रविवार, 9 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीगोप्य ऊचुः -

अहो विधातस्तव न क्वचिद् दया

संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिनः ।

तांश्चाकृतार्थान् वियुनङ्‌क्ष्यपार्थकं

विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा ॥ १९ ॥

यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं

मुकुन्दवक्त्रं सुकपोलमुन्नसम् ।

शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं

करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम् ॥ २० ॥

क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया स्म नः

चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत् ।

येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं

त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः ॥ २१ ॥

न नन्दसूनुः क्षणभङ्‌गसौहृदः

समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत ।

विहाय गेहान् स्वजनान् तान् पतीन्

तद्दास्यमद्धोपगता नवप्रियः ॥ २२ ॥

सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः

सत्या बभूवुः पुरयोषितां ध्रुवम् ।

याः संप्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः

पास्यन्त्यपाङ्‌गोत् कलितस्मितासवम् ॥ २३ ॥

तासां मुकुन्दो मधुमञ्जुभाषितैरः

गृहीतचित्तः परवान् मनस्व्यपि ।

कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽबला

ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन् ॥ २४ ॥

अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते

दाशार्हभोजान्धक वृष्णिसात्वताम् ।

महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं

द्रक्ष्यन्ति ये चाध्वनि देवकीसुतम् ॥ २५ ॥

मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भूद्

अक्रूर इत्येतदतीव दारुणः ।

योऽसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं

प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः ॥ २६ ॥

अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं

तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः ।

गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं

दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते ॥ २७ ॥

निवारयामः समुपेत्य माधवं

किं नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवाः ।

मुकुन्दसङ्‌गान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्

दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम् ॥ २८ ॥

यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र

लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठाम् ।

नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं

गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम् ॥ २९ ॥

योऽह्नः क्षये व्रजमनन्तसखः परीतो

गोपैर्विशन् खुररजश्छुरितालकस्रक् ।

वेणुं क्वणन् स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन

चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम ॥ ३० ॥

 

गोपियोंने कहाधन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परंतु तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत् के प्राणियोंको एक-दूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक कर देते हो; मिला देते हो परंतु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो ! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है ॥ १९ ॥ यह कितने दु:खकी बात है ! विधाता ! तुमने पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह ! काले-काले घुँघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोतेकी चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा, जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है। विधाता ! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो ! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है ॥ २० ॥ हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक अङ्गोंमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता ! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ॥ २१ ॥

 

अहो ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है। देखो तो सहीइनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला गया ? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदिको छोडक़र इनकी दासी बनीं और इन्हींके लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परंतु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखतेतक नहीं ॥ २२ ॥ आजकी रातका प्रात:काल मथुराकी स्त्रियोंके लिये निश्चय ही बड़ा मङ्गलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनोंकी अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त मुखारविन्दका मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरीमें प्रवेश करेंगे, तब वे उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी ॥ २३ ॥ यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान् होनेके साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनोंकी आज्ञामें रहते हैं, तथापि मथुराकी युवतियाँ अपने मधुके समान मधुर वचनोंसे इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगीसे वहीं रम जायँगे। फिर हम गँवार ग्वालिनोंके पास ये लौटकर क्यों आने लगे ॥ २४ ॥ धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दरका दर्शन करके मथुराके दाशाहर्, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके नेत्र अवश्य ही परमानन्दका साक्षात्कार करेंगे। आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँ से मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दर का मार्ग में दर्शन करेंगे,वे भी निहाल हो जायँगे ॥२५ ॥

 

देखो सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियाँ इतनी दु:खित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दरको हमारी आँखोंसे ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुषका अक्रूरनाम नहीं होना चाहिये था ॥ २६ ॥ सखी ! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े ! उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि जाओ जो मनमें आवे, करो !अब हम क्या करें ? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है ॥ २७ ॥ चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे ? अरी सखी ! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दनका सङ्ग छोडऩेमें असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्यने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है ॥ २८ ॥ सखियो ! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिङ्गनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँजो बहुत विशाल थींएक क्षणके समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हुई अपार विरहव्यथाका पार कैसे पावेंगी ॥ २९ ॥ एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है, सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके खुरकी रजसे ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको वेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी ? ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीशुक उवाच -

