॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अरिष्टासुर
का उद्धार और कंस का श्री अक्रूरजी को व्रज में भेजना
अरिष्टे
निहते दैत्ये कृष्णेनाद्भुतकर्मणा ।
कंसायाथाह
भगवान् नारदो देवदर्शनः ॥ १६ ॥
यशोदायाः
सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च ।
रामं
च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता ॥ १७ ॥
न्यस्तौ
स्वमित्रे नन्दे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः ।
निशम्य
तद्भोजपतिः कोपात् प्रचलितेन्द्रियः ॥ १८ ॥
निशातमसिमादत्त
वसुदेवजिघांसया
निवारितो
नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः ॥ १९ ॥
ज्ञात्वा
लोहमयैः पाशैः बबन्ध सह भार्यया ।
प्रतियाते
तु देवर्षौ कंस आभाष्य केशिनम् ॥ २० ॥
प्रेषयामास
हन्येतां भवता रामकेशवौ ।
ततो
मुष्टिकचाणूर शलतोशलकादिकान् ॥ २१ ॥
अमात्यान्
हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट् ।
भो
भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ ॥ २२ ॥
नन्दव्रजे
किलासाते सुतावानकदुन्दुभेः ।
रामकृष्णौ
ततो मह्यं मृत्युः किल निदर्शितः ॥ २३ ॥
भवद्भ्यामिह
सम्प्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया ।
मञ्चाः
क्रियन्तां विविधा मल्लरङ्गपरिश्रिताः ।
पौरा
जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम् ॥ २४ ॥
महामात्र
त्वया भद्र रङ्गद्वार्युपनीयताम् ।
द्विपः
कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ ॥ २५ ॥
आरभ्यतां
धनुर्यागः चतुर्दश्यां यथाविधि ।
विशसन्तु
पशून् मेध्यान् भूतराजाय मीढुषे ॥ २६ ॥
इत्याज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ञ
आहूय यदुपुङ्गवम् ।
गृहीत्वा
पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह ॥ २७ ॥
भो
भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः ।
नान्यस्त्वत्तो
हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु ॥ २८ ॥
अतस्त्वामाश्रितः
सौम्य कार्यगौरवसाधनम् ।
यथेन्द्रो
विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः ॥ २९ ॥
गच्छ
नन्दव्रजं तत्र सुतौ आवानकदुन्दुभेः ।
आसाते
तौ इहानेन रथेनानय मा चिरम् ॥ ३० ॥
निसृष्टः
किल मे मृत्युः देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः ।
तावानय
समं गोपैः नन्दाद्यैः साभ्युपायनैः ॥ ३१ ॥
घातयिष्य
इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना ।
यदि
मुक्तौ ततो मल्लैः घातये वैद्युतोपमैः ॥ ३२ ॥
तयोर्निहतयोस्तप्तान्
वसुदेवपुरोगमान् ।
तद्बन्धून्
निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान् ॥ ३३ ॥
उग्रसेनं
च पितरं स्थविरं राज्यकामुकम् ।
तद्भ्रातरं
देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम ॥ ३४ ॥
ततश्चैषा
मही मित्र भवित्री नष्टकण्टका ।
जरासन्धो
मम गुरुः द्विविदो दयितः सखा ॥ ३५ ॥
शम्बरो
नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः ।
तैरहं
सुरपक्षीयान् हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान् ॥ ३६ ॥
एतज्ज्ञात्वाऽनय
क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ ।
धनुर्मखनिरीक्षार्थं
द्रष्टुं यदुपुरश्रियम् ॥ ३७ ॥
श्रीअक्रूर
उवाच -
राजन्
मनीषितं सध्र्यक् तव स्वावद्यमार्जनम् ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः
समं कुर्याद् दैवं हि फलसाधनम् ॥ ३८ ॥
मनोरथान्
करोत्युच्चैः जनो दैवहतानपि ।
युज्यते
हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते ॥ ३९ ॥
श्रीशुक
उवाच -
एवमादिश्य
चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विषृज्य सः ।
प्रविवेश
गृहं कंसः तथाक्रूरः स्वमालयम् ॥ ४० ॥
परीक्षित्
! भगवान् की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्का
दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुँचे। उन्होंने उससे कहा—
॥ १६ ॥ ‘कंस ! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर
आकाशमें चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो
श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं,
वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पास
उन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।’
यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी ॥
१७-१८ ॥ उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परंतु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लडक़े ही
हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही
पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकडक़र फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले
गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा—‘तुम
व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।’ वह चला गया। इसके
बाद कंसने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल, आदि पहलवानों, मन्ङ्क्षत्रयों
