शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट

 

श्रीशुक उवाच -

अथ व्रजन्राजपथेन माधवः

स्त्रियं गृहीताङ्‌गविलेपभाजनाम् ।

विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां

पप्रच्छ यान्तीं प्रहसन् रसप्रदः ॥ १ ॥

का त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनं

कस्याङ्‌गने वा कथयस्व साधु नः ।

देह्यावयोरङ्‌गविलेपमुत्तमं

श्रेयः ततस्ते न चिराद् भविष्यति ॥ २ ॥

 

सैरन्ध्रि उवाच -

दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससम्मता

त्रिवक्रनामा ह्यनुलेपकर्मणि ।

मद्‍भावितं भोजपतेरतिप्रियं

विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति ॥ ३ ॥

रूपपेशलमाधुर्य हसितालापवीक्षितैः ।

धर्षितात्मा ददौ सान्द्रं उभयोरनुलेपनम् ॥ ४ ॥

ततस्तावङ्‌गरागेण स्ववर्णेतरशोभिना ।

सम्प्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरञ्जितौ ॥ ५ ॥

प्रसन्नो भगवान् कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम् ।

ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन् दर्शने फलम् ॥ ६ ॥

पद्‍भ्यामाक्रम्य प्रपदे द्र्यङ्‌गुल्युत्तान पाणिना ।

प्रगृह्य चिबुकेऽध्यात्मं उदनीनमदच्युतः ॥ ७ ॥

सा तदर्जुसमानाङ्‌गी बृहच्छ्रोणिपयोधरा ।

मुकुन्दस्पर्शनात् सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा ॥ ८ ॥

ततो रूपगुणौदार्य संपन्ना प्राह केशवम् ।

उत्तरीयान् तमकृष्य स्मयन्ती जातहृच्छया ॥ ९ ॥

एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे ।

त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ ॥ १० ॥

एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः ।

मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसन् तामुवाच ह ॥ ११ ॥

एष्यामि ते गृहं सुभ्रु पुंसामाधिविकर्शनम् ।

साधितार्थोऽगृहाणां नः पान्थानां त्वं परायणम् ॥ १२ ॥

विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन् मार्गे वणिक्पथैः ।

नानोपायनताम्बूल स्रग्गन्धैः साग्रजोऽर्चितः ॥ १३ ॥

तद्दर्शनस्मरक्षोभाद् आत्मानं नाविदन् स्त्रियः ।

विस्रस्तवासःकबर वलया लेख्यमूर्तयः ॥ १४ ॥

ततः पौरान् पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः ।

तस्मिन् प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रं इवाद्‍भुतम् ॥ १५ ॥

पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तं अर्चितं परमर्द्धिमत् ।

वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे ॥ १६ ॥

करेण वामेन सलीलमुद्‌धृतं

सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम् ।

नृणां विकृष्य प्रबभञ्ज मध्यतो

यथेक्षुदण्डं मदकर्युरुक्रमः ॥ १७ ॥

धनुषो भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः ।

पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत् ॥ १८ ॥

तद् रक्षिणः सानुचरं कुपिता आततायिनः ।

गृहीतुकामा आवव्रुः गृह्यतां वध्यतामिति ॥ १९ ॥

अथ तान् दुरभिप्रायान् विलोक्य बलकेशवौ ।

क्रुद्धौ धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः ॥ २० ॥

बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः ।

निष्क्रम्य चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसम्पदः ॥ २१ ॥

तयोस्तदद्‍भुतं वीर्यं निशाम्य पुरवासिनः ।

तेजः प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ ॥ २२ ॥

तयोर्विचरतोः स्वैरं आदित्योऽस्तमुपेयिवान् ।

कृष्णरामौ वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः ॥ २३ ॥

गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या

आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन् ।

संपश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं

हित्वेतरान् नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः ॥ २४ ॥

अवनिक्ताङ्‌घ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम् ।

ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम् ॥ २५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डली के साथ राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परंतु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे उसका नाम पड़ गया था कुब्जा। वह अपने हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए उससे पूछा॥ १ ॥ सुन्दरी ! तुम कौन हो ? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो ? कल्याणि ! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अङ्गराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा॥ २ ॥

