रविवार, 26 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

महारास

 

श्रीपरीक्षिदुवाच -

संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च ।

अवतीर्णो हि भगवानंन् अंशेन जगदीश्वरः ॥ २७ ॥

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।

प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥ २८ ॥

आप्तकामो यदुपतिः कृतवान् वै जुगुप्सितम् ।

किमभिप्राय एतन्नः संशयं छिन्धि सुव्रत ॥ २९ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् ।

तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा ॥ ३० ॥

नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः ।

विनश्यत्याचरन्मौढ्याद् यथारुद्रोऽब्धिजं विषम् ॥ ३१ ॥

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् ।

तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत् ॥ ३२ ॥

कुशलाचरितेनैषां इह स्वार्थो न विद्यते ।

विपर्ययेण वानर्थो निरहङ्‌कारिणां प्रभो ॥ ३३ ॥

किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्‌ मर्त्यदिवौकसाम् ।

ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः ॥ ३४ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजीके सहित पूर्णरूपमें अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतारका उद्देश्य ही यह था कि धर्मकी स्थापना हो और अधर्मका नाश ॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! वे धर्ममर्यादा के बनानेवाले, उपदेश करनेवाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं धर्मके विपरीत परस्त्रियोंका स्पर्श कैसे किया ॥ २८ ॥ मैं मानता हूँ कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्रायसे यह निन्दनीय कर्म किया ? परम ब्रह्मचारी मुनीश्वर ! आप कृपा करके मेरा यह सन्देह मिटाइये ॥ २९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंसूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ) कभी-कभी धर्मका उल्लङ्घन और साहसका काम करते देखे जाते हैं। परंतु उन कामोंसे उन तेजस्वी पुरुषोंको कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्रि सब कुछ खा जाता है, परंतु उन पदार्थोंके दोषसे लिप्त नहीं होता ॥ ३० ॥ जिन लोगोंमें ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मनसे भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, शरीरसे करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान्‌ शङ्करने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ३१ ॥ इसलिये इस प्रकारके जो शङ्कर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकारके अनुसार उनके वचनको ही सत्य मानना और उसीके अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरणका अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि उनका जो आचरण उनके उपदेशके अनुकूल हो, उसीको जीवनमें उतारे ॥ ३२ ॥ परीक्षित्‌ ! वे सामथ्र्यवान् पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभकर्म करनेमें उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करनेमें अनर्थ (नुकसान) नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थसे ऊपर उठे होते हैं ॥ ३३ ॥ जब उन्हींके सम्बन्धमें ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवोंके एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान्‌ हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभका सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ॥ ३४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

महारास

 