सुखोपविष्टः पर्यङ्‌के रमकृष्णोरुमानितः ।

लेभे मनोरथान् सर्वान् पन्पथि यान् स चकार ह ॥ १ ॥

किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने ।

तथापि तत्परा राजन् न हि वाञ्छन्ति किञ्चन ॥ २ ॥

सायंतनाशनं कृत्वा भगवान् देवकीसुतः ।

सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

तात सौम्यागतः कच्चित् स्वागतं भद्रमस्तु वः ।

अपि स्वज्ञातिबन्धूनां अनमीवमनामयम् ॥ ४ ॥

किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये ।

कंसे मातुलनाम्न्यङ्‌ग स्वानां नस्तत्प्रजासु च ॥ ५ ॥

अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रोर्वृजिनमार्ययोः ।

यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयोः ॥ ६ ॥

दिष्ट्याद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य काङ्‌क्षितम् ।

सञ्जातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः ।

वैरानुबन्धं यदुषु वसुदेववधोद्यमम् ॥ ८ ॥

यत्सन्देशो यदर्थं वा दूतः सम्प्रेषितः स्वयम् ।

यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुन्दुभेः ॥ ९ ॥

श्रुत्वाक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा ।

प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञा दिष्टं विजज्ञतुः ॥ १० ॥

गोपान् समादिशत् सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः ।

उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च ॥ ११ ॥

यास्यामः श्वो मधुपुरीं दास्यामो नृपते रसान् ।

द्रक्ष्यामः सुमहत्पर्व यान्ति जानपदाः किल ।

एवमाघोषयत्क्षत्रा नन्दगोपः स्वगोकुले ॥ १२ ॥

गोप्यस्तास्तद् उपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम् ।

रामकृष्णौ पुरीं नेतुं अक्रूरं व्रजमागतम् ॥ १३ ॥

काश्चित् तत्कृतहृत्ताप श्वासम्लानमुखश्रियः ।

स्रंसद्‌दुद्दुकूलवलय केशग्रंथ्यश्च काश्चन ॥ १४ ॥

अन्याश्च तदनुध्यान निवृत्ताशेषवृत्तयः ।

नाभ्यजानन् इमं लोकं आत्मलोकं गता इव ॥ १५ ॥

स्मरन्त्यश्चापराः शौरेः अनुरागस्मितेरिताः ।

हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः ॥ १६ ॥

गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम् ।

शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च ॥ १७ ॥

चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य भीता विरहकातराः ।

समेताः सङ्‌घशः प्रोचुः अश्रुमुख्योऽच्युताशयाः ॥ १८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ? फिर भी भगवान्‌के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते ॥ २ ॥ देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अक्रूरजीके पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ कंसके व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रमके सम्बन्धमें पूछा ॥ ३ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाचाचाजी ! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ ? स्वागत है। मैं आपकी मङ्गलकामना करता हूँ। मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब कुशल और स्वस्थ हैं न ? ॥ ४ ॥ हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयङ्कर व्याधि है। जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मङ्गल क्या पूछें ॥ ५ ॥ चाचाजी ! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ींतरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े। और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकडक़र जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये ॥ ६ ॥ मैं बहुत दिनोंसे चाहता था कि आपलोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी, सौम्य-स्वभाव चाचाजी ! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ ? ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अक्रूरजीसे इस प्रकार प्रश्र किया, तब उन्होंने बतलाया कि कंसने तो सभी यदुवंशियोंसे घोर वैर ठान रखा है। वह वसुदेवजीको मार डालनेका भी उद्यम कर चुका है॥ ८ ॥ अक्रूरजीने कंसका सन्देश और जिस उद्देश्यसे उसने स्वयं अक्रूरजीको दूत बनाकर भेजा था और नारदजीने जिस प्रकार वसुदेवजीके घर श्रीकृष्णके जन्म लेनेका वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया ॥ ९ ॥ अक्रूरजीकी यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजीको कंसकी आज्ञा सुना दी ॥ १० ॥ तब नन्दबाबाने सब गोपोंको आज्ञा दी कि सारा गोरस एकत्र करो। भेंटकी सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो ॥ ११ ॥ कल प्रात:काल ही हम सब मथुराकी यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखनेके लिये देशकी सारी प्रजा इक_ी हो रही है। हमलोग भी उसे देखेंगे।नन्दबाबाने गाँवके कोतवालके द्वारा यह घोषणा सारे व्रजमें करवा दी ॥ १२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब गोपियोंने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजीको मथुरा ले जानेके लिये अक्रूरजी व्रजमें आये हैं, तब उनके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई। वे व्याकुल हो गयीं ॥ १३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनते ही बहुतोंके हृदयमें ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया। और बहुतोंकी ऐसी दशा हुईवे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढऩी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ोंतकका पता न रहा ॥ १४ ॥ भगवान्‌ के स्वरूपका ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियोंकी चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थआत्मामें स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसारका कुछ ध्यान ही न रहा ॥ १५ ॥ बहुत-सी गोपियोंके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रेम, उनकी मन्द- मन्द मुसकान और हृदयको स्पर्श करनेवाली विचित्र पदोंसे युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं ॥ १६ ॥ गोपियाँ मन-ही-मन भगवान्‌की लटकीली चाल, भाव- भङ्गी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकोंको मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारताभरी लीलाओंका चिन्तन करने लगीं और उनके विरहके भयसे कातर हो गयीं। उनका हृदय, उनका जीवनसब कुछ भगवान्‌के प्रति समर्पित था। उनकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे। वे झुंड-की-झुंड इकठ्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं ॥ १७-१८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 8 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

