स धूर्जटिः
जटां तडिद् वह्निसटोग्ररोचिषम् ।
उत्कृत्य
रुद्रः सहसोत्थितो हसन्
गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि ॥ २ ॥
ततोऽतिकायस्तनुवा
स्पृशन्दिवं
सहस्रबाहुर्घनरुक् त्रिसूर्यदृक् ।
करालदंष्ट्रो
ज्वलदग्निमूर्धजः
कपालमाली विविधोद्यतायुधः ॥ ३ ॥
तं
किं करोमीति गृणन्तमाह
बद्धाञ्जलिं भगवान् भूतनाथः ।
दक्षं
सयज्ञं जहि मद्भटानां
त्वमग्रणी रुद्र भटांशको मे ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—महादेवजीने जब देवर्षि नारदके मुखसे सुना कि अपने पिता दक्षसे अपमानित
होनेके कारण देवी सतीने प्राण त्याग दिये हैं और उसकी यज्ञवेदीसे प्रकट हुए
ऋभुओंने उनके पार्षदोंकी सेनाको मारकर भगा दिया है, तब
उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ ॥ १ ॥ उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोधके मारे होठ चबाते
हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली—जो बिजली और आगकी लपटके समान दीप्त
हो रही थी—और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहासके साथ उसे
पृथ्वीपर पटक दिया ॥ २ ॥ उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न
हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्गको स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ
थीं। मेघके समान श्यामवर्ण था, सूर्यके समान जलते हुए तीन
नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्रिकी ज्वालाओंके समान
लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गलेमें नरमुण्डोंकी माला थी और हाथोंमें तरह-तरहके
अस्त्र-शस्त्र थे ॥ ३ ॥ जब उसने हाथ जोडक़र पूछा, ‘भगवन् !
मैं क्या करूँ ?’ तो भगवान् भूतनाथने कहा—‘वीर रुद्र ! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदोंका
अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञको नष्ट कर दे’ ॥ ४ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
वीरभद्रकृत
दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
आज्ञप्त
एवं कुपितेन मन्युना
स देवदेवं परिचक्रमे विभुम् ।
मेनेतदात्मानमसङ्गरंहसा
महीयसां तात सहः सहिष्णुम् ॥ ५ ॥
अन्वीयमानः
स तु रुद्रपार्षदैः
भृशं नदद्भिर्व्यनदत्सुभैरवम् ।
उद्यम्य
शूलं जगदन्तकान्तकं
स प्राद्रवद् घोषणभूषणाङ्घ्रिः ॥ ॥ ६ ॥
अथर्त्विजो
यजमानः सदस्याः
ककुभ्युदीच्यां प्रसमीक्ष्य रेणुम् ।
तमः
किमेतत्कुत एतद्रजोऽभू
दिति द्विजा द्विजपत्न्यश्च दध्युः ॥ ७ ॥
वाता
न वान्ति न हि सन्ति दस्यवः
प्राचीनबर्हिर्जीवति होग्रदण्डः ।
गावो
न काल्यन्त इदं कुतो रजो
लोकोऽधुना किं प्रलयाय कल्पते ॥ ८ ॥
प्रसूतिमिश्राः
स्त्रिय उद्विग्नचित्ता
ऊचुर्विपाको वृजिनस्यैव तस्य ।
यत्पश्यन्तीनां
दुहितॄणां प्रजेशः
सुतां सतीमवदध्यावनागाम् ॥ ९ ॥
यस्त्वन्तकाले
व्युप्तजटाकलापः
स्वशूलसूच्यर्पितदिग्गजेन्द्रः ।
वितत्य
नृत्यत्युदितास्त्रदोर्ध्वजान्
उच्चाट्टहास स्तनयित्नुभिन्नदिक् ॥ १० ॥
अमर्षयित्वा
तमसह्यतेजसं
मन्युप्लुतं दुर्निरीक्ष्यं भ्रुकुट्या ।
करालदंष्ट्राभिरुदस्तभागणं
स्यात् स्वस्ति किं कोपयतो विधातुः ॥ ११ ॥
प्यारे
विदुरजी ! जब देवाधिदेव भगवान् शङ्कर ने क्रोध में भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलने को तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा
मालूम होने लगा कि मेरे वेग का सामना करनेवाला संसार में कोई नहीं है और मैं
बड़े-से-बड़े वीर का भी वेग सहन कर सकता हूँ ॥ ५ ॥ वे भयङ्कर सिंहनाद करते हुए एक
अति कराल त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल
संसारसंहारक मृत्यु का भी संहार करने में समर्थ था। भगवान् रुद्रके और भी बहुत-से
सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्रके पैरोंके नूपुरादि आभूषण
झनन-झनन बजते जाते थे ॥ ६ ॥
इधर
यज्ञशालामें बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान, सदस्य
तथा अन्य ब्राह्मण और ब्राह्मणियोंने जब उत्तर दिशाकी ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे—‘अरे, यह
अँधेरा-सा कैसे होता आ रहा है ? यह धूल कहाँसे छा गयी ?