गोप्यो लब्ध्वाच्युतं कान्तं श्रिय एकान्तवल्लभम् ।

गृहीतकण्ठ्यस्तद्दोर्भ्यां गायन्त्यस्तं विजह्रिरे ॥ १५ ॥

कर्णोत्पलालकविटङ्‌ककपोलघर्म

वक्त्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाद्यैः ।

गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेश

स्रस्तस्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम् ॥ १६ ॥

एवं परिष्वङ्‌गकराभिमर्श

स्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः ।

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः

यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः ॥ १७ ॥

तदङ्‌गसङ्‌गप्रमुदाकुलेन्द्रियाः

केशान् दूकूलं कुचपट्टिकां वा ।

नाञ्जः प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो

विस्रस्तमालाभरणाः कुरूद्वह ॥ १८ ॥

कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः ।

कामार्दिताः शशाङ्‌कश्च सगणो विस्मितोऽभवत् ॥ १९ ॥

कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः ।

रेमे स भगवान् ताभिः आत्मारामोऽपि लीलया ॥ २० ॥

तासां अतिविहारेण श्रान्तानां वदनानि सः ।

प्रामृजत् करुणः प्रेम्णा शन्तमेनाङ्‌ग पाणिना ॥ २१ ॥

गोप्यः स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्

गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन ।

मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि

पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः ॥ २२ ॥

ताभिर्युतः श्रममपोहितुमङ्‌गसङ्‌ग

घृष्टस्रजः स कुचकुङ्‌कुमरञ्जितायाः ।

गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत आविशद् वा

श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः ॥ २३ ॥

सोऽम्भस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः

प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरितस्ततोऽङ्‌ग ।

वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो

रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः ॥ २४ ॥

ततश्च कृष्णोपवने जलस्थल

प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे ।

चचार भृङ्‌गप्रमदागणावृतो

यथा मदच्युद् द्विरदः करेणुभिः ॥ २५ ॥

एवं शशाङ्‌कांशुविराजिता निशाः

स सत्यकामोऽनुरताबलागणः ।

सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः

सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! गोपियोंका सौभाग्य लक्ष्मीजीसे भी बढक़र है। लक्ष्मीजीके परम प्रियतम एकान्तवल्लभ भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने परम प्रियतमके रूपमें पाकर गोपियाँ गान करती हुई उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनके गलोंको अपने भुजपाशमें बाँध रखा था, उस समय गोपियोंकी बड़ी अपूर्व शोभा थी ॥ १५ ॥ उनके कानोंमें कमलके कुण्डल शोभायमान थे। घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं। पसीनेकी बूँदें झलकनेसे उनके मुखकी छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डल में भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबोंके बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुरमें अपना सुर मिलाकर गा रहे थे और उनके जूडों तथा चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछार्ईं के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदयसे लगा लेते, कभी हाथसे उनका अङ्गस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते, तो कभी लीलासे उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दरियोंके साथ क्रीडा की, विहार किया ॥ १७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के अङ्गोंका संस्पर्श प्राप्त करके गोपियोंकी इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्दसे विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलोंके हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकीको भी पूर्णतया सँभालनेमें असमर्थ हो गयीं ॥ १८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह रासक्रीडा देखकर स्वर्गकी देवाङ्गनाएँ भी मिलनकी कामनासे मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहोंके साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! यद्यपि भगवान्‌ आत्माराम हैंउन्हें अपने अतिरिक्त और किसीकी भी आवश्यकता नहीं हैफिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल- खेलमें उनके साथ इस प्रकार विहार किया ॥ २० ॥ जब बहुत देरतक गान और नृत्य आदि विहार करनेके कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़े प्रेमसे स्वयं अपने सुखद करकमलोंके द्वारा उनके मुँह पोंछे ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के करकमल और नखस्पर्शसे गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलोंके सौन्दर्यसे, जिनपर सोनेके कुण्डल झिलमिला रहे थे और घुँघराली अलकें लटक रही थीं तथा उस प्रेमभरी चितवनसे, जो सुधासे भी मीठी मुसकानसे उज्ज्वल हो रही थी, भगवान्‌ श्रीकृष्णका सम्मान किया और प्रभुकी परम पवित्र लीलाओंका गान करने लगीं ॥ २२ ॥ इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारोंको तोड़ता हुआ हथिनियोंके साथ जलमें घुसकर क्रीडा करता है, वैसे ही लोक और वेदकी मर्यादाका अतिक्रमण करनेवाले भगवान्‌ने अपनी थकान दूर करनेके लिये गोपियोंके साथ जलक्रीडा करनेके उद्देश्यसे यमुनाके जलमें प्रवेश किया। उस समय भगवान्‌की वनमाला गोपियोंके अङ्गकी रगड़से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके वक्ष:स्थलकी केसरसे वह रँग भी गयी थी। उसके चारों ओर गुन- गुनाते हुए भौंरे उनके पीछे-पीछे इस प्रकार चल रहे थे मानो गन्धर्वराज उनकी कीर्तिका गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों ॥ २३ ॥ परीक्षित्‌ ! यमुनाजल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवनसे भगवान्‌की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर उनपर इधर-उधरसे जलकी खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया। विमानोंपर चढ़े हुए देवता पुष्पोंकी वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार यमुनाजलमें स्वयं आत्माराम भगवान्‌ श्रीकृष्णने गजराजके समान जलविहार किया ॥ २४ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण व्रजयुवतियों और भौंरोंकी भीड़से घिरे हुए यमुनातटके उपवनमें गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थलमें बड़ी सुन्दर सुगन्धवाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें भगवान्‌ इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियोंके झुंडके साथ घूम रहा हो ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌! शरद्की वह रात्रि जिसके रूपमें अनेक रात्रियाँ पुञ्जीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थी। चारों ओर चन्द्रमाकी बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी। काव्यों में शरद् ऋतुकी जिन रस- सामग्रियों का वर्णन मिलता है, उन सभीसे वह युक्त थी। उसमें भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसी गोपियोंके साथ यमुनाके पुलिन, यमुनाजी और उनके उपवनमें विहार किया। यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान्‌ सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मयी लीला है। और उन्होंने इस लीलामें कामभाव को, उसकी चेष्टाओं को तथा उसकी क्रियाको सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने-आपमें कैद कर रखा था ॥ २६ ॥

 

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शनिवार, 25 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

महारास

 

