गुरुवार, 4 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

अघासुर का उद्धार

दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम् ।
व्यात्ताजगरतुण्डेन ह्युत्प्रेक्षन्ते स्म लीलया ॥ १८ ॥
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम् ।
अस्मत्सङ्‌ग्रसनव्यात्त व्यालतुण्डायते न वा ॥ १९ ॥
सत्यमर्ककरारक्तं उत्तराहनुवद्‍घनम् ।
अधराहनुवद् रोधः तत् प्रतिच्छाययारुणम् ॥ २० ॥
प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे ।
तुंगशृंगालयोऽप्येताः तद् दंष्ट्राभिश्च पश्यत ॥ २१ ॥
आस्तृतायाम मार्गोऽयं रसनां प्रतिगर्जति ।
एषां अन्तर्गतं ध्वान्तं एतदप्यन्तः आननम् ॥ २२ ॥
दावोष्णखरवातोऽयं श्वासवद्‍भाति पश्यत ।
तद् दग्धसत्त्वदुर्गन्धोऽपि अन्तरामिषगन्धवत् ॥ २३ ॥
अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टा-
नयं तथा चेद् बकवद् विनङ्‌क्ष्यति ।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं
वीक्ष्योद्धसन्तः करताडनैर्ययुः ॥ २४ ॥
इत्थं मिथोऽतथ्यं अतज्ज्ञभाषितं
श्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते ।
रक्षो विदित्वाखिल-भूतहृत्स्थितः
स्वानां निरोद्धुं भगवान् मनो दधे ॥ २५ ॥
तावत् प्रविष्टास्तु असुरोदरान्तरं
परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः ।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनं
हतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा ॥ २६ ॥
तान् वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो
ह्यनन्यनाथान् स्वकरादवच्युतान् ।
दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्
घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः ॥ २७ ॥
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं
न वा अमीषां च सतां विहिंसनम् ।
द्वयं कथं स्यादिति संविचिन्त्य तत्
ज्ञात्वाविशत् तुण्डमशेषदृग्घरिः ॥ २८ ॥
तदा घनच्छदा देवा भयाद् हाहेति चुक्रुशुः ।
जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघबान्धवाः ॥ २९ ॥

अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है । वे कौतुकवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है ॥ १८ ॥ कोई कहता—‘मित्रो ! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिये खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है ?’ ॥ १९ ॥ दूसरे ने कहा—‘सचमुच सूर्यकी किरणें पडऩेसे ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो ठीक-ठीक इसका ऊपरी होठ ही हो । और उन्हीं बादलोंकी परछार्ईंसे यह जो नीचेकी भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचेका होठ जान पड़ता है॥ २० ॥ तीसरे ग्वालबाल ने कहा—‘हाँ, सच तो है । देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओरकी गिरि-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं ? और ये ऊँची-ऊँची शिखर-पंक्तियाँ तो साफ-साफ इसकी दाढ़ें मालूम पड़ती हैं॥ २१ ॥ चौथेने कहा—‘अरे भाई ! यह लंबी-चौड़ी सडक़ तो ठीक अजगरकी जीभ सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरिशृङ्गोंके बीचका अन्धकार तो उसके मुँहके भीतरी भागको भी मात करता है॥ २२ ॥ किसी दूसरे ग्वालबालने कहा—‘देखो, देखो ! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगलमें आग लगी है । इसीसे यह गरम और तीखी हवा आ रही है । परंतु अजगरकी साँसके साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है । और उसी आगसे जले हुए प्राणियोंकी दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगरके पेटमें मरे हुए जीवोंके मांसकी ही दुर्गन्ध हो॥ २३ ॥ तब उन्हींमेंसे एकने कहा—‘यदि हमलोग इसके मुँहमें घुस जायँ, तो क्या यह हमें निगल जायगा ? अजी ! यह क्या निगलेगा । कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा । हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही ।इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुरको मारनेवाले श्रीकृष्णका सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुरके मुँहमें घुस गये ॥ २४ ॥ उन अनजान बच्चोंकी आपसमें की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने सोचा कि अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है !परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है । भला, उनसे क्या छिपा रहता ? वे तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हैं । अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सखा ग्वालबालोंको उसके मुँहमें जानेसे बचा लें ॥ २५ ॥ भगवान्‌ इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ोंके साथ उस असुरके पेटमें चले गये । परंतु अघासुरने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण यह था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतनाके वधकी याद करके इस बातकी बाट देख रहा था कि उनको मारनेवाले श्रीकृष्ण मुँहमें आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ ॥ २६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं । जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबालजिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँमेरे हाथसे निकल गये और जैसे कोई तिनका उडक़र आगमें गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्युरूप अघासुर की जठराग्नि  के ग्रास बन गये, तब दैवकी इस विचित्र लीलापर भगवान्‌को बड़ा विस्मय हुआ और उनका हृदय दयासे द्रवित हो गया ॥ २७ ॥ वे सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्टकी मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकोंकी हत्या भी न हो ? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमानसबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं । उनके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था । वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँहमें घुस गये ॥ २८ ॥ उस समय बादलोंमें छिपे हुए देवता भयवश हाय-हायपुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





