॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
स्वायम्भुव
मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना
मैत्रेय
उवाच -
निशम्य
गदतामेवं ऋषीणां धनुषि ध्रुवः ।
सन्दधेऽस्त्रमुपस्पृश्य
यन्नारायणनिर्मितम् ॥ १ ॥
सन्धीयमान
एतस्मिन् माया गुह्यकनिर्मिताः ।
क्षिप्रं
विनेशुर्विदुर क्लेशा ज्ञानोदये यथा ॥ २ ॥
तस्यार्षास्त्रं
धनुषि प्रयुञ्जतः
सुवर्णपुङ्खाः कलहंसवाससः ।
विनिःसृता
आविविशुर्द्विषद्बलं
यथा वनं भीमरवाः शिखण्डिनः ॥ ३ ॥
तैस्तिग्मधारैः
प्रधने शिलीमुखैः
इतस्ततः पुण्यजना उपद्रुताः ।
तमभ्यधावन्
कुपिता उदायुधाः
सुपर्णं उन्नद्धफणा इवाहयः ॥ ४ ॥
स
तान् पृषत्कैरभिधावतो मृधे
निकृत्तबाहूरुशिरोधरोदरान् ।
निनाय
लोकं परमर्कमण्डलं
व्रजन्ति निर्भिद्य यमूर्ध्वरेतसः ॥ ५ ॥
तान्
हन्यमानानभिवीक्ष्य गुह्यकान्
अनागसश्चित्ररथेन भूरिशः ।
औत्तानपादिं
कृपया पितामहो
मनुर्जगादोपगतः सहर्षिभिः ॥ ६ ॥
मनुरुवाच
-
अलं
वत्सातिरोषेण तमोद्वारेण पाप्मना ।
येन
पुण्यजनानेतान् अवधीस्त्वं अनागसः ॥ ७ ॥
नास्मत्कुलोचितं
तात कर्मैतत् सद्विगर्हितम् ।
वधो
यदुपदेवानां आरब्धस्तेऽकृतैनसाम् ॥ ८ ॥
नन्वेकस्यापराधेन
प्रसङ्गाद् बहवो हताः ।
भ्रातुर्वधाभितप्तेन
त्वयाङ्ग भ्रातृवत्सल ॥ ९ ॥
नायं
मार्गो हि साधूनां हृषीकेशानुवर्तिनाम् ।
यदात्मानं
पराग्गृह्य पशुवद्भूतवैशसम् ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! ऋषियोंका ऐसा कथन सुनकर महराज ध्रुवने आचमन कर श्रीनारायणके
बनाये हुए नारायणास्त्रको अपने धनुषपर चढ़ाया ॥ १ ॥ उस बाणके चढ़ाते ही यक्षोंद्वारा
रची हुई नाना प्रकारकी माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस
प्रकार ज्ञानका उदय होनेपर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं ॥ २ ॥ ऋषिवर नारायणके
द्वारा आविष्कृत उस अस्त्रको धनुषपर चढ़ाते ही उससे राजहंसके-से पक्ष और सोनेके
फलवाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर केकारव करते वनमें घुस जाते हैं,
उसी प्रकार भयानक साँय-साँय शब्द करते हुए वे शत्रुकी सेनामें घुस
गये ॥ ३ ॥ उन तीखी धारवाले बाणोंने शत्रुओंको बेचैन कर दिया। तब उस रणाङ्गणमें
अनेकों यक्षोंने अत्यन्त कुपित होकर अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार
गरुडके छेडऩेसे बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधरसे ध्रुवजीपर टूट पड़े ॥ ४ ॥ उन्हें सामने आते देख
ध्रुवजीने अपने बाणोंद्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे और उदर आदि अङ्ग-प्रत्यङ्गोंको छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ
लोक (सत्यलोक) में भेज दिया, जिसमें ऊर्ध्वरेता मुनिगण
सूर्यमण्डलका भेदन करके जाते हैं ॥ ५ ॥ अब उनके पितामह स्वायम्भुव मनुने देखा कि
विचित्र रथपर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षोंको मार रहे हैं, तो उन्हें उनपर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियोंको साथ लेकर वहाँ आये और
अपने पौत्र ध्रुवको समझाने लगे ॥ ६ ॥
मनुजीने
कहा—बेटा ! बस, बस ! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी
नरकका द्वार है। इसीके वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षोंका वध किया है ॥ ७ ॥
तात ! तुम जो निर्दोष यक्षोंके संहारपर उतर रहे हो, यह हमारे
कुलके योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते
हैं ॥ ८ ॥ बेटा ! तुम्हारा अपने भाईपर बड़ा अनुराग था, यह तो
ठीक है; परन्तु देखो, उसके वधसे
