बुधवार, 12 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

श्रीशुक उवाच -

स्तुवतस्तस्य भगवान् दर्शयित्वा जले वपुः ।

भूयः समाहरत् कृष्णो नटो नाट्यमिवात्मनः ॥ १ ॥

सोऽपि चान्तर्हितं वीक्ष्य जलाद् उन्मज्ज्य सत्वरः ।

कृत्वा चावश्यकं सर्वं विस्मितो रथमागमत् ॥ २ ॥

तं अपृच्छद् हृषीकेशः किं ते दृष्टमिवाद्‍भुतम् ।

भूमौ वियति तोये वा तथा त्वां लक्षयामहे ॥ ३ ॥

 

श्रीअक्रूर उवाच -

अद्‍भुतानीह यावन्ति भूमौ वियति वा जले ।

त्वयि विश्वात्मके तानि किं मेऽदृष्टं विपश्यतः ॥ ४ ॥

यत्राद्‍भुतानि सर्वाणि भूमौ वियति वा जले ।

तं त्वानुपश्यतो ब्रह्मन् किं मे दृष्टमिहाद्‍भुतम् ॥ ५ ॥

इत्युक्त्वा चोदयामास स्यन्दनं गान्दिनीसुतः ।

मथुरां अनयद् रामं कृष्णं चैव दिनात्यये ॥ ६ ॥

मार्गे ग्रामजना राजन् तत्र तत्रोपसङ्‌गताः ।

वसुदेवसुतौ वीक्ष्य प्रीता दृष्टिं न चाददुः ॥ ७ ॥

तावद् व्रजौकसस्तत्र नन्दगोपादयोऽग्रतः ।

पुरोपवनमासाद्य प्रतीक्षन्तोऽवतस्थिरे ॥ ८ ॥

तान् समेत्याह भगवान् अक्रूरं जगदीश्वरः ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रश्रितं प्रहसन्निव ॥ ९ ॥

भवान् प्रविशतामग्रे सहयानः पुरीं गृहम् ।

वयं त्विहावमुच्याथ ततो द्रक्ष्यामहे पुरीम् ॥ १० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अक्रूरजी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे। उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णने जलमें अपने दिव्यरूपके दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनयमें कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदेकी ओटमें छिपा दे ॥ १ ॥ जब अक्रूरजीने देखा कि भगवान्‌का वह दिव्यरूप अन्तर्धान हो गया, तब वे जलसे बाहर निकल आये और फिर जल्दी-जल्दी सारे आवश्यक कर्म समाप्त करके रथपर चले आये। उस समय वे बहुत ही विस्मित हो रहे थे ॥ २ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनसे पूछा—‘चाचाजी ! आपने पृथ्वी, आकाश या जलमें कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या ? क्योंकि आपकी आकृति देखनेसे ऐसा ही जान पड़ता है॥ ३ ॥

 

अक्रूरजीने कहा—‘प्रभो ! पृथ्वी, आकाश या जलमें और सारे जगत्में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं, वे सब आपमें ही हैं। क्योंकि आप विश्वरूप हैं। जब मैं आपको ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो ॥ ४ ॥ भगवन् ! जितनी भी अद्भुत वस्तुएँ हैं, वे पृथ्वीमें हों या जल अथवा आकाशमेंसब-की-सब जिनमें हैं, उन्हीं आपको मैं देख रहा हूँ ! फिर भला, मैंने यहाँ अद्भुत वस्तु कौन-सी देखी ? ॥ ५ ॥ गान्दिनीनन्दन अक्रूरजीने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीको लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! मार्गमें स्थान-स्थानपर गाँवोंके लोग मिलनेके लिये आते और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीको देखकर आनन्दमग्र हो जाते। वे एकटक उनकी ओर देखने लगते, अपनी दृष्टि हटा न पाते ॥ ७ ॥ नन्दबाबा आदि व्रजवासी तो पहलेसे ही वहाँ पहुँच गये थे, और मथुरापुरीके बाहरी उपवनमें रुककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ॥ ८ ॥ उनके पास पहुँचकर जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने विनीतभावसे खड़े अक्रूरजीका हाथ अपने हाथमें लेकर मुसकराते हुए कहा॥ ९ ॥ चाचाजी ! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरीमें प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये। हमलोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखनेके लिये आयेंगे॥ १० ॥

 

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मंगलवार, 11 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

