रविवार, 2 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सुदर्शन और शङ्खचूड का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच

एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः

अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तेऽम्बिकावनम् ॥१॥

तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्

आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च णृपतेऽम्बिकाम् ॥२॥

गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमादृताः

ब्राह्मणेभ्यो ददुः सर्वे देवो नः प्रीयतामिति ॥३॥

ऊषुः सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य यतव्रताः

रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादयः ॥४॥

कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेऽतिबुभुक्षितः

यदृच्छयागतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत् ॥५॥

स चुक्रोशाहिना ग्रस्तः कृष्ण कृष्ण महानयम्

सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय ॥६

तस्य चाक्रन्दितं श्रुत्वा गोपालाः सहसोत्थिताः

ग्रस्तं च दृष्ट्वा विभ्रान्ताः सर्पं विव्यधुरुल्मुकैः ॥७॥

अलातैर्दह्यमानोऽपि नामुञ्चत्तमुरङ्गमः

तमस्पृशत्पदाभ्येत्य भगवान्सात्वतां पतिः ॥८॥

स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः

भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम् ॥९॥

तमपृच्छद्धृषीकेशः प्रणतं समवस्थितम्

दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम् ॥१०॥

को भवान्परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुतदर्शनः

कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवशः ॥११॥

 

सर्प उवाच

अहं विद्याधरः कश्चित्सुदर्शन इति श्रुतः

श्रिया स्वरूपसम्पत्त्या विमानेनाचरन्दिशः ॥१२॥

ऋषीन्विरूपाङ्गिरसः प्राहसं रूपदर्पितः

तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धैः स्वेन पाप्मना ॥१३॥

शापो मेऽनुग्रहायैव कृतस्तैः करुणात्मभिः

यदहं लोकगुरुणा पदा स्पृष्टो हताशुभः ॥१४॥

तं त्वाहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्

आपृच्छे शापनिर्मुक्तः पादस्पर्शादमीवहन् ॥१५॥

प्रपन्नोऽस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते

अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर ॥१६॥

ब्रह्मदण्डाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात्

यन्नाम गृह्णन्नखिलान्श्रोतॄनात्मानमेव च

सद्यः पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्टः पदा हि ते ॥१७॥

इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवन्द्य च

सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छ्रान्नन्दश्च मोचितः ॥१८॥

निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं

व्रजौकसो विस्मितचेतसस्ततः

समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्व्रजं

नृपाययुस्तत्कथयन्त आदृताः ॥१९॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार नन्दबाबा आदि गोपोंने शिवरात्रिके अवसरपर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्दसे भरकर बैलोंसे जुती हुई गाडिय़ोंपर सवार होकर अम्बिकावन की यात्रा की ॥ १ ॥ राजन् ! वहाँ उन लोगोंने सरस्वती नदीमें स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान्‌ शङ्करजीका तथा भगवती अम्बिकाजीका बड़ी भक्तिसे अनेक प्रकारकी सामग्रियोंके द्वारा पूजन किया ॥ २ ॥ वहाँ उन्होंने आदरपूर्वक गौएँ, सोना, वस्त्र, मधु और मधुर अन्न ब्राह्मणोंको दिये तथा उनको खिलाया-पिलाया। वे केवल यही चाहते थे कि इनसे देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर हमपर प्रसन्न हों ॥ ३ ॥ उस दिन परम भाग्यवान् नन्द-सुनन्द आदि गोपोंने उपवास कर रखा था, इसलिये वे लोग केवल जल पीकर रातके समय सरस्वती नदीके तटपर ही बेखटके सो गये ॥ ४ ॥

उस अम्बिकावनमें एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजीको पकड़ लिया ॥ ५ ॥ अजगरके पकड़ लेनेपर नन्दरायजी चिल्लाने लगे—‘बेटा ! कृष्ण ! कृष्ण ! दौड़ो, दौड़ो। देखो बेटा ! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। जल्दी मुझे इस संकटसे बचाओ॥ ६ ॥

नन्दबाबाका चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगरके मुँहमें देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों (अधजली लकडिय़ों) से उस अजगरको मारने लगे ॥ ७ ॥ किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलनेपर भी अजगरने नन्दबाबाको छोड़ा नहीं। इतनेमें ही भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्णने वहाँ पहुँचकर अपने चरणोंसे उस अजगरको छू दिया ॥ ८ ॥ भगवान्‌के श्रीचरणोंका स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगरका शरीर छोडक़र विद्याधरार्चित सर्वाङ्गसुन्दर रूपवान् बन गया ॥ ९ ॥ उस पुरुषके शरीरसे दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोनेके हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करनेके बाद हाथ जोडक़र भगवान्‌ के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा॥ १० ॥ तुम कौन हो ? तुम्हारे अङ्ग-अङ्गसे सुन्दरता फूटी पड़ती है। तुम देखनेमें बड़े अद्भुत जान पड़ते हो। तुम्हें यह अत्यन्त निन्दनीय अजगर-योनि क्यों प्राप्त हुई थी ? अवश्य ही तुम्हें विवश होकर इसमें आना पड़ा होगा॥ ११ ॥

