सोमवार, 4 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

सन्ध्यां विभोर्वाससि गुह्य ऐक्षत्
     प्रजापतीन्जघने आत्ममुख्यान् ।
नाभ्यां नभः कुक्षिषु सप्तसिन्धून्
     उरुक्रमस्योरसि चर्क्षमालाम् ॥ २४ ॥
हृद्यंग धर्मं स्तनयोर्मुरारेः
     ऋतं च सत्यं च मनस्यथेन्दुम् ।
श्रियं च वक्षस्यरविन्दहस्तां
     कण्ठे च सामानि समस्तरेफान् ॥ २५ ॥
इन्द्रप्रधानानमरान्भुजेषु
     तत्कर्णयोः ककुभो द्यौश्च मूर्ध्नि ।
केशेषु मेघान्छ्वसनं नासिकायां
     अक्ष्णोश्च सूर्यं वदने च वह्निम् ॥ २६ ॥
वाण्यां च छन्दांसि रसे जलेशं
     भ्रुवोर्निषेधं च विधिं च पक्ष्मसु ।
अहश्च रात्रिं च परस्य पुंसो
     मन्युं ललाटेऽधर एव लोभम् ॥ २७ ॥
स्पर्शे च कामं नृप रेतसाम्भः
     पृष्ठे त्वधर्मं क्रमणेषु यज्ञम् ।
छायासु मृत्युं हसिते च मायां
     तनूरुहेष्वोषधिजातयश्च ॥ २८ ॥
नदीश्च नाडीषु शिला नखेषु
     बुद्धावजं देवगणान् ऋषींश्च ।
प्राणेषु गात्रे स्थिरजंगमानि
     सर्वाणि भूतानि ददर्श वीरः ॥ २९ ॥

इसी प्रकार भगवान्‌ के वस्त्रों में सन्ध्या, गुह्यस्थानों में प्रजापतिगण, जघनस्थल में अपने-सहित समस्त असुरगण, नाभिमें आकाश, कोखमें सातों समुद्र और वक्ष:स्थलमें नक्षत्रसमूह देखे ॥ २४ ॥ उन लोगोंको भगवान्‌के हृदयमें धर्म, स्तनोंमें ऋत (मधुर) और सत्य वचन, मनमें चन्द्रमा, वक्ष:स्थलपर हाथोंमें कमल लिये लक्ष्मीजी, कण्ठमें सामवेद और संपूर्ण शब्दसमूह उन्हें दीखे ॥ २५ ॥ बाहुओंमें इन्द्रादि समस्त देवगण, कानोंमें दिशाएँ, मस्तकमें स्वर्ग, केशोंमें मेघमाला, नासिकामें वायु, नेत्रोंमें सूर्य और मुखमें अग्रि दिखायी पड़े ॥ २६ ॥ वाणीमें वेद, रसनामें वरुण, भौंहोंमें विधि और निषेध, पलकोंमें दिन और रात। विश्वरूपके ललाटमें क्रोध और नीचेके ओठमें लोभके दर्शन हुए ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! उनके स्पर्शमें काम, वीर्यमें जल, पीठमें अधर्म, पद-विन्यासमें यज्ञ, छायामें मृत्यु, हँसीमें माया और शरीरके रोमोंमें सब प्रकारकी ओषधियाँ थीं ॥ २८ ॥ उनकी नाडिय़ोंमें नदियाँ, नखोंमें शिलाएँ और बुद्धिमें ब्रह्मा, देवता एवं ऋषिगण दीख पड़े। इस प्रकार वीरवर बलिने भगवान्‌की इन्द्रियों और शरीरमें सभी चराचर प्राणियोंका दर्शन किया ॥ २९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

तद्वामनं रूपमवर्धताद्‍भुतं
     हरेरनन्तस्य गुणत्रयात्मकम् ।
भूः खं दिशो द्यौर्विवराः पयोधयः
     तिर्यङ्‌नृदेवा ऋषयो यदासत ॥ २१ ॥
काये बलिस्तस्य महाविभूतेः
     सहर्त्विगाचार्यसदस्य एतत् ।
ददर्श विश्वं त्रिगुणं गुणात्मके
     भूतेन्द्रियार्थाशयजीवयुक्तम् ॥ २२ ॥
रसामचष्टाङ्‌घ्रितलेऽथ पादयोः
     महीं महीध्रान्पुरुषस्य जंघयोः ।
पतत्त्रिणो जानुनि विश्वमूर्तेः
     ऊर्वोर्गणं मारुतमिन्द्रसेनः ॥ २३ ॥

