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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति
भगवानपि
विश्वात्मा भक्तानामभयङ्करः
आविवेशांशभागेन
मन आनकदुन्दुभेः ॥ १६ ॥
स
बिभ्रत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः
दुरासदोऽतिदुर्धर्षो
भूतानां सम्बभूव ह ॥ १७ ॥
ततो
जगन्मङ्गलमच्युतांशं
समाहितं
शूरसुतेन देवी
दधार
सर्वात्मकमात्मभूतं
काष्ठा
यथानन्दकरं मनस्तः ॥ १८ ॥
सा
देवकी सर्वजगन्निवास-
निवासभूता
नितरां न रेजे
भोजेन्द्र
गेहेऽग्निशिखेव रुद्धा
सरस्वती
ज्ञानखले यथा सती ॥ १९ ॥
तां
वीक्ष्य कंसः प्रभयाजितान्तरां
विरोचयन्तीं
भवनं शुचिस्मिताम्
आहैष
मे प्राणहरो हरिर्गुहां
ध्रुवं
श्रितो यन्न पुरेयमीदृशी ॥ २० ॥
किमद्य
तस्मिन्करणीयमाशु मे
यदर्थतन्त्रो
न विहन्ति विक्रमम्
स्त्रियाः
स्वसुर्गुरुमत्या वधोऽयं
यशः
श्रियं हन्त्यनुकालमायुः ॥ २१ ॥
स
एष जीवन्खलु सम्परेतो
वर्तेत
योऽत्यन्तनृशंसितेन
देहे
मृते तं मनुजाः शपन्ति
गन्ता
तमोऽन्धं तनुमानिनो ध्रुवम् ॥ २२ ॥
इति
घोरतमाद्भावात्सन्निवृत्तः स्वयं प्रभुः
आस्ते
प्रतीक्षंस्तज्जन्म हरेर्वैरानुबन्धकृत् ॥ २३ ॥
आसीनः
संविशंस्तिष्ठन्भुञ्जानः पर्यटन्महीम्
चिन्तयानो
हृषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत् ॥ २४ ॥
भगवान्
भक्तों को अभय करनेवाले हैं । वे सर्वत्र सब रूपमें हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है । इसलिये वे वसुदेवजीके मनमें अपनी समस्त
कलाओंके साथ प्रकट हो गये ॥ १६ ॥ उसमें विद्यमान रहनेपर भी अपनेको अव्यक्तसे
व्यक्त कर दिया । भगवान्की ज्योतिको धारण करनेके कारण वसुदेवजी सूर्यके समान
तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगोंकी आँखें चौंधिया जातीं ।
कोई भी अपने बल, वाणी या प्रभावसे उन्हें दबा नहीं सकता था ॥
१७ ॥ भगवान् के उस ज्योतिर्मय अंशको, जो जगत् का परम मङ्गल
करनेवाला है, वसुदेवजीके द्वारा आधान किये जानेपर देवी
देवकीने ग्रहण किया । जैसे पूर्वदिशा चन्द्रदेवको धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्वसे सम्पन्न देवी देवकीने विशुद्ध मनसे सर्वात्मा एवं
आत्मस्वरूप भगवान्को धारण किया ॥ १८ ॥ भगवान् सारे जगत् के निवासस्थान हैं । देवकी उनका भी निवासस्थान बन
गयी । परंतु घड़े आदिके भीतर बंद किये हुए दीपकका और अपनी विद्या दूसरेको न
देनेवाले ज्ञानखलकी श्रेष्ठ विद्याका प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंसके कारागारमें बंद देवकीकी भी उतनी शोभा नहीं हुई ॥ १९ ॥
देवकीके गर्भमें भगवान् विराजमान हो गये थे । उसके मुखपर पवित्र मुसकान थी और
उसके शरीरकी कान्तिसे बंदीगृह जगमगाने लगा था । जब कंसने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा—‘अबकी बार मेरे प्राणोंके
ग्राहक विष्णुने इसके गर्भमें अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि
इसके पहले देवकी कभी ऐसी न थी ॥ २० ॥ अब इस विषयमें शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना
चाहिये ? देवकीको मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रमको कलङ्कित नहीं करते । एक तो यह
स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है । इसको मारनेसे
तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायगी ॥
२१ ॥ वह मनुष्य तो जीवित रहनेपर भी मरा हुआ ही है, जो
अत्यन्त क्रूरताका व्यवहार करता है । उसकी मृत्युके बाद लोग उसे गाली देते हैं ।
इतना ही नहीं, वह देहाभिमानियोंके योग्य घोर नरकमें भी
अवश्य-अवश्य जाता है ॥ २२ ॥ यद्यपि कंस देवकीको मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरताके विचारसे निवृत्त हो गया [*] । अब
भगवान् के प्रति दृढ़ वैरका भाव मनमें गाँठकर उनके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा ॥
२३ ॥ वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते
और चलते-फिरते—सर्वदा ही श्रीकृष्णके चिन्तनमें लगा रहता ।
जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खडक़ा होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते । इस प्रकार उसे सारा जगत् ही श्रीकृष्णमय
दीखने लगा ॥ २४ ॥
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जो कंस विवाह के मङ्गलचिह्नों को धारण की हुई देवकी का गला काटनेके उद्योगसे न
हिचका,
वही आज इतना सद्विचारवान् हो गया, इसका क्या
कारण है ? अवश्य ही आज वह जिस देवकीको देख रहा है, उसके अन्तरङ्ग में—गर्भ में श्रीभगवान् हैं। जिसके
भीतर भगवान् हैं, उसके दर्शनसे सद्बुद्धिका उदय होना कोई
आश्चर्य नहीं है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से