रविवार, 28 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन

 

एवं वनं तद् वर्षिष्ठं पक्वखर्जुर जम्बुमत् ।

गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद् हरिः ॥ २५ ॥

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा ।

ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः ॥ २६ ॥

वनौकसः प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः ।

जलधारा गिरेर्नादाद् आसन्ना ददृशे गुहाः ॥ २७ ॥

क्वचिद् वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति ।

निर्विश्य भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः ॥ २८ ॥

दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके ।

सम्भोजनीयैर्बुभुजे गोपैः सङ्‌कर्षणान्वितः ॥ २९ ॥

शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान् ।

तृप्तान् वृषा वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः ॥ ३० ॥

प्रावृट्‌श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदावहाम् ।

भगवान् पूजयांचक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम् ॥ ३१ ॥

एवं निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे ।

शरत् समभवद् व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला ॥ ३२ ॥

शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः ।

भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥ ३३ ॥

व्योम्नोऽब्भ्रं भूतशाबल्यं भुवः पङ्‌कमपां मलम् ।

शरत् जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम् ॥ ३४ ॥

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः ।

यथा त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः ॥ ३५ ॥

गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम् ।

यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥ ३६ ॥

नैवाविदन् क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः ।

यथाऽऽयुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः ॥ ३७ ॥

गाधवारिचरास्तापं अविन्दन् शरदर्कजम् ।

यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः ॥ ३८ ॥

शनैः शनैर्जहुः पङ्‌कं स्थलान्यामं च वीरुधः ।

यथाहंममतां धीराः शरीराद् विष्वनात्मसु ॥ ३९ ॥

निश्चलाम्बुरभूत् तूष्णीं समुद्रः शरदागमे ।

आत्मनि उपरते सम्यङ्‌ मुनिर्व्युपरतागमः ॥ ४० ॥

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन् कर्षका दृढसेतुभिः ।

यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः ॥ ४१ ॥

शरदर्कांशुजांस्तापान् भूतानां उडुपोऽहरत् ।

देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम् ॥ ४२ ॥

खमशोभत निर्मेघं शरद् विमलतारकम् ।

सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम् ॥ ४३ ॥

अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी ।

यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि ॥ ४४ ॥

आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसून वनमारुतम् ।

जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः ॥ ४५ ॥

गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन् ।

अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव ॥ ४६ ॥

उदहृष्यन् वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्‌ विना ।

राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप ॥ ४७ ॥

पुरग्रामेष्वाग्रयणैः इन्द्रियैश्च महोत्सवैः ।

बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः ॥ ४८ ॥

वणिङ्‌मुनि नृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे ।

वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते ॥ ४९ ॥

 

वर्षा ऋतुमें वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनोंसे भर रहा था। उसी वनमें विहार करनेके लिये श्याम और बलरामने ग्वालबाल और गौओंके साथ प्रवेश किया ॥ २५ ॥ गौएँ अपने थनोंके भारी भारके कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौडऩे लगतीं। उस समय उनके थनोंसे दूधकी धारा गिरती जाती थी ॥ २६ ॥ भगवान्‌ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्र हैं। वृक्षोंकी पंक्तियाँ मधुधारा उँड़ेल रही हैं। पर्वतोंसे झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होनेपर छिपनेके लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं ॥ २७ ॥ जब वर्षा होने लगती, तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्षकी गोदमें या खोडऱमें जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफामें ही जा बैठते और कभी कन्दमूल-फल खाकर ग्वालबालोंके साथ खेलते रहते ॥ २८ ॥ कभी जलके पास ही किसी चट्टानपर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालोंके साथ मिलकर घरसे लाया हुआ दही-भात दाल-शाक आदिके साथ खाते ॥ २९ ॥ वर्षा ऋतुमें बैल, बछड़े और थनोंके भारी भारसे थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देरमें भरपेट घास चर लेतीं और हरी-हरी घासपर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतुकी सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियोंको सुख पहुँचा रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़ेसब-के-सब भगवान्‌की लीलाके ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान्‌ बहुत प्रसन्न होते और बार-बार उनकी प्रशंसा करते ॥ ३०-३१ ॥

