सोमवार, 11 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पाँचवाँ  अध्याय..(पोस्ट०१)

वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध

मैत्रेय उवाच -
भवो भवान्या निधनं प्रजापतेः
     असत्कृताया अवगम्य नारदात् ।
स्वपार्षदसैन्यं च तदध्वरर्भुभिः
     विद्रावितं क्रोधमपारमादधे ॥ १ ॥
क्रुद्धः सुदष्टौष्ठपुटः स धूर्जटिः
     जटां तडिद् वह्निसटोग्ररोचिषम् ।
उत्कृत्य रुद्रः सहसोत्थितो हसन्
     गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि ॥ २ ॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं
     सहस्रबाहुर्घनरुक् त्रिसूर्यदृक् ।
करालदंष्ट्रो ज्वलदग्निमूर्धजः
     कपालमाली विविधोद्यतायुधः ॥ ३ ॥
तं किं करोमीति गृणन्तमाह
     बद्धाञ्जलिं भगवान् भूतनाथः ।
दक्षं सयज्ञं जहि मद्‍भटानां
     त्वमग्रणी रुद्र भटांशको मे ॥ ४ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंमहादेवजीने जब देवर्षि नारदके मुखसे सुना कि अपने पिता दक्षसे अपमानित होनेके कारण देवी सतीने प्राण त्याग दिये हैं और उसकी यज्ञवेदीसे प्रकट हुए ऋभुओंने उनके पार्षदोंकी सेनाको मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ ॥ १ ॥ उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोधके मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ लीजो बिजली और आगकी लपटके समान दीप्त हो रही थीऔर सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहासके साथ उसे पृथ्वीपर पटक दिया ॥ २ ॥ उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्गको स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं। मेघके समान श्यामवर्ण था, सूर्यके समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्रिकी ज्वालाओंके समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गलेमें नरमुण्डोंकी माला थी और हाथोंमें तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र थे ॥ ३ ॥ जब उसने हाथ जोडक़र पूछा, ‘भगवन् ! मैं क्या करूँ ?’ तो भगवान्‌ भूतनाथने कहा—‘वीर रुद्र ! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदोंका अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञको नष्ट कर दे॥ ४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पाँचवाँ  अध्याय..(पोस्ट०२)

वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
आज्ञप्त एवं कुपितेन मन्युना
     स देवदेवं परिचक्रमे विभुम् ।
मेनेतदात्मानमसङ्‌गरंहसा
     महीयसां तात सहः सहिष्णुम् ॥ ५ ॥
अन्वीयमानः स तु रुद्रपार्षदैः
     भृशं नदद्‌भिर्व्यनदत्सुभैरवम् ।
उद्यम्य शूलं जगदन्तकान्तकं
     स प्राद्रवद् घोषणभूषणाङ्‌घ्रिः ॥ ॥ ६ ॥
अथर्त्विजो यजमानः सदस्याः
     ककुभ्युदीच्यां प्रसमीक्ष्य रेणुम् ।
तमः किमेतत्कुत एतद्रजोऽभू
     दिति द्विजा द्विजपत्‍न्यश्च दध्युः ॥ ७ ॥
वाता न वान्ति न हि सन्ति दस्यवः
     प्राचीनबर्हिर्जीवति होग्रदण्डः ।
गावो न काल्यन्त इदं कुतो रजो
     लोकोऽधुना किं प्रलयाय कल्पते ॥ ८ ॥
प्रसूतिमिश्राः स्त्रिय उद्विग्नचित्ता
     ऊचुर्विपाको वृजिनस्यैव तस्य ।
यत्पश्यन्तीनां दुहितॄणां प्रजेशः
     सुतां सतीमवदध्यावनागाम् ॥ ९ ॥
यस्त्वन्तकाले व्युप्तजटाकलापः
     स्वशूलसूच्यर्पितदिग्गजेन्द्रः ।
वितत्य नृत्यत्युदितास्त्रदोर्ध्वजान्
     उच्चाट्टहास स्तनयित्‍नुभिन्नदिक् ॥ १० ॥
अमर्षयित्वा तमसह्यतेजसं
     मन्युप्लुतं दुर्निरीक्ष्यं भ्रुकुट्या ।
करालदंष्ट्राभिरुदस्तभागणं
     स्यात् स्वस्ति किं कोपयतो विधातुः ॥ ११ ॥