श्रीशुक उवाच -

इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः ।

जहुर्विरहजं तापं तदङ्‌गोपचिताशिषः ॥ १ ॥

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः ।

स्त्रीरत्‍नैरन्वितः प्रीतैः अन्योन्याबद्धबाहुभिः ॥ २ ॥

रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः ।

योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥ ३ ॥

प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः ।

यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसङ्‌कुलम् ॥ ४ ॥

दिवौकसां सदाराणां औत्सुक्यापहृतात्मनाम् ।

ततो दुन्दुभयो नेदुः निपेतुः पुष्पवृष्टयः ।

जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद् यशोऽमलम् ॥ ५ ॥

वलयानां नूपुराणां किङ्‌किणीनां च योषिताम् ।

सप्रियाणामभूत् शब्दः तुमुलो रासमण्डले ॥ ६ ॥

तत्रातिशुशुभे ताभिः भगवान् देवकीसुतः ।

मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा ॥ ७ ॥

पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः

सस्मितैर्भ्रूविलासैः ।

भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः

कुण्डलैर्गण्डलोलैः ।

स्विद्यन्मुख्यः कवररसना

ग्रन्थयः कृष्णवध्वो ।

गायन्त्यस्तं तडित इव ता

मेघचक्रे विरेजुः ॥ ८ ॥

उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रियाः ।

कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्‍गीतेनेदमावृतम् ॥ ९ ॥

काचित् समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिताः ।

उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति ।

तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात् ॥ १० ॥

काचिद् रासपरिश्रान्ता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः ।

जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका ॥ ११ ॥

तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम् ।

चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह ॥ १२ ॥

कस्याश्चित् नाट्यविक्षिप्त कुण्डलत्विषमण्डितम् ।

गण्डं गण्डे सन्दधत्याः अदात्ताम्बूलचर्वितम् ॥ १३ ॥

नृत्यती गायती काचित् कूजन् नूपुरमेखला ।

पार्श्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात् स्तनयोः शिवम् ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन्। गोपियाँ भगवान्‌ की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राणप्यारे के अङ्ग- सङ्ग से सफल-मनोरथ हो गयीं ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नों के साथ यमुनाजी के पुलिनपर भगवान्‌ ने अपनी रसमयी रासक्रीड़ा प्रारम्भ की ॥ २ ॥ सम्पूर्ण योगोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण दो-दो गोपियोंके बीचमें प्रकट हो गये और उनके गलेमें अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियोंसे शोभायमान भगवान्‌ श्रीकृष्णका दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाशमें शत-शत विमानोंकी भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सव के दर्शनकी लालसासे, उत्सुकतासे उनका मन उनके वशमें नहीं था ॥ ३-४ ॥ स्वर्गकी दिव्य दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ भगवान्‌के निर्मल यशका गान करने लगे ॥ ५ ॥ रासमण्डलमें सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयोंके कंगन, पैरोंके पायजेब और करधनीके छोटे-छोटे घुँघरू एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोरकी हो रही थी ॥ ६ ॥ यमुनाजीकी रमणरेतीपर व्रजसुन्दरियोंके बीचमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियोंके बीचमें ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो ॥ ७ ॥ नृत्यके समय गोपियाँ तरह-तरहसे ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गतिके अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेगसे; कभी चाककी तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकारसे उन्हें चमकातीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंगसे मुसकरातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलनेकी फुर्तीसे उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानोंके कुण्डल हिल-हिलकर कपोलोंपर आ जाते थे। नाचनेके परिश्रमसे उनके मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलकने लगी थीं। केशोंकी चोटियाँ कुछ ढीली पड़ गयी थीं। नीवीकी गाँठें खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलालकी परम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रही थीं। परीक्षित्‌ ! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीचमें चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी ॥ ८ ॥ गोपियोंका जीवन भगवान्‌ की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्णसे सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वरसे मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्णका संस्पर्श पा- पाकर और भी आनन्दमग्र हो रही थीं। उनके राग-रागिनियोंसे पूर्ण गानसे यह सारा जगत् अब भी गूँज रहा है ॥ ९ ॥ कोई गोपी भगवान्‌ के साथउनके स्वरमें स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्णके स्वरकी अपेक्षा और भी ऊँचे स्वरसे राग अलापने लगी। उसके विलक्षण और उत्तम स्वरको सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी रागको एक दूसरी सखीने ध्रुपद में गाया। उसका भी भगवान्‌ ने बहुत सम्मान किया ॥ १० ॥ एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयों से कंगन और चोटियों से बेलाके फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगलमें ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके कंधेको अपनी बाँहसे कसकर पकड़ लिया ॥ ११ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपना एक हाथ दूसरी गोपीके कंधेपर रख रखा था। वह स्वभावसे तो कमलके समान सुगन्धसे युक्त था ही, उसपर बड़ा सुगन्धित चन्दनका लेप भी था। उसकी सुगन्धसे वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया ॥ १२ ॥ एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटासे उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णके कपोलसे सटा दिया और भगवान्‌ने उसके मुँहमें अपना चबाया हुआ पान दे दिया ॥ १३ ॥ कोई गोपी नूपुर और करधनीके घुँघरुओंको झनकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगलमें ही खड़े श्यामसुन्दरके शीतल करकमलको अपने दोनों स्तनोंपर रख लिया ॥ १४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भगवान्‌ का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