उबटन आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा—‘परम सुन्दर ! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अङ्गराग लगानेका काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए, चन्दन और अङ्गराग भोजराज कंसको बहुत भाते हैं। परंतु आप दोनोंसे बढक़र उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है॥ ३ ॥ भगवान्‌के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया। उसने भगवान्‌ पर अपना हृदय न्योछावर कर दिया। उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अङ्गराग दे दिया ॥ ४ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका अङ्गराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरञ्जित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए ॥ ५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शनका प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी करनेका विचार किया ॥ ६ ॥ भगवान्‌ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगुलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक उचका दिया ॥ ७ ॥ उचकाते ही उसके सारे अङ्ग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्तिके दाता भगवान्‌के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम युवती बन गयी ॥ ८ ॥ उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे सम्पन्न हो गयी। उसके मनमें भगवान्‌के मिलनकी कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टेका छोर पकडक़र मुसकराते हुए कहा॥ ९ ॥ वीरशिरोमणे ! आइये, घर चलें । अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्त को मथ डाला है। पुरुषोत्तम ! मुझ दासी पर प्रसन्न होइये॥ १० ॥ जब बलरामजी के सामने ही कुब्जा ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा॥ ११ ॥ सुन्दरी ! तुम्हारा घर संसारी लोगोंके लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है। मैं अपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघरके बटोहियोंको तुम्हारा ही तो आसरा है॥ १२ ॥ इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियोंके बाजारमें पहुँचे, तब उन व्यापारियोंने उनका तथा बलरामजीका पान, फूलोंके हार, चन्दन और तरह-तरहकी भेंटउपहारोंसे पूजन किया ॥ १३ ॥ उनके दर्शनमात्रसे स्त्रियोंके हृदयमें प्रेमका आवेग, मिलनकी आकाङ्क्षा जग उठती थी। यहाँतक कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रहती। उनके वस्त्र, जूड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियोंके समान ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं ॥ १४ ॥

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुषयज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा ॥ १५ ॥ उस धनुषमें बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लिया ॥ १६ ॥ उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है ॥ १७ ॥ जब धनुष टूटा तब उसके शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया ॥ १८ ॥ अब धनुषके रक्षक आततायी असुर अपने सहायकोंके साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान्‌ श्रीकृष्णको घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेनेकी इच्छासे चिल्लाने लगे—‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे॥ १९ ॥ उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया ॥ २० ॥ उन्हीं धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशालाके प्रधान द्वारसे होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्दसे मथुरापुरीकी शोभा देखते हुए विचरने लगे ॥ २१ ॥ जब नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंके इस अद्भुत पराक्रमकी बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूपको देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी स्वतन्त्रतासे मथुरापुरीमें विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये ॥ २३ ॥ तीनों लोकोंके बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परंतु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहनेवाले भगवान्‌का वरण किया। उन्हींको सदाके लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान्‌ श्रीकृष्णके अङ्ग-अङ्गका सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य है ! व्रजमें भगवान्‌की यात्राके समय गोपियोंने विरहातुर होकर मथुरावासियोंके सम्बन्धमें जो-जो बातें कही थीं, वे सब यहाँ अक्षरश: सत्य हुर्ईं। सचमुच वे परमानन्दमें मग्न हो गये ॥ २४ ॥ फिर हाथ-पैर धोकर श्रीकृष्ण और बलरामजीने दूधमें बने हुए खीर आदि पदार्थोंका भोजन किया और कंस आगे क्या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस रातको वहीं आरामसे सो गये ॥ २५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