॥ ७ ॥ इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते
हैं; क्योंकि अपराधियोंको कठोर दण्ड देनेवाला राजा
प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओंके आनेका समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल
कहाँसे आयी ? क्या इसी समय संसारका प्रलय तो नहीं होनेवाला
है ?’ ॥ ८ ॥ तब दक्षपत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियोंने
व्याकुल होकर कहा—प्रजापति दक्षने अपनी सारी कन्याओंके सामने
बेचारी निरपराधा सतीका तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह
उसी पापका फल है ॥ ९ ॥ (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्रके अनादरका ही
परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जिस समय वे अपने जटाजूटको बिखेरकर तथा
शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित अपनी भुजाओंको ध्वजाओंके समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते
हैं, उस समय उनके त्रिशूलके फलोंसे दिग्गज बंध जाते हैं तथा
उनके मेघगर्जन के समान भयङ्कर अट्टहाससे दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं ॥ १० ॥ उस समय
उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करने के कारण
बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ों से तारागण अस्त-व्यस्त हो जाते
हैं। उन क्रोध में भरे हुए भगवान् शङ्कर को बार-बार कुपित करनेवाला पुरुष
साक्षात् विधाता ही क्यों न हो—क्या कभी उसका कल्याण हो सकता
है ? ॥ ११ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
वीरभद्रकृत
दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
बह्वेवमुद्विग्न
दृशोच्यमाने
जनेन दक्षस्य मुहुर्महात्मनः ।
उत्पेतुरुत्पाततमाः
सहस्रशो
भयावहा दिवि भूमौ च पर्यक् ॥ १२ ॥
तावत्स
रुद्रानुचरैर्मखो महान्
नानायुधैर्वामनकैरुदायुधैः ।
पिङ्गैः
पिशङ्गैर्मकरोदराननैः
पर्याद्रवद्भिः विदुरान्वरुध्यत ॥ १३ ॥
केचिद्बभञ्जुः
प्राग्वंशं पत्नीशालां तथापरे ।
सद
आग्नीध्रशालां च तद्विहारं महानसम् ॥ १४ ॥
रुरुजुर्यज्ञपात्राणि
तथैकेऽग्नीननाशयन् ।
कुण्डेष्वमूत्रयन्केचिद्
बिभिदुर्वेदिमेखलाः ॥ १५ ॥
अबाधन्त
मुनीनन्ये एके पत्नीरतर्जयन् ।
अपरे
जगृहुर्देवान् प्रत्यासन्नान् पलायितान् ॥ १६ ॥
भृगुं
बबन्ध मणिमान् वीरभद्रः प्रजापतिम् ।
चण्डेशः
पूषणं देवं भगं नन्दीश्वरोऽग्रहीत् ॥ १७ ॥
जो
लोग महात्मा दक्षके यज्ञमें बैठे थे, वे भयके कारण
एक-दूसरेकी ओर कातर दृष्टिसे निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरहकी बातें कर रहे थे कि
इतनेमें ही आकाश और पृथ्वीमें सब ओर सहस्रों भयङ्कर उत्पात होने लगे ॥ १२ ॥
विदुरजी ! इसी समय दौडक़र आये हुए रुद्रसेवकोंने उस महान् यज्ञमण्डपको सब ओरसे घेर
लिया। वे सब तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंगके, कोई पीले और कोई मगरके समान पेट और
मुखवाले थे ॥ १३ ॥ उनमेंसे किन्हींने प्राग्वंश (यज्ञशालाके पूर्व और पश्चिमके
खंभोंके बीचमें आड़े रखे हुए डंडे) को तोड़ डाला, किन्हींने
यज्ञशालाके पश्चिमकी ओर स्थित पत्नीशालाको नष्ट कर दिया, किन्हींने
यज्ञशालाके सामनेका सभामण्डप और मण्डपके आगे उत्तरकी ओर स्थित आग्रीध्रशालाको तोड़
दिया, किन्हींने यजमानगृह और पाकशालाको तहस-नहस कर डाला ॥ १४
॥ किन्हींने यज्ञके पात्र फोड़ दिये, किन्हींने अग्रियोंको
बुझा दिया, किन्हींने यज्ञकुण्डोंमें पेशाब कर दिया और
किन्हींने वेदीकी सीमाके सूत्रोंको तोड़ डाला ॥ १५ ॥ कोई-कोई मुनियोंको तंग करने
लगे, कोई स्त्रियोंको डराने-धमकाने लगे और किन्हींने अपने