प्यारे विदुरजी ! जब देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर ने क्रोध में भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलने को तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेग का सामना करनेवाला संसार में कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीर का भी वेग सहन कर सकता हूँ ॥ ५ ॥ वे भयङ्कर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसारसंहारक मृत्यु का भी संहार करने में समर्थ था। भगवान्‌ रुद्रके और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्रके पैरोंके नूपुरादि आभूषण झनन-झनन बजते जाते थे ॥ ६ ॥
इधर यज्ञशालामें बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान, सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्राह्मणियोंने जब उत्तर दिशाकी ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे—‘अरे, यह अँधेरा-सा कैसे होता आ रहा है ? यह धूल कहाँसे छा गयी ? ॥ ७ ॥ इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियोंको कठोर दण्ड देनेवाला राजा प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओंके आनेका समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँसे आयी ? क्या इसी समय संसारका प्रलय तो नहीं होनेवाला है ?’ ॥ ८ ॥ तब दक्षपत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियोंने व्याकुल होकर कहाप्रजापति दक्षने अपनी सारी कन्याओंके सामने बेचारी निरपराधा सतीका तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पापका फल है ॥ ९ ॥ (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान्‌ रुद्रके अनादरका ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जिस समय वे अपने जटाजूटको बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित अपनी भुजाओंको ध्वजाओंके समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूलके फलोंसे दिग्गज बंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जन के समान भयङ्कर अट्टहाससे दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं ॥ १० ॥ उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करने के कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ों से तारागण अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोध में भरे हुए भगवान्‌ शङ्कर को बार-बार कुपित करनेवाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न होक्या कभी उसका कल्याण हो सकता है ? ॥ ११ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पाँचवाँ  अध्याय..(पोस्ट०३)

वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध

बह्वेवमुद्विग्न दृशोच्यमाने
     जनेन दक्षस्य मुहुर्महात्मनः ।
उत्पेतुरुत्पाततमाः सहस्रशो
     भयावहा दिवि भूमौ च पर्यक् ॥ १२ ॥
तावत्स रुद्रानुचरैर्मखो महान्
     नानायुधैर्वामनकैरुदायुधैः ।
पिङ्‌गैः पिशङ्‌गैर्मकरोदराननैः
     पर्याद्रवद्‌भिः विदुरान्वरुध्यत ॥ १३ ॥
केचिद्‍बभञ्जुः प्राग्वंशं पत्‍नीशालां तथापरे ।
सद आग्नीध्रशालां च तद्विहारं महानसम् ॥ १४ ॥
रुरुजुर्यज्ञपात्राणि तथैकेऽग्नीननाशयन् ।
कुण्डेष्वमूत्रयन्केचिद् बिभिदुर्वेदिमेखलाः ॥ १५ ॥
अबाधन्त मुनीनन्ये एके पत्‍नीरतर्जयन् ।
अपरे जगृहुर्देवान् प्रत्यासन्नान् पलायितान् ॥ १६ ॥
भृगुं बबन्ध मणिमान् वीरभद्रः प्रजापतिम् ।
चण्डेशः पूषणं देवं भगं नन्दीश्वरोऽग्रहीत् ॥ १७ ॥

जो लोग महात्मा दक्षके यज्ञमें बैठे थे, वे भयके कारण एक-दूसरेकी ओर कातर दृष्टिसे निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरहकी बातें कर रहे थे कि इतनेमें ही आकाश और पृथ्वीमें सब ओर सहस्रों भयङ्कर उत्पात होने लगे ॥ १२ ॥ विदुरजी ! इसी समय दौडक़र आये हुए रुद्रसेवकोंने उस महान् यज्ञमण्डपको सब ओरसे घेर लिया। वे सब तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंगके, कोई पीले और कोई मगरके समान पेट और मुखवाले थे ॥ १३ ॥ उनमेंसे किन्हींने प्राग्वंश (यज्ञशालाके पूर्व और पश्चिमके खंभोंके बीचमें आड़े रखे हुए डंडे) को तोड़ डाला, किन्हींने यज्ञशालाके पश्चिमकी ओर स्थित पत्नीशालाको नष्ट कर दिया, किन्हींने यज्ञशालाके सामनेका सभामण्डप और मण्डपके आगे उत्तरकी ओर स्थित आग्रीध्रशालाको तोड़ दिया, किन्हींने यजमानगृह और पाकशालाको तहस-नहस कर डाला ॥ १४ ॥ किन्हींने यज्ञके पात्र फोड़ दिये, किन्हींने अग्रियोंको बुझा दिया, किन्हींने यज्ञकुण्डोंमें पेशाब कर दिया और किन्हींने वेदीकी सीमाके सूत्रोंको तोड़ डाला ॥ १५ ॥ कोई-कोई मुनियोंको तंग करने लगे, कोई स्त्रियोंको डराने-धमकाने लगे और किन्हींने अपने पास होकर भागते हुए देवताओंको पकड़ लिया ॥ १६ ॥ मणिमान् ने भृगु ऋषिको बाँध लिया, वीरभद्रने प्रजापति दक्षको कैद कर लिया तथा चण्डीशने पूषाको और नन्दीश्वरने भग देवताको पकड़ लिया ॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पाँचवाँ  अध्याय..(पोस्ट०४)

वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध

सर्व एवर्त्विजो दृष्ट्वा सदस्याः सदिवौकसः ।
तैरर्द्यमानाः सुभृशं ग्रावभिर्नैकधाद्रवन् ॥ १८ ॥
जुह्वतः स्रुवहस्तस्य श्मश्रूणि भगवान्भवः ।
भृगोर्लुलुञ्चे सदसि योऽहसत् श्मश्रु दर्शयन् ॥ १९ ॥
भगस्य नेत्रे भगवान् पातितस्य रुषा भुवि ।
उज्जहार सदःस्थोऽक्ष्णा यः शपन्तं असूसुचत् ॥ २० ॥
पूष्णो ह्यपातयद् दन्तान् कालिङ्‌गस्य यथा बलः ।
शप्यमाने गरिमणि योऽहसद् दर्शयन्दतः ॥ २१ ॥
आक्रम्योरसि दक्षस्य शितधारेण हेतिना ।  
छिन्दन्नपि तदुद्धर्तुं नाशक्नोत् त्र्यम्बकस्तदा ॥ २२ ॥
शस्त्रैरस्त्रान्वितैरेवं अनिर्भिन्नत्वचं हरः ।
विस्मयं परमापन्नो दध्यौ पशुपतिश्चिरम् ॥ २३ ॥
दृष्ट्वा संज्ञपनं योगं पशूनां स पतिर्मखे ।
यजमानपशोः कस्य कायात्तेनाहरच्छिरः ॥ २४ ॥
साधुवादस्तदा तेषां कर्म तत्तस्य शंसताम् ।
भूतप्रेतपिशाचानां अन्येषां तद्विपर्ययः ॥ २५ ॥
जुहावैतच्छिरस्तस्मिन् दक्षिणाग्नावमर्षितः ।
तद्देवयजनं दग्ध्वा प्रातिष्ठद् गुह्यकालयम् ॥ २६ ॥

भगवान्‌ शङ्करके पार्षदोंकी यह भयङ्कर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरोंकी मारसे बहुत तंग आकर वहाँ जितने ऋत्विज्, सदस्य और देवतालोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये ॥ १८ ॥ भृगुजी हाथमें स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्रने इनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियोंकी सभामें मूँछें ऐंठते हुए महादेवजीका उपहास किया था ॥ १९ ॥ उन्होंने क्रोधमें भरकर भगदेवताको पृथ्वीपर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभामें श्रीमहादेवजीको बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्षको सैन देकर उकसाया था ॥ २० ॥ इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्धके विवाहके समय बलरामजीने कलिङ्गराजके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषाके दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्षने महादेवजीको गालियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे ॥ २१ ॥ फिर वे दक्षकी छातीपर बैठकर एक तेज तलवारसे उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे उस समय उसे धड़से अलग न कर सके ॥ २२ ॥ जब किसी भी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे दक्षकी त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्रको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देरतक विचार करते रहे ॥ २३ ॥ तब उन्होंने यज्ञमण्डपमें यज्ञपशुओंको जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशुका सिर धड़से अलग कर दिया ॥ २४ ॥ यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्मकी प्रशंसा करते हुए वाह-वाहकरने लगे और दक्षके दलवालोंमें हाहाकार मच गया ॥ २५ ॥ वीरभद्रने अत्यन्त कुपित होकर दक्षके सिरको यज्ञकी दक्षिणाग्नि में डाल दिया और उस यज्ञशालामें आग लगाकर यज्ञको विध्वंस करके वे कैलासपर्वतको लौट गये ॥ २६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे दक्षयज्ञविध्वंसो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – चौथा अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०१)