बुधवार, 3 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

अघासुर का उद्धार

अथ अघनामाभ्यपतन् महासुरः
तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः ।
नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभिः
पीतामृतैः अप्यमरैः प्रतीक्ष्यते ॥ १३ ॥
दृष्ट्वार्भकान् कृष्णमुखान् अघासुरः ।
कंसानुशिष्टः स बकीबकानुजः ।
अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयोरः
द्वयोर्ममैनं सबलं हनिष्ये ॥ १४ ॥
एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापः
कृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः ।
प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ता
प्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते ॥ १५ ॥
इति व्यवस्याजगरं बृहद् वपुः
स योजनायाम महाद्रिपीवरम् ।
धृत्वाद्‍भुतं व्यात्तगुहाननं तदा
पथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः ॥ १६ ॥
धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो
दर्याननान्तो गिरिशृङ्‌गदंष्ट्रः ।
ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्वः
परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः ॥ १७ ॥

परीक्षित्‌ ! इसी समय अघासुर नामका महान् दैत्य आ धमका । उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी । उसके हृदय में जलन होने लगी । वह इतना भयङ्कर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करनेके लिये चिन्तित रहा करते थे और इस बातकी बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकारसे इसकी मृत्युका अवसर आ जाय ॥ १३ ॥ अघासुर पूतना और बकासुरका छोटा भाई तथा कंसका भेजा हुआ था । वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालोंको देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि यही मेरे सगे भाई और बहिनको मारनेवाला है । इसलिये आज मैं इन ग्वालबालोंके साथ इसे मार डालूँगा ॥ १४ ॥ जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनोंके मृततर्पणकी तिलाञ्जलि बन जायँगे, तब व्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे । सन्तान ही प्राणियोंके प्राण हैं । जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा ? इसकी मृत्युसे व्रजवासी अपने आप मर जायँगे॥ १५ ॥ ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगरका रूप धारण कर मार्गमें लेट गया । उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वतके समान विशाल एवं मोटा था । वह बहुत ही अद्भुत था । उसकी नीयत सब बालकोंको निगल जानेकी थी, इसलिये उसने गुफाके समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था ॥ १६ ॥ उसका नीचेका होठ पृथ्वीसे और ऊपरका होठ बादलोंसे लग रहा था । उसके जबड़े कन्दराओंके समान थे और दाढ़ें पर्वतके शिखर-सी जान पड़ती थीं । मुँहके भीतर घोर अन्धकार था । जीभ एक चौड़ी लाल सडक़-सी दीखती थी । साँस आँधी के समान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