अजगरके शरीरसे निकला हुआ पुरुष बोलाभगवन् ! मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमानपर चढक़र यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था ॥ १२ ॥ एक दिन मैंने अङ्गिरा गोत्रके कुरूप ऋषियोंको देखा। अपने सौन्दर्यके घमंडसे मैंने उनकी हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराधसे कुपित होकर उन लोगोंने मुझे अजगर-योनिमें जानेका शाप दे दिया। यह मेरे पापोंका ही फल था ॥ १३ ॥ उन कृपालु ऋषियोंने अनुग्रहके लिये ही मुझे शाप दिया था। क्योंकि यह उसीका प्रभाव है कि आज चराचरके गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलोंसे मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये ॥ १४ ॥ समस्त पापोंका नाश करनेवाले प्रभो ! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारसे भयभीत होकर आपके चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयोंसे मुक्त कर देते हैं। अब मैं आपके श्रीचरणोंके स्पर्शसे शापसे छूट गया हूँ और अपने लोकमें जानेकी अनुमति चाहता हूँ ॥ १५ ॥ भक्तवत्सल ! महायोगेश्वर पुरुषोत्तम ! मैं आपकी शरणमें हूँ। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरोंके परमेश्वर ! स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! मुझे आज्ञा दीजिये ॥ १६ ॥ अपने स्वरूपमें नित्य-निरन्तर एकरस रहनेवाले अच्युत ! आपके दर्शनमात्रसे मैं ब्राह्मणोंके शापसे मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि जो पुरुष आपके नामोंका उच्चारण करता है, वह अपने-आपको और समस्त श्रोताओंको भी तुरंत पवित्र कर देता है। फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरणकमलोंसे स्पर्श किया है। तब भला, मेरी मुक्तिमें क्या सन्देह हो सकता है ? ॥ १७ ॥ इस प्रकार सुदर्शनने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विनती की, परिक्रमा की और प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर वह अपने लोकमें चला गया और नन्दबाबा इस भारी संकटसे छूट गये ॥ १८ ॥ राजन् ! जब व्रजवासियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह अद्भुत प्रभाव देखा, तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन लोगोंने उस क्षेत्रमें जो नियम ले रखे थे, उनको पूर्ण करके वे बड़े आदर और प्रेमसे श्रीकृष्णकी उस लीलाका गान करते हुए पुन: व्रजमें लौट आये ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शनिवार, 1 अगस्त 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

 

महारास

 

जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य मानते हैं और केवल मानवीय भाव एवं आदर्श की कसौटी पर उनके चरित्र को कसना चाहते हैं, वे पहले ही शास्त्र से विमुख हो जाते हैं, उनके चित्त में धर्मं की कोई धारणा ही नहीं रहती और वे भगवान् को भी अपनी बुद्धि के पीछे चलाना चाहते हैं | इसलिए साधकों के सामने उनकी युक्तियों का कोई महत्त्व ही नहीं रहता | जो शास्त्र के “श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं” इस वचन को नहीं मानता,वह उनकी लीलाओं को किस आधार पर सत्य मानकर उनकी आलोचना करता है –यह समझ में नहीं आता | जैसे मानवधर्म, देवधर्म,पशुधर्म पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही भगवद्धर्म भी पृथक् होता है  और भगवान् के चरित्र का परीक्षण उसकी ही कसौटी पर होना चाहिए | भगवान् का एकमात्र धर्म है –प्रेमपरवशता, दयापरवशता और भक्तों की अभिलाषा की पूर्ति | यशोदा के हाथों से ऊखल में बंध जाने वाले श्रीकृष्ण अपने निजजन गोपियों के प्रेम के कारण उनके साथ नाचें, यह उनका सहज धर्म है |

 

यदि यह हठ ही हो कि श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय धारणाओं और आदर्शों के अनुकूल ही होना चाहिए, तो इसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं है |  श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी, जैसा की भागवत में स्पष्ट वर्णन मिलता है | गाँवों में रहने वाले बहुत-से दस वर्ष के बच्चे तो नंगे ही रहते हैं | उन्हें कामवृत्ति और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता | लड़के-लडकी एक साथ खेलते हैं,नाचते हैं,गाते हैं,त्यौहार मनाते हैं,गुड्डी-गुड्डे की शादी करते हैं,बरात ले जाते हैं और आपस में भोज-भात भी करते हैं | गाँव के बड़े बूढ़े लोग बच्चों का यह मनोरंजन देखकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके मन में किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं आता | ऐसे बच्चों को युवती स्त्रियाँ भी बड़े प्रेम से देखती हैं, आदर करती हैं, नहलाती हैं, खिलाती हैं | यह तो साधारण बच्चों की बात है | श्रीकृष्ण जैसे असाधारण धी-शक्तिसम्पन्न बालक जिनके अनेक सद्गुण बाल्यकाल में ही प्रकट हो चुके थे; जिनकी सम्मति, चातुर्य और शक्तिसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों से व्रजवासियों ने त्राण पाया था; उनके प्रति वहाँ की स्त्रियों, बालिकाओं और बालकों का कितना आदर रहा होगाइसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य से आकृष्ट होकर गाँव की बालक-बालिकाएँ उनके साथ ही रहती थीं और श्रीकृष्ण भी अपनी मौलिक प्रतिभा से राग, ताल आदि नये-नये ढंग से उनका मनोरञ्जन करते थे और उन्हें शिक्षा देते थे। ऐसे ही मनोरञ्जनों में से रासलीला भी एक थी, ऐसा समझना चाहिये। जो श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं, उनकी दृष्टि में भी यह दोष की बात नहीं होनी चाहिये। वे उदारता और बुद्धिमानीके साथ भागवत में आये हुए काम-रति आदि शब्दोंका ठीक वैसा ही अर्थ समझें, जैसा कि उपनिषद् और गीतामें इन शब्दोंका अर्थ होता है। वास्तवमें गोपियोंके निष्कपट प्रेमका ही नामान्तर काम है और भगवान्‌ श्रीकृष्णका आत्मरमण अथवा उनकी दिव्य क्रीडा ही रति है। इसीलिये स्थान-स्थानपर उनके लिये विभु, परमेश्वर, लक्ष्मीपति, भगवान्‌, योगेश्वरेश्वर, आत्माराम, मन्मथमन्मथ आदि शब्द आये हैंजिससे किसीको कोई भ्रम न हो जाय।