सन्तप्त होकर तुमने एक यक्षके अपराध करनेपर प्रसङ्गवश कितनोंकी हत्या कर डाली ॥ ९
॥ इस जड शरीरको ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओंकी भाँति प्राणियोंकी हिंसा करना यह
भगवत्सेवी साधुजनोंका मार्ग नहीं है ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
स्वायम्भुव
मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना
सर्वभूतात्मभावेन
भूतावासं हरिं भवान् ।
आराध्याप
दुराराध्यं विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥ ११ ॥
स
त्वं हरेरनुध्यातः तत्पुंसामपि सम्मतः ।
कथं
त्ववद्यं कृतवान् अनुशिक्षन्सतां व्रतम् ॥ १२ ॥
तितिक्षया
करुणया मैत्र्या चाखिलजन्तुषु ।
समत्वेन
च सर्वात्मा भगवान् सम्प्रसीदति ॥ १३ ॥
सम्प्रसन्ने
भगवति पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ।
विमुक्तो
जीवनिर्मुक्तो ब्रह्म निर्वाणमृच्छति ॥ १४ ॥
भूतैः
पञ्चभिरारब्धैः योषित्पुरुष एव हि ।
तयोर्व्यवायात्
सम्भूतिः योषित्पुरुषयोरिह ॥ १५ ॥
एवं
प्रवर्तते सर्गः स्थितिः संयम एव च ।
गुणव्यतिकराद्
राजन् मायया परमात्मनः ॥ १६ ॥
निमित्तमात्रं
तत्रासीत् निर्गुणः पुरुषर्षभः ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं
विश्वं यत्र भ्रमति लोहवत् ॥ १७ ॥
स
खल्विदं भगवान्कालशक्त्या
गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।
करोत्यकर्तैव
निहन्त्यहन्ता
चेष्टा विभूम्नः खलु दुर्विभाव्या ॥ १८ ॥
(मनुजी
ध्रुव से कह रहे हैं) प्रभुकी आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लडक़पनमें ही सम्पूर्ण भूतों के आश्रयस्थान श्रीहरिकी
सर्वभूतात्मभाव से आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है ॥ ११ ॥ तुम्हें तो
प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। तुम
साधुजनों के पथप्रदर्शक हो; फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म
कैसे किया? ॥ १२ ॥ सर्वात्मा श्री हरि तो अपने से बड़े
पुरुषों के प्रति सहनशीलता, छोटों के प्रति दया, बराबरवालों के साथ मित्रता और समस्त जीवोंके साथ समताका बर्ताव करनेसे ही
प्रसन्न होते हैं ॥ १३ ॥ और प्रभुके प्रसन्न हो जानेपर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके
कार्यरूप लिङ्गशरीरसे छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है ॥ १४ ॥
बेटा
ध्रुव ! देहादिके रूपमें परिणत हुए पञ्चभूतोंसे ही स्त्री-पुरुषका आविर्भाव होता
है और फिर उनके पारस्परिक समागमसे दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं ॥ १५ ॥
ध्रुव ! इस प्रकार भगवान्की मायासे सत्त्वादि गुणोंमें न्यूनाधिकभाव होनेसे ही
जैसे भूतोंद्वारा शरीरोंकी रचना होती है, वैसे ही उनकी
स्थिति और प्रलय भी होते हैं ॥ १६ ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें
केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रयसे यह कार्य-कारणात्मक जगत्
उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बकके आश्रयसे लोहा ॥ १७
॥ काल-शक्तिके द्वारा क्रमश: सत्त्वादि गुणोंमें क्षोभ होनेसे लीलामय भगवान्की
शक्ति भी सृष्टि आदिके रूपमें विभक्त हो जाती है; अत: भगवान्
अकर्ता होकर भी जगत् की रचना करते हैं और संहार करनेवाले न होकर भी इसका संहार
करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभुकी लीला सर्वथा अचिन्तनीय है ॥ १८ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
स्वायम्भुव
मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना
सोऽनन्तोऽन्तकरः
कालो ऽनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं
जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ १९ ॥
न
वै स्वपक्षोऽस्य विपक्ष एव वा
परस्य मृत्योर्विशतः समं प्रजाः ।
तं
धावमानं अनुधावन्त्यनीशा
यथा रजांस्यनिलं भूतसङ्घाः ॥ २० ॥
आयुषोऽपचयं
जन्तोः तथैवोपचयं विभुः ।
उभाभ्यां
रहितः स्वस्थो दुःस्थस्य विदधात्यसौ ॥ २१ ॥
केचित्कर्म
वदन्त्येनं स्वभावमपरे नृप ।
एके
कालं परे दैवं पुंसः काममुतापरे ॥ २२ ॥
अव्यक्तस्याप्रमेयस्य
नानाशक्त्युदयस्य च ।
न
वै चिकीर्षितं तात को वेदाथ स्वसम्भवम् ॥ २३ ॥
(मनुजी
कह रहे हैं) ध्रुव ! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत्
का अन्त करनेवाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीवसे दूसरे
जीवको उत्पन्न कर संसारकी सृष्टि करते हैं तथा मृत्युके द्वारा मारनेवालेको भी
मरवाकर उसका संहार करते हैं ॥ १९ ॥ वे कालभगवान् सम्पूर्ण सृष्टिमें समानरूपसे
अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्रपक्ष है और न शत्रुपक्ष। जैसे वायुके चलनेपर
धूल उसके साथ-साथ उड़ती है,
उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मोंके अधीन होकर कालकी गतिका
अनुसरण करते हैं—अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दु:खादि फल भोगते
हैं ॥ २० ॥ सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी आयुकी वृद्धि और क्षयका
विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनोंसे रहित और अपने
स्वरूपमें स्थित हैं ॥ २१ ॥ राजन् ! इन परमात्माको ही मीमांसकलोग कर्म, चार्वाक स्वभाव, वैशेषिक-मतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और कामशास्त्री काम कहते हैं ॥ २२ ॥ वे किसी भी इन्द्रिय या
प्रमाणके विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हींसे प्रकट हुई हैं। वे क्या
करना चाहते हैं, इस बातको भी संसारमें कोई नहीं जानता;
फिर अपने मूल कारण उन प्रभुको तो जान ही कौन सकता है ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
स्वायम्भुव
मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना
न
चैते पुत्रक भ्रातुः हन्तारो धनदानुगाः ।
विसर्गादानयोस्तात
पुंसो दैवं हि कारणम् ॥ २४ ॥
स
एव विश्वं सृजति स एवावति हन्ति च ।
अथापि
ह्यनहङ्कारात् नाज्यते गुणकर्मभिः ॥ २५ ॥
एष
भूतानि भूतात्मा भूतेशो भूतभावनः ।
स्वशक्त्या
मायया युक्तः सृजत्यत्ति च पाति च ॥ २६ ॥
तमेव
मृत्युममृतं तात दैवं
सर्वात्मनोपेहि जगत्परायणम् ।
यस्मै
बलिं विश्वसृजो हरन्ति
गावो यथा वै नसि दामयन्त्रिताः ॥ २७ ॥
यः
पञ्चवर्षो जननीं त्वं विहाय
मातुः सपत्न्या वचसा भिन्नमर्मा ।
वनं
गतस्तपसा प्रत्यगक्षं
आराध्य लेभे मूर्ध्नि पदं त्रिलोक्याः ॥ २८
॥
तमेनमङ्गात्मनि
मुक्तविग्रहे
व्यपाश्रितं निर्गुणमेकमक्षरम् ।
आत्मानमन्विच्छ
विमुक्तमात्मदृग्
यस्मिन् इदं भेदमसत्प्रतीयते ॥ २९ ॥
त्वं
प्रत्यगात्मनि तदा भगवत्यनन्त
आनन्दमात्र उपपन्नसमस्तशक्तौ ।
भक्तिं
विधाय परमां शनकैरविद्या
ग्रन्थिं विभेत्स्यसि ममाहमिति प्ररूढम् ॥
३० ॥
(मनुजी
ध्रुव से कह रहे हैं) बेटा ! ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मारनेवाले नहीं
हैं,
क्योंकि मनुष्यके जन्म-मरणका वास्तविक कारण तो ईश्वर है ॥ २४ ॥
एकमात्र वही संसारको रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होनेके कारण इसके गुण और कर्मोंसे वह सदा निर्लेप रहता
है ॥ २५ ॥ वे सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तरात्मा, नियन्ता और
