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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
यज्ञपत्नियों
पर कृपा
अथानुस्मृत्य
विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः ।
यद्
विश्वेश्वरयोर्याच्ञां अहन्म नृविडम्बयोः ॥ ३७ ॥
दृष्ट्वा
स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम् ।
आत्मानं
च तया हीनं अनुतप्ता व्यगर्हयन् ॥ ३८ ॥
धिग्जन्म
नः त्रिवृत् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।
धिक्कुलं
धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥ ३९ ॥
नूनं
भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी ।
यस्
वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः ॥ ४० ॥
अहो
पश्यत नारीणां अपि कृष्णे जगद्गुरौ ।
दुरन्तभावं
योऽविध्यन् मृत्युपाशान् गृहाभिधान् ॥ ४१ ॥
नासां
द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि ।
न
तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः ॥ ४२ ॥
तथापि
ह्युत्तमःश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।
भक्तिर्दृढा
न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥ ४३ ॥
ननु
स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया ।
अहो
नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः ॥ ४४ ॥
अन्यथा
पूर्णकामस्य कैवल्याद्यशिषां पतेः ।
ईशितव्यैः
किमस्माभिः ईशस्यैतद् विडम्बनम् ॥ ४५ ॥
हित्वान्यान्
भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशया सकृत् ।
स्वात्मदोषापवर्गेण
तद्याच्ञा जनमोहिनी ॥ ४६ ॥
देशः
कालः पृथग्द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।
देवता
यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ ४७ ॥
स
एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः ।
जातो
यदुष्वित्याश्रृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे ॥ ४८ ॥
अहो
वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः ।
भक्त्या
यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ ॥ ४९ ॥
नमस्तुभ्यं
भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
यन्मायामोहितधियो
भ्रमामः कर्मवर्त्मसु ॥ ५० ॥
स
वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम् ।
अविज्ञतानुभावानां
क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम् ॥ ५१ ॥
इति
स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः ।
दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः
कंसाद्भीता न चाचलन् ॥ ५२ ॥
परीक्षित्
! इधर जब ब्राह्मणोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण
और बलराम की आज्ञा का उल्लङ्घन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो
मनुष्यकी-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं ॥ ३७ ॥ जब उन्होंने देखा कि हमारी
पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान् का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं,
तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे ॥ ३८ ॥ वे कहने लगे—हाय ! हम भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म
हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परंतु वह
सब किस कामका ? धिक्कार है ! धिक्कार है !! हमारी विद्या
व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को
धिक्कार है ! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण
होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है ॥ ३९ ॥ निश्चय ही, भगवान् की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम
कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परंतु अपने सच्चे
स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं ॥ ४० ॥ कितने आश्चर्यकी बात है
! देखो तो सही—यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है ! उसीसे इन्होंने गृहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट
डाली, जो मृत्युके साथ भी नहीं कटती ॥ ४१ ॥ इनके न तो
द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही
निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्धमें ही कुछ
विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी
पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही ॥ ४२ ॥ फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर
पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने
संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान् के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है ॥ ४३ ॥ सच्ची बात यह है
कि हमलोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी
भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान् की कितनी
कृपा है ! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी,
अपनी याद दिलायी ॥ ४४ ॥ भगवान् स्वयं पूर्णकाम हैं और
कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण
करनेवाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे
प्रयोजन ही क्या हो सकता था ? अवश्य ही उन्होंने इसी
उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी ?
॥ ४५ ॥ स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोडक़र और अपनी चञ्चलता,
गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श
पानेके लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है ? ॥
४६ ॥ देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ,
उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी
पद्धति, ऋत्विज्, अग्रि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म—सब भगवान्के ही स्वरूप हैं ॥ ४७ ॥ वे ही योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान्
विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परंतु हम इतने मूढ़ हैं कि
उन्हें पहचान न सके ॥ ४८ ॥ यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी
भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान् श्रीकृष्ण के अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है ॥ ४९
॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं ! श्रीकृष्ण ! आपका ज्ञान
अबाध है। आपकी ही मायासे हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचड़े में
भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥ वे आदि पुरुषोत्तम भगवान्
श्रीकृष्ण हमारे इस अपराधको क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित
हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं ॥५१ ॥
परीक्षित्
! उन ब्राह्मणोंने श्रीकृष्णका तिरस्कार किया था। अत: उन्हें अपने अपराधकी
स्मृतिसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उनके हृदयमें श्रीकृष्ण-बलरामके दर्शनकी बड़ी
इच्छा भी हुई;
परंतु कंसके डरके मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके ॥ ५२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से