 

जब गोपियाँ श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुनकर वनमें जाने लगी थीं, तब उनके सगे-सम्बन्धियोंने उन्हें जानेसे रोका था। रातमें अपनी बालिकाओंको भला कौन बाहर जाने देता। फिर भी वे चली गयीं और इससे घरवालोंको किसी प्रकारकी अप्रसन्नता नहीं हुई। और न तो उन्होंने श्रीकृष्णपर या गोपियोंपर किसी प्रकारका लाञ्छन ही लगाया। उनका श्रीकृष्णपर, गोपियोंपर विश्वास था और वे उनके बचपन और खेलोंसे परिचित थे। उन्हें तो ऐसा मालूम हुआ मानो गोपियाँ हमारे पास ही हैं। इसको दो प्रकारसे समझ सकते हैं। एक तो यह कि श्रीकृष्णके प्रति उनका इतना विश्वास था कि श्रीकृष्णके पास गोपियोंका रहना भी अपने ही पास रहना है। यह तो मानवीय दृष्टि है। दूसरी दृष्टि यह है कि श्रीकृष्णकी योगमायाने ऐसी व्यवस्था कर रखी थी, गोपोंको वे घरमें ही दीखती थीं। किसी भी दृष्टिसे रासलीला दूषित प्रसङ्ग नहीं है, बल्कि अधिकारी पुरुषोंके लिये तो यह सम्पूर्ण मनोमलको नष्ट करनेवाला है। रासलीलाके अन्तमें कहा गया है कि जो पुरुष श्रद्धा-भक्तिपूर्वक रासलीलाका श्रवण और वर्णन करता है, उसके हृदयका रोग-काम बहुत ही शीघ्र नष्ट हो जाता है और उसे भगवान्‌ का प्रेम प्राप्त होता है। भागवतमें अनेक स्थानपर ऐसा वर्णन आता है कि जो भगवान्‌ की मायाका वर्णन करता है, वह मायासे पार हो जाता है। जो भगवान्‌ के कामजय का वर्णन करता है, वह कामपर विजय प्राप्त करता है। राजा परीक्षित्‌ने अपने प्रश्नों  में जो शङ्काएँ की हैं, उनका उत्तर प्रश्नों के अनुरूप ही अध्याय २९ के श्लोक १३ से १६ तक और अध्याय ३३ के श्लोक ३० से ३७ तक श्रीशुकदेवजी ने दिया है।

 

उस उत्तर से वे शङ्काएँ तो हट गयी हैं, परंतु भगवान्‌ की दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया; सम्भवत: उस रहस्यको गुप्त रखनेके लिये ही ३३वें अध्यायमें रासलीलाप्रसङ्ग समाप्त कर दिया गया। वस्तुत: इस लीलाके गूढ़ रहस्यकी प्राकृत-जगत्में व्याख्या की भी नहीं जा सकती । क्योंकि यह इस जगत् की क्रीडा ही नहीं है। यह तो उस दिव्य आनन्दमय रसमय राज्यकी चमत्कारमयी लीला है, जिसके श्रवण और दर्शनके लिये परमहंस मुनिगण भी सदा उत्कण्ठित रहते हैं। कुछ लोग इस लीलाप्रसंगको भागवत में क्षेपक मानते हैं, वे वास्तवमें दुराग्रह करते हैं। क्योंकि प्राचीन-से-प्राचीन प्रतियोंमें भी यह प्रसंग मिलता है और जरा विचार करके देखनेसे यह सर्वथा सुसंगत और निर्दोष प्रतीत होता है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण कृपा करके ऐसी विमल बुद्धि दें, जिससे हमलोग इसका कुछ रहस्य समझनेमें समर्थ हों।

 

भगवान्‌ के इस दिव्य-लीलाके वर्णनका यही प्रयोजन है कि जीव गोपियोंके उस अहैतुक प्रेमका, जो कि श्रीकृष्णको ही सुख पहुँचानेके लिये था, स्मरण करे और उसके द्वारा भगवान्‌ के रसमय दिव्यलीलालोक में भगवान्‌ के अनन्त प्रेमका अनुभव करे। हमें रासलीलाका अध्ययन करते समय किसी प्रकारकी भी शङ्का न करके इस भाव को जगाये रखना चाहिये।

 

हनुमानप्रसाद पोद्दार

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रयोत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

 

महारास

 

