गुरुवार, 7 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

बलि का बाँधा जाना

श्रीशुक उवाच
पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः
रसां निर्विविशू राजन्विष्णुपार्षद ताडिताः ॥ २५ ॥
अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट्प्रभुचिकीर्षितम्
बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सूत्येऽहनि क्रतौ ॥ २६ ॥
हाहाकारो महानासीद्रोदस्योः सर्वतो दिशम्
निगृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ २७
तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप ॥ २८ ॥
पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय ॥ २९ ॥
यावत्तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः
यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव ॥ ३० ॥
पदैकेन मयाक्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः
स्वर्लोकस्ते द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना ॥ ३१ ॥
प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते
विश त्वं निरयं तस्माद्गुरुणा चानुमोदितः ॥ ३२ ॥
वृथा मनोरथस्तस्य दूरः स्वर्गः पतत्यधः
प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते ॥ ३३ ॥
विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना
तद्व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित्समाः ॥ ३४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने स्वामी बलिकी बात सुनकर भगवान्‌ के पार्षदों से हारे हुए दानव और दैत्यसेनापति रसातल में चले गये ॥ २५ ॥ उनके जानेके बाद भगवान्‌के हृदयकी बात जानकर पक्षिराज गरुडऩे वरुणके पाशों से बलिको बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञमें सोमपान होनेवाला था ॥ २६ ॥ जब सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ विष्णु ने बलिको इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओंमें लोग हाय-हाय !करने लगे ॥ २७ ॥ यद्यपि बलि वरुणके पाशोंसे बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथोंसे निकल गयी थीफिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यशका गान कर रहे थे। परीक्षित्‌ ! उस समय भगवान्‌ने बलिसे कहा ॥ २८ ॥ असुर ! तुमने मुझे पृथ्वीके तीन पग दिये थे; दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो ॥ २९ ॥ जहाँतक सूर्यकी गरमी पहुँचती है, जहाँतक नक्षत्रों और चन्द्रमाकी किरणें पहुँचती हैं और जहाँतक बादल जाकर बरसते हैंवहाँ- तककी सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें थी ॥ ३० ॥ तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैरसे भूर्लोक, शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्लोक नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है ॥ ३१ ॥ फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरुकी तो इस विषयमें सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरकमें प्रवेश करो ॥ ३२ ॥ जो याचकको देनेकी प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्गकी बात तो दूर रही, उसे नरकमें गिरना पड़ता है ॥ ३३ ॥ तुम्हें इस बातका बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे दूँगा’— ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षोंतक इस झूठका फल नरक भोगो॥ ३४ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

बलि का बाँधा जाना

ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणयः
अनिच्छन्तो बले राजन्प्राद्रवन्जातमन्यवः ॥ १४ ॥
तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान्नृप
प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः ॥ १५ ॥
नन्दः सुनन्दोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः
कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट् ॥ १६ ॥
जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोऽथ सात्वतः
सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम् ॥ १७ ॥
हन्यमानान्स्वकान्दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः
वारयामास संरब्धान्काव्यशापमनुस्मरन् ॥ १८ ॥
हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः
मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत् ॥ १९ ॥
यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये
तं नातिवर्तितुं दैत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान् ॥ २० ॥
यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम्
स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम् ॥ २१ ॥
बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गैर्मन्त्रौषधादिभिः
सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः ॥ २२ ॥
भवद्भिर्निर्जिता ह्येते बहुशोऽनुचरा हरेः
दैवेनर्द्धैस्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः ॥ २३ ॥
एतान्वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति
तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वाय कल्पते ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! राजा बलिकी इच्छा न होनेपर भी वे सब बड़े क्रोध से शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामन भगवान्‌ को मारने के लिये टूट पड़े ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! जब विष्णु- भगवान्‌ के पार्षदों ने देखा कि दैत्यों के सेनापति आक्रमण करनेके लिये दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया ॥ १५ ॥ नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वतये सभी भगवान्‌के पार्षद दस-दस हजार हाथियोंका बल रखते हैं। वे असुरोंकी सेनाका संहार करने लगे ॥ १६-१७ ॥ जब राजा बलिने देखा कि भगवान्‌के पार्षद मेरे सैनिकोंको मार रहे हैं और वे भी क्रोधमें भरकर उनसे लडऩेके लिये तैयार हो रहे हैं, तो उन्होंने शुक्राचार्यके शापका स्मरण करके उन्हें युद्ध करनेसे रोक दिया ॥ १८ ॥ उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा—‘भाइयो ! मेरी बात सुनो। लड़ो मत, वापस लौट आओ। यह समय हमारे कार्यके अनुकूल नहीं है ॥ १९ ॥ दैत्यो ! जो काल समस्त प्राणियोंको सुख और दु:ख देनेकी सामथ्र्य रखता हैउसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्नोंसे दबा दूँ, तो यह उसकी शक्तिसे बाहर है ॥ २० ॥ जो पहले हमारी उन्नति और देवताओंकी अवनतिके कारण हुए थे, वही कालभगवान्‌ अब उनकी उन्नति और हमारी अवनतिके कारण हो रहे हैं ॥ २१ ॥ बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपायइनमेंसे किसी भी साधनके द्वारा अथवा सबके द्वारा मनुष्य कालपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २२ ॥ जब दैव तुमलोगोंके अनुकूल था, तब तुमलोगोंने भगवान्‌के इन पार्षदोंको कई बार जीत लिया था। पर देखो, आज वे ही युद्धमें हमपर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं ॥ २३ ॥ यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे। इसलिये उस समयकी प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्यसिद्धिके लिये अनुकूल हो॥ २४ ॥