रक्षा करनेवाले प्रभु ही अपनी मायाशक्तिसे युक्त होकर समस्त जीवोंका सृजन, पालन और संहार करते हैं ॥ २६ ॥ जिस प्रकार नाक में नकेल पड़े हुए बैल अपने
मालिक का बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत् की रचना करनेवाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरीसे बँधे
हुए उन्हीं की आज्ञाका पालन करते हैं। वे अभक्तोंके लिये मृत्युरूप और भक्तोंके
लिये अमृतरूप हैं तथा संसारके एकमात्र आश्रय हैं। तात ! तुम सब प्रकार उन्हीं
परमात्माकी शरण लो ॥ २७ ॥ तुम पाँच वर्षकी ही अवस्थामें अपनी सौतेली माताके
वाग्बाणोंसे मर्माहत होकर माँकी गोद छोडक़र वनको चले गये थे। वहाँ तपस्याद्वारा जिन
हृषीकेश भगवान्की आराधना करके तुमने त्रिलोकीसे ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और
जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदयमें वात्सल्यवश विशेषरूपसे विराजमान हुए थे,
उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्माको
अध्यात्मदृष्टिसे अपने अन्त:करणमें ढूँढ़ो। उनमें यह भेदभावमय प्रपञ्च न होनेपर भी
प्रतीत हो रहा है ॥ २८-२९ ॥ ऐसा करनेसे सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप
सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्तमें तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभावसे तुम
मैं-मेरेपन के रूपमें दृढ़ हुई अविद्या की गाँठ को काट डालोगे ॥ ३० ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
स्वायम्भुव
मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना
संयच्छ
रोषं भद्रं ते प्रतीपं श्रेयसां परम् ।
श्रुतेन
भूयसा राजन् अगदेन यथामयम् ॥ ३१ ॥
येनोपसृष्टात्पुरुषात्
लोक उद्विजते भृशम् ।
न
बुधस्तद्वशं गच्छेद् इच्छन् अभयमात्मनः ॥ ३२ ॥
हेलनं
गिरिशभ्रातुः धनदस्य त्वया कृतम् ।
यज्जघ्निवान्
पुण्यजनान् भ्रातृघ्नानित्यमर्षितः ॥ ३३ ॥
तं
प्रसादय वत्साशु सन्नत्या प्रश्रयोक्तिभिः ।
न
यावन्महतां तेजः कुलं नोऽभिभविष्यति ॥ ३४ ॥
एवं
स्वायम्भुवः पौत्रं अनुशास्य मनुर्ध्रुवम् ।
तेनाभिवन्दितः
साकं ऋषिभिः स्वपुरं ययौ ॥ ३५ ॥
(मनुजी
ध्रुव से कह रहे हैं) राजन् ! जिस प्रकार ओषधिसे रोग शान्त किया जाता है—उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उसपर
विचार करके अपने क्रोधको शान्त करो। क्रोध कल्याणमार्गका बड़ा ही विरोधी है।
भगवान् तुम्हारा मङ्गल करें ॥ ३१ ॥ क्रोधके वशीभूत हुए पुरुषसे सभी लोगोंको बड़ा
भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि
मुझसे किसी भी प्राणीको भय न हो और मुझे भी किसीसे भय न हो, उसे
क्रोधके वशमें कभी न होना चाहिये ॥ ३२ ॥ तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाईके
मारनेवाले हैं, इतने यक्षोंका संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शङ्करके सखा कुबेरजीका बड़ा अपराध हुआ है ॥
३३ ॥ इसलिये बेटा ! जबतक कि महापुरुषोंका तेज हमारे कुलको आक्रान्त नहीं कर लेता;
इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनयके द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर
लो ॥ ३४ ॥
इस
प्रकार स्वायम्भुव मनुने अपने पौत्र ध्रुवको शिक्षा दी। तब ध्रुवजीने उन्हें
प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियोंके सहित अपने लोकको चले गये ॥ ३५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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