पास होकर भागते हुए देवताओंको पकड़ लिया ॥ १६ ॥ मणिमान् ने भृगु ऋषिको बाँध लिया,
वीरभद्रने प्रजापति दक्षको कैद कर लिया तथा चण्डीशने पूषाको और
नन्दीश्वरने भग देवताको पकड़ लिया ॥ १७ ॥
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
वीरभद्रकृत
दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
सर्व
एवर्त्विजो दृष्ट्वा सदस्याः सदिवौकसः ।
तैरर्द्यमानाः
सुभृशं ग्रावभिर्नैकधाद्रवन् ॥ १८ ॥
जुह्वतः
स्रुवहस्तस्य श्मश्रूणि भगवान्भवः ।
भृगोर्लुलुञ्चे
सदसि योऽहसत् श्मश्रु दर्शयन् ॥ १९ ॥
भगस्य
नेत्रे भगवान् पातितस्य रुषा भुवि ।
उज्जहार
सदःस्थोऽक्ष्णा यः शपन्तं असूसुचत् ॥ २० ॥
पूष्णो
ह्यपातयद् दन्तान् कालिङ्गस्य यथा बलः ।
शप्यमाने
गरिमणि योऽहसद् दर्शयन्दतः ॥ २१ ॥
आक्रम्योरसि दक्षस्य शितधारेण
हेतिना ।
छिन्दन्नपि
तदुद्धर्तुं नाशक्नोत् त्र्यम्बकस्तदा ॥ २२ ॥
शस्त्रैरस्त्रान्वितैरेवं
अनिर्भिन्नत्वचं हरः ।
विस्मयं
परमापन्नो दध्यौ पशुपतिश्चिरम् ॥ २३ ॥
दृष्ट्वा
संज्ञपनं योगं पशूनां स पतिर्मखे ।
यजमानपशोः
कस्य कायात्तेनाहरच्छिरः ॥ २४ ॥
साधुवादस्तदा
तेषां कर्म तत्तस्य शंसताम् ।
भूतप्रेतपिशाचानां
अन्येषां तद्विपर्ययः ॥ २५ ॥
जुहावैतच्छिरस्तस्मिन्
दक्षिणाग्नावमर्षितः ।
तद्देवयजनं
दग्ध्वा प्रातिष्ठद् गुह्यकालयम् ॥ २६ ॥
भगवान्
शङ्करके पार्षदोंकी यह भयङ्कर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरोंकी मारसे बहुत तंग
आकर वहाँ जितने ऋत्विज्,
सदस्य और देवतालोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग
गये ॥ १८ ॥ भृगुजी हाथमें स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्रने इनकी दाढ़ी-मूँछ
नोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियोंकी सभामें मूँछें
ऐंठते हुए महादेवजीका उपहास किया था ॥ १९ ॥ उन्होंने क्रोधमें भरकर भगदेवताको
पृथ्वीपर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष
देवसभामें श्रीमहादेवजीको बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस
समय इन्होंने दक्षको सैन देकर उकसाया था ॥ २० ॥ इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्धके
विवाहके समय बलरामजीने कलिङ्गराजके दाँत उखाड़े थे, उसी
प्रकार उन्होंने पूषाके दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्षने
महादेवजीको गालियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे ॥
२१ ॥ फिर वे दक्षकी छातीपर बैठकर एक तेज तलवारसे उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे उस समय उसे धड़से अलग न कर सके ॥ २२ ॥
जब किसी भी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे दक्षकी त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्रको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देरतक विचार करते रहे ॥ २३ ॥ तब
उन्होंने यज्ञमण्डपमें यज्ञपशुओंको जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशुका सिर धड़से अलग कर दिया ॥ २४
॥ यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्मकी
प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह’ करने लगे
और दक्षके दलवालोंमें हाहाकार मच गया ॥ २५ ॥ वीरभद्रने अत्यन्त कुपित होकर दक्षके सिरको
यज्ञकी दक्षिणाग्नि में डाल दिया और उस यज्ञशालामें आग लगाकर यज्ञको विध्वंस करके
वे कैलासपर्वतको लौट गये ॥ २६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
दक्षयज्ञविध्वंसो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
शेष
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