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बुधवार, 6 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बलि का बाँधा जाना

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाञ्चया
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः ॥ ९ ॥
न वायं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति ॥ १० ॥
अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा
सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि ॥ ११ ॥
सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः ॥ १२ ॥
तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः ॥ १३ ॥

दैत्यों ने देखा कि वामनजी ने तीन पग पृथ्वी माँगने के बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढक़र वे आपसमें कहने लगे ॥ ९ ॥ अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मणके रूपमें छिपकर यह देवताओं का काम बनाना चाहता है ॥ १० ॥ जब हमारे स्वामी यज्ञमें दीक्षित होकर किसी को किसी प्रकार का दण्ड देनेके लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रु ने ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया ॥ ११ ॥ यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परंतु यज्ञमें दीक्षित होनेपर वे इस बातका विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदयमें दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते ॥ १२ ॥ ऐसी अवस्थामें हमलोगोंका यही धर्म है कि इस शत्रुको मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलिकी सेवा भी होती है।यों सोचकर राजा बलिके अनुचर असुरोंने अपने-अपने हथियार उठा लिये ॥ १३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

बलि का बाँधा जाना

धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य
पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि
लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः ॥ ४ ॥
ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः
सानुगा बलिमाजह्रुः सङ्क्षिप्तात्मविभूतये ॥ ५ ॥
तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनैः
धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलाङ्कुरैः ॥ ६ ॥
स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्यमहिमाङ्कितैः
नृत्यवादित्रगीतैश्च शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः ॥ ७ ॥
जाम्बवानृक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः
विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत् ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विश्वरूप भगवान्‌ के पाँव पखारने से पवित्र होने के कारण उन गङ्गाजी के रूप में परिणत हो गया, जो आकाश-मार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। ये गङ्गाजी क्या हैं, भगवान्‌की मूर्तिमान् उज्जवल कीर्ति ॥ ४ ॥ जब भगवान्‌ने अपने स्वरूपको कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियोंको कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालोंने अपने अनुचरोंके साथ बड़े आदरभावसे अपने स्वामी भगवान्‌को अनेकों प्रकारकी भेंटें समर्पित कीं ॥ ५ ॥ उन लोगोंने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धोंसे भरे अङ्गराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अङ्कुर, भगवान्‌ की महिमा और प्रभावसे युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शङ्ख और दुन्दुभिके शब्दोंसे भगवान्‌ की आराधना की ॥ ६-७ ॥ उस समय ऋक्षराज जाम्बवान् मनके समान वेगसे दौडक़र सब दिशाओंमें भेरी बजा-बजाकर भगवान्‌की मङ्गलमय विजयकी घोषणा कर आये ॥ ८ ॥

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मंगलवार, 5 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