 

श्रीगोप्य ऊचुः -

भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम् ।

नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः ॥ १६ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते ।

न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा ॥ १७ ॥

भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा ।

धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः ॥ १८ ॥

भजतोऽपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः ।

आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः ॥ १९ ॥

नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्

भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये ।

यथाधनो लब्धधने विनष्टे

तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद ॥ २० ॥

एवं मदर्थोज्झितलोकवेद

स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः ।

मयापरोक्षं भजता तिरोहितं

मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः ॥ २१ ॥

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां

स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।

या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्‌खलाः

संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ॥ २२ ॥

 

गोपियों ने कहानटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालोंसे भी प्रेम करते हैं। परंतु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे ! इन तीनोंमें तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ? ॥ १६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामेरी प्रिय सखियो ! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थको लेकर है। लेन-देनमात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थके लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है ॥ १७ ॥ सुन्दरियो ! जो लोग प्रेम न करनेवालेसे भी प्रेम करते हैंजैसे स्वभावसे ही करुणाशील, सज्जन और माता- पिताउनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहारमें निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ॥ १८ ॥ कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकारके होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरूपमें ही मस्त रहते हैंजिनकी दृष्टिमें कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परंतु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसीसे कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगोंसे भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं ॥ १९ ॥ गोपियो ! मैं तो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेमका वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसीलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुषको कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए धनकी चिन्तासे भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ ॥ २० ॥ गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि तुमलोगोंने मेरे लिये लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे- सम्बन्धियोंको भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थितिमें तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य और सुहागकी चिन्ता न करने लगे, मुझमें ही लगी रहेइसीलिये परोक्षरूपसे तुमलोगोंसे प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुमलोग मेरे प्रेममें दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ ॥ २१ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थीकी उन बेडिय़ोंको तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीरसेअमर जीवनसे अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्यागका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्म के लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभावसे, प्रेमसे मुझे उऋण कर सकती हो। परंतु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ ॥ २२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे                         रासक्रीडायां गोपीसान्त्वनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

 

ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः ।

विकसत्कुन्दमन्दार सुरभ्यनिलषट्पदम् ॥ ११ ॥

शरच्चन्द्रांशुसन्दोह ध्वस्तदोषातमः शिवम् ।

कृष्णाया हस्ततरला चितकोमलवालुकम् ॥ १२ ॥

तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो

मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः ।

स्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्‌कुमाङ्‌कितैः

अचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे ॥ १३ ॥

तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो

योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः ।

चकास गोपीपरिषद्‍गतोऽर्चितः

त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत् ॥ १४ ॥

सभाजयित्वा तमनङ्‌गदीपनं

सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा ।

संस्पर्शनेनाङ्‌ककृताङ्‌घ्रिहस्तयोः

संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे ॥ १५ ॥

 