और महावतोंको बुलाकर कहा— ‘वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग
ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो ॥ १९—२२ ॥ वसुदेवके दो पुत्र
बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्हींके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती
है ॥ २३ ॥ अत: जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती
लडऩे-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति- भाँतिके मंच बनाओ और उन्हें
अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस
स्वच्छन्द दंगलको देखें ॥ २४ ॥ महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगलके
घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें,
तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना ॥ २५ ॥ इसी चतुर्दशीको
विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलताके लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको
बहुत-से पवित्र पशुओंकी बलि चढ़ाओ ॥ २६ ॥
परीक्षित्!
कंस तो केवल स्वार्थ-साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया
और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला— ॥ २७ ॥ ‘अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरहसे मेरे आदरणीय हैं। आज आप
मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और
वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढक़र मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥ २८ ॥ यह
काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया
है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका
आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ॥ २९ ॥ आप नन्दरायके व्रजमें जाइये। वहाँ
वसुदेवजीके दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काममें देर नहीं होनी चाहिये ॥ ३० ॥ सुनते हैं, विष्णुके भरोसे जीनेवाले देवताओंने उन दोनोंको मेरी मृत्युका कारण निश्चित
किया है। इसलिये आप उन दोनोंको तो ले ही आइये, साथ ही नन्द
आदि गोपोंको भी बड़ी-बड़ी भेटोंके साथ ले आइये ॥ ३१ ॥ यहाँ आनेपर मैं उन्हें अपने
कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा डालूँगा। यद िवे कदाचित् उस हाथीसे बच गये,
तो मैं अपने वज्रके सामन मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर
आदिसे उन्हें मरवा डालूँगा ॥ ३२ ॥ उनके मारे जानेपर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशाहर्वंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने
हाथों मार डालूँगा ॥ ३३ ॥ मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परंतु अभी उसको राज्यका लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकनेके बाद मैं उसको,
उसके भाई देवकको और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करनेवाले हैं—उन सबको तलवारके घाट उतार दूँगा ॥ ३४ ॥ मेरे मित्र अक्रूरजी! फिर तो मैं
होऊँगा और आप होंगे तथा होगा इस पृथ्वीका अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े
ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं ॥ ३५ ॥ शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुर—ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं,
मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायतासे
मैं देवताओंके पक्षपाती नरपतियोंको मारकर पृथ्वीका अकण्टक राज्य भोगूँगा ॥ ३६ ॥ यह
सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्णको
यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालनेमें क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञके दर्शन और
यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराकी शोभा देखनेके लिये यहाँ आ जायँ’ ॥ ३७ ॥
अक्रूरजीने
कहा—महाराज ! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना
चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको
चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव
रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी
प्रेरणासे मिलते हैं ॥ ३८ ॥ मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथोंके पुल बाँधता रहता है,
परंतु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने
इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्धके अनुकूल होनेपर
प्रयत्न सफल हो जाता है, तो वह हर्षसे फूल उठता है और
प्रतिकूल होनेपर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी
आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ ॥ ३९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—कंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर
दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अक्रूरजी अपने घर लौट आये ॥ ४० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे अक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से