गुरुवार, 5 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

समाहितेन मनसा संस्मरन् पुरुषं परम् ।
उवाचोत्फुल्लवदनो देवान्स भगवान्परः ॥ २० ॥
अहं भवो यूयमथोऽसुरादयो
     मनुष्यतिर्यग् द्रुमघर्मजातयः ।
यस्यावतारांशकलाविसर्जिता
     व्रजाम सर्वे शरणं तमव्ययम् ॥ २१ ॥
न यस्य वध्यो न च रक्षणीयो
     नोपेक्षणीयादरणीयपक्षः ।
अथापि सर्गस्थितिसंयमार्थं
     धत्ते रजःसत्त्वतमांसि काले ॥ २२ ॥
अयं च तस्य स्थितिपालनक्षणः
     सत्त्वं जुषाणस्य भवाय देहिनाम् ।
तस्माद् व्रजामः शरणं जगद्‍गुरुं
     स्वानां स नो धास्यति शं सुरप्रियः ॥ २३ ॥

श्रीशुक उवाच -
इत्याभाष्य सुरान्वेधाः सह देवैररिन्दम ।
अजितस्य पदं साक्षात् जगाम तमसः परम् ॥ २४ ॥
तत्रादृष्टस्वरूपाय श्रुतपूर्वाय वै विभो ।
स्तुतिमब्रूत दैवीभिः गीर्भिस्त्ववहितेन्द्रियः ॥ २५ ॥

समर्थ ब्रह्माजीने अपना मन एकाग्र करके परम पुरुष भगवान्‌का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुखसे देवताओंको सम्बोधित करते हुए कहा ॥ २० ॥ देवताओ ! मैं, शङ्करजी, तुमलोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूपके एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंशसे रचे गये हैंहमलोग उन अविनाशी प्रभुकी ही शरण ग्रहण करें ॥ २१ ॥ यद्यपि उनकी दृष्टिमें न कोई वधका पात्र है और न रक्षाका, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदरका पात्र हीफिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये समय-समयपर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणको स्वीकार किया करते हैं ॥ २२ ॥ उन्होंने इस समय प्राणियोंके कल्याणके लिये सत्त्वगुणको स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत् की स्थिति और रक्षाका अवसर है। अत: हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्माकी शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओंके प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनोंका वे अवश्य ही कल्याण करेंगे ॥ २३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवताओंसे यह कहकर ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान्‌ अजित के निजधाम वैकुण्ठमें गये। वह धाम तमोमयी प्रकृतिसे परे है ॥ २४ ॥ इन लोगोंने भगवान्‌के स्वरूप और धामके सम्बन्धमें पहलेसे ही बहुत कुछ सुन रखा था, परंतु वहाँ जानेपर उन लोगोंको कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्माजी एकाग्र मनसे वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

श्रीशुक उवाच -

यदा युद्धेऽसुरैर्देवा बध्यमानाः शितायुधैः ।
गतासवो निपतिता नोत्तिष्ठेरन् स्म भूरिशः ॥ १५ ॥
यदा दुर्वाससः शापात् सेन्द्रा लोकास्त्रयो नृप ।
निःश्रीकाश्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादयः क्रियाः ॥ १६ ॥
निशाम्यैतत् सुरगणा महेन्द्रवरुणादयः ।
नाध्यगच्छन्स्वयं मन्त्रैः मंत्रयन्तो विनिश्चितम् ॥ १७ ॥
ततो ब्रह्मसभां जग्मुः मेरोर्मूर्धनि सर्वशः ।
सर्वं विज्ञापयां चक्रुः प्रणताः परमेष्ठिने ॥ १८ ॥
स विलोक्येन्द्रवाय्वादीन् निःसत्त्वान् गगतप्रभान् ।
लोकान् अमंगलप्रायान् असुरानयथा विभुः ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जिस समयकी यह बात है, उस समय असुरोंने अपने तीखे शस्त्रोंसे देवताओंको पराजित कर दिया था। उस युद्धमें बहुतोंके तो प्राणोंपर ही बन आयी, वे रणभूमिमें गिरकर फिर उठ न सके ॥ १५ ॥ दुर्वासाके शाप से [*]  तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँतक कि यज्ञयागादि धर्म-कर्मोंका भी लोप हो गया था ॥ १६ ॥ यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओंने आपसमें बहुत कुछ सोचा-विचारा; परंतु अपने विचारोंसे वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके ॥ १७ ॥ तब वे सब-के-सब सुमेरुके शिखरपर स्थित ब्रह्माजीकी सभामें गये और वहाँ उन लोगोंने बड़ी नम्रता से ब्रह्माजी की सेवामें अपनी परिस्थितिका विस्तृत विवरण उपस्थित किया ॥ १८ ॥ ब्रह्माजीने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगों की परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इसके विपरीत फल-फूल रहे हैं ॥ १९ ॥
.........................................
[*] यह प्रसङ्ग विष्णुपुराण में इस प्रकार आया है। एक बार श्रीदुर्वासाजी वैकुण्ठलोक से आ रहे थे। मार्गमें ऐरावतपर चढ़े देवराज इन्द्र मिले। उन्हें त्रिलोकाधिपति जानकर दुर्वासाजीने भगवान्‌के प्रसादकी माला दी; किन्तु इन्द्रने ऐश्वर्यके मदसे उसका कुछ भी आदर न कर उसे ऐरावतके मस्तकपर डाल दिया। ऐरावत ने उसे सूँड़ में लेकर पैरों से कुचल डाला। इससे दुर्वासाजीने क्रोधित होकर शाप दिया कि तू तीनों लोकोंसहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 4 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

