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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कुब्जापर
कृपा,
धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
श्रीशुक
उवाच -
अथ
व्रजन्राजपथेन माधवः
स्त्रियं
गृहीताङ्गविलेपभाजनाम् ।
विलोक्य
कुब्जां युवतीं वराननां
पप्रच्छ
यान्तीं प्रहसन् रसप्रदः ॥ १ ॥
का
त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनं
कस्याङ्गने
वा कथयस्व साधु नः ।
देह्यावयोरङ्गविलेपमुत्तमं
श्रेयः
ततस्ते न चिराद् भविष्यति ॥ २ ॥
सैरन्ध्रि
उवाच -
दास्यस्म्यहं
सुन्दर कंससम्मता
त्रिवक्रनामा
ह्यनुलेपकर्मणि ।
मद्भावितं
भोजपतेरतिप्रियं
विना
युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति ॥ ३ ॥
रूपपेशलमाधुर्य
हसितालापवीक्षितैः ।
धर्षितात्मा
ददौ सान्द्रं उभयोरनुलेपनम् ॥ ४ ॥
ततस्तावङ्गरागेण
स्ववर्णेतरशोभिना ।
सम्प्राप्तपरभागेन
शुशुभातेऽनुरञ्जितौ ॥ ५ ॥
प्रसन्नो
भगवान् कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम् ।
ऋज्वीं
कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन् दर्शने फलम् ॥ ६ ॥
पद्भ्यामाक्रम्य
प्रपदे द्र्यङ्गुल्युत्तान पाणिना ।
प्रगृह्य
चिबुकेऽध्यात्मं उदनीनमदच्युतः ॥ ७ ॥
सा
तदर्जुसमानाङ्गी बृहच्छ्रोणिपयोधरा ।
मुकुन्दस्पर्शनात्
सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा ॥ ८ ॥
ततो
रूपगुणौदार्य संपन्ना प्राह केशवम् ।
उत्तरीयान्
तमकृष्य स्मयन्ती जातहृच्छया ॥ ९ ॥
एहि
वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे ।
त्वयोन्मथितचित्तायाः
प्रसीद पुरुषर्षभ ॥ १० ॥
एवं
स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः ।
मुखं
वीक्ष्यानुगानां च प्रहसन् तामुवाच ह ॥ ११ ॥
एष्यामि
ते गृहं सुभ्रु पुंसामाधिविकर्शनम् ।
साधितार्थोऽगृहाणां
नः पान्थानां त्वं परायणम् ॥ १२ ॥
विसृज्य
माध्व्या वाण्या तां व्रजन् मार्गे वणिक्पथैः ।
नानोपायनताम्बूल
स्रग्गन्धैः साग्रजोऽर्चितः ॥ १३ ॥
तद्दर्शनस्मरक्षोभाद्
आत्मानं नाविदन् स्त्रियः ।
विस्रस्तवासःकबर
वलया लेख्यमूर्तयः ॥ १४ ॥
ततः
पौरान् पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः ।
तस्मिन्
प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रं इवाद्भुतम् ॥ १५ ॥
पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तं
अर्चितं परमर्द्धिमत् ।
वार्यमाणो
नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे ॥ १६ ॥
करेण
वामेन सलीलमुद्धृतं
सज्यं
च कृत्वा निमिषेण पश्यताम् ।
नृणां
विकृष्य प्रबभञ्ज मध्यतो
यथेक्षुदण्डं
मदकर्युरुक्रमः ॥ १७ ॥
धनुषो
भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः ।
पूरयामास
यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत् ॥ १८ ॥
तद्
रक्षिणः सानुचरं कुपिता आततायिनः ।
गृहीतुकामा
आवव्रुः गृह्यतां वध्यतामिति ॥ १९ ॥
अथ
तान् दुरभिप्रायान् विलोक्य बलकेशवौ ।
क्रुद्धौ
धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः ॥ २० ॥
बलं
च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः ।
निष्क्रम्य
चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसम्पदः ॥ २१ ॥
तयोस्तदद्भुतं
वीर्यं निशाम्य पुरवासिनः ।
तेजः
प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ ॥ २२ ॥
तयोर्विचरतोः
स्वैरं आदित्योऽस्तमुपेयिवान् ।
कृष्णरामौ
वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः ॥ २३ ॥
गोप्यो
मुकुन्दविगमे विरहातुरा या
आशासताशिष
ऋता मधुपुर्यभूवन् ।
संपश्यतां
पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं
हित्वेतरान्
नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः ॥ २४ ॥
अवनिक्ताङ्घ्रियुगलौ
भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम् ।
ऊषतुस्तां
सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम् ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डली के साथ
राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा।
उसका मुँह तो सुन्दर था, परंतु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे
उसका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’। वह अपने
हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान
करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए
उससे पूछा— ॥ १ ॥ ‘सुन्दरी ! तुम कौन
हो ? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो ? कल्याणि ! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अङ्गराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा’
॥ २ ॥
उबटन
आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा—‘परम सुन्दर ! मैं
कंसकी प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा)
है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अङ्गराग लगानेका काम करती हूँ।
मेरे द्वारा तैयार किये हुए, चन्दन और अङ्गराग भोजराज कंसको
बहुत भाते हैं। परंतु आप दोनोंसे बढक़र उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है’ ॥ ३ ॥ भगवान्के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप
और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया। उसने भगवान् पर अपना हृदय न्योछावर
