॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
भगवान् के मत्स्यावतार की कथा
श्रीराजोवाच -
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविदः
तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयुः
विमुक्तिदो नः
परमो गुरुर्भवान् ॥ ४६ ॥
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
सुखेच्छया कर्म
समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स
भिन्द्याद् हृदयं स नो गुरुः ॥ ४७ ॥
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
पुमान्
विजह्यान् मलमात्मनस्तमः ।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
भूयात् स ईशः
परमो गुरोर्गुरुः ॥ ४८ ॥
न यत्प्रसादायुतभागलेशं
अन्ये च देवा
गुरवो जनाः स्वयम् ।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंसः
तं ईश्वरं
त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ ४९ ॥
राजा सत्यव्रत ने कहा—प्रभो ! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि-अविद्यासे ढक गया है। इसी कारण वे
संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीडि़त हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रहसे
वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं, तब आपको
प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम
गुरु आप ही हैं ॥ ४६ ॥ यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है। वह सुखकी इच्छासे दु:खप्रद कर्मोंका अनुष्ठान
करता है। जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें ॥ ४७ ॥
जैसे अग्रिमें तपानेसे सोने- चाँदीके मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप
निखर आता है,
वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्त:करणका अज्ञानरूप मल
त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान्
अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अत: आप ही हमारे भी गुरु बनें
॥ ४८ ॥ जितने भी देवता,
गुरु और संसारके दूसरे जीव हैं—वे सब यदि स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके अंशकी भी बराबरी नहीं कर
सकते। प्रभो ! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ४९ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से