अघासुर का उद्धार

श्रीशुक उवाच ।
क्वचिद्वनाशाय मनो दधद् व्रजात्
प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान् ।
प्रबोधयन् श्रृंगरवेण चारुणा
विनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरिः ॥ १ ॥
तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः
स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः ।
स्वान् स्वान् सहस्रो परिसङ्‌ख्ययान्वितान्
वत्सान् पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा ॥ २ ॥
कृष्णवत्सैः असङ्‌ख्यातैः यूथीकृत्य स्ववत्सकान् ।
चारयन्तोऽर्भलीलाभिः विजह्रुः तत्र तत्र ह ॥ ३ ॥
फलप्रबालस्तवक सुमनःपिच्छधातुभिः ।
काचगुञ्जामणिस्वर्ण-भूषिता अप्यभूषयन् ॥ ४ ॥
मुष्णन्तोऽन्योन्य शिक्यादीन् न्ज्ञातानाराच्च चिक्षिपुः ।
तत्रत्याश्च पुनर्दूरात् हसन्तश्च पुनर्ददुः ॥ ५ ॥
यदि दूरं गतः कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम् ।
अहं पूर्वं अहं पूर्वं इति संस्पृश्य रेमिरे ॥ ६ ॥
केचिद् वेणून् वादयन्तो ध्मान्तः शृङ्‌गाणि केचन ।
केचिद् भृंङ्‌गैः प्रगायन्तः कूजन्तः कोकिलैः परे ॥ ७ ॥
विच्छायाभिः प्रधावन्तो गच्छन्तः साधुहंसकैः ।
बकैः उपविशन्तश्च नृत्यन्तश्च कलापिभिः ॥ ८ ॥
विकर्षन्तः कीशबालान् आरोहन्तश्च तैर्द्रुमान् ।
विकुर्वन्तश्च तैः साकं प्लवन्तश्च पलाशिषु ॥ ९ ॥
साकं भेकैर्विलङ्‌घन्तः सरित् प्रस्रवसम्प्लुताः ।
विहसन्तः प्रतिच्छायाः शपन्तश्च प्रतिस्वनान् ॥ १० ॥
इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या
दास्यं गतानां परदैवतेन ।
मायाश्रितानां नरदारकेण
साकं विजह्रुः कृतपुण्यपुञ्जाः ॥ ११ ॥
यत्पादपांसुः बहुजन्मकृच्छ्रतो
धृतात्मभिः योगिभिरप्यलभ्यः ।
स एव यद्‌दृग्विषयः स्वयं स्थितः
किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम् ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वनमें ही कलेवा करनेके विचारसे बड़े तडक़े उठ गये और सिंगीबाजेकी मधुर मनोहर ध्वनिसे अपने साथी ग्वालबालोंको मनकी बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ोंको आगे करके वे व्रजमण्डलसे निकल पड़े ॥ १ ॥ श्रीकृष्णके साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहस्रों बछड़ोंको आगे करके बड़ी प्रसन्नतासे अपने-अपने घरोंसे चल पड़े ॥ २ ॥ उन्होंने श्रीकृष्णके अगणित बछड़ोंमें अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थानपर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे ॥ ३ ॥ यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्णके गहने पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावनके लाल-पीले-हरे फलोंसे, नयी-नयी कोंपलोंसे, गुच्छोंसे, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखोंसे तथा गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको सजा लिया ॥ ४ ॥ कोई किसीका छीका चुरा लेता, तो कोई किसीकी बेत या बाँसुरी । जब उन वस्तुओंके स्वामीको पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरेके पास दूर फेंक देता, दूसरा तीसरेके और तीसरा और भी दूर चौथेके पास । फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते ॥ ५ ॥ यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वनकी शोभा देखनेके लिये कुछ आगे बढ़ जाते, तो पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’—इस प्रकार आपसमें होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू- छूकर आनन्दमग्र हो जाते ॥ ६ ॥ कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है । कोई-कोई भौंरोंके साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलोंके स्वरमें स्वर मिलाकर कुहू-कुहूकर रहे हैं ॥ ७ ॥ एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंकी छायाके साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसोंकी चालकी नकल करते हुए उनके साथ सुन्दर गतिसे चल रहे हैं । कोई बगुलेके पास उसीके समान आँखें मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरोंको नाचते देख उन्हींकी तरह नाच रहे हैं ॥ ८ ॥ कोई-कोई बंदरोंकी पूँछ पकडक़र खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़से उस पेड़पर चढ़ रहे हैं । कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डालसे दूसरी डालपर छलाँग मार रहे हैं ॥ ९ ॥ बहुत-से ग्वालबाल तो नदीके कछार में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेढकोंके साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं । कोई पानीमें अपनी परछार्ईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे अपने शब्दकी प्रतिध्वनिको ही बुरा-भला कह रहे हैं ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ज्ञानी संतोंके लिये स्वयं ब्रह्मानन्दके मूर्तिमान् अनुभव हैं । दास्यभावसे युक्त भक्तोंके लिये वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं । और माया-मोहित विषयान्धोंके लिये वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं । उन्हीं भगवान्‌ के साथ वे महान् पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह- तरहके खेल खेल रहे हैं ॥ ११ ॥ बहुत जन्मोंतक श्रम और कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्त:करणको वशमें कर लिया है, उन योगियोंके लिये भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है । वही भगवान्‌ स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय ॥ १२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 2 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