भगवन् जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया ।

अहं ममेत्यसद्‍ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु ॥ २३ ॥

अहं चात्मात्मजागार दारार्थस्वजनादिषु ।

भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो ॥ २४ ॥

अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहम् ।

द्वन्द्वारामस्तमोविष्टो न जाने त्वात्मनः प्रियम् ॥ २५ ॥

यथाबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्‍भवैः ।

अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्त्वाहं पराङ्‌मुखः ॥ २६ ॥

नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः ।

रोद्धुं प्रमाथिभिश्चाक्षैः ह्रियमाणमितस्ततः ॥ २७ ॥

सोऽहं तवाङ्‌घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं

तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये ।

पुंसो भवेद् यर्हि संसरणापवर्गः

त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात् ॥ २८ ॥

नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे ।

पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ॥ २९ ॥

नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च ।

हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो ॥ ३० ॥

 

भगवन् ! ये सब-के-सब जीव आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं और इस मोहके कारण ही यह मैं हूँ और यह मेरा हैइस झूठे दुराग्रहमें फँसकर कर्मके मार्गोंमें भटक रहे हैं ॥ २३ ॥ मेरे स्वामी ! इसी प्रकार मैं भी स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन- स्वजन आदिको सत्य समझकर उन्हींके मोहमें फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ॥ २४ ॥

 

मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो ! मैंने अनित्य वस्तुओंको नित्य, अनात्माको आत्मा और दु:खको सुख समझ लिया। भला, इस उलटी बुद्धिकी भी कोई सीमा है ! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ॥ २५ ॥ जैसे कोई अनजान मनुष्य जलके लिये तालाबपर जाय और उसे उसीसे पैदा हुए सिवार आदि घासोंसे ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्यकी किरणोंमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले जलके लिये मृगतृष्णाकी ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही मायासे छिपे रहनेके कारण आपको छोडक़र विषयोंमें सुखकी आशासे भटक रहा हूँ ॥ २६ ॥ मैं अविनाशी अक्षर वस्तुके ज्ञानसे रहित हूँ। इसीसे मेरे मनमें अनेक वस्तुओंकी कामना और उनके लिये कर्म करनेके संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मनको मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मनको मैं रोक नहीं पाता ॥ २७ ॥ इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलोंकी छत्रछायामें आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं। मेरे स्वामी ! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ ! जब जीवके संसारसे मुक्त होनेका समय आता है, तब सत्पुरुषोंकी उपासनासे चित्तवृत्ति आपमें लगती है ॥ २८ ॥ प्रभो ! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञानघन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीवके रूपमें एवं जीवोंके सुख-दु:ख आदिके निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी हैं। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ प्रभो ! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवोंके आश्रय (सङ्कर्षण) हैं; तथा आप ही बुद्धि और मनके अधिष्ठातृदेवता हृषीकेश (प्रद्युम्र और अनिरुद्ध) हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ ३० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः ।

तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः ॥ ११ ॥

तुभ्यं नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये

सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे ।

गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृतः

प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु ॥ १२ ॥

अग्निर्मुखं तेऽवनिरङ्‌घ्रिरीक्षणं

सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः ।

द्यौः कं सुरेन्द्रास्तव बाहवोऽर्णवाः

कुक्षिर्मरुत् प्राणबलं प्रकल्पितम् ॥ १३ ॥

रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा ।

मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः ।

निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापतिः

मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते ॥ १४ ॥

त्वय्यव्ययात्मन् पुरुषे प्रकल्पिता

लोकाः सपाला बहुजीवसङ्‌कुलाः ।

यथा जले सञ्जिहते जलौकसो

ऽप्युदुम्बरे वा मशका मनोमये ॥ १५ ॥

यानि यानीह रूपाणि क्रीडनार्थं बिभर्षि हि ।

तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायन्ति ते यशः ॥ १६ ॥

नमः कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च ।

हयशीर्ष्णे नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे ॥ १७ ॥

अकूपाराय बृहते नमो मन्दरधारिणे ।

क्षित्युद्धारविहाराय नमः सूकरमूर्तये ॥ १८ ॥

नमस्तेऽद्‍भुतसिंहाय साधुलोकभयापह ।

वामनाय नमस्तुभ्यं क्रान्तत्रिभुवनाय च ॥ १९ ॥

नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे ।

नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च ॥ २० ॥

नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्‌कर्षणाय च ।

प्रद्युम्नायनिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ २१ ॥

नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।

म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे ॥ २२ ॥

 