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन व्रजसुन्दरियों को साथ लेकर यमुनाजीके पुलिनमें प्रवेश किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मन्दारके पुष्पोंकी सुरभि लेकर बड़ी ही शीतल और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महँकसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर मँडरा रहे थे ॥ ११ ॥ शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाकी चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रिके अन्धकारका तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मङ्गल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजीने स्वयं अपनी लहरोंके हाथों भगवान्‌ की लीलाके लिये सुकोमल बालुका का रंगमञ्च बना रखा था ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे गोपियोंके हृदयमें इतने आनन्द और इतने रसका उल्लास हुआ कि उनके हृदयकी सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्डकी श्रुतियाँ उसका वर्णन करते-करते अन्तमें ज्ञानकाण्डका प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथोंसे ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैंवैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्ष:स्थलपर लगी हुई रोली-केसरसे चिह्नित ओढऩी को अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्णके विराजनेके लिये बिछा दिया ॥ १३ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए हृदयमें जिनके लिये आसनकी कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने हृदय-सिंहासनपर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ यमुनाजी की रेती में गोपियोंकी ओढऩीपर बैठ गये। सहस्र-सहस्र गोपियोंके बीचमें उनसे पूजित होकर भगवान्‌ बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्‌ ! तीनों लोकोंमेंतीनों कालोंमें जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान्‌के बिन्दुमात्र सौन्दर्यका आभासभर है। वे उसके एकमात्र आश्रय हैं ॥ १४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्यके द्वारा उनके प्रेम और आकाङ्क्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियोंने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसीने उनके चरणकमलों को अपनी गोदमें रख लिया, तो किसीने उनके करकमलोंको। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थींकितना सुकुमार है, कितना मधुर है ! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जानेसे मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँहसे ही उनका दोष स्वीकार करानेके लिये वे कहने लगीं ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

 

श्रीशुक उवाच -

इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।

रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः ॥ १ ॥

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥ २ ॥

तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः ।

उत्तस्थुर्युगपत् सर्वाः तन्वः प्राणमिवागतम् ॥ ३ ॥

काचित् कराम्बुजं शौरेः जगृहेऽञ्जलिना मुदा ।

काचिद् दधार तद्‍बाहुं अंसे चन्दनरूषितम् ॥ ४ ॥

काचिद् अञ्जलिनागृह्णात् तन्वी ताम्बूलचर्वितम् ।

एका तदङ्‌घ्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात् ॥ ५ ॥

एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला ।

घ्नन्तीवैक्षत् कटाक्षेपैः सन्दष्टदशनच्छदा ॥ ६ ॥

अपरानिमिषद् दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम् ।

आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा ॥ ७ ॥

तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च ।

पुलकाङ्‌ग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता ॥ ८ ॥

सर्वास्ताः केशवालोक परमोत्सवनिर्वृताः ।

जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः ॥ ९ ॥

ताभिर्विधूतशोकाभिः भगवानच्युतो वृतः ।

व्यरोचताधिकं तात पुरुषः शक्तिभिर्यथा ॥ १० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार भाँति-भाँति से गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारेके दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ १ ॥ ठीक उसी समय उनके बीचो-बीच भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला हुआ था। गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था ॥ २ ॥ कोटि-कोटि कामोंसे भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दरको आया देख गोपियोंके नेत्र प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुर्ईं, मानो प्राणहीन शरीरमें दिव्य प्राणोंका सञ्चार हो गया हो, शरीरके एक-एक अङ्ग में नवीन चेतनानूतन स्फूर्ति आ गयी हो ॥ ३ ॥ एक गोपीने बड़े प्रेम और आनन्दसे श्रीकृष्ण के करकमल को अपने दोनों हाथोंमें ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। दूसरी गोपीने उनके चन्दनचर्चित भुजदण्ड को अपने कंधेपर रख लिया ॥ ४ ॥ तीसरी सुन्दरी ने भगवान्‌ का चबाया हुआ पान अपने हाथोंमें ले लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदयमें भगवान्‌ के विरहसे बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्ष:स्थलपर रख लिया ॥ ५ ॥ पाँचवीं गोपी प्रणयकोप से विह्वल होकर, भौहें चढ़ाकर, दाँतोंसे होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणोंसे बींधती हुई उनकी ओर ताकने लगी ॥ ६ ॥ छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल का मकरन्द-रस पान करने लगी। परंतु जैसे संत पुरुष भगवान्‌ के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरीका निरन्तर पान करते रहनेपर भी तृप्त नहीं होती थी ॥ ७ ॥ सातवीं गोपी नेत्रोंके मार्गसे भगवान्‌ को अपने हृदयमें ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान्‌ का आलिङ्गन करनेसे उसका शरीर पुलकित हो गया, रोम-रोम खिल उठा और वह सिद्ध योगियोंके समान परमानन्द में मग्न हो गयी ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुषको प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही सभी गोपियों को भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दर्शन से परम आनन्द और परम उल्लास प्राप्त हुआ । उनके विरह के कारण गोपियों को जो दु:ख हुआ था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्तिके समुद्र में डूबने-उतराने लगीं ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! यों तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुई गोपियों के बीच में उनकी शोभा और भी बढ़ गयी । ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होनेपर और भी शोभायमान होता है ॥१० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०४) विराट् शरीर की उत्पत्ति निर्भिन्नान्यस्य चर...