सती का अग्निप्रवेश

मैत्रेय उवाच -
एतावदुक्त्वा विरराम शङ्‌करः
     पत्‍न्यङ्‌गनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन् ।
सुहृद् दिदृक्षुः परिशङ्‌किता भवान्
     निष्क्रामती निर्विशती द्विधाऽऽस सा ॥ १ ॥
सुहृद् दिदृक्षाप्रतिघातदुर्मनाः
     स्नेहाद्रुदत्यश्रुकलातिविह्वला ।
भवं भवान्यप्रतिपूरुषं रुषा
     प्रधक्ष्यतीवैक्षत जातवेपथुः ॥ २ ॥
ततो विनिःश्वस्य सती विहाय तं
     शोकेन रोषेण च दूयता हृदा ।
पित्रोरगात् स्त्रैणविमूढधीर्गृहान्
     प्रेम्णात्मनो योऽर्धमदात्सतां प्रियः ॥ ३ ॥
तामन्वगच्छन् द्रुतविक्रमां सतीं
     एकां त्रिनेत्रानुचराः सहस्रशः ।
सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादयः
     पुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथाः ॥ ४ ॥
तां सारिका कन्दुकदर्पणाम्बुज
     श्वेतातपत्र व्यजनस्रगादिभिः ।
गीतायनैः दुन्दुभिशङ्‌खवेणुभिः
     वृषेन्द्रमारोप्य विटङ्‌किता ययुः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! इतना कहकर भगवान्‌ शङ्कर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्षके यहाँ जाने देने अथवा जाने देनेसे रोकनेदोनों ही अवस्थाओंमें सतीके प्राणत्यागकी सम्भावना है। इधर, सतीजी भी कभी बन्धुजनोंको देखने जानेकी इच्छासे बाहर आतीं और कभी भगवान्‌ शङ्कर रुष्ट न हो जायँइस शङ्कासे फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकनेके कारण वे दुविधामें पड़ गयींचञ्चल हो गयीं ॥ १ ॥ बन्धुजनोंसे मिलनेकी इच्छामें बाधा पडऩेसे वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनोंके स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखोंमें आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थरथर काँपने लगा और वे अप्रतिम पुरुष भगवान्‌ शङ्करकी ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टिसे देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी ॥ २ ॥ शोक और क्रोधने उनके चित्तको बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभावके कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अङ्गतक दे दिया था, उन सत्पुरुषोंके प्रिय भगवान्‌ शङ्करको भी छोडक़र वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिताके घर चल दीं ॥ ३ ॥ सतीको बड़ी फुर्तीसे अकेली जाते देख श्रीमहादेवजीके मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान्‌के वाहन वृषभराजको आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षोंको साथ ले बड़ी तेजीसे निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये ॥ ४ ॥ उन्होंने सतीको बैलपर सवार करा दिया तथा मैनापक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेलकी सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शङ्ख और बाँसुरी आदि गाने-बजानेके सामानोंसे सुसज्जित हो वे उनके साथ चल दिये ॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०२)

सती का अग्निप्रवेश

आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवैशसं
     विप्रर्षिजुष्टं विबुधैश्च सर्वशः ।
मृद्दार्वयःकाञ्चनदर्भचर्मभिः
     निसृष्टभाण्डं यजनं समाविशत् ॥ ॥ ६ ॥
तामागतां तत्र न कश्चनाद्रियद्
     विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जनः ।
ऋते स्वसॄर्वै जननीं च सादराः
     प्रेमाश्रुकण्ठ्यः परिषस्वजुर्मुदा ॥ ७ ॥
सौदर्यसम्प्रश्नसमर्थवार्तया
     मात्रा च मातृष्वसृभिश्च सादरम् ।
दत्तां सपर्यां वरमासनं च सा
     नादत्त पित्राप्रतिनन्दिता सती ॥ ८ ॥
अरुद्रभागं तमवेक्ष्य चाध्वरं
     पित्रा च देवे कृतहेलनं विभौ ।
अनादृता यज्ञसदस्यधीश्वरी
     चुकोप लोकानिव धक्ष्यती रुषा ॥ ९ ॥
जगर्ह सामर्षविपन्नया गिरा
     शिवद्विषं धूमपथश्रमस्मयम् ।
स्वतेजसा भूतगणान् समुत्थितान्
     निगृह्य देवी जगतोऽभिशृण्वतः ॥ १० ॥