श्रीमद्भागवत पर, दशम स्कन्ध पर और रासपञ्चाध्यायी पर अब तक अनेकानेक भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैंजिनके लेखकों में जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्य, श्री श्रीधरस्वामी, श्रीजीवगोस्वामी आदि हैं। उन लोगोंने बड़े विस्तारसे रासलीलाकी महिमा समझायी है। किसीने इसे कामपर विजय बतलाया है, किसीने भगवान्‌ का दिव्य विहार बतलाया है और किसीने इसका आध्यात्मिक अर्थ किया है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्माकार वृत्ति श्रीराधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ हैं। उनका धाराप्रवाहरूपसे निरन्तर आत्मरमण ही रास है। किसी भी दृष्टिसे देखें, रासलीलाकी महिमा अधिकाधिक प्रकट होती है।

परंतु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि श्रीमद्भागवतमें वर्णित रास या रमण-प्रसङ्ग केवल रूपक या कल्पनामात्र है। वह सर्वथा सत्य है और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन-विलासादिरूप सृंङ्गार का रसास्वादन भी हुआ था। भेद इतना ही है कि वह लौकिक स्त्री-पुरुषोंका मिलन न था। उनके नायक थे सच्चिदानन्दविग्रह, परात्परतत्त्व, पूर्णतम स्वाधीन और निरङ्कुश स्वेच्छाविहारी गोपीनाथ भगवान्‌ नन्दनन्दन; और नायिका थीं स्वयं ह्लादिनीशक्ति श्रीराधाजी और उनकी कायव्यूहरूपा, उनकी घनीभूत मूर्तियाँ श्रीगोपीजन ! अतएव इनकी यह लीला अप्राकृत थी। सर्वथा मीठी मिश्रीकी अत्यन्त कडुए इन्द्रायण (तूँबे)-जैसी कोई आकृति बना ली जाय, जो देखनेमें ठीक तूँबे-जैसी ही मालूम हो; परंतु इससे असलमें क्या वह मिश्रीका तूँबा कडुआ थोड़े ही हो जाता है ? क्या तूँबेके आकारकी होनेसे ही मिश्रीके स्वाभाविक गुण मधुरताका अभाव हो जाता है ? नहीं-नहीं, वह किसी भी आकारमें होसर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा केवल मिश्री-ही-मिश्री है, बल्कि इसमें लीला-चमत्कारकी बात जरूर है। लोग समझते हैं कडुआ तूँबा और होती है वह मधुर मिश्री। इसी प्रकार अखिलरसामृतसिन्धु सच्चिदानन्दविग्रह भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनकी अन्तरङ्गा अभिन्नस्वरूपा गोपियोंकी लीला भी देखनेमें कैसी ही क्यों न हो, वस्तुत: वह सच्चिदानन्दमयी ही है। उसमें सांसारिक गंदे कामका कडुआ स्वाद है ही नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि इस लीलाकी नकल किसीको नहीं करनी चाहिये, करना सम्भव भी नहीं है। मायिक पदार्थोंके द्वारा मायातीत भगवान्‌का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है ? कडुए  तूँबेको चाहे जैसी सुन्दर मिठाई की आकृति दे दी जाय, उसका कडुआपन कभी मिट नहीं सकता। इसीलिये जिन मोहग्रस्त मनुष्योंने श्रीकृष्णकी रास आदि अन्तरङ्ग-लीलाओंका अनुकरण करके नायक-नायिकाका रसास्वादन करना चाहा या चाहते हैं, उनका घोर पतन हुआ है और होगा। श्रीकृष्णकी इन लीलाओंका अनुकरण तो केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं। इसीलिये शुकदेवजीने रासपञ्चाध्यायीके अन्तमें सबको सावधान करते हुए कह दिया है कि भगवान्‌के उपदेश तो सब मानने चाहिये, परंतु उनके सभी आचरणोंका अनुकरण नहीं करना चाहिये।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

 

महारास

 

जिन्होंने अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि योगसिद्धिप्राप्त साधारण योगी भी कायव्यूह के द्वारा एकसाथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों पर उपस्थित रहकर पृथक्-पृथक् कार्य कर सकते हैं | इन्द्रादिदेवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में युगपत् आहुति स्वीकार कर सकते हैं | निखिल योगियों और योगीश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान् श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीडा करें तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? जो लोग भगवान् को भगवान् नहीं स्वीकार करते, वही अनेकों प्रकार की शंका-कुशंकाएँ करते हैं | भगवान् की निजलीला में इन तर्कों का सर्वथा प्रवेश नहीं है |

 

गोपियाँ श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया,यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को भुलाकर ही उठाया जा सकता है | श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत की वस्तुओं में उनका हिस्सेदार दूसरा भी जीव हो | जो कुछ भी था,है और आगे होगा—उसके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं | अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी,गोपियों के पति, उनके पुत्र सगे-संबंधी और जगत के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से,परमात्मारूप से जो प्रभु स्थित हैं—वही श्रीकृष्ण हैं |कोई भ्रम से, अज्ञान से, भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे; वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं , सब उनके हैं | श्रीकृष्ण की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं; सब स्वकीया हैं, सब केवल अपना ही लीलाविलास हैं, सभी स्वरूपभूता अंतरंगा शक्ति हैं | गोपियाँ इस बात को जानती थीं और स्थान स्थान पर  उन्होंने ऐसा कहा है |

 