षष्ठश्च चक्षुषः पुत्रः चाक्षुषो नाम वै मनुः ।
पूरु पूरुष सुद्युम्न प्रमुखाश्चाक्षुषात्मजाः ॥ ७ ॥
इन्द्रो मन्त्रद्रुमस्तत्र देवा आप्यादयो गणाः ।
मुनयस्तत्र वै राजन् हविष्मद् वीरकादयः ॥ ८ ॥
तत्रापि देवः सम्भूत्यां वैराजस्याभवत् सुतः ।
अजितो नाम भगवान् अंशेन जगतः पतिः ॥ ९ ॥
पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा ।
भ्रममाणोऽम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दरः ॥ १० ॥

श्रीराजोवाच -
यथा भगवता ब्रह्मन् मथितः क्षीरसागरः ।
यदर्थं वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ॥ ११ ॥
यथामृतं सुरैः प्राप्तं किं चान्यद् अभवत् ततः ।
एतद्‍भगवतः कर्म वदस्व परमाद्‍भुतम् ॥ १२ ॥
त्वया संकथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पतेः ।
नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ॥ १३ ॥

श्रीसूत उवाच -
सम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजाः ।
अभिनन्द्य हरेर्वीर्यं अभ्याचष्टुं प्रचक्रमे ॥ १४ ॥

छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे ॥ ७ ॥ इन्द्रका नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस मन्वन्तरमें हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे ॥ ८ ॥ जगत्पति भगवान्‌ने उस समय भी वैराजकी पत्नी सम्भूतिके गर्भसे अजित नामका अंशावतार ग्रहण किया था ॥ ९ ॥ उन्होंने ही समुद्र-मन्थन करके देवताओंको अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचलकी मथानीके आधार बने थे ॥ १० ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ने क्षीरसागरका मन्थन कैसे किया ? उन्होंने कच्छपरूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्यसे मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ? ॥ ११ ॥ देवताओंको उस समय अमृत कैसे मिला ? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्रसे निकलीं ? भगवान्‌की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये ॥ १२ ॥ आप भक्तवत्सल भगवान्‌ की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुननेके लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघानेका तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनोंसे यह संसारकी ज्वालाओंसे जलता जो रहा है ॥ १३ ॥
सूतजीने कहाशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित्‌ के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान्‌ की समुद्र-मन्थन लीला का वर्णन आरम्भ किया ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

श्रीशुक उवाच -
राजन् उदितमेतत्ते हरेः कर्माघनाशनम् ।
गजेन्द्रमोक्षणं पुण्यं रैवतं त्वन्तरं श्रृणु ॥ १ ॥
पञ्चमो रैवतो नाम मनुस्तामससोदरः ।
बलिविन्ध्यादयस्तस्य सुता हार्जुनपूर्वकाः ॥ २ ॥
विभुरिन्द्रः सुरगणा राजन्भूतरयादयः ।
हिरण्यरोमा वेदशिरा ऊर्ध्वबाह्वादयो द्विजाः ॥ ३ ॥
पत्‍नी विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठैः सुरसत्तमैः ।
तयोः स्वकलया जज्ञे वैकुण्ठो भगवान् स्वयम् ॥ ४ ॥
वैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः ।
रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ॥ ५ ॥
तस्यानुभावः कथितो गुणाश्च परमोदयाः ।
भौमान् रेणून्स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद्‍गुणान् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌की यह गजेन्द्रमोक्षकी पवित्र लीला समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तरकी कथा सुनो ॥ १ ॥ पाँचवें मनुका नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे ॥ २ ॥ उस मन्वन्तर में इन्द्रका नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओंके प्रधानगण थे। परीक्षित्‌ ! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे ॥ ३ ॥ उनमें शुभ्र ऋषिकी पत्नीका नाम था विकुण्ठा। उन्हींके गर्भसे वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ अपने अंशसे स्वयं भगवान्‌ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया ॥ ४ ॥ उन्हींने लक्ष्मीदेवीकी प्रार्थनासे उनको प्रसन्न करनेके लिये वैकुण्ठधामकी रचना की थी। वह लोक समस्त लोकोंमें श्रेष्ठ है ॥ ५ ॥ उन वैकुण्ठनाथके कल्याणमय गुण और प्रभावका वर्णन मैं संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। भगवान्‌ विष्णुके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वीके परमाणुओंकी गिनती कर ली हो ॥ ६ ॥