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकोंके साथ दक्षकी यज्ञशालामें पहुँचीं। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणोंमें परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वरमें कौन बोले सब ओर ब्रहमर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्मके पात्र रखे हुए थे ॥ ६ ॥ वहाँ पहुँचनेपर पिताके द्वारा सतीकी अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्षके भयसे सतीकी माता और बहनोंके सिवा किसी भी मनुष्यने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुर्ईं और प्रेमसे गद्गद होकर उन्होंने सतीजीको आदरपूर्वक गले लगाया ॥ ७ ॥ किन्तु सतीजीने पितासे अपमानित होनेके कारण, बहिनोंके कुशल-प्रश्रसहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियोंके सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादिको स्वीकार नहीं किया ॥ ८ ॥
सर्वलोकेश्वरी देवी सतीका यज्ञमण्डपमें तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञमें भगवान्‌ शङ्करके लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोषसे सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगी ॥ ९ ॥ दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमंड हो गया था। उसे शिवजीसे द्वेष करते देख जब सतीके साथ आये हुए भूत उसे मारनेको तैयार हुए, तो देवी सती ने उन्हें अपने तेजसे रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लडख़ड़ाती हुई वाणीमें कहा ॥ १० ॥

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सती का अग्निप्रवेश

देव्युवाच -
न यस्य लोकेऽस्त्यतिशायनः प्रियः
     तथाप्रियो देहभृतां प्रियात्मनः ।
तस्मिन् समस्तात्मनि मुक्तवैरके
     ऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥ ११ ॥
दोषान् परेषां हि गुणेषु साधवो
     गृह्णन्ति केचिन्न भवादृशो द्विज ।
गुणांश्च फल्गून् बहुलीकरिष्णवो
     महत्तमास्तेष्वविदद्‍भवानघम् ॥ १२ ॥
नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदा
     महद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।
सेर्ष्यं महापूरुषपादपांसुभिः
     निरस्ततेजःसु तदेव शोभनम् ॥ १३ ॥
यद् द्व्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणां
     सकृत्प्रसङ्‌गादघमाशु हन्ति तत् ।
पवित्रकीर्तिं तमलङ्‌घ्यशासनं
     भवानहो द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥ १४ ॥
यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिभिः
     निषेवितं ब्रह्मरसासवार्थिभिः ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोऽर्थिनः
     तस्मै भवान् द्रुह्यति विश्वबन्धवे ॥ १५ ॥

देवी सतीने कहापिताजी ! भगवान्‌ शङ्कर से बड़ा तो संसारमें कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियोंके प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणीसे वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा ? ॥ ११ ॥ द्विजवर ! आप-जैसे लोग दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोगदोष देखनेकी बात तो अलग रहीदूसरोंके थोड़ेसे गुणको भी बड़े रूपमें देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषोंपर भी दोषारोपण ही किया ॥ १२ ॥ जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जडशरीरको ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषोंकी निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टापर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणोंकी धूलि उनके इस अपराधको न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अत: महापुरुषोंकी निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषोंको ही शोभा देता है ॥ १३ ॥ जिनका शिवयह दो अक्षरोंका नाम प्रसङ्गवश एक बार भी मुखसे निकल जानेपर मनुष्यके समस्त पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञाका कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, अहो ! उन्हीं पवित्रकीर्ति मङ्गलमय भगवान्‌ शङ्करसे आप द्वेष करते हैं ! अवश्य ही आप अमङ्गलरूप हैं ॥ १४ ॥ अरे ! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके चरणकमलोंका निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषोंको उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान्‌ शिवसे आप वैर करते हैं ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०४)