श्रुत्वा तद् विस्मिता गोपा गोप्यश्चातिप्रियादृताः ।
प्रेत्य आगतमिवोत्सुक्याद् ऐक्षन्त तृषितेक्षणाः ॥ ५४ ॥
अहो बतास्य बालस्य बहवो मृत्यवोऽभवन् ।
अप्यासीद् विप्रियं तेषां कृतं पूर्वं यतो भयम् ॥ ५५ ॥
अथापि अभिभवन्त्येनं नैव ते घोरदर्शनाः ।
जिघांसयैनमासाद्य नश्यन्त्यग्नौ पतङ्‌गवत् ॥ ५६ ॥
अहो ब्रह्मविदां वाचो नासत्याः सन्ति कर्हिचित् ।
गर्गो यदाह भगवान् अन्वभावि तथैव तत् ॥ ५७ ॥
इति नन्दादयो गोपाः कृष्णरामकथां मुदा ।
कुर्वन्तो रममाणाश्च नाविन्दन् भववेदनाम् ॥ ५८ ॥
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे ।
निलायनैः सेतुबन्धैः मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥ ५९ ॥

परीक्षित्‌ ! बकासुरके वधकी घटना सुनकर सब-के-सब गोपी-गोप आश्चर्यचकित हो गये । उन्हें ऐसा जान पड़ा, जैसे कन्हैया साक्षात् मृत्युके मुखसे ही लौटे हों । वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदरसे श्रीकृष्णको निहारने लगे । उनके नेत्रोंकी प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तृप्ति न होती थी ॥ ५४ ॥ वे आपसमें कहने लगे—‘हाय ! हाय !! यह कितने आश्चर्यकी बात है । इस बालकको कई बार मृत्युके मुँहमें जाना पड़ा । परंतु जिन्होंने इसका अनिष्ट करना चाहा, उन्हींका अनिष्ट हुआ । क्योंकि उन्होंने पहलेसे दूसरोंका अनिष्ट किया था ॥ ५५ ॥ यह सब होनेपर भी वे भयङ्कर असुर इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते । आते हैं इसे मार डालनेकी नीयतसे, किन्तु आगपर गिरकर पतंगों की तरह उलटे स्वयं स्वाहा हो जाते हैं ॥ ५६ ॥ सच है, ब्रह्मवेत्ता महात्माओंके वचन कभी झूठे नहीं होते । देखो न, महात्मा गर्गाचार्य ने जितनी बातें कही थीं, सब-की-सब सोलहों आने ठीक उतर रही हैं॥ ५७ ॥ नन्दबाबा आदि गोपगण इसी प्रकार बड़े आनन्दसे अपने श्याम और रामकी बातें किया करते । वे उनमें इतने तन्मय रहते कि उन्हें संसारके दु:ख-संकटों का कुछ पता ही न चलता ॥ ५८ ॥ इसी प्रकार श्याम और बलराम ग्वालबालोंके साथ कभी आँखमिचौनी खेलते, तो कभी पुल बाँधते । कभी बंदरों की भाँति उछलते-कूदते, तो कभी और कोई विचित्र खेल करते । इस प्रकारके बालोचित खेलों से उन दोनों ने व्रज में अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की ॥ ५९ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