गुरुवार, 13 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

ततः सुदाम्नो भवनं मालाकारस्य जग्मतुः ।

तौ दृष्ट्वा स समुत्थाय ननाम शिरसा भुवि ॥ ४३ ॥

तयोरासनमानीय पाद्यं चार्घ्यार्हणादिभिः ।

पूजां सानुगयोश्चक्रे स्रक्‌ताम्बूलानुलेपनैः ॥ ४४ ॥

प्राह नः सार्थकं जन्म पावितं च कुलं प्रभो ।

पितृदेवर्षयो मह्यं तुष्टा ह्यागमनेन वाम् ॥ ४५ ॥

भवन्तौ किल विश्वस्य जगतः कारणं परम् ।

अवतीर्णाविहांशेन क्षेमाय च भवाय च ॥ ४६ ॥

न हि वां विषमा दृष्टिः सुहृदोर्जगदात्मनोः ।

समयोः सर्वभूतेषु भजन्तं भजतोरपि ॥ ४७ ॥

तावज्ञापयतं भृत्यं किमहं करवाणि वाम् ।

पुंसोऽत्यनुग्रहो ह्येष भवद्‌भिः यन्नियुज्यते ॥ ४८ ॥

इत्यभिप्रेत्य राजेन्द्र सुदामा प्रीतमानसः ।

शस्तैः सुगन्धैः कुसुमैं माला विरचिता ददौ ॥ ४९ ॥

ताभिः स्वलङ्‌कृतौ प्रीतौ कृष्णरामौ सहानुगौ ।

प्रणताय प्रपन्नाय ददतुर्वरदौ वरान् ॥ ५० ॥

सोऽपि वव्रेऽचलां भक्तिं तस्मिन् एवाखिलात्मनि ।

तद्‍भक्तेषु च सौहार्दं भूतेषु च दयां पराम् ॥ ५१ ॥

इति तस्मै वरं दत्त्वा श्रियं चान्वयवर्धिनीम् ।

बलमायुर्यशः कान्तिं निर्जगाम सहाग्रजः ॥ ५२ ॥

 

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण सुदामा मालीके घर गये। दोनों भाइयोंको देखते ही सुदामा उठ खड़ा हुआ और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४३ ॥ फिर उनको आसनपर बैठाकर उनके पाँव पखारे, हाथ धुलाए और तदनन्तर ग्वालबालोंके सहित सबकी फूलोंके हार, पान, चन्दन आदि सामग्रियों से विधिपूर्वक पूजा की ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात् उसने प्रार्थना की—‘प्रभो ! आप दोनोंके शुभागमनसे हमारा जन्म सफल हो गया। हमारा कुल पवित्र हो गया। आज हम पितर, ऋषि और देवताओंके ऋणसे मुक्त हो गये। वे हमपर परम सन्तुष्ट हैं ॥ ४५ ॥ आप दोनों सम्पूर्ण जगत्के परम कारण हैं। आप संसारके अभ्युदय-उन्नति और नि:श्रेयसमोक्षके लिये ही इस पृथ्वीपर अपने ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ यद्यपि आप प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं, भजन करनेवालोंको ही भजते हैंफिर भी आपकी दृष्टिमें विषमता नहीं है। क्योंकि आप सारे जगत्के परम सुहृद् और आत्मा हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें समरूपसे स्थित हैं ॥ ४७ ॥ मैं आपका दास हूँ। आप दोनों मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपलोगोंकी क्या सेवा करूँ। भगवन् ! जीवपर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपा-प्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्यमें नियुक्त करते हैं ॥ ४८ ॥ राजेन्द्र ! सुदामा मालीने इस प्रकार प्रार्थना करनेके बाद भगवान्‌का अभिप्राय जानकर बड़े प्रेम और आनन्दसे भरकर अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पोंसे गुँथे हुए हार उन्हें पहनाये ॥ ४९ ॥ जब ग्वालबाल और बलरामजीके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन सुन्दर-सुन्दर मालाओंसे अलंकृत हो चुके, तब उन वरदायक प्रभुने प्रसन्न होकर विनीत और शरणागत सुदामाको श्रेष्ठ वर दिये ॥ ५० ॥ सुदामा मालीने उनसे यह वर माँगा कि प्रभो ! आप ही समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। सर्वस्वरूप आपके चरणोंमें मेरी अविचल भक्ति हो। आपके भक्तोंसे मेरा सौहार्द, मैत्रीका सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियोंके प्रति अहैतुक दयाका भाव बना रहे॥ ५१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने सुदामाको उसके माँगे हुए वर तो दिये हीऐसी लक्ष्मी भी दी, जो वंशपरम्पराके साथ-साथ बढ़ती जाय; और साथ ही बल, आयु, कीर्ति तथा कान्तिका भी वरदान दिया। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ वहाँसे विदा हुए ॥ ५२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पुरप्रवेशो नाम एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