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्दसे व्रजमें निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतनेपर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाशमें बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गतिसे चलने लगी ॥ ३२ ॥ शरद् ऋतुमें कमलोंकी उत्पत्तिसे जलाशयोंके जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर लीठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषोंका चित्त फिरसे योगका सेवन करनेसे निर्मल हो जाता है ॥ ३३ ॥ शरद् ऋतुने आकाशके बादल, वर्षा-कालके बढ़े हुए जीव, पृथ्वीकी कीचड़ और जलके मटमैलेपनको नष्ट कर दियाजैसे भगवान्‌ की भक्ति ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियोंके सब प्रकारके कष्टों और अशुभोंका झटपट नाश कर देती है ॥ ३४ ॥ बादल अपने सर्वस्व जलका दान करके उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित होने लगेठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्तिसम्बन्धी चिन्ता और कामनाओंका परित्याग कर देनेपर संसारके बन्धनसे छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं ॥ ३५ ॥ अब पर्वतोंसे कहीं-कहीं झरने झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जलको नहीं भी बहाते थेजैसे ज्ञानी पुरुष समयपर अपने अमृतमय ज्ञानका दान किसी अधिकारीको कर देते हैं और किसी-किसीको नहीं भी करते ॥ ३६ ॥ छोटे-छोटे गड्ढोंमें भरे हुए जलके जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढेका जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा हैजैसे कुटुम्बके भरण-पोषणमें भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है ॥ ३७ ॥ थोड़े जलमें रहनेवाले प्राणियोंको शरत्कालीन सूर्यकी प्रखर किरणोंसे बड़ी पीड़ा होने लगीजैसे अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बीको तरह-तरहके ताप सताते ही रहते हैं ॥ ३८ ॥ पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोडऩे लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोडऩे लगेठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमेंसे यह मैं हूँ और यह मेरा हैयह अहंता और ममता छोड़ देते हैं ॥ ३९ ॥ शरद् ऋतुमें समुद्रका जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गयाजैसे मनके नि:संकल्प हो जानेपर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्डका झमेला छोडक़र शान्त हो जाता है ॥ ४० ॥ किसान खेतोंकी मेड़ मजबूत करके जलका बहना रोकने लगे-जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर जानेसे रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञानकी रक्षा करते हैं ॥ ४१ ॥ शरद् ऋतुमें दिनके समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगोंको बहुत कष्ट होता; परंतु चन्द्रमा रात्रिके समय लोगोंका सारा सन्ताप वैसे ही हर लेतेजैसे देहाभिमानसे होनेवाले दु:खको ज्ञान और भगवद्विरहसे होनेवाले गोपियोंके दु:खको श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं ॥ ४२ ॥ जैसे वेदोंके अर्थको स्पष्टरूपसे जाननेवाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद् ऋतुमें रातके समय मेघोंसे रहित निर्मल आकाश तारोंकी ज्योतिसे जगमगाने लगा ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे पृथ्वीतलमें यदुवंशियोंके बीच यदुपति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शोभा होती है, वैसे ही आकाशमें तारोंके बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा ॥ ४४ ॥ फूलोंसे लदे हुए वृक्ष और लताओंमें होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायुके स्पर्शसे सब लोगोंकी जलन तो मिट जाती, परंतु गोपियोंकी जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथमें नहीं था, श्रीकृष्णने उसे चुरा लिया था ॥ ४५ ॥ शरद् ऋतुमें गौएँ, हरिनियाँ, चिडिय़ाँ और नारियाँ ऋतुमतीसन्तानोत्पत्तिकी कामनासे युक्त हो गयीं तथा साँड़, हरिन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगेठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुषके द्वारा की हुई क्रियाओंका अनुसरण उनके फल करते हैं ॥ ४६ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे राजाके शुभागमनसे डाकू चोरोंके सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदयके कारण कुमुदिनी (कुँई या कोर्ईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकारके कमल खिल गये ॥ ४७ ॥ उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवोंमें नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतोमें अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीकी उपस्थितिसे अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥ ४८ ॥ साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आनेपर अपने देव आदि शरीरोंको प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातकजो वर्षाके कारण एक स्थानपर रुके हुए थेवहाँसे चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काजमें लग गये ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन

 