ऐसी स्थितिमें जारभावऔर औपपत्यका कोई लौकिक अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ काम नहीं है, अङ्ग-सङ्ग नहीं है, वहाँ औपपत्यऔर जारभावकी कल्पना ही कैसे हो सकती है ? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं; परंतु उनमें परकीया-भाव था। परकीया होनेमें और परकीयाभाव होनेमें आकाश- पातालका अन्तर है। परकीयाभावमें तीन बातें बड़े महत्त्वकी होती हैंअपने प्रियतमका निरन्तर चिन्तन, मिलनकी उत्कट उत्कण्ठा और दोषदृष्टिका सर्वथा अभाव। स्वकीयाभावमें निरन्तर एक साथ रहनेके कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं; परंतु परकीया-भावमें ये तीनों भाव बने रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभावसे श्रीकृष्णको चाहती थीं, इसका इतना ही अर्थ है कि वे श्रीकृष्णका निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्णके प्रत्येक व्यवहारको प्रेमकी आँखोंसे ही देखती थीं। चौथा भाव विशेष महत्त्वका और हैवह यह कि स्वकीया अपने घरका, अपना और अपने पुत्र एवं कन्याओंका पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पतिसे चाहती है। वह समझती है कि इनकी देखरेख करना पतिका कर्तव्य है; क्योंकि ये सब उसीके आश्रित हैं, और वह पतिसे ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायणा क्यों न हो, स्वकीयामें यह सकामभाव छिपा रहता ही है। परंतु परकीया अपने प्रियतमसे कुछ नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती; वह तो केवल अपनेको देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियोंमें यह भाव भी भलीभाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषताके कारण संस्कृत-साहित्यके कई ग्रन्थोंमें निरन्तर चिन्तनके उदाहरणस्वरूप परकीयाभावका वर्णन आता है।

गोपियोंके इस भावके एक नहीं, अनेक दृष्टान्त श्रीमद्भागवतमें मिलते हैं; इसलिये गोपियोंपर परकीयापनका आरोप उनके भावको न समझनेके कारण है। जिसके जीवनमें साधारण धर्मकी एक हलकी-सी प्रकाशरेखा आ जाती है। उसीका जीवन परम पवित्र और दूसरोंके लिये आदर्श-स्वरूप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन साधनाकी चरम सीमापर पहुँच चुका है, अथवा जो नित्यसिद्धा एवं भगवान्‌की स्वरूपभूता हैं, या जिन्होंने कल्पोंतक साधना करके श्रीकृष्णकी कृपासे उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचारका उल्लङ्घन कैसे कर सकती हैं और समस्त धर्म-मर्यादाओंके संस्थापक श्रीकृष्णपर धर्मोल्लङ्घनका लाञ्छन कैसे लगाया जा सकता है ? श्रीकृष्ण और गोपियोंके सम्बन्धमें इस प्रकारकी कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरूप और दिव्यलीलाके विषयमें अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं।

 

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दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

 

महारास

 

गोपियों की प्रार्थना से यह बात स्पष्ट है कि वे श्रीकृष्ण को अन्तर्यामी, योगेश्वरेश्वर परमात्मा के रूप में पहचानती थीं और जैसे दूसरे लोग गुरु, सखा या माता-पिताके रूपमें श्रीकृष्णकी उपासना करते हैं, वैसे ही वे पतिके रूपमें श्रीकृष्णसे प्रेम करती थीं, जो कि शास्त्रोंमें मधुर भावकेउज्ज्वल परम रसके नामसे कहा गया है। जब प्रेमके सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधकोंको स्वामि-सखादिके रूपमें भगवान्‌ मिलते हैं, तब गोपियोंने क्या अपराध किया था कि उनका यह उच्चतम भावजिसमें शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य सब-के-सब अन्तर्भूत हैं और जो सबसे उन्नत एवं सबका अन्तिम रूप हैन पूर्ण हो ? भगवान्‌ ने उनका भाव पूर्ण किया और अपनेको असंख्य रूपोंमें प्रकट करके गोपियोंके साथ क्रीडा की। उनकी क्रीडाका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है—‘रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक: स्वप्रतिबिम्बविभ्रम:।जैसे नन्हा-सा शिशु दर्पण अथवा जलमें पड़े हुए अपने प्रतिबिम्बके साथ खेलता है, वैसे ही रमेश भगवान्‌ और व्रजसुन्दरियोंने रमण किया। अर्थात् सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामी प्रेमरस-स्वरूप, लीलारसमय परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी ह्लादिनी-शक्तिरूपा आनन्द- चिन्मयरस-प्रतिभाविता अपनी ही प्रतिमूर्तिसे उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्ब-स्वरूपा गोपियोंसे आत्मक्रीडा की। पूर्णब्रह्म सनातन रसस्वरूप रसराज रसिक-शेखर रसपरब्रह्म अखिलरसामृतविग्रह भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीडाका नाम ही रास है। इसमें न कोई जड शरीर था, न प्राकृत अङ्ग-सङ्ग था, और न इसके सम्बन्धकी प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान्‌का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाममें सर्वदा होते रहनेपर भी कभी-कभी प्रकट होता है।

 