तां सम्प्रविष्टौ वसुदेवनन्दनौ

वृतौ वयस्यैर्नरदेववर्त्मना ।

द्रष्टुं समीयुस्त्वरिताः पुरस्त्रियो

हर्म्याणि चैवारुरुहुर्नृपोत्सुकाः ॥ २४ ॥

काश्चिग् विपर्यग्धृतवस्त्रभूषणा

विस्मृत्य चैकं युगलेष्वथापराः ।

कृतैकपत्रश्रवणैकनूपुरा

नाङ्‌क्त्वा द्वितीयं त्वपराश्च लोचनम् ॥ २५ ॥

अश्नन्त्य एकास्तदपास्य सोत्सवा

अभ्यज्यमाना अकृतोपमज्जनाः ।

स्वपन्त्य उत्थाय निशम्य निःस्वनं

प्रपाययन्त्योऽर्भमपोह्य मातरः ॥ २६ ॥

मनांसि तासामरविन्दलोचनः

प्रगल्भलीलाहसितावलोकनैः ।

जहार मत्तद्विरदेन्द्रविक्रमो

दृशां ददच्छ्रीरमणात्मनोत्सवम् ॥ २७ ॥

दृष्ट्वा मुहुः श्रुतमनुद्रुतचेतसस्तं ।

तत्प्रेक्षणोत्स्मितसुधोक्षणलब्धमानाः ।

आनन्दमूर्तिमुपगुह्य दृशात्मलब्धं ।

हृष्यत्त्वचो जहुरनन्तमरिन्दमाधिम् ॥ २८ ॥

प्रासादशिखरारूढाः प्रीत्युत्फुल्लमुखाम्बुजाः ।

अभ्यवर्षन् सौमनस्यैः प्रमदा बलकेशवौ ॥ २९ ॥

दध्यक्षतैः सोदपात्रैः स्रग्गन्धैरभ्युपायनैः ।

तावानर्चुः प्रमुदिताः तत्र तत्र द्विजातयः ॥ ३० ॥

ऊचुः पौरा अहो गोप्यः तपः किमचरन् महत् ।

या ह्येतावनुपश्यन्ति नरलोकमहोत्सवौ ॥ ३१ ॥

रजकं कञ्चिदायान्तं रङ्‌गकारं गदाग्रजः ।

दृष्ट्वायाचत वासांसि धौतान्यत्युत्तमानि च ॥ ३२ ॥

देह्यावयोः समुचितानि अङ्‌ग वासांसि चार्हतोः ।

भविष्यति परं श्रेयो दातुस्ते नात्र संशयः ॥ ३३ ॥

स याचितो भगवता परिपूर्णेन सर्वतः ।

साक्षेपं रुषितः प्राह भृत्यो राज्ञः सुदुर्मदः ॥ ३४ ॥

ईदृशान्येव वासांसी नित्यं गिरिवनेचराः ।

परिधत्त किमुद्‌वृत्ता राजद्रव्याण्यभीप्सथ ॥ ३५ ॥

याताशु बालिशा मैवं प्रार्थ्यं यदि जिजीवीषा ।

बध्नन्ति घ्नन्ति लुम्पन्ति दृप्तं राजकुलानि वै ॥ ३६ ॥

एवं विकत्थमानस्य कुपितो देवकीसुतः ।

रजकस्य कराग्रेण शिरः कायादपातयत् ॥ ३७ ॥

तस्यानुजीविनः सर्वे वासःकोशान् विसृज्य वै ।

दुद्रुवुः सर्वतो मार्गं वासांसि जगृहेऽच्युतः ॥ ३८ ॥

वसित्वाऽऽत्मप्रिये वस्त्रे कृष्णः सङ्‌कर्षणस्तथा ।

शेषाण्यादत्त गोपेभ्यो विसृज्य भुवि कानिचित् ॥ ३९ ॥

ततस्तु वायकः प्रीतः तयोर्वेषमकल्पयत् ।

विचित्रवर्णैश्चैलेयैः आकल्पैरनुरूपतः ॥ ४० ॥

नानालक्षणवेषाभ्यां कृष्णरामौ विरेजतुः ।

स्वलङ्‌कृतौ बालगजौ पर्वणीव सितेतरौ ॥ ॥

तस्य प्रसन्नो भगवान् प्रादात् सारूप्यमात्मनः ।