श्रीशुक उवाच -

इति सञ्चिन्तयन्कृष्णं श्वफल्कतनयोऽध्वनि ।

रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्चास्तगिरिं नृप ॥ २४ ॥

पदानि तस्याखिललोकपाल

किरीटजुष्टामलपादरेणोः ।

ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि

विलक्षितान्यब्जयवाङ्‌कुशाद्यैः ॥ २५ ॥

तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः

प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः ।

रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत

प्रभोरमून्यङ्‌घ्रिरजांस्यहो इति ॥ २६ ॥

देहंभृतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुचम् ।

सन्देशाद्यो हरेर्लिङ्‌ग दर्शनश्रवणादिभिः ॥ २७ ॥

ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गतौ ।

पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरहेक्षणौ ॥ २८ ॥

किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद्‍भुजौ ।

सुमुखौ सुन्दरवरौ बलद्विरदविक्रमौ ॥ २९ ॥

ध्वजवज्राङ्‌कुशाम्भोजैः चिह्नितैरङ्‌घ्रिभिर्व्रजम् ।

शोभयन्तौ महात्मानौ सानुक्रोशस्मितेक्षणौ ॥ ३० ॥

उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौ वनमालिनौ ।

पुण्यगन्धानुलिप्ताङ्‌गौ स्नातौ विरजवाससौ ॥ ३१ ॥

प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती ।

अवतीर्णौ जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ ॥ ३२ ॥

दिशो वितिमिरा राजन् कुर्वाणौ प्रभया स्वया ।

यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ ॥ ३३ ॥

रथात् तूर्णं अवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविह्वलः ।

पपात चरणोपान्ते दण्डवत् रामकृष्णयोः ॥ ३४ ॥

भगवद्दर्शनाह्लाद बाष्पपर्याकुलेक्षणः ।

पुलकचिताङ्‌ग औत्कण्ठ्यात् स्वाख्याने नाशकन् नृप ॥ ३५ ॥

भगवान् तमभिप्रेत्य रथाङ्‌गाङ्‌कितपाणिना ।

परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः ॥ ३६ ॥

सङ्‌कर्षणश्च प्रणतं उपगुह्य महामनाः ।

गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत् सानुजो गृहम् ॥ ३७ ॥

पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम् ।

प्रक्षाल्य विधिवत् पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत् ॥ ३८ ॥

निवेद्य गां चातिथये संवाह्य श्रान्तमादृतः ।

अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयोपाहरद् विभुः ॥ ३९ ॥

तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित् ।

मखवासैर्गन्धमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात् पुनः ॥ ४० ॥