कदाचिद् यमुनातीरे वत्सान् चारयतोः स्वकैः ।
वयस्यैः कृष्णबलयोः जिघांसुर्दैत्य आगमत् ॥ ४१ ॥
तं वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरिः ।
दर्शयन् बलदेवाय शनैर्मुग्ध इवासदत् ॥ ४२ ॥
गृहीत्वा अपरपादाभ्यां सहलाङ्‌गूलमच्युतः ।
भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद् गतजीवितम् ।
स कपित्थैर्महाकायः पात्यमानैः पपात ह ॥ ४३ ॥
तं वीक्ष्य विस्मिता बालाः शशंसुः साधु साध्विति ।
देवाश्च परिसन्तुष्टा बभूवुः पुष्पवर्षिणः ॥ ४४ ॥
तौ वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ ।
सप्रातराशौ गोवत्सान् चारयन्तौ विचेरतुः ॥ ४५ ॥
स्वं स्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यन्त एकदा ।
गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम् ॥ ४६ ॥
ते तत्र ददृशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम् ।
तत्रसुर्वज्रनिर्भिन्नं गिरेः शृङ्‌गमिव च्युतम् ॥ ४७ ॥
स वै बको नाम महानसुरो बकरूपधृक् ।
आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसद्‍बली ॥ ४८ ॥
कृष्णं महाबकग्रस्तं दृष्ट्वा रामादयोऽर्भकाः ।
बभूवुरिन्द्रियाणीव विना प्राणं विचेतसः ॥ ४९ ॥
तं तालुमूलं प्रदहन्तमग्निवद्
गोपालसूनुं पितरं जगद्‍गुरोः ।
चच्छर्द सद्योऽतिरुषाक्षतं बकः
तुण्डेन हन्तुं पुनरभ्यपद्यत ॥ ५० ॥
तं आपतन्तं स निगृह्य तुण्डयोः
दोर्भ्यां बकं कंससखं सतां पतिः ।
पश्यत्सु बालेषु ददार लीलया
मुदावहो वीरणवद् दिवौकसाम् ॥ ५१ ॥
तदा बकारिं सुरलोकवासिनः
समाकिरन् नन्दनमल्लिकादिभिः ।
समीडिरे चानकशङ्‌खसंस्तवैः
तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे ॥ ५२ ॥
मुक्तं बकास्याद् उपलभ्य बालका
रामादयः प्राणमिवेन्द्रियो गणः ।
स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृताः
प्रणीय वत्सान् व्रजमेत्य तज्जगुः ॥ ५३ ॥