वियोग ही संयोगका पोषक है, मान और मद ही भगवान्‌की लीलामें बाधक हैं। भगवान्‌की दिव्य लीलामें मान और मद भी, जो कि दिव्य हैं, इसीलिये होते हैं कि उनसे लीलामें रसकी और भी पुष्टि हो। भगवान्‌ की इच्छासे ही गोपियोंमें लीलानुरूप मान और मदका सञ्चार हुआ और भगवान्‌ अन्तर्धान हो गये। जिनके हृदयमें लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है, वे भगवान्‌ के सम्मुख रहनेके अधिकारी नहीं। अथवा वे भगवान्‌ का, पास रहनेपर भी, दर्शन नहीं कर सकते। परंतु गोपियाँ गोपियाँ थीं, उनसे जगत्के किसी प्राणीकी तिलमात्र भी तुलना नहीं है। भगवान्‌ के वियोगमें गोपियोंकी क्या दशा हुई, इस बातको रासलीलाका प्रत्येक पाठक जानता है। गोपियोंके शरीर-मन-प्राण, वे जो कुछ थींसब श्रीकृष्णमें एकतान हो गये। उनके प्रेमोन्माद का वह गीत, जो उनके प्राणोंका प्रत्यक्ष प्रतीक है, आज भी भावुक भक्तोंको भावमग्न करके भगवान्‌ के लीलालोकमें पहुँचा देता है। एक बार सरस हृदयसे हृदयहीन होकर नहीं, पाठ करनेमात्रसे ही यह गोपियोंकी महत्ता सम्पूर्ण हृदयमें भर देता है। गोपियोंके उस महाभाव’—उस अलौकिक प्रेमोन्मादको देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तॢहत न रह सके, उनके सामने साक्षान्मन्मथमन्मथ: रूपसे प्रकट हुए और उन्होंने मुक्तकण्ठसे स्वीकार किया कि गोपियो ! मैं तुम्हारे प्रेमभावका चिर-ऋणी हूँ। यदि मैं अनन्त कालतक तुम्हारी सेवा करता रहूँ, तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। मेरे अन्तर्धान होनेका प्रयोजन तुम्हारे चित्तको दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेमको और भी उज्ज्वल एवं समृद्ध करना था।इसके बाद रासक्रीडा प्रारम्भ हुई।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



गुरुवार, 30 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

 

महारास

 

भगवान्‌ हैं बड़े लीलामय। जहाँ वे अखिल विश्वके विधाता ब्रह्मा-शिव आदिके भी वन्दनीय, निखिल जीवोंके प्रत्यगात्मा हैं, वहीं वे लीलानटवर गोपियोंके इशारेपर नाचनेवाले भी हैं। उन्हींकी इच्छासे, उन्हींके प्रेमाह्वान से, उन्हींके वंशी-निमन्त्रणसे प्रेरित होकर गोपियाँ उनके पास आयीं; परंतु उन्होंने ऐसी भावभङ्गी प्रकट की, ऐसा स्वाँग बनाया, मानो उन्हें गोपियोंके आनेका कुछ पता ही न हो। शायद गोपियोंके मुँहसे वे उनके हृदयकी बात, प्रेमकी बात सुनना चाहते हों। सम्भव है, वे विप्रलम्भ के द्वारा उनके मिलन-भावको परिपुष्ट करना चाहते हों। बहुत करके तो ऐसा मालूम होता है कि कहीं लोग इसे साधारण बात न समझ लें, इसलिये साधारण लोगोंके लिये उपदेश और गोपियोंका अधिकार भी उन्होंने सबके सामने रख दिया। उन्होंने बतलाया—‘गोपियो ! व्रजमें कोई विपत्ति तो नहीं आयी, घोर रात्रिमें यहाँ आनेका कारण क्या है ? घरवाले ढूँढ़ते होंगे, अब यहाँ ठहरना नहीं चाहिये। वनकी शोभा देख ली, अब बच्चों और बछड़ोंका भी ध्यान करो। धर्मके अनुकूल मोक्षके खुले हुए द्वार अपने सगे-सम्बन्धियोंकी सेवा छोडक़र वनमें दर-दर भटकना स्त्रियोंके लिये अनुचित है। स्त्रीको अपने पतिकी ही सेवा करनी चाहिये, वह कैसा भी क्यों न हो। यही सनातन धर्म है। इसीके अनुसार तुम्हें चलना चाहिये। मैं जानता हूँ कि तुम सब मुझसे प्रेम करती हो। परंतु प्रेममें शारीरिक सन्निधि आवश्यक नहीं है। श्रवण, स्मरण, दर्शन और ध्यानसे सान्निध्यकी अपेक्षा अधिक प्रेम बढ़ता है। जाओ, तुम सनातन सदाचारका पालन करो। इधर-उधर मनको मत भटकने दो।

श्रीकृष्णकी यह शिक्षा गोपियोंके लिये नहीं, सामान्य नारी-जातिके लिये है। गोपियोंका अधिकार विशेष था और उसको प्रकट करनेके लिये ही भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसे वचन कहे थे। इन्हें सुनकर गोपियोंकी क्या दशा हुई और इसके उत्तरमें उन्होंने श्रीकृष्णसे क्या प्रार्थना की; वे श्रीकृष्णको मनुष्य नहीं मानतीं, उनके पूर्णब्रह्म सनातन स्वरूपको भलीभाँति जानती हैं और यह जानकर ही उनसे प्रेम करती हैंइस बातका कितना सुन्दर परिचय दिया; यह सब विषय मूलमें ही पाठ करनेयोग्य है। सचमुच जिनके हृदयमें भगवान्‌के परमतत्त्वका वैसा अनुपम ज्ञान और भगवान्‌के प्रति वैसा महान् अनन्य अनुराग है और सचाईके साथ जिनकी वाणीमें वैसे उद्गार हैं, वे ही विशेष अधिकारवान् हैं।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

 

महारास

 