पप्रच्छ सत्कृतं नन्दः कथं स्थ निरनुग्रहे ।

कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः ॥ ४१ ॥

योऽवधीत् स्वस्वसुस्तोकान् क्रोशन्त्या असुतृप् खलः ।

किं नु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे ॥ ४२ ॥

इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजितः ।

अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम् ॥ ४३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्गमें इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथसे नन्दगाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये ॥ २४ ॥ जिनके चरणकमलकी रजका सभी लोकपाल अपने किरीटोंके द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके चरणचिह्नोंके दर्शन किये। कमल, यव, अङ्कुश आदि असाधारण चिह्नोंके द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी ॥ २५ ॥ उन चरणचिह्नोंके दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना आह्लाद हुआ कि वे अपनेको सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रोंमें आँसू भर आये और टपटप टपकने लगे। वे रथसे कूदकर उस धूलिमें लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो ! यह हमारे प्रभुके चरणोंकी रज है॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! कंसके सन्देशसे लेकर यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही जीवोंके देह धारण करनेका परम लाभ है। इसलिये जीवमात्रका यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान्‌की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणोंके दर्शन-श्रवण आदिके द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें ॥ २७ ॥

 

व्रजमें पहुँचकर अक्रूरजीने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयोंको गाय दुहनेके स्थानमें विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे ॥ २८ ॥ उन्होंने अभी किशोर- अवस्थामें प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्यकी खान थे। घुटनोंका स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ललित चाल थी ॥ २९ ॥ उनके चरणोंमें ध्वजा, वज्र, अङ्कुश और कमलके चिह्न थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी, मानो दया बरस रही हो। वे उदारताकी तो मानो मूर्ति ही थे ॥ ३० ॥ उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कलासे भरी थी। गलेमें वनमाला और मणियोंके हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी- अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीरमें पवित्र अङ्गराग तथा चन्दनका लेप किया था ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! अक्रूरने देखा कि जगत्के आदिकारण, जगत्के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसारकी रक्षाके लिये अपने सम्पूर्ण अंशोंसे बलरामजी और श्रीकृष्णके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी अङ्गकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोनेसे मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदीके पर्वत जगमगा रहे हों ॥ ३२-३३ ॥ उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामके चरणोंके पास साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के दर्शनसे उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसूसे सर्वथा भर गये। सारे शरीरमें पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके ॥ ३५ ॥ शरणागतवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके मनका भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे चक्राङ्कित हाथोंके द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदयसे लगा लिया ॥ ३६ ॥ इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजीके सामने विनीत भावसे खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्णने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजीने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये ॥ ३७ ॥ घर ले जाकर भगवान्‌ ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मङ्गल पूछकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजाकी सामग्री भेंट की ॥ ३८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने अतिथि अक्रूरजीको एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धासे उन्हें पवित्र और अनेक गुणोंसे युक्त अन्नका भोजन कराया ॥ ३९ ॥ जब वे भोजन कर चुके, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान्‌ बलरामजीने बड़े प्रेमसे मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया ॥ ४० ॥ इस प्रकार सत्कार हो चुकनेपर नन्दरायजीने उनके पास आकर पूछा—‘अक्रूरजी ! आपलोग निर्दयी कंसके जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं ? अरे ! उसके रहते आप लोगोंकी वही दशा है, जो कसाई द्वारा पाली हुई भेड़ोंकी होती है ॥ ४१ ॥ जिस इन्द्रियाराम पापीने अपनी बिलखती हुई बहनके नन्हे-नन्हे बच्चोंको मार डाला। आपलोग उसकी प्रजा हैं। फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं ? ॥ ४२ ॥ अक्रूरजीने नन्दबाबासे पहले ही कुशल-मङ्गल पूछ लिया था। जब इस प्रकार नन्दबाबाने मधुर वाणीसे अक्रूरजीसे कुशल-मङ्गल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजीके शरीरमें रास्ता चलनेकी जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी ॥ ४३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरागमनं नाम अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