प्रभो ! आपकी प्रकृतिके तीन गुण हैंसत्त्व, रज और तम। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रोंसे ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृतिके उन गुणोंसे ही ओतप्रोत हैं ॥ ११ ॥ परंतु आप सर्वस्वरूप होनेपर भी उनके साथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निॢलप्त है, क्योंकि आप समस्त वृत्तियोंके साक्षी हैं। यह गुणोंके प्रवाहसे होनेवाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियोंमें व्याप्त है; परंतु आप उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥ अग्रि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकाश नाभि है, दिशाएँ कान हैं। स्वर्ग सिर है। देवेन्द्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्तिके रूपमें उपासनाके लिये कल्पित हुई है ॥ १३ ॥ वृक्ष और ओषधियाँ रोम हैं। मेघ सिरके केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकोंका खोलना और मीचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है ॥ १४ ॥ अविनाशी भगवन् ! जैसे जलमें बहुत-से जलचर जीव और गूलरके फलोंमें नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासनाके लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूपमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तुओंसे भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप क्रीडा करनेके लिये पृथ्वीपर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगोंके शोक-मोहको धो-बहा देते हैं और फिर सब लोग बड़े आनन्दसे आपके निर्मल यशका गान करते हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आपने वेदों, ऋषियों, ओषधियों और सत्यव्रत आदिकी रक्षा-दीक्षाके लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलयके समुद्रमें स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नामके असुरोंका संहार करनेके लिये हयग्रीव- अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको भी नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचलको धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वीके उद्धारकी लीला करनेके लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरे बार-बार नमस्कार ॥ १८ ॥ प्रह्लाद-जैसे साधुजनोंका भय मिटानेवाले प्रभो ! आपके उस अलौकिक नृसिंह- रूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १९ ॥ धर्मका उल्लङ्घन करनेवाले घमंडी क्षत्रियोंके वनका छेदन कर देनेके लिये आपने भृगुपति परशुरामरूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको नमस्कार करता हूँ। रावणका नाश करनेके लिये आपने रघुवंशमें भगवान्‌ रामके रूपसे अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २० ॥ वैष्णवजनों तथा यदुवंशियोंका पालन- पोषण करनेके लिये आपने ही अपनेको वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्धइस चतुव्र्यूहके रूपमें प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥ दैत्य और दानवोंको मोहित करनेके लिये आप शुद्ध अहिंसामार्गके प्रवर्तक बुद्धका रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वीके क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायँगे, तब उनका नाश करनेके लिये आप ही कल्किके रूपमें अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २२ ॥

 

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सोमवार, 10 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

श्रीअक्रूर उवाच -

नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं

नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययम् ।

यन्नाभिजातादरविन्दकोषाद्

ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः ॥ १ ॥

भूस्तोयमग्निः पवनं खमादिः

महानजादिर्मन इन्द्रियाणि ।

सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे

ये हेतवस्ते जगतोऽङ्‌गभूताः ॥ २ ॥

नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते

ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः ।

अजोऽनुबद्धः स गुणैरजाया

गुणात् परं वेद न ते स्वरूपम् ॥ ३ ॥

त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमीश्वरम् ।

साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः ॥ ४ ॥

त्रय्या च विद्यया केचित् त्वां वै वैतानिका द्विजाः ।

यजन्ते विततैर्यज्ञैः नानारूपामराख्यया ॥ ५ ॥

एके त्वाखिलकर्माणि सन्न्यस्योपशमं गताः ।

ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम् ॥ ६ ॥

अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते ।

यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम् ॥ ७ ॥

त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम् ।

बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते ॥ ८ ॥

सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम् ।

येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥ ९ ॥

यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो ।

विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः ॥ १० ॥

 