श्रियं च परमां लोके बलैश्वर्यस्मृतीन्द्रियम् ॥ ४२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने ग्वालबालोंके साथ राजपथसे मथुरा नगरीमें प्रवेश किया। उस समय नगरकी नारियाँ बड़ी उत्सुकतासे उन्हें देखनेके लिये झटपट अटारियोंपर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥ किसी-किसीने जल्दीके कारण अपने वस्त्र और गहने उलटे पहन लिये। किसीने भूलसे कुण्डल, कंगन आदि जोड़ेसे पहने जानेवाले आभूषणोंमेंसे एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कानमें पत्र नामक आभूषण धारण कर पायी थी, तो किसीने एक ही पाँवमें पायजेब पहन रखा था। कोई एक ही आँखमें अंजन आँज पायी थी और दूसरीमें बिना आँजे ही चल पड़ी ॥ २५ ॥ कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथका कौर फेंककर चल पड़ीं। सबका मन उत्साह और आनन्दसे भर रहा था। कोई-कोई उबटन लगवा रही थीं, वे बिना स्नान किये ही दौड़ पड़ीं। जो सो रही थीं, वे कोलाहल सुनकर उठ खड़ी हुर्ईं और उसी अवस्थामें दौड़ चलीं। जो माताएँ बच्चोंको दूध पिला रही थीं, वे उन्हें गोदसे हटाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखनेके लिये चल पड़ीं ॥ २६ ॥ कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण मतवाले गजराजके समान बड़ी मस्तीसे चल रहे थे। उन्होंने लक्ष्मीको भी आनन्दित करनेवाले अपने श्यामसुन्दर विग्रहसे नगरनारियोंके नेत्रोंको बड़ा आनन्द दिया और अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हँसी तथा प्रेमभरी चितवनसे उनके मन चुरा लिये ॥ २७ ॥ मथुराकी स्त्रियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त चिरकालसे श्रीकृष्णके लिये चञ्चल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुसकानकी सुधासे सींचकर उनका सम्मान किया। परीक्षित्‌ ! उन स्त्रियोंने नेत्रोंके द्वारा भगवान्‌को अपने हृदयमें ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूपका आलिङ्गन किया। उनका शरीर पुलकित हो गया और बहुत दिनोंकी विरह- व्याधि शान्त हो गयी ॥ २८ ॥ मथुराकी नारियाँ अपने-अपने महलोंकी अटारियोंपर चढक़र बलराम और श्रीकृष्णपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं। उस समय उन स्त्रियोंके मुखकमल प्रेमके आवेगसे खिल रहे थे ॥ २९ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंने स्थान-स्थानपर दही, अक्षत, जलसे भरे पात्र, फूलोंके हार, चन्दन और भेंटकी सामग्रियोंसे आनन्दमग्र होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीकी पूजा की ॥ ३० ॥ भगवान्‌को देखकर सभी पुरवासी आपसमें कहने लगे—‘धन्य है ! धन्य है !गोपियोंने ऐसी कौन-सी महान् तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्रको परमानन्द देनेवाले इन दोनों मनोहर किशोरोंको देखती रहती हैं ॥ ३१ ॥

 