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मंगलवार, 3 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीभगवानुवाच
ये मां त्वां च सरश्चेदं गिरिकन्दरकाननम्
वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान् ||१७||
शृङ्गाणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्य च
क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्वेतद्वीपं च भास्वरम् ||१८||
श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ||१९||
शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम्
ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्रादमेव च ||२०||
मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारैः कृतानि मे
कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्यं सोमं हुताशनम् ||२१||
प्रणवं सत्यमव्यक्तं गोविप्रान्धर्ममव्ययम्
दाक्षायणीर्धर्मपत्नीः सोमकश्यपयोरपि ||२२||
गङ्गां सरस्वतीं नन्दां कालिन्दीं सितवारणम्
ध्रुवं ब्रह्मऋषीन्सप्त पुण्यश्लोकांश्च मानवान् ||२३||
उत्थायापररात्रान्ते प्रयताः सुसमाहिताः
स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते ह्येनसोऽखिलात् ||२४||
ये मां स्तुवन्त्यनेनाङ्ग प्रतिबुध्य निशात्यये
तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विपुलां गतिम् ||२५||

श्रीशुक उवाच
इत्यादिश्य हृषीकेशः प्राध्माय जलजोत्तमम्
हर्षयन्विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम् ||२६||

श्रीभगवान्‌ने कहाजो लोग रात के पिछले पहर में उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्त से मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँके दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे, ब्रह्माजी और शिवजीके निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेषजी, मेरे आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शङ्करजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारोंमें किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्रि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्मकी पत्नी दक्षकन्याएँ, गङ्गा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रहमर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषोंका स्मरण करते हैंवे समस्त पापोंसे छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं ॥ १७२४ ॥ प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर तुम्हारी की हुई स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, मृत्युके समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धिका दान करूँगा ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शङ्ख बजाया और गरुड़पर सवार हो गये ॥ २६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
गजेन्द्र मोक्षणं नाम चतुर्थोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीशुक उवाच

एवं शप्त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान्नृप सानुगः
इन्द्र द्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन् ||११||
आपन्नः कौञ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम्
हर्यर्चनानुभावेन यद्गजत्वेऽप्यनुस्मृतिः ||१२||
एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभस्
तेनापि पार्षदगतिं गमितेन युक्तः
गन्धर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान
कर्माद्भुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ||१३||
एतन्महाराज तवेरितो मया
कृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम् |
स्वर्ग्यं यशस्यं कलिकल्मषापहं
दुःस्वप्ननाशं कुरुवर्य शृण्वताम् ||१४||
यथानुकीर्तयन्त्येतच्छ्रेयस्कामा द्विजातयः
शुचयः प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये ||१५||
इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम
शृण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभुः ||१६||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शाप एवं वरदान देनेमें समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँसे चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्र ने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध ही था ॥ ११ ॥ इसके बाद आत्माकी विस्मृति करा देनेवाली हाथीकी योनि उन्हें प्राप्त हुई। परंतु भगवान्‌की आराधनाका ऐसा प्रभाव है कि हाथी होनेपर भी उन्हें भगवान्‌की स्मृति हो ही गयी ॥ १२ ॥ भगवान्‌ श्रीहरिने इस प्रकार गजेन्द्रका उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीलाका गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्रको साथ ले गरुड़पर सवार होकर अपने अलौकिक धामको चले गये ॥ १३ ॥ कुरुवंश-शिरोमणि परीक्षित्‌ ! मैंने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमा तथा गजेन्द्रके उद्धारकी कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसङ्ग सुननेवालोंके कलिमल और दु:स्वप्नको मिटानेवाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देनेवाला है ॥ १४ ॥ इसीसे कल्याणकामी द्विजगण दु:स्वप्न आदिकी शान्तिके लिये प्रात:काल जगते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! गजेन्द्रकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान्‌ने सब लोगोंके सामने ही उसे यह बात कही थी ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति स त्...