एक दिनकी बात है, श्याम और बलराम अपने प्रेमी सखा ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर बछड़े चरा रहे थे । उसी समय उन्हें मारनेकी नीयतसे एक दैत्य आया ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ने देखा कि वह बनावटी बछड़ेका रूप धारणकर बछड़ोंके झुंडमें मिल गया है । वे आँखोंके इशारेसे बलरामजीको दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गये । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो वे दैत्यको तो पहचानते नहीं और उस हट्टे-कट्टे सुन्दर बछड़ेपर मुग्ध हो गये हैं ॥ ४२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने पूँछके साथ उसके दोनों पिछले पैर पकडक़र आकाशमें घुमाया और मर जानेपर कैथके वृक्षपर पटक दिया । उसका लंबा-तगड़ा दैत्यशरीर बहुत-से कैथके वृक्षोंको गिराकर स्वयं भी गिर पड़ा ॥ ४३ ॥ यह देखकर ग्वालबालोंके आश्चर्यकी सीमा न रही । वे वाह-वाहकरके प्यारे कन्हैयाकी प्रशंसा करने लगे । देवता भी बड़े आनन्दसे फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ४४ ॥
परीक्षित्‌ ! जो सारे लोकोंके एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और बलराम अब वत्सपाल (बछड़ोंके चरवाहे) बने हुए हैं । वे तडक़े ही उठकर कलेवेकी सामग्री ले लेते और बछड़ोंको चराते हुए एक वनसे दूसरे वनमें घूमा करते ॥ ४५ ॥ एक दिनकी बात है, सब ग्वालबाल अपने झुंड-के- झुंड बछड़ोंको पानी पिलानेके लिये जलाशयके तटपर ले गये । उन्होंने पहले बछड़ोंको जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया ॥ ४६ ॥ ग्वालबालोंने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है । वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्रके वज्रसे कटकर कोई पहाडक़ा टुकड़ा गिरा हुआ है ॥ ४७ ॥ ग्वालबाल उसे देखकर डर गये । वह बकनामका एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुलेका रूप धरके वहाँ आया था । उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान् था । उसने झपटकर श्रीकृष्णको निगल लिया ॥ ४८ ॥ जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि वह बड़ा भारी बगुला श्रीकृष्णको निगल गया, तब उनकी वही गति हुई जो प्राण निकल जानेपर इन्द्रियोंकी होती है । वे अचेत हो गये ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्माके भी पिता हैं । वे लीलासे ही गोपाल-बालक बने हुए हैं । जब वे बगुलेके तालुके नीचे पहुँचे, तब वे आगके समान उसका तालु जलाने लगे । अत: उस दैत्यने श्रीकृष्णके शरीरपर बिना किसी प्रकारका घाव किये ही झटपट उन्हें उगल दिया और फिर बड़े क्रोधसे अपनी कठोर चोंचसे उनपर चोट करनेके लिये टूट पड़ा ॥ ५० ॥ कंसका सखा बकासुर अभी भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्णपर झपट ही रहा था कि उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकड़ लिये और ग्वालबालोंके देखते-देखते खेल-ही-खेलमें उसे वैसे ही चीर डाला, जैसे कोई वीरण (गाँडऱ, जिसकी जडक़ा खस होता है) को चीर डाले । इससे देवताओंको बड़ा आनन्द हुआ ॥ ५१ ॥ सभी देवता भगवान्‌ श्रीकृष्णपर नन्दनवनके बेला, चमेली आदिके फूल बरसाने लगे तथा नगारे, शङ्ख आदि बजाकर एवं स्तोत्रोंके द्वारा उनको प्रसन्न करने लगे । यह सब देखकर सब-के-सब ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गये ॥ ५२ ॥ जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि श्रीकृष्ण बगुलेके मुँह से निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ मानो प्राणोंके सञ्चारसे इन्द्रियाँ सचेत और आनन्दित हो गयी हों । सबने भगवान्‌ को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब व्रज में आये और वहाँ उन्होंने घरके लोगोंसे सारी घटना कह सुनायी ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 1 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

तच्छ्रुत्वैकधियो गोपाः साधु साध्विति वादिनः ।
व्रजान् स्वान् स्वान् समायुज्य ययू रूढपरिच्छदाः ॥ ३० ॥
वृद्धान् बालान् स्त्रियो राजन् सर्वोपकरणानि च ।
अनःस्वारोप्य गोपाला यत्ता आत्त-शरासनाः ॥ ३१ ॥
गोधनानि पुरस्कृत्य शृङ्‌गाण्यापूर्य सर्वतः ।
तूर्यघोषेण महता ययुः सहपुरोहिताः ॥ ३२ ॥
गोप्यो रूढरथा नूत्‍न कुचकुंकुम कान्तयः ।
कृष्णलीला जगुः प्रीत्या निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ॥ ३३ ॥
तथा यशोदारोहिण्यौ एकं शकटमास्थिते ।
रेजतुः कृष्णरामाभ्यां तत्कथाश्रवणोत्सुके ॥ ३४ ॥
वृन्दावनं सम्प्रविश्य सर्वकालसुखावहम् ।
तत्र चक्रुर्व्रजावासं शकटैः अर्धचन्द्रवत् ॥ ३५ ॥
वृन्दावनं गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च ।
वीक्ष्यासीत् उत्तमा प्रीती राममाधवयोर्नृप ॥ ३६ ॥
एवं व्रजौकसां प्रीतिं यच्छन्तौ बालचेष्टितैः ।
कलवाक्यैः स्वकालेन वत्सपालौ बभूवतुः ॥ ३७ ॥
अविदूरे व्रजभुवः सह गोपालदारकैः ।
चारयामासतुः वत्सान् नानाक्रीडापरिच्छदौ ॥ ३८ ॥
क्वचिद् वादयतो वेणुं क्षेपणैः क्षिपतः क्वचित् ।
क्वचित् पादैः किङ्‌किणीभिः क्वचित् कृत्रिमगोवृषैः ॥ ३९ ॥
वृषायमाणौ नर्दन्तौ युयुधाते परस्परम् ।
अनुकृत्य रुतैर्जन्तून् चेरतुः प्राकृतौ यथा ॥ ४० ॥

