॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
राजा बलि की स्वर्गपर विजय
श्रीगुरुरुवाच
जानामि
मघवञ्छत्रोरुन्नतेरस्य कारणम्
शिष्यायोपभृतं
तेजो भृगुभिर्ब्रह्मवादिभिः ॥ २८ ॥
भवद्विधो
भवान्वापि वर्जयित्वेश्वरं हरिम् ॥
नास्य
शक्तः पुरः स्थातुं कृतान्तस्य यथा जनाः ॥ २९ ॥
तस्मान्निलयमुत्सृज्य
यूयं सर्वे त्रिविष्टपम्
यात
कालं प्रतीक्षन्तो यतः शत्रोर्विपर्ययः ॥ ३० ॥
एष
विप्रबलोदर्कः सम्प्रत्यूर्जितविक्रमः
तेषामेवापमानेन
सानुबन्धो विनङ्क्ष्यति ॥ ३१ ॥
एवं
सुमन्त्रितार्थास्ते गुरुणार्थानुदर्शिना
हित्वा
त्रिविष्टपं जग्मुर्गीर्वाणाः कामरूपिणः ॥ ३२ ॥
देवेष्वथ
निलीनेषु बलिर्वैरोचनः पुरीम्
देवधानीमधिष्ठाय
वशं निन्ये जगत्त्रयम् ॥ ३३ ॥
तं
विश्वजयिनं शिष्यं भृगवः शिष्यवत्सलाः
शतेन
हयमेधानामनुव्रतमयाजयन् ॥ ३४ ॥
ततस्तदनुभावेन
भुवनत्रयविश्रुताम्
कीर्तिं
दिक्षु वितन्वानः स रेज उडुराडिव ॥ ३५ ॥
बुभुजे
च श्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम्
कृतकृत्यमिवात्मानं
मन्यमानो महामनाः ॥ ३६ ॥
देवगुरु बृहस्पतिजीने कहा—‘इन्द्र! मैं तुम्हारे शत्रु बलिकी उन्नतिका कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी
भृगुवंशियोंने अपने शिष्य बलिको महान् तेज देकर शक्तियोंका खजाना बना दिया है ॥ २८
॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् को छोडक़र तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलिके सामने उसी
प्रकार नहीं ठहर सकता,
जैसे कालके सामने प्राणी ॥ २९ ॥ इसलिये तुमलोग स्वर्गको
छोडक़र कहीं छिप जाओ और उस समयकी प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रुका भाग्यचक्र पलटे ॥ ३० ॥ इस समय ब्राह्मणोंके तेजसे बलिकी
उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं
ब्राह्मणोंका तिरस्कार करेगा, तब अपने
परिवार-परिकरके साथ नष्ट हो जायगा’ ॥ ३१ ॥ बृहस्पतिजी देवताओंके समस्त स्वार्थ और परमार्थके ज्ञाता थे। उन्होंने
जब इस प्रकार देवताओंको सलाह दी, तब वे
स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोडक़र चले गये ॥ ३२ ॥ देवताओंके छिप जानेपर
विरोचननन्दन बलिने अमरावतीपुरीपर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकों- को जीत
लिया ॥ ३३ ॥ जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियोंने अपने अनुगत शिष्यसे सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये ॥ ३४
॥ उन यज्ञोंके प्रभावसे बलिकी कीर्ति-कौमुदी तीनों लोकोंसे बाहर भी दसों दिशाओंमें
फैल गयी और वे नक्षत्रोंके राजा चन्द्रमाके समान शोभायमान हुए ॥ ३५ ॥
ब्राह्मण-देवताओंकी कृपासे प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का वे बड़ी उदारतासे उपभोग
करने लगे और अपनेको कृतकृत्य-सा मानने लगे ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
पञ्चदशोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से