इसी समय एक बड़ी अद्भुत घटना घट गयी। अनन्त भगवान्‌ का वह त्रिगुणात्मक वामनरूप बढऩे लगा। वह यहाँतक बढ़ा कि पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु-पक्षी, मनुष्य, देवता और ऋषिसब-के-सब उसी में समा गये ॥ २१ ॥ ऋत्विज्, आचार्य और सदस्यों  साथ बलि ने समस्त ऐश्वर्यों के एकमात्र स्वामी भगवान्‌ के उस त्रिगुणात्मक शरीर में पञ्चभूत, इन्द्रिय, उनके विषय, अन्त:करण और जीवोंके साथ वह सम्पूर्ण त्रिगुणमय जगत् देखा ॥ २२ ॥ राजा बलिने विश्व- रूप भगवान्‌के चरणतलमें रसातल, चरणोंमें पृथ्वी, ङ्क्षपडलियोंमें पर्वत, घुटनोंमें पक्षी और जाँघों में मरुद्गण को देखा ॥ २३ ॥

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रविवार, 3 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

श्रीशुक उवाच -
एवं अश्रद्धितं शिष्यं अनादेशकरं गुरुः ।
शशाप दैवप्रहितः सत्यसन्धं मनस्विनम् ॥ १४ ॥
दृढं पण्डितमान्यज्ञः स्तब्धोऽस्यस्मद् उपेक्षया ।
मच्छासनातिगो यस्त्वं अचिराद्‍भ्रश्यसे श्रियः ॥ १५ ॥
एवं शप्तः स्वगुरुणा सत्यान्न चलितो महान् ।
वामनाय ददौ एनां अर्चित्वोदकपूर्वकम् ॥ १६ ॥
विन्ध्यावलिस्तदागत्य पत्‍नी जालकमालिनी ।
आनिन्ये कलशं हैमं अवनेजन्यपां भृतम् ॥ १७ ॥
यजमानः स्वयं तस्य श्रीमत्पादयुगं मुदा ।
अवनिज्यावहन्मूर्ध्नि तदपो विश्वपावनीः ॥ १८ ॥
तदासुरेन्द्रं दिवि देवतागणा
     गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः ।
तत्कर्म सर्वेऽपि गृणन्त आर्जवं
     प्रसूनवर्षैर्ववृषुर्मुदान्विताः ॥ १९ ॥
नेदुर्मुहुर्दुन्दुभयः सहस्रशो
     गन्धर्वकिम्पूरुषकिन्नरा जगुः ।
मनस्विनानेन कृतं सुदुष्करं
     विद्वानदाद्यद्रिपवे जगत्त्रयम् ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब शुक्राचार्यजीने देखा कि मेरा यह शिष्य गुरुके प्रति अश्रद्धालु है तथा मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन कर रहा है, तब दैवकी प्रेरणासे उन्होंने राजा बलिको शाप दे दियायद्यपि वे सत्यप्रतिज्ञ और उदार होनेके कारण शापके पात्र नहीं थे ॥ १४ ॥ शुक्राचार्यजीने कहा—‘मूर्ख ! तू है तो अज्ञानी, परंतु अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता है। तू मेरी उपेक्षा करके गर्व कर रहा है। तूने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। इसलिये शीघ्र ही तू अपनी लक्ष्मी खो बैठेगा॥ १५ ॥ राजा बलि बड़े महात्मा थे। अपने गुरुदेवके शाप देनेपर भी वे सत्यसे नहीं डिगे। उन्होंने वामनभगवान्‌की विधिपूर्वक पूजा की और हाथमें जल लेकर तीन पग भूमिका संकल्प कर दिया ॥ १६ ॥ उसी समय राजा बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, जो मोतियोंके गहनोंसे सुसज्जित थी, वहाँ आयी। उसने अपने हाथों वामनभगवान्‌के चरण पखारनेके लिये जलसे भरा सोनेका कलश लाकर दिया ॥ १७ ॥ बलिने स्वयं बड़े आनन्दसे उनके सुन्दर-सुन्दर युगल चरणोंको धोया और उनके चरणोंका वह विश्वपावन जल अपने सिरपर चढ़ाया ॥ १८ ॥ उस समय आकाशमें स्थित देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, चारणसभी लोग राजा बलिके इस अलौकिक कार्य तथा सरलताकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे उनके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १९ ॥ एक साथ ही हजारों दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं। गन्धर्व, किम्पुरुष और किन्नर गान करने लगे—‘अहो धन्य है ! इन उदारशिरोमणि बलिने ऐसा काम कर दिखाया, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है। देखो तो सही, इन्होंने जान-बूझकर अपने शत्रुको तीनों लोकोंका दान कर दिया !॥ २० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