कर दिया। उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अङ्गराग दे दिया ॥ ४ ॥ तब भगवान्
श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल
रंगका अङ्गराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरञ्जित होकर वे अत्यन्त सुशोभित
हुए ॥ ५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शनका
प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी
करनेका विचार किया ॥ ६ ॥ भगवान्ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा
लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगुलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक
उचका दिया ॥ ७ ॥ उचकाते ही उसके सारे अङ्ग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्तिके
दाता भगवान्के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम
युवती बन गयी ॥ ८ ॥ उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे
सम्पन्न हो गयी। उसके मनमें भगवान्के मिलनकी कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टेका
छोर पकडक़र मुसकराते हुए कहा— ॥ ९ ॥ ‘वीरशिरोमणे
! आइये, घर चलें । अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि
आपने मेरे चित्त को मथ डाला है। पुरुषोत्तम ! मुझ दासी पर प्रसन्न होइये’ ॥ १० ॥ जब बलरामजी के सामने ही कुब्जा ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए
उससे कहा— ॥ ११ ॥ ‘सुन्दरी ! तुम्हारा
घर संसारी लोगोंके लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है। मैं अपना कार्य पूरा
करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघरके बटोहियोंको तुम्हारा ही तो आसरा है’
॥ १२ ॥ इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान् श्रीकृष्णने उसे
विदा कर दिया। जब वे व्यापारियोंके बाजारमें पहुँचे, तब उन
व्यापारियोंने उनका तथा बलरामजीका पान, फूलोंके हार, चन्दन और तरह-तरहकी भेंट—उपहारोंसे पूजन किया ॥ १३ ॥
उनके दर्शनमात्रसे स्त्रियोंके हृदयमें प्रेमका आवेग, मिलनकी
आकाङ्क्षा जग उठती थी। यहाँतक कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रहती। उनके वस्त्र,
जूड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियोंके समान
ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं ॥ १४ ॥
इसके
बाद भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुषयज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे
और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा ॥ १५ ॥ उस धनुषमें
बहुत-सा धन लगाया गया था,
अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी
थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर
भी उस धनुषको बलात् उठा लिया ॥ १६ ॥ उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें
हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर
बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत
बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है ॥ १७ ॥ जब धनुष टूटा तब उसके
शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया ॥ १८ ॥ अब धनुषके रक्षक आततायी असुर अपने
सहायकोंके साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान् श्रीकृष्णको घेरकर खड़े हो गये और
उन्हें पकड़ लेनेकी इच्छासे चिल्लाने लगे—‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे’ ॥ १९ ॥
उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस
धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया ॥ २० ॥ उन्हीं
धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार
कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशालाके प्रधान द्वारसे होकर बाहर निकल आये और बड़े
आनन्दसे मथुरापुरीकी शोभा देखते हुए विचरने लगे ॥ २१ ॥ जब नगरनिवासियोंने दोनों
भाइयोंके इस अद्भुत पराक्रमकी बात सुनी और उनके तेज, साहस
तथा अनुपम रूपको देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई
श्रेष्ठ देवता हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी
स्वतन्त्रतासे मथुरापुरीमें विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई
ग्वालबालोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े
थे, लौट आये ॥ २३ ॥ तीनों लोकोंके बड़े-बड़े देवता चाहते थे
कि लक्ष्मी हमें मिलें, परंतु उन्होंने सबका परित्याग कर
दिया और न चाहनेवाले भगवान्का वरण किया। उन्हींको सदाके लिये अपना निवासस्थान बना
लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णके अङ्ग-अङ्गका सौन्दर्य देख
रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य है ! व्रजमें भगवान्की यात्राके समय गोपियोंने
विरहातुर होकर मथुरावासियोंके सम्बन्धमें जो-जो बातें कही थीं, वे सब यहाँ अक्षरश: सत्य हुर्ईं। सचमुच वे परमानन्दमें मग्न हो गये ॥ २४ ॥
फिर हाथ-पैर धोकर श्रीकृष्ण और बलरामजीने दूधमें बने हुए खीर आदि पदार्थोंका भोजन
किया और कंस आगे क्या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस
रातको वहीं आरामसे सो गये ॥ २५ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से