श्रीशुक उवाच ।

तयोस्तदद्‍भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः ।

गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च ॥ १ ॥

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः ।

मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ ॥ २ ॥

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद्‍भवा ।

विद्योतमानपरिधिः विस्फूर्जित नभस्तला ॥ ३ ॥

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत् स्तनयित्‍नुभिः ।

अस्पष्टज्योतिः आच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ ॥ ४ ॥

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु ।

स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते ॥ ५ ॥

तडिद्वन्तो महामेघाः चण्ड श्वसन वेपिताः ।

प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव ॥ ६ ॥

तपःकृशा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही ।

यथैव काम्यतपसः तनुः सम्प्राप्य तत्फलम् ॥ ७ ॥

निशामुखेषु खद्योताः तमसा भान्ति न ग्रहाः ।

यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे ॥ ८ ॥

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डुकाः व्यसृजन् गिरः ।

तूष्णीं शयानाः प्राग् यद्वद् ब्राह्मणा नियमात्यये ॥ ९ ॥

आसन् उत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः ।

पुंसो यथास्वतंत्रस्य देहद्रविण सम्पदः ॥ १० ॥

हरिता हरिभिः शष्पैः इन्द्रगोपैश्च लोहिता ।

उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत् ॥ ११ ॥

क्षेत्राणि शष्यसम्पद्‌भिः कर्षकाणां मुदं ददुः ।

मानिनां उनुतापं वै दैवाधीनं अजानताम् ॥ १२ ॥

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया ।

अबिभ्रन् रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया ॥ १३ ॥

सरिद्‌भी सङ्‌गतः सिन्धुः चुक्षोभ श्वसनोर्मिमान् ।

अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा ॥ १४ ॥

गिरयो वर्षधाराभिः हन्यमाना न विव्यथुः ।

अभिभूयमाना व्यसनैः यथा अधोक्षजचेतसः ॥ १५ ॥

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धाः तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः ।

नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव ॥ १६ ॥

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः ।

स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव ॥ १७ ॥

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात् ।

व्यक्ते गुणव्यतिकरे अगुणवान् पुरुषो यथा ॥ १८ ॥

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः ।

अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥ १९ ॥

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दन् शिखण्डिनः ।

गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे ॥ २० ॥

पीत्वापः पादपाः पद्‌भिः आसन्नानात्ममूर्तयः ।

प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥ २१ ॥

सरःस्वशान्तरोधःसु न्यूषुरङ्‌गापि सारसाः ।

गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः ॥ २२ ॥

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे ।

पाषण्डिनामसद्वादैः वेदमार्गाः कलौ यथा ॥ २३ ॥

व्यमुञ्चन् वान्वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः ।

यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ग्वालबालों ने घर पहुँचकर अपनी मा, बहिन आदि स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम ने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थेदावानल से उनको बचाना, प्रलम्ब को मारना इत्यादिसबका वर्णन किया ॥ १ ॥ बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्यामकी अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि श्रीकृष्ण और बलरामके वेषमें कोई बहुत बड़े देवता ही व्रजमें पधारे हैं॥ २ ॥