अथावरूढः सपदीशयो रथात्

प्रधानपुंसोश्चरणं स्वलब्धये ।

धिया धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं

नमस्य आभ्यां च सखीन् वनौकसः ॥ १५ ॥

अप्यङ्‌घ्रिमूले पतितस्य मे विभुः

शिरस्यधास्यन् निजहस्तपङ्‌कजम् ।

दत्ताभयं कालभुजाङ्‌गरंहसा

प्रोद्वेजितानां शरणैषिणां णृनाम् ॥ १६ ॥

समर्हणं यत्र निधाय कौशिकः

तथा बलिश्चाप जगत्त्रयेन्द्रताम् ।

यद्वा विहारे व्रजयोषितां श्रमं

स्पर्शेन सौगन्धिकगन्ध्यपानुदत् ॥ १७ ॥

न मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः

कंसस्य दूतः प्रहितोऽपि विश्वदृक् ।

योऽन्तर्बहिश्चेतस एतदीहितं

क्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा ॥ १८ ॥

अप्यङ्‌घ्रिमूलेऽवहितं कृताञ्जलिं

मामीक्षिता सस्मितमार्द्रया दृशा ।

सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो

वोढा मुदं वीतविशङ्‌क ऊर्जिताम् ॥ १९ ॥

सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतं

दोर्भ्यां बृहद्‍भ्यां परिरप्स्यतेऽथ माम् ।

आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मे

बन्धश्च कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः ॥ २० ॥

लब्ध्वाङ्‌गसङ्‌गं प्रणतं कृताञ्जलिं

मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः ।

तदा वयं जन्मभृतो महीयसा

नैवादृतो यो धिगमुष्य जन्म तत् ॥ २१ ॥

न तस्य कश्चिद् दयितः सुहृत्तमो

न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा ।

तथापि भक्तान् भजते यथा तथा

सुरद्रुमो यद्वदुपाश्रितोऽर्थदः ॥ २२ ॥

किं चाग्रजो मावनतं यदूत्तमः

स्मयन् परिष्वज्य गृहीतमञ्जलौ ।

गृहं प्रवेष्याप्तसमस्तसत्कृतं

सम्प्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबन्धुषु ॥ २३ ॥

 

जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करनेके लिये तुरंत रथसे कूद पडूंगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह ! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कारके लिये मन-ही-मन अपने हृदयमें उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उनपर। उन दोनोंके साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंकी भी वन्दना करूँगा ॥ १५ ॥ मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे ? उनके वे करकमल उन लोगोंको सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँपके भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें आ जाते हैं ॥ १६ ॥ इन्द्र तथा दैत्यराज बलिने भगवान्‌ के उन्हीं करकमलोंमें पूजाकी भेंट समर्पित करके तीनों लोकोंका प्रभुत्वइन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान्‌ के उन्हीं करकमलोंने, जिनमेंसे दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्शसे रासलीलाके समय व्रजयुवतियोंकी सारी थकान मिटा दी थी ॥ १७ ॥ मैं कंसका दूत हूँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे ? राम-राम ! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञरूप से स्थित होकर अन्त:करणकी एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं ॥ १८ ॥ तब मेरी शङ्का व्यर्थ है। अवश्य ही मैं उनके चरणोंमें हाथ जोडक़र विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं नि:शङ्क होकर सदाके लिये परमानन्दमें मग्र हो जाऊँगा ॥ १९ ॥ मैं उनके कुटुम्बका हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें वे अपनी लंबी-लंबी बाँहोंसे पकडक़र मुझे अवश्य अपने हृदयसे लगा लेंगे। अहा ! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समयउनका आलिङ्गन प्राप्त होते हीमेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट जायँगे ॥ २० ॥ जब वे मेरा आलिङ्गन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे मुझे चाचा अक्रूर !इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे ! क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यशका विस्तार करनेके लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान्‌ श्रीकृष्णने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दियाउसके उस जन्मको, जीवनको धिक्कार है ॥ २१ ॥ न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूपमें भजते हैंवे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण प्रेम करते हैं ॥ २२ ॥ मैं उनके सामने विनीत भावसे सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदयसे लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकडक़र मुझे घरके भीतर ले जायँगे। वहाँ सब प्रकारसे मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि कंस हमारे घरवालोंके साथ कैसा व्यवहार करता है ?’ ॥ २३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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