उपनन्दकी बात सुनकर सभी गोपोंने एक स्वरसे कहा—‘बहुत ठीक, बहुत ठीक ।इस विषयमें किसीका भी मतभेद न था । सब लोगोंने अपनी झुंड-की-झुंड गायें इक_ी कीं और छकड़ोंपर घरकी सब सामग्री लादकर वृन्दावनकी यात्रा की ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! ग्वालोंने बूढ़ों, बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्रियोंको छकड़ोंपर चढ़ा दिया और स्वयं उनके पीछे-पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानीसे चलने लगे ॥ ३१ ॥ उन्होंने गौ और बछड़ोंको तो सबसे आगे कर लिया और उनके पीछे-पीछे सिंगी और तुरही जोर-जोरसे बजाते हुए चले । उनके साथ ही-साथ पुरोहित- लोग भी चल रहे थे ॥ ३२ ॥ गोपियाँ अपने-अपने वक्ष:स्थलपर नयी केसर लगाकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर, गलेमें सोनेके हार धारण किये हुए रथोंपर सवार थीं और बड़े आनन्दसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओंके गीत गाती जाती थीं ॥ ३३ ॥ यशोदारानी और रोहिणीजी भी वैसे ही सज-धजकर अपने-अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण तथा बलरामके साथ एक छकड़ेपर शोभायमान हो रही थीं । वे अपने दोनों बालकोंकी तोतली बोली सुन-सुनकर भी अघाती न थीं, और-और सुनना चाहती थीं ॥ ३४ ॥ वृन्दावन बड़ा ही सुन्दर वन है । चाहे कोई भी ऋतु हो, वहाँ सुख-ही-सुख है । उसमें प्रवेश करके ग्वालोंने अपने छकड़ोंको अद्र्धचन्द्राकार मण्डल बाँधकर खड़ा कर दिया और अपने गोधनके रहनेयोग्य स्थान बना लिया ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! वृन्दावनका हरा-भरा वन, अत्यन्त मनोहर गोवर्धन पर्वत और यमुना नदीके सुन्दर-सुन्दर पुलिनोंको देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके हृदयमें उत्तम प्रीतिका उदय हुआ ॥ ३६ ॥
राम और श्याम दोनों ही अपनी तोतली बोली और अत्यन्त मधुर बालोचित लीलाओंसे गोकुलकी ही तरह वृन्दावनमें भी व्रजवासियोंको आनन्द देते रहे । थोड़े ही दिनोंमें समय आनेपर वे बछड़े चराने लगे ॥ ३७ ॥ दूसरे ग्वालबालोंके साथ खेलनेके लिये बहुत-सी सामग्री लेकर वे घरसे निकल पड़ते और गोष्ठ (गायोंके रहनेके स्थान) के पास ही अपने बछड़ोंको चराते ॥ ३८ ॥ श्याम और राम कहीं बाँसुरी बजा रहे हैं, तो कहीं गुलेल या ढेलवाँससे ढेले या गोलियाँ फेंक रहे हैं । किसी समय अपने पैरोंके घुँघरूपर तान छेड़ रहे हैं, तो कहीं बनावटी गाय और बैल बनकर खेल रहे हैं ॥ ३९ ॥ एक ओर देखिये तो साँड़ बन-बनकर हँकड़ते हुए आपसमें लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर मोर, कोयल, बंदर आदि पशु-पक्षियोंकी बोलियाँ निकाल रहे हैं । परीक्षित्‌ ! इस प्रकार सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ साधारण बालकोंके समान खेलते रहते ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...