श्रीगोपीजन साधनाके इसी उच्च स्तरमें परम आदर्श थीं। इसीसे उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्मसबको छोडक़र, सबका उल्लङ्घन कर, एकमात्र परमधर्मस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही पानेके लिये अभिसार किया था। उनका यह पति-पुत्रोंका त्याग, यह सर्वधर्मका त्याग ही उनके स्तरके अनुरूप स्वधर्म है।

इस सर्वधर्मत्यागरूप स्वधर्मका आचरण गोपियों-जैसे उच्च स्तरके साधकोंमें ही सम्भव है; क्योंकि सब धर्मोंका यह त्याग वही कर सकते हैं, जो इसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकनेके बाद इसके परमफल अनन्य और अचिन्त्य देवदुर्लभ भगवत्प्रेमको प्राप्त कर चुकते हैं, वे भी जान-बूझकर त्याग नहीं करते। सूर्यका प्रखर प्रकाश हो जानेपर तैलदीपककी भाँति स्वत: ही ये धर्म उसे त्याग देते हैं। यह त्याग तिरस्कारमूलक नहीं, वरं तृप्तिमूलक है। भगवत्प्रेमकी ऊँची स्थितिका यही स्वरूप है। देवर्षि नारदजीका एक सूत्र है

 

वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते।

 

जो वेदोंका (वेदमूलक समस्त धर्ममर्यादाओंका) भी भलीभाँति त्याग कर देता है, वह अखण्ड, असीम भगवत्प्रेमको प्राप्त करता है।

जिसको भगवान्‌ अपनी वंशीध्वनि सुनाकरनाम ले-लेकर बुलायें, वह भला, किसी दूसरे धर्मकी ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है। रोकनेवालोंने रोका भी, परंतु हिमालयसे निकलकर समुद्रमें गिरनेवाली ब्रह्मपुत्र नदीकी प्रखर धाराको क्या कोई रोक सकता है ? वे न रुकीं, नहीं रोकी जा सकीं। जिनके चित्तमें कुछ प्राक्तन संस्कार अवशिष्ट थे, वे अपने अनधिकारके कारण सशरीर जानेमें समर्थ न हुर्ईं। उनका शरीर घरमें पड़ा रह गया, भगवान्‌ के वियोग दू:ख से उनके सारे कलुष धुल गए , ध्यान में प्राप्त भगवान् के प्रेमालिंगन से उनके समस्त सौभाग्य का परम फल प्राप्त हो गया और भगवान् के पास सशरीर जाने वाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान् के पास पहुँच गईं | भगवान्  में मिल गईं | यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धांत है की पाप-पुण्य के कारण ही बंधन  होता है और शुभाशुभ का भोग होता है | शुभाशुभ क्लार्मों के भोग से जब पाप-पुण्य दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब जीव की मुक्ति हो जाती है | यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्य से रहित श्री भगवान् की प्रेम-प्रतिमास्वरूपा थीं, तथापि लीला के लिए यह दिखाया गया है की अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास न जा सकने से, उनके विरहानल से उनको इतना महान संताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण अशुभ का भोग होगया, उनके समस्त पाप नष्ट हो गए | और प्रियतम भगवान् के ध्यान से उन्हें इतना आनंद हुआ कि उससे उनके सारे पुण्यों का फल मिलगया | इस प्रकार पाप-पुण्यों का पूर्णरूप से अभाव होने से उनकी मुक्ति हो गयी | चाहे किसी भी भाव से हो – काम से,क्रोध से,लोभ से—जो भगवान् के मंगलमय श्रीविग्रह का चिंतन करता है, उसके भाव की अपेक्षा न करके वस्तुशक्ति से ही उसका कल्याण हो जाता है | यह भगवान् के श्रीविग्रह की विशेषता है | भाव के द्वारा तो एक प्रस्तर मूर्ति भी परमकल्याण का दान कर सकती है , बिना भाव के ही कल्यान्दान भगवद्विग्रह का सहज दान है |

 

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बुधवार, 29 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

 

महारास

 

साधनाके दो भेद हैंमर्यादापूर्ण वैध साधना और २मर्यादारहित अवैध प्रेमसाधना। दोनोंके ही अपने-अपने स्वतन्त्र नियम हैं। वैध साधनामें जैसे नियमोंके बन्धनका, सनातन पद्धतिका, कर्तव्योंका और विविध पालनीय कर्मोंका त्याग साधनासे भ्रष्ट करनेवाला और महान् हानिकर है, वैसे ही अवैध प्रेमसाधनामें इनका पालन कलङ्करूप होता है। यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नतिके साधनोंको वह अवैध प्रेमसाधनाका साधक जान-बूझकर छोड़ देता है। बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। ये वहाँ अपने-आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदीके पार पहुँच जानेपर स्वाभाविक ही नौकाकी सवारी छूट जाती है। जमीनपर न तो नौका पर बैठकर चलनेका प्रश्र उठता है और न ऐसा चाहने या करनेवाला बुद्धिमान् ही माना जाता है। ये सब साधन वहींतक रहते हैं, जहाँतक सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छासे सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान्‌ की ओर दौडऩे नहीं लग जातीं। इसीलिये भगवान्‌ ने गीतामें एक जगह तो अर्जुनसे कहा है

 

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: ।।

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।

...............(३। २२२५)