अक्रूरजी बोलेप्रभो ! आप प्रकृति आदि समस्त कारणोंके परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमलसे उन ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत् की सृष्टि की है। मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषय और उनके अधिष्ठातृदेवतायही सब चराचर जगत् तथा उसके व्यवहारके कारण हैं और ये सब के-सब आपके ही अङ्गस्वरूप हैं ॥ २ ॥ प्रकृति और प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले समस्त पदार्थ इदंवृत्तिके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होनेके कारण जड़ हैं और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परंतु वे प्रकृतिके गुण रजस्से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृतिका और उसके गुणोंसे परेका स्वरूप नहीं जानते ॥ ३ ॥ साधु योगी स्वयं अपने अन्त:करण में स्थित अन्तर्यामीके रूपमें, समस्त भूत-भौतिक पदार्थोंमें व्याप्त परमात्माकेरूपमें और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डलमें स्थित इष्टदेवताके रूपमें तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वरके रूपमें साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ४ ॥ बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्गका उपदेश करनेवाली त्रयीविद्याके द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ५ ॥ बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मोंका संन्यास कर देते हैं और शान्तभावमें स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञके द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं ॥ ६ ॥ और भी बहुत-से संस्कारसम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पाञ्चरात्र आदि विधियोंसे तन्मय होकर आपके चतुव्र्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूपकी पूजा करते हैं ॥ ७ ॥ भगवन् ! दूसरे लोग शिवजीके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे, जिसके आचार्य-भेदसे अनेक अवान्तर-भेद भी हैं, शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जो लोग दूसरे देवताओंकी भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तवमें आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओंके रूपमें हैं और सर्वेश्वर भी हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! जैसे पर्वतोंसे सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षाके जलसे भरकर घूमती-घामती समुद्रमें प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकारके उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ॥ १० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीशुक उवाच -

एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं

व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः ।

विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं

गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३१ ॥

स्त्रीणामेवं रुदन्तीनां उदिते सवितर्यथ ।

अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम् ॥ ३२ ॥

गोपास्तमन्वसज्जन्त नन्दाद्याः शकटैस्ततः ।

आदायोपायनं भूरि कुम्भान् गोरससम्भृतान् ॥ ३३ ॥

गोप्यश्च दयितं कृष्णं अनुव्रज्यानुरञ्जिताः ।

प्रत्यादेशं भगवतः काङ्‌क्षन्त्यश्चावतस्थिरे ॥ ३४ ॥

तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाणे यदूत्तमः ।

सान्त्वयामस सप्रेमैः आयास्य इति दौत्यकैः ॥ ३५ ॥

यावदालक्ष्यते केतुः यावद्रेणू रथस्य च ।

अनुप्रस्थापितात्मानो लेख्यानीवोपलक्षिताः ॥ ३६ ॥

ता निराशा निववृतुः गोविन्दविनिवर्तने ।

विशोका अहनी निन्युः गायन्त्यः प्रियचेष्टितम् ॥ ३७ ॥

भगवानपि सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप ।

रथेन वायुवेगेन कालिन्दीं अघनाशिनीम् ॥ ३८ ॥

तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम् ।

वृक्षषण्डमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत् ॥ ॥

अक्रूरस्तावुपामन्त्र्य निवेश्य च रथोपरि ।

कालिन्द्या ह्रदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत् ॥ ४० ॥

निमज्ज्य तस्मिन् सलिले जपन् ब्रह्म सनातनम् ।

तावेव ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ ॥ ४१ ॥

तौ रथस्थौ कथमिह सुतौ आनकदुन्दुभेः ।

तर्हि स्वित् स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः ॥ ४२ ॥

तत्रापि च यथापूर्वं आसीनौ पुनरेव सः ।

न्यमज्जद् दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः ॥ ४३ ॥

भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत् स्तूयमानमहीश्वरम् ।

सिद्धचारणगन्धर्वैः असुरैर्नतकन्धरैः ॥ ४४ ॥

सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम् ।

नीलाम्बरं विसश्वेतं शृङ्‌गैः श्वेतमिव स्थितम् ॥ ४५ ॥

तस्योत्सङ्‌गे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।

पुरुषं चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम् ॥ ४६ ॥

चारुप्रसन्नवदनं चारुहासनिरीक्षणम् ।

सुभ्रून्नसं चरुकर्णं सुकपोलारुणाधरम् ॥ ४७ ॥

प्रलम्बपीवरभुजं तुङ्‌गांसोरःस्थलश्रियम् ।

कम्बुकण्ठं निम्ननाभिं वलिमत्पल्लवोदरम् ॥ ४८ ॥

बृहत्कतिततश्रोणि करभोरुद्वयान्वितम् ।

चारुजानुयुगं चारु जङ्‌घायुगलसंयुतम् ॥ ४९ ॥

तुङ्‌गगुल्फारुणनख व्रातदीधितिभिर्वृतम् ।

नवाङ्‌गुल्यङ्‌गुष्ठदलैः विलसत् पादपङ्‌कजम् ॥ ५० ॥

सुमहार्हमणिव्रात किरीटकटकाङ्‌गदैः ।

कटिसूत्रब्रह्मसूत्र हारनूपुरकुण्डलैः ॥ ५१ ॥

भ्राजमानं पद्मकरं शङ्‌खचक्रगदाधरम् ।

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ५२ ॥

सुनन्दनन्दप्रमुखैः पर्षदैः सनकादिभिः ।

सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैः नवभिश्च द्विजोत्तमैः ॥ ५३ ॥

प्रह्रादनारदवसु प्रमुखैर्भागवतोत्तमैः ।

स्तूयमानं पृथग्भावैः वचोभिरमलात्मभिः ॥ ५४ ॥

श्रिया पुष्ट्या गिरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया ।

विद्ययाविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम् ॥ ५५ ॥

विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः ।

हृष्यत्तनूरुहो भाव परिक्लिन्नात्मलोचनः ॥ ५६ ॥

गिरा गद्‍गदयास्तौषीत् सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः ।

प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः ॥ ५७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परंतु उनका एक-एक मनोभाव भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिङ्गन कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोडक़र हे गोविन्द ! हे दामोदर! हे माधव!’—इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं ॥ ३१ ॥ गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं ! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूरजी सन्ध्या- वन्दन आदि नित्य कर्मोंसे निवृत्त होकर रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले ॥ ३२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपोंने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदिसे भरे मटके और भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ोंपर चढक़र उनके पीछे-पीछे चले ॥ ३३ ॥ इसी समय अनुरागके रंगमें रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्णके पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुर्ईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दरसे कुछ सन्देश पानेकी आकाङ्क्षासे वहीं खड़ी हो गयीं ॥ ३४ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मेरे मथुरा जानेसे गोपियोंके हृदयमें बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूतके द्वारा मैं आऊँगायह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया ॥ ३५ ॥ गोपियोंको जबतक रथकी ध्वजा और पहियोंसे उड़ती हुई धूल दीखती रही, तबतक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परंतु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके साथ ही भेज दिया था ॥ ३६ ॥ अभी उनके मनमें आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें ! परंतु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित्‌ ! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दरकी लीलाओंका गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्तापको हलका करतीं ॥ ३७ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे ॥ ३८ ॥ वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकतमणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान्‌ वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये ॥ ३९ ॥ अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड (अनन्त-तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे ॥ ४० ॥ उस कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जलमें डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे। उसी समय जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं ॥ ४१ ॥ अब उनके मनमें यह शङ्का हुई कि वसुदेवजीके पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे आ गये ? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा ॥ ४२ ॥ वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी ॥ ४३ ॥ परंतु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ ४४ ॥ शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है। कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो ॥ ४५ ॥ अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोद में श्याम मेघके समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं ॥४६॥ उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नताका सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है ॥ ४७ ॥ बाँहें घुटनोंतक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊँचे और वक्ष:स्थल लक्ष्मीजीका आश्रयस्थान है। शङ्खके समान उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है ॥ ४८ ॥ स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सूँडके समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं ङ्क्षपडलियाँ हैं। एड़ी के ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं। चरणकमलकी अंगुलियाँ और अँगूठे नयी और कोमल पँखुडिय़ों के समान सुशोभित हैं ॥ ४९-५० ॥ अत्यन्त बहुमूल्य मणियों से जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथमें पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शङ्ख, चक्र, और गदा, वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ॥ ५१-५२ ॥ नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने स्वामी’, सनकादि परमर्षि परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण प्रजापतिऔर प्रह्लाद-नारद आदि भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम भगवान्‌समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष वेदवाणीसे भगवान्‌की स्तुति कर रहे हैं ॥ ५३-५४ ॥ साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्यये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरङ्ग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरङ्गा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं ॥ ५५ ॥

 

भगवान्‌ की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया। प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये ॥ ५६ ॥ अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान्‌ के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोडक़र बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे गद्गद स्वरसे भगवान्‌ की स्तुति करने लगे ॥ ५७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरप्रतियाने एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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