सती का अग्निप्रवेश

किं वा शिवाख्यमशिवं न विदुस्त्वदन्ये
     ब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटाः श्मशाने ।
तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचैः
     ये मूर्धभिर्दधति तच्चरणावसृष्टम् ॥ १६ ॥
कर्णौ पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशे
     धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभुश्चेत्
     जिह्वामसूनपि ततो विसृजेत्स धर्मः ॥ १७ ॥
अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरं
     न धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिणः ।
जग्धस्य मोहाद्धि विशुद्धिमन्धसो
     जुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥ १८ ॥
न वेदवादान् अनुवर्तते मतिः
     स्व एव लोके रमतो महामुनेः ।
यथा गतिर्देवमनुष्ययोः पृथक्
     स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थितः ॥ १९ ॥

(देवी सती कह रही हैं)  वे केवल नाममात्रके शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमङ्गलरूप है; इस बातको आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवत: नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान्‌ शिव श्मशानभूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिरपर धारण करते हैं ॥ १६ ॥ यदि निरङ्कुशलोग धर्ममर्यादा की रक्षा करनेवाले अपने पूजनीय स्वामीकी निन्दा करें तो अपनेमें उसे दण्ड देनेकी शक्ति न होनेपर कान बंद करके वहाँसे चला जाय और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकडक़र उस बकवाद करनेवाली अमङ्गलरूप दुष्ट जिह्वाको काट डाले। इस पापको रोकनेके लिये स्वयं अपने प्राणतक दे दे, यही धर्म है ॥ १७ ॥ आप भगवान्‌ नीलकण्ठकी निन्दा करनेवाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरको अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूलसे कोई निन्दित वस्तु खा ली जाय, तो उसे वमन करके निकाल देनेसे ही मनुष्यकी शुद्धि बतायी जाती है ॥ १८ ॥ जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेदके विधिनिषेधमय वाक्योंका अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्योंकी गतिमें भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्गमें स्थित रहते हुए भी दूसरोंके मार्गकी निन्दा न करे ॥ १९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०५)

सती का अग्निप्रवेश

कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतं
     वेदे विविच्योभयलिङ्‌गमाश्रितम् ।
विरोधि तद्यौगपदैककर्तरि
     द्वयं तथा ब्रह्मणि कर्म नर्च्छति ॥ २० ॥
मा वः पदव्यः पितरस्मदास्थिता
     या यज्ञशालासु न धूमवर्त्मभिः ।
तदन्नतृप्तैरसुभृद्‌भिरीडिता
     अव्यक्तलिङ्‌गा अवधूतसेविताः ॥ २१ ॥
नैतेन देहेन हरे कृतागसो
     देहोद्‍भवेनालमलं कुजन्मना ।
व्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसङ्‌गतः
     तज्जन्म धिग् यो महतामवद्यकृत् ॥ २२ ॥
गोत्रं त्वदीयं भगवान्वृषध्वजो
     दाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मनाः ।
व्यपेतनर्मस्मितमाशु तद्ध्यहं
     व्युत्स्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदङ्‌गजम् ॥ २३ ॥

(सती अपने पिता दक्ष से कह रही हैं ) प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि)-रूप दोनों ही प्रकारके कर्म ठीक हैं। वेदमें उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकारके अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होनेके कारण उक्त दोनों प्रकारके कर्मोंका एक साथ एक ही पुरुषके द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान्‌ शङ्कर तो परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकारका कर्म करनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ २० ॥ पिताजी ! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राणपोषण करने वाले कर्मठलोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते ॥ २१ ॥ आप भगवान्‌ शङ्कर का अपराध करनेवाले हैं। अत: आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होनेके कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषोंका अपराध करता है, उससे होनेवाले जन्मको भी धिक्कार है ॥ २२ ॥ जिस समय भगवान्‌ शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नामसे पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अङ्ग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीरको त्याग दूँगी ॥ २३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०६)