इसके बाद वर्षा ऋतुका शुभागमन हुआ। इस ऋतुमें सभी प्रकारके प्राणियोंकी बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमापर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कडक़ आदिसे आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा ॥ ३ ॥ आकाशमें नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़-गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाशकी ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होनेपर भी गुणोंसे ढक जानेपर जीवकी होती है ॥ ४ ॥ सूर्यने राजाकी तरह पृथ्वीरूप प्रजासे आठ महीनेतक जलका कर ग्रहण किया था, अब समय आनेपर वे अपनी किरण-करोंसे फिर उसे बाँटने लगे ॥ ५ ॥ जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीडि़त हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राणतक निछावर कर देते हैंवैसे ही बिजलीकी चमकसे शोभायमान घनघोर बादल तेज हवाकी प्रेरणासे प्राणियोंके कल्याणके लिये अपने जीवनस्वरूप जलको बरसाने लगे ॥ ६ ॥ जेठ-आषाढक़ी गर्मीसे पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षाके जलसे सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयीजैसे सकामभावसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परंतु जब उसका फल मिलता है, तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥ वर्षाके सायंकालमें बादलोंसे घना अँधेरा छा जानेपर ग्रह और तारोंका प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परंतु जुगनू चमकने लगते हैंजैसे कलियुग में पापकी प्रबलता हो जानेसे पाखण्ड मतोंका प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं ॥ ८ ॥ जो मेढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलोंकी गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगेजैसे नित्य-नियमसे निवृत्त होनेपर गुरुके आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं ॥ ९ ॥ छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-आषाढ़में बिलकुल सूखनेको आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमडक़र अपने घेरेसे बाहर बहने लगींजैसे अजितेन्द्रिय पुरुषके शरीर और धन सम्पत्तियोंका कुमार्गमें उपयोग होने लगता है ॥ १० ॥ पृथ्वीपर कहीं-कहीं हरी-हरी घासकी हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियोंकी लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों (सफेद कुकुरमुत्तों) के कारण वह सफेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजाकी रंग-बिरंगी सेना हो ॥ ११ ॥ सब खेत अनाजोंसे भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्दके फूले न समाते थे, परंतु सब कुछ प्रारब्धके अधीन हैयह बात न जाननेवाले धनियोंके चित्तमें बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजेमें कैसे रख सकेंगे ॥ १२ ॥ नये बरसाती जलके सेवनसे सभी जलचर और थलचर प्राणियोंकी सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान्‌की सेवा करनेसे बाहर और भीतरके दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं ॥ १३ ॥ वर्षा-ऋतुमें हवाके झोकोंसे समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरङ्गोंसे युक्त हो रहा था, अब नदियोंके संयोगसे वह और भी क्षुब्ध हो उठाठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगीका चित्त विषयोंका सम्पर्क होनेपर कामनाओंके उभारसे भर जाता है ॥ १४ ॥ मूसलधार वर्षाकी चोट खाते रहनेपर भी पर्वतोंको कोई व्यथा नहीं होती थीजैसे दु:खोंकी भरमार होनेपर भी उन पुरुषोंको किसी प्रकारकी व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान्‌को ही समर्पित कर रखा है ॥ १५ ॥ जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घाससे ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गयाजैसे जब द्विजाति वेदोंका अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रमसे वे उन्हें भूल जाते हैं ॥ १६ ॥ यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतींठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषोंके पास भी स्थिरभावसे नहीं रहतीं ॥ १७ ॥ आकाश मेघोंके गर्जन-तर्जनसे भर रहा था। उसमें निर्गुण (बिना डोरीके) इन्द्र-धनुषकी वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणोंके क्षोभसे होनेवाले विश्वके बखेड़ेमें निर्गुण ब्रह्मकी ॥ १८ ॥ यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमाको ढककर शोभाहीन भी बना दिया थाठीक वैसे ही, जैसे पुरुषके आभाससे आभासित होनेवाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता ॥ १९ ॥ बादलोंके शुभागमनसे मोरोंका रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्यके द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थेठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थीके जंजालमें फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापोंसे जलते और घबराते रहते हैं, भगवान्‌ के भक्तोंके शुभागमनसे आनन्दमग्न हो जाते हैं ॥ २० ॥ जो वृक्ष जेठ-आषाढ़में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ोंसे जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियोंसे खूब सज-धज गयेजैसे सकामभावसे तपस्या करनेवाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परंतु कामना पूरी होनेपर मोटे-तगड़े हो जाते हैं ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! तालाबोंके तट काँटेकीचड़ और जलके बहावके कारण प्राय: अशान्त ही रहते थे, परंतु सारस एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थेजैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धंधोंकी झंझटसे कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरोंमें ही पड़े रहते हैं ॥ २२ ॥ वर्षा ऋतुमें इन्द्रकी प्रेरणासे मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियोंके बाँध और खेतोंकी मेड़ें टूट-फूट जाती हैंजैसे कलियुगमें पाखण्डियोंके तरह तरह के मिथ्या मतवादोंसे वैदिक मार्गकी मर्यादा ढीली पड़ जाती है ॥ २३ ॥ वायुकी प्रेरणासे घने बादल प्राणियोंके लिये अमृतमय जलकी वर्षा करने लगते हैंजैसे ब्राह्मणोंकी प्रेरणासे धनीलोग समय-समयपर दानके द्वारा प्रजाकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 27 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना

 

ततः समन्ताद् वनधूमकेतुः

यदृच्छयाभूत् क्षयकृत् वनौकसाम् ।

समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकैः

विलेलिहानः स्थिरजङ्‌गमान् महान् ॥ ७ ॥

तं आपतन्तं परितो दवाग्निं

गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः ।

ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना

यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः ॥ ८ ॥

कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामित विक्रम ।

दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नान् त्रातुमर्हथः ॥ ९ ॥

नूनं त्वद्‍बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम् ।

वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथाः त्वत्परायणाः ॥ १० ॥

 