बलि का बाँधा जाना

श्रीशुक उवाच
सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभि-
र्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात्
मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्व्रताः
सनन्दनाद्या नरदेव योगिनः ॥ १ ॥
वेदोपवेदा नियमा यमा-
न्वितास्तर्केतिहासाङ्गपुराणसंहिताः
ये चापरे योगसमीरदीपित –
ज्ञानाग्निना रन्धितकर्मकल्मषाः
ववन्दिरे यत्स्मरणानुभावतः
स्वायम्भुवं धाम गता अकर्मकम् ॥ २ ॥
अथाङ्घ्रये प्रोन्नमिताय विष्णो-
रुपाहरत्पद्मभवोऽर्हणोदकम्
समर्च्य भक्त्याभ्यगृणाच्छुचिश्रवा
यन्नाभिपङ्केरुहसम्भवः स्वयम् ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का चरणकमल सत्यलोक में पहुँच गया। उसके नखचन्द्र की छटा से सत्यलोक की आभा फीकी पड़ गयी। स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाश में डूब-से गये। उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियोंके साथ भगवान्‌ के चरणकमलकी अगवानी की ॥ १ ॥ वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदाङ्ग और पुराण-संहिताएँजो ब्रह्मलोक में मूर्तिमान् होकर निवास करते हैंतथा जिन लोगों ने योगरूप वायु से ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करके कर्ममल को भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सब ने भगवान्‌ के चरणकी वन्दना की। इसी चरणकमलके स्मरणकी महिमा से ये सब कर्मके द्वारा प्राप्त न होनेयोग्य ब्रह्माजीके धाममें पहुँचे हैं ॥ २ ॥ भगवान्‌ ब्रह्माकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। वे विष्णुभगवान्‌ के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करने के बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूप भगवान्‌ के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्य-पाद्य से पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्ति से उन्होंने भगवान्‌ की स्तुति की ॥ ३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

सर्वात्मनीदं भुवनं निरीक्ष्य
     सर्वेऽसुराः कश्मलमापुरंग ।
सुदर्शनं चक्रमसह्यतेजो
     धनुश्च शार्ङ्‌ग स्तनयित्‍नुघोषम् ॥ ३० ॥
पर्जन्यघोषो जलजः पाञ्चजन्यः
     कौमोदकी विष्णुगदा तरस्विनी ।
विद्याधरोऽसिः शतचन्द्रयुक्तः
     तूणोत्तमावक्षयसायकौ च ॥ ३१ ॥
सुनन्दमुख्या उपतस्थुरीशं
     पार्षदमुख्याः सहलोकपालाः ।
स्फुरत्किरीटाङ्‌गदमीनकुण्डलः
     श्रीवत्सरत्‍नोत्तममेखलाम्बरैः ॥ ३२ ॥
मधुव्रतस्रग्वनमालयावृतो
     रराज राजन्भगवानुरुक्रमः ।
क्षितिं पदैकेन बलेर्विचक्रमे
     नभः शरीरेण दिशश्च बाहुभिः ॥ ३३ ॥
पदं द्वितीयं क्रमतस्त्रिविष्टपं
     न वै तृतीयाय तदीयमण्वपि ।
उरुक्रमस्याङ्‌घ्रिरुपर्युपर्यथो
     महर्जनाभ्यां तपसः परं गतः ॥ ३४ ॥

परीक्षित्‌ ! सर्वात्मा भगवान्‌ में यह सम्पूर्ण जगत् देखकर सब-के-सब दैत्य अत्यन्त भयभीत हो गये। इसी समय भगवान्‌ के पास असह्य तेजवाला सुदर्शन चक्र, गरजते हुए मेघ के समान भयङ्कर टङ्कार करनेवाला शार्ङ्गधनुष, बादलकी तरह गम्भीर शब्द करनेवाला पाञ्चजन्य शङ्ख, विष्णु भगवान्‌ की अत्यन्त वेगवती कौमोदकी गदा, सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल और विद्याधर नाम की तलवार, अक्षय बाणोंसे भरे दो तरकस तथा लोकपालोंके सहित भगवान्‌के सुनन्द आदि पार्षदगण सेवा करनेके लिये उपस्थित हो गये। उस समय भगवान्‌की बड़ी शोभा हुई। मस्तकपर मुकुट, बाहुओंमें बाजूबंद, कानोंमें मकराकृति कुण्डल, वक्ष:स्थलपर श्रीवत्स-चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि, कमरमें मेखला और कंधेपर पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ॥ ३०३२ ॥ वे पाँच प्रकारके पुष्पोंकी बनी वनमाला धारण किये हुए थे, जिसपर मधुलोभी भौंरे गुंजार कर रहे थे। उन्होंने अपने एक पगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली, शरीरसे आकाश और भुजाओंसे दिशाएँ घेर लीं; दूसरे पगसे उन्होंने स्वर्गको भी नाप लिया। तीसरा पैर रखनेके लिये बलिकी तनिक-सी भी कोई वस्तु न बची। भगवान्‌ का वह दूसरा पग ही ऊपर की ओर जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोक में पहुँच गया ॥ ३३-३४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे विश्वरूपदर्शनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...