॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
केशी
और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीशुक
उवाच -
केशी
तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं
महाहयो
निर्जरयन्मनोजवः ।
सटावधूताभ्रविमानसङ्कुलं
कुर्वन्नभो
हेषितभीषिताखिलः ॥ १ ॥
विशालनेत्रो
विकटास्यकोटरो
बृहद्गलो
नीलमहाम्बुदोपमः ।
दुराशयः
कंसहितं चिकीर्षुः
व्रजं
स नम्दस्य जगाम कम्पयन् ॥ २ ॥
तं
त्रासयन्तं भगवान् स्वगोकुलं
तद्धेषितैर्वालविघूर्णिताम्बुदम्
।
आत्मानमाजौ
मृगयन्तमग्रणीः
उपाह्वयत्
स व्यनदन् मृगेन्द्रवत् ॥ ३ ॥
स
तं निशाम्याभिमुखो मखेन खं
पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः
।
जघान
पद्भ्यामरविन्दलोचनं
दुरासदश्चण्डजवो
दुरत्ययः ॥ ४ ॥
तद्
वञ्चयित्वा तमधोक्षजो रुषा
प्रगृह्य
दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः ।
सावज्ञमुत्सृज्य
धनुःशतान्तरे
यथोरगं
तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः ॥ ५ ॥
सः
लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुषा
व्यादाय
केशी तरसाऽऽपतद्धरिम् ।
सोऽप्यस्य
वक्त्रे भुजमुत्तरं स्मयन्
प्रवेशयामास
यथोरगं बिले ॥ ६ ॥
दन्ता
निपेतुर्भगवद्भुजस्पृशः
ते
केशिनस्तप्तमयस्पृशो यथा ।
बाहुश्च
तद्देहगतो महात्मनो
यथाऽऽमयः
संववृधे उपेक्षितः ॥ ७ ॥
समेधमानेन
स कृष्णबाहुना
निरुद्धवायुश्चरणांश्च
विक्षिपन् ।
प्रस्विन्नगात्रः
परिवृत्तलोचनः
पपात
लेण्डं विसृजन् क्षितौ व्यसुः ॥ ८ ॥
तद्देहतः
कर्कटिकाफलोपमाद्
व्यसोरपाकृष्य
भुजं महाभुजः ।
अविस्मितोऽयत्नहतारिरुत्स्मयैः
प्रसूनवर्षैर्दिविषद्भिरीडितः
॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! कंसने जिस केशी नामक दैत्यको भेजा था, वह
बड़े भारी घोड़ेके रूपमें मनके समान वेगसे दौड़ता हुआ व्रजमें आया। वह अपनी टापों से
धरती खोदता आ रहा था ! उसकी गरदनके छितराये हुए बालोंके झटकेसे आकाशके बादल और
विमानोंकी भीड़ तीतर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भयसे काँप
रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्षका खोडऱ ही हो। उसे देखनेसे ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन
थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादलकी घटा है। उसकी नीयतमें
पाप भरा था। वह श्रीकृष्णको मारकर अपने स्वामी कंसका हित करना चाहता था। उसके
चलनेसे भूकम्प होने लगता था ॥ १-२ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से
उनके आश्रित रहनेवाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछके बालोंसे बादल
तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लडऩेके लिये उन्हींको ढूँढ़ भी
रहा है—तब वे बढक़र उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंहके समान
गरजकर उसे ललकारा ॥ ३ ॥ भगवान्को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस
प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा। परीक्षित्
! सचमुच केशीका वेग बड़ा प्रचण्ड था। उसपर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान्के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी
॥ ४ ॥ परंतु भगवान्ने उससे अपनेको बचा लिया। भला, वह
इन्द्रियातीतको कैसे मार पाता ! उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों पिछले पैर
पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँपको पकडक़र झटक देते हैं, उसी
प्रकार क्रोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ हाथकी दूरीपर फेंक दिया और
स्वयं अकडक़र खड़े हो गये ॥ ५ ॥ थोड़ी ही देरके बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ
खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोधसे तिलमिलाकर और मुँह फाडक़र बड़े वेगसे भगवान्की ओर
झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँहमें
इस प्रकार डाल दिया,जैसे सर्प बिना किसी आशङ्काके अपने
बिलमें घुस जाता है ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! भगवान्का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय
ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही
केशीके दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देनेपर बहुत बढ़ जाता
है, वैसे ही श्रीकृष्णका भुजदण्ड उसके मुँहमें बढऩे लगा ॥ ७
॥ अचिन्त्यशक्ति भगवान् श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी
साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा। अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका
शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर
गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ॥ ८ ॥ उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होनेके
कारण गिरते ही पकी ककड़ीकी तरह फट गया। महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णने उसके शरीरसे
अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्नके
ही शत्रुका नाश हो गया। देवताओंको अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न
हो-होकर भगवान् के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से