सती का अग्निप्रवेश

मैत्रेय उवाच -
इत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्
     क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।
स्पृष्ट्वा जलं पीतदुकूलसंवृता
     निमील्य दृग्योगपथं समाविशत् ॥ २४ ॥
कृत्वा समानावनिलौ जितासना
     सोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।
शनैर्हृदि स्थाप्य धियोरसि स्थितं
     कण्ठाद् भ्रुवोर्मध्यमनिन्दितानयत् ॥ २५ ॥
एवं स्वदेहं महतां महीयसा
     मुहुः समारोपितमङ्‌कमादरात् ।
जिहासती दक्षरुषा मनस्विनी
     दधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ॥ २६ ॥
ततः स्वभर्तुश्चरणाम्बुजासवं
     जगद्‍गुरोश्चिन्तयती न चापरम् ।
ददर्श देहो हतकल्मषः सती
     सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना ॥ २७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंकामादि शत्रुओंको जीतनेवाले विदुरजी ! उस यज्ञमण्डपमें दक्षसे इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशामें भूमिपर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोडऩेके लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं ॥ २४ ॥ उन्होंने आसन को स्थिरकर प्राणायामद्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदयस्थित वायुको कण्ठमार्गसे भ्रुकुटियोंके बीचमें ले गयीं ॥ २५ ॥ इस प्रकार, जिस शरीरको महापुरुषोंके भी पूजनीय भगवान्‌ शङ्करने कई बार बड़े आदरसे अपनी गोदमें बैठाया था, दक्षपर कुपित होकर उसे त्यागनेकी इच्छासे महामनस्विनी सतीने अपने सम्पूर्ण अङ्गोंमें वायु और अग्नि की धारणा की ॥ २६ ॥ अपने पति जगद्गुरु भगवान्‌ शङ्करके चरण- कमल-मकरन्दका चिन्तन करते-करते सतीने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणोंके अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्षकन्या हूँऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा ॥ २७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०७)

सती का अग्निप्रवेश

तत्पश्यतां खे भुवि चाद्‍भुतं महत्
     हा हेति वादः सुमहान् अजायत ।
हन्त प्रिया दैवतमस्य देवी
     जहावसून्केन सती प्रकोपिता ॥ २८ ॥
अहो अनात्म्यं महदस्य पश्यत
     प्रजापतेर्यस्य चराचरं प्रजाः ।
जहावसून्यद्विमताऽऽत्मजा
     सती मनस्विनी मानमभीक्ष्णमर्हति ॥ २९ ॥
सोऽयं दुर्मर्षहृदयो ब्रह्मध्रुक् च
     लोकेऽपकीर्तिं महतीमवाप्स्यति ।
यदङ्‌गजां स्वां पुरुषद्‌विडुद्यतां
     न प्रत्यषेधन्मृतयेऽपराधतः ॥ ३० ॥
वदत्येवं जने सत्या दृष्ट्वासुत्यागमद्‍भुतम् ।
दक्षं तत्पार्षदा हन्तुं उदतिष्ठन्नुदायुधाः ॥ ३१ ॥
तेषां आपततां वेगं निशाम्य भगवान् भृगुः ।
यज्ञघ्नघ्नेन यजुषा दक्षिणाग्नौ जुहाव ह ॥ ३२ ॥
अध्वर्युणा हूयमाने देवा उत्पेतुरोजसा ।
ऋभवो नाम तपसा सोमं प्राप्ताः सहस्रशः ॥ ३३ ॥
तैरलातायुधैः सर्वे प्रमथाः सहगुह्यकाः ।
हन्यमाना दिशो भेजुः उशद्‌भिर्ब्रह्मतेजसा ॥ ३४ ॥

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदिने जब सतीका देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयङ्कर कोलाहल आकाशमें एवं पृथ्वीतलपर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था—‘हाय ! दक्षके दुर्व्यवहार से कुपित होकर देवाधिदेव महादेवकी प्रिया सतीने प्राण त्याग दिये ! ॥ २८ ॥ देखो, सारे चराचर जीव इस दक्षप्रजापतिकी ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है ! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पानेके योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये ॥ २९ ॥ वास्तवमें यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसारमें बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसीके अपराधसे प्राणत्याग करनेको तैयार हुई, तब भी इस शङ्करद्रोही ने उसे रोका तक नहीं !॥ ३० ॥ जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्षको मारनेके लिये उठ खड़े हुए ॥ ३१ ॥ उनके आक्रमणका वेग देखकर भगवान्‌ भृगुने यज्ञमें विघ्न डालनेवालोंका नाश करनेके लिये अपहतं रक्ष.......इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्नि में आहुति दी ॥ ३२ ॥ अध्वर्यु भृगुने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्डसे ऋभुनामके हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्याके प्रभावसे चन्द्रलोक प्राप्त किया था ॥ ३३ ॥ उन ब्रह्मतेजसम्पन्न देवताओंने जलती हुई लकडिय़ोंसे आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रमथगण इधर-उधर भाग गये ॥ ३४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे सतीदेहोत्सर्गो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...