श्रीशुक उवाच ।

वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः ।

निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ११ ॥

तथेति मीलिताक्षेषु भगवान् अग्निमुल्बणम् ।

पीत्वा मुखेन तान्कृच्छ्राद् योगाधीशो व्यमोचयत् ॥ १२ ॥

ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः ।

निशाम्य विस्मिता आसन् आत्मानं गाश्च मोचिताः ॥ १३ ॥

कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम् ।

दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम् ॥ १४ ॥

गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः ।

वेणुं विरणयन् गोष्ठं अगाद् गोपैरभिष्टुतः ॥ १५ ॥

गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने ।

क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ॥ १६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ उन गायोंको पुकार ही रहे थे कि उस वनमें सब ओर अकस्मात् दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवोंका काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरकी आँधी भी चलकर उस अग्नि के बढऩेमें सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयङ्कर लपटोंसे समस्त चराचर जीवोंको भस्मसात् करने लगी ॥ ७ ॥ जब ग्वालों और गोओंने देखा कि दावानल चारों ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये। और मृत्युके भयसे डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान्‌ की शरणमें आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजीके शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले॥ ८ ॥ महावीर श्रीकृष्ण ! प्यारे श्रीकृष्ण ! परम बलशाली बलराम ! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ ॥ ९ ॥ श्रीकृष्ण ! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मोंके ज्ञाता श्यामसुन्दर ! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है॥ १० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंअपने सखा ग्वालबालोंके ये दीनतासे भरे वचन सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो॥ ११ ॥ भगवान्‌ की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालोंने कहा बहुत अच्छाऔर अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस भयङ्कर आगको अपने मुँहसे पी लिया [*] और इस प्रकार उन्हें उस घोर संकटसे छुड़ा दिया ॥ १२ ॥ इसके बाद जब ग्वालबालोंने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा, तब अपनेको भाण्डीर वटके पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओंको दावानलसे बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए ॥ १३ ॥ श्रीकृष्णकी इस योगसिद्धि तथा योगमायाके प्रभावको एवं दावानलसे अपनी रक्षाको देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं ॥ १४ ॥

 

परीक्षित्‌ ! सायंकाल होनेपर बलरामजीके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रजकी यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे ॥ १५ ॥ इधर व्रजमें गोपियोंको श्रीकृष्णके बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युगके समान हो रहा था। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्दमें मग्न हो गयीं ॥ १६ ॥

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[*] १. भगवान्‌ श्रीकृष्ण भक्तोंके द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति सुधा-रसका पान करते हैं। अग्नि के मनमें उसीका स्वाद लेनेकी लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुखमें प्रवेश किया।

२. विषाग्नि, मुञ्जाग्नि और दावाग्नितीनोंका पान करके भगवान्‌ ने अपनी त्रितापनाश की शक्ति व्यक्त की।

३. पहले रात्रिमें अग्निपान किया था, दूसरी बार दिनमें। भगवान्‌ अपने भक्तजनोंका ताप हरनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं।

४. पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्णने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान्‌ परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से भक्तजनोंका हित करते हैं।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना

 

श्रीशुक उवाच ।

क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्‍गावो दूरचारिणीः ।

स्वैरं चरन्त्यो विविशुः तृणलोभेन गह्वरम् ॥ १ ॥

अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम् ।

ईषीकाटवीं निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः ॥ २ ॥

तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा ।

जातानुतापा न विदुः विचिन्वन्तो गवां गतिम् ॥ ३ ॥

तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैः गोष्पदैः अंकितैर्गवाम् ।

मार्गं अन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः ॥ ४ ॥

मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम् ।

सम्प्राप्य तृषिताः श्रान्ताः ततस्ते संन्यवर्तयन् ॥ ५ ॥

ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा ।

स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः ॥ ६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूदमें लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वनमें घुस गयीं ॥ १ ॥ उनकी बकरियाँ, गायें और भैंसें एक वनसे दूसरे वनमें होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मीके तापसे व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्तमें डकराती हुई मुञ्जाटवी (सरकंडोंके वन)में घुस गयीं ॥ २ ॥ जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओंका तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूदपर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करनेपर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके ॥ ३ ॥ गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलनेसे वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओंके खुर और दाँतोंसे कटी हुई घास तथा पृथ्वीपर बने हुए खुरोंके चिह्नोंसे उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े ॥ ४ ॥ अन्तमें उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुञ्जाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटानेकी चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोरसे लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे ॥ ५ ॥ उनकी यह दशा देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गम्भीर वाणीसे नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे। गौएँ अपने नामकी ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुर्ईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं ॥ ६ ॥

 

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शुक्रवार, 26 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

प्रलम्बासुर-उद्धार

 

पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः

गोपरूपी प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया ॥ १७ ॥

तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान्सर्वदर्शनः

अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन् ॥ १८ ॥

तत्रोपाहूय गोपालान्कृष्णः प्राह विहारवित्

हे गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम् ॥ १९ ॥

तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ

कृष्णसङ्घट्टिनः केचिदासन्रामस्य चापरे ॥ २० ॥

आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः

यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिताः ॥ २१ ॥

वहन्तो वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम्

भाण्डीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः ॥ २२ ॥

रामसङ्घट्टिनो यर्हि श्रीदामवृषभादयः

क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप ॥ २३ ॥

उवाह कृष्णो भगवान्श्रीदामानं पराजितः

वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥ २४ ॥

अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः

वहन् द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम् ॥ २५ ॥

तमुद्वहन्धरणिधरेन्द्र गौरवं

महासुरो विगतरयो निजं वपुः

स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ

तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः ॥ २६ ॥

निरीक्ष्य तद्वपुरलमम्बरे चरत्-

प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्

ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-

त्विषाद्भुतं हलधर ईषदत्रसत् ॥ २७ ॥

अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलो

विहाय सार्थमिव हरन्तमात्मनः

रुषाहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना

सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा ॥ २८ ॥

स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको

मुखाद्वमन्रुधिरमपस्मृतोऽसुरः

महारवं व्यसुरपतत्समीरयन्-

गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः ॥ २९ ॥

दृष्ट्वा प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना

गोपाः सुविस्मिता आसन्साधु साध्विति वादिनः ॥ ३० ॥

आशिषोऽभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्

प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य प्रेमविह्वलचेतसः ॥ ३१ ॥

पापे प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः

अभ्यवर्षन्बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति ॥ ३२ ॥

 

एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वनमें गौएँ चरा रहे थे, तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ ॥ १७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये ॥ १८ ॥ ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलोंके आचार्य श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने सब ग्वालबालोंको बुलाकर कहामेरे प्यारे मित्रो ! आज हमलोग अपनेको उचित रीतिसे दो दलोंमें बाँट लें और फिर आनन्दसे खेलें ॥ १९ ॥ उस खेलमें ग्वालबालोंने बलराम और श्रीकृष्णको नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्णके साथी बन गये और कुछ बलरामके ॥ २० ॥ फिर उन लोगोंने तरह-तरहसे ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दलके लोग दूसरे दलके लोगोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर एक निॢदष्ट स्थानपर ले जाते थे। जीतनेवाला दल चढ़ता था और हारनेवाला दल ढोता था ॥ २१ ॥ इस प्रकार एक-दूसरेकी पीठपर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वटके पास पहुँच गये ॥ २२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! एक बार बलरामजीके दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालों ने खेलमें बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठपर चढ़ाकर ढोने लगे ॥ २३ ॥ हारे हुए श्रीकृष्णने श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया, भद्रसेनने वृषभको और प्रलम्बने बलरामजीको ॥ २४ ॥ दानवपुङ्गव प्रलम्बने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान् हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा। अत: वह उन्हींके पक्षमें हो गया और बलरामजीको लेकर फुर्तीसे भाग चला, और पीठपरसे उतारनेके लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया ॥ २५ ॥ बलरामजी बड़े भारी पर्वतके समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूरतक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीरपर सोनेके गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलरामजीको धारण करनेके कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजलीसे युक्त काला बादल चन्द्रमाको धारण किये हुए हो ॥ २६ ॥ उसकी आँखें आगकी तरह धधक रही थीं और दाढ़ें भौंहोंतक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आगकी लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवोंमें कड़े, सिरपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल थे। उनकी कान्तिसे वह बड़ा अद्भुत लग रहा था, उस भयानक दैत्यको बड़े वेगसे आकाशमें जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये ॥ २७ ॥ परंतु दूसरे ही क्षणमें अपने स्वरूपकी याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलरामजीने देखा कि जैसे चोर किसीका धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्गसे लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्रने पर्वतोंपर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिरपर एक घूँसा कसकर जमाया ॥ २८ ॥ घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयङ्कर शब्द करता हुआ इन्द्रके द्वारा वज्रसे मारे हुए पर्वतके समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २९ ॥

 

बलरामजी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालोंने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुरको मार डाला, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे बार-बार वाह-वाहकरने लगे ॥ ३० ॥ ग्वालबालों का चित्त प्रेमसे विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभ कामनाओंकी वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आये हों, इस भावसे आलिङ्गन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुत: बलरामजी इसके योग्य ही थे ॥ ३१ ॥ प्रलम्बासुर मूर्तिमान् पाप था। उसकी मृत्युसे देवताओंको बड़ा सुख मिला। वे बलरामजी पर फूल बरसाने लगे और बहुत अच्छा किया’, ‘बहुत अच्छा कियाइस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ३२ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे

प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥१८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...