अर्जुन ! यद्यपि तीनों लोकोंमें मुझे कुछ भी करना नहीं है, और न मुझे किसी वस्तुको प्राप्त ही करना है, जो मुझे न प्राप्त है; तो भी मैं कर्म करता ही हूँ। यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो अर्जुन ! मेरी देखा-देखी लोग कर्मोंको छोड़ बैठें और यों मेरे कर्म न करनेसे ये सारे लोक भ्रष्ट हो जायँ तथा मैं इन्हें वर्णसङ्कर बनानेवाला और सारी प्रजाका नाश करनेवाला बनूँ। इसलिये मेरे इस आदर्श के अनुसार अनासक्त ज्ञानी पुरुषको भी लोकसंग्रहके लिये वैसे ही कर्म करना चाहिये, जैसे कर्म में आसक्त अज्ञानी लोग करते हैं।

यहाँ भगवान्‌ आदर्श लोकसंग्रही महापुरुषके रूपमें बोलते हैं, लोकनायक बनकर सर्वसाधारणको शिक्षा देते हैं। इसलिये स्वयं अपना उदाहरण देकर लोगोंको कर्ममें प्रवृत्त करना चाहते हैं। ये ही भगवान्‌ उसी गीतामें जहाँ अन्तरङ्गता की बात कहते हैं, वहाँ स्पष्ट कहते हैं

 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

.......(१८। ६६)

सारे धर्मोंका त्याग करके तू केवल एक मेरी शरणमें आ जा।

यह बात सबके लिये नहीं है। इसीसे भगवान्‌ १८। ६४ में इसे सबसे बढक़र छिपी हुई गुप्त बात (सर्वगुह्यतम) कहकर इसके बादके ही श्लोकमें कहते हैं

 

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।

.............(१८। ६७)

भैया अर्जुन ! इस सर्वगुह्यतम बातको जो इन्द्रिय-विजयी तपस्वी न हो, मेरा भक्त न हो, सुनना न चाहता हो और मुझमें दोष लगाता हो, उसे न कहना।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

 

महारास

 

इन गोपियोंकी साधना पूर्ण हो चुकी है। भगवान्‌ ने अगली रात्रियोंमें उनके साथ विहार करनेका प्रेम-संकल्प कर लिया है। इसीके साथ उन गोपियोंको भी जो नित्यसिद्धा हैं, जो लोकदृष्टिमें विवाहिता भी हैं, इन्हीं रात्रियोंमें दिव्य-लीलामें सम्मिलित करना है। वे अगली रात्रियाँ कौन-सी हैं, यह बात भगवान्‌की दृष्टिके सामने है। उन्होंने शारदीय रात्रियोंको देखा। भगवान्‌ने देखा’—इसका अर्थ सामान्य नहीं, विशेष है। जैसे सृष्टिके प्रारम्भमें स ऐक्षत एकोऽहं बहु स्याम्।’— भगवान्‌ के इस ईक्षणसे जगत् की उत्पत्ति होती है, वैसे ही रासके प्रारम्भमें भगवान्‌के प्रेमवीक्षणसे शरत्कालकी दिव्य रात्रियोंकी सृष्टि होती है। मल्लिका-पुष्प, चन्द्रिका आदि समस्त उद्दीपनसामग्री भगवान्‌के द्वारा वीक्षित है अर्थात् लौकिक नहीं, अलौकिकअप्राकृत है। गोपियोंने अपना मन श्रीकृष्णके मनमें मिला दिया था। उनके पास स्वयं मन न था। अब प्रेम-दान करनेवाले श्रीकृष्णने विहारके लिये नवीन मनकी, दिव्य मनकी सृष्टि की। योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यही योगमाया है, जो रासलीलाके लिये दिव्य स्थल, दिव्य सामग्री एवं दिव्य मनका निर्माण किया करती है। इतना होनेपर भगवान्‌ की बाँसुरी बजती है।

भगवान्‌ की बाँसुरी जडको चेतन, चेतनको जड, चलको अचल और अचलको चल, विक्षिप्तको समाधिस्थ और समाधिस्थको विक्षिप्त बनाती रहती है। भगवान्‌ का प्रेमदान प्राप्त करके गोपियाँ निस्संकल्प, निश्चिन्त होकर घरके काममें लगी हुई थीं। कोई गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषाधर्मके काममें लगी हुई थी, कोई गो-दोहन आदि अर्थके काममें लगी हुई थी, कोई साज-सृंङ्गार आदि कामके साधनमें व्यस्त थी, कोई पूजा-पाठ आदि मोक्षसाधनमें लगी हुई थी। सब लगी हुई थीं अपने-अपने काममें, परंतु वास्तवमें वे उनमेंसे एक भी पदार्थ चाहती न थीं। यही उनकी विशेषता थी और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वंशीध्वनि सुनते ही कर्मकी पूर्णतापर उनका ध्यान नहीं गया; काम पूरा करके चलें, ऐसा उन्होंने नहीं सोचा। वे चल पड़ीं उस साधक संन्यासीके समान, जिसका हृदय वैराग्यकी प्रदीप्त ज्वालासे परिपूर्ण है। किसीने किसीसे पूछा नहीं, सलाह नहीं की; अस्त-व्यस्त गतिसे जो जैसे थी, वैसे ही श्रीकृष्णके पास पहुँच गयी। वैराग्यकी पूर्णता और प्रेमकी पूर्णता एक ही बात है, दो नहीं । गोपियाँ व्रज और श्रीकृष्णके बीचमें मूर्तिमान् वैराग्य हैं या मूर्तिमान् प्रेम, क्या इसका निर्णय कोई कर सकता है ?

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...