सुलभा युधि विप्रर्षे ह्यनिवृत्तास्तनुत्यजः ।
न तथा तीर्थ आयाते श्रद्धया ये धनत्यजः ॥ ९ ॥
मनस्विनः कारुणिकस्य शोभनं
     यदर्थिकामोपनयेन दुर्गतिः ।
कुतः पुनर्ब्रह्मविदां भवादृशां
     ततो वटोरस्य ददामि वाञ्छितम् ॥ १० ॥
यजन्ति यज्ञं क्रतुभिर्यमादृता
     भवन्त आम्नायविधानकोविदाः ।
स एव विष्णुर्वरदोऽस्तु वा परो
     दास्याम्यमुष्मै क्षितिमीप्सितां मुने ॥ ११ ॥
यद्यपि असौ अधर्मेण मां बध्नीयाद् अनागसम् ।
तथाप्येनं न हिंसिष्ये भीतं ब्रह्मतनुं रिपुम् ॥ १२ ॥
एष वा उत्तमश्लोको न जिहासति यद् यशः ।
हत्वा मैनां हरेद् युद्धे शयीत निहतो मया ॥ १३ ॥

गुरुदेव ! ऐसे लोग संसार में बहुत हैं, जो युद्ध में पीठ न दिखाकर अपने प्राणोंकी बलि चढ़ा देते हैं; परंतु ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं, जो सत्पात्रके प्राप्त होनेपर श्रद्धाके साथ धनका दान करें ॥ ९ ॥ गुरुदेव ! यदि उदार और करुणाशील पुरुष अपात्र याचककी कामना पूर्ण करके दुर्गति भोगता है, तो वह दुर्गति भी उसके लिये शोभाकी बात होती है। फिर आप-जैसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंको दान करनेसे दु:ख प्राप्त हो तो उसके लिये क्या कहना है। इसलिये मैं इस ब्रह्मचारीकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा ॥ १० ॥ महर्षे ! वेदविधिके जाननेवाले आपलोग बड़े आदरसे यज्ञ-यागादिके द्वारा जिनकी आराधना करते हैंवे वरदानी विष्णु ही इस रूपमें हों अथवा कोई दूसरा हो, मैं इनकी इच्छाके अनुसार इन्हें पृथ्वीका दान करूँगा ॥ ११ ॥ यदि मेरे अपराध न करनेपर भी ये अधर्मसे मुझे बाँध लेंगे, तब भी मैं इनका अनिष्ट नहीं चाहूँगा। क्योंकि मेरे शत्रु होनेपर भी इन्होंने भयभीत होकर ब्राह्मणका शरीर धारण किया है ॥ १२ ॥ यदि ये पवित्रकीर्ति भगवान्‌ विष्णु ही हैं तो अपना यश नहीं खोना चाहेंगे (अपनी माँगी हुई वस्तु लेकर ही रहेंगे)। मुझे युद्धमें मारकर भी पृथ्वी छीन सकते हैं और यदि कदाचित् ये कोई दूसरे ही हैं, तो मेरे बाणोंकी चोट से सदा के लिये रणभूमि में सो जायँगे ॥ १३ ॥

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शनिवार, 2 नवंबर 2019

“नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च | मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||”

हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान् ने कहा है :-

“नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च |
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||”

अर्थात् हे नारद ! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ। मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं। मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं !
 


श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

यद् यद्धास्यति लोकेऽस्मिन् संपरेतं धनादिकम् ।
तस्य त्यागे निमित्तं किं विप्रस्तुष्येन्न तेन चेत् ॥ ६ ॥
श्रेयः कुर्वन्ति भूतानां साधवो दुस्त्यजासुभिः ।
दध्यङ्‌गशिबिप्रभृतयः को विकल्पो धरादिषु ॥ ७ ॥
यैरियं बुभुजे ब्रह्मन् दैत्येन्द्रैरनिवर्तिभिः ।
तेषां कालोऽग्रसीत् लोकान् न यशोऽधिगतं भुवि ॥ ८ ॥

इस संसार में मर जाने के बाद धन आदि जो-जो वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा दान आदिसे ब्राह्मणों को भी सन्तुष्ट न किया जा सका, तो उनके त्यागका लाभ ही क्या रहा ? ॥ ६ ॥ दधीचि, शिबि आदि महापुरुषों ने अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणोंका दान करके भी प्राणियोंकी भलाई की है। फिर पृथ्वी आदि वस्तुओंको देनेमें सोच-विचार करनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ ७ ॥ ब्रह्मन् ! पहले युगमें बड़े-बड़े दैत्य- राजोंने इस पृथ्वीका उपभोग किया है। पृथ्वीमें उनका सामना करनेवाला कोई नहीं था। उनके लोक और परलोकको तो काल खा गया, परंतु उनका यश अभी पृथ्वीपर ज्यों-का-त्यों बना हुआ है ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...