इसी समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि एक धोबी, जो कपड़े रँगनेका भी काम करता था, उनकी ओर आ रहा है। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उससे धुले हुए उत्तम-उत्तम कपड़े माँगे ॥ ३२ ॥ भगवान्‌ ने कहा—‘भाई ! तुम हमें ऐसे वस्त्र दो, जो हमारे शरीरमें पूरे-पूरे आ जायँ। वास्तवमें हमलोग उन वस्त्रोंके अधिकारी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम हमलोगोंको वस्त्र दोगे, तो तुम्हारा परम कल्याण होगा॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सर्वत्र परिपूर्ण हैं। सब कुछ उन्हींका है। फिर भी उन्होंने इस प्रकार माँगनेकी लीला की। परंतु वह मूर्ख राजा कंसका सेवक होनेके कारण मतवाला हो रहा था। भगवान्‌ की वस्तु भगवान्‌को देना तो दूर रहा, उसने क्रोधमें भरकर आक्षेप करते हुए कहा॥ ३४ ॥ तुमलोग रहते हो सदा पहाड़ और जंगलोंमें। क्या वहाँ ऐसे ही वस्त्र पहनते हो ? तुमलोग बहुत उद्दण्ड हो गये हो, तभी तो ऐसी बढ़-बढक़र बातें करते हो। अब तुम्हें राजाका धन लूटनेकी इच्छा हुई है ॥ ३५ ॥ अरे मूर्खो ! जाओ, भाग जाओ। यदि कुछ दिन जीनेकी इच्छा हो तो फिर इस तरह मत माँगना। राजकर्मचारी तुम्हारे-जैसे उच्छृङ्खलोंको कैद कर लेते हैं, मार डालते हैं और जो कुछ उनके पास होता है, छीन लेते हैं॥ ३६ ॥ जब वह धोबी इस प्रकार बहुत कुछ बहक-बहककर बातें करने लगा, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने तनिक कुपित होकर उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धड़ामसे धड़से नीचे जा गिरा ॥ ३७ ॥ यह देखकर उस धोबीके अधीन काम करनेवाले सब-के-सब कपड़ोंके ग_र वहीं छोडक़र इधर-उधर भाग गये। भगवान्‌ ने उन वस्त्रोंको ले लिया ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने मनमाने वस्त्र पहन लिये तथा बचे हुए वस्त्रोंमेंसे बहुत-से अपने साथी ग्वालबालोंको भी दिये। बहुत-से कपड़े तो वहीं जमीनपर ही छोडक़र चल दिये ॥ ३९ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम जब कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें एक दर्जी मिला। भगवान्‌का अनुपम सौन्दर्य देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उन रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्रोंको उनके शरीरपर ऐसे ढंगसे सजा दिया कि वे सब ठीक-ठीक फब गये ॥ ४० ॥ अनेक प्रकारके वस्त्रोंसे विभूषित होकर दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान पड़ते, मानो उत्सवके समय श्वेत और श्याम गजशावक भलीभाँति सजा दिये गये हों ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस दर्जीपर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे इस लोकमें भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और दूरतक देखने-सुनने आदि- की इन्द्रियसम्बन्धी शक्तियाँ दीं और मृत्युके बादके लिये अपना सारूप्य मोक्ष भी दे दिया ॥ ४२ ॥

 

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बुधवार, 12 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्णका मथुराजी में प्रवेश

 

श्रीअक्रूर उवाच -

नाहं भवद्‍भ्यां रहितः प्रवेक्ष्ये मथुरां प्रभो ।

त्यक्तुं नार्हसि मां नाथ भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ ११ ॥

आगच्छ याम गेहान् नः सनाथान् कुर्वधोक्षज ।

सहाग्रजः सगोपालैः सुहृद्‌भिश्च सुहृत्तम ॥ १२ ॥

पुनीहि पादरजसा गृहान्नो गृहमेधिनाम् ।

यच्छौचेनानुतृप्यन्ति पितरः साग्नयः सुराः ॥ १३ ॥

अवनिज्याङ्‌घ्रियुगलं आसीत् श्लोक्यो बलिर्महान् ।

ऐश्वर्यं अतुलं लेभे गतिं चैकान्तिनां तु या ॥ १४ ॥

आपस्तेऽङ्‌घ्र्यवनेजन्यः त्रींल्लोकान् शुचयोऽपुनन् ।

शिरसाधत्त याः शर्वः स्वर्याताः सगरात्मजाः ॥ १५ ॥

देवदेव जगन्नाथ पुण्यश्रवणकीर्तन ।

यदूत्तमोत्तमःश्लोक नारायण नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥

 

श्रीभगवानुवाच ।

आयास्ये भवतो गेहं अहमार्यसमन्वितः ।

यदुचक्रद्रुहं हत्वा वितरिष्ये सुहृत्प्रियम् ॥ १७ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवमुक्तो भगवता सोऽक्रूरो विमना इव ।

पुरीं प्रविष्टः कंसाय कर्मावेद्य गृहं ययौ ॥ १८ ॥

अथापराह्ने भगवान् कृष्णः सङ्‌कर्षणान्वितः ।

मथुरां प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥

ददर्श तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर

द्वारां बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।

ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदां

उद्यान रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥

सौवर्णशृङ्‌गाटकहर्म्यनिष्कुटैः

श्रेणीसभाभिः भवनैरुपस्कृताम् ।

वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः

मुक्ताहरिद्‌भिर्वलभीषु वेदिषु ॥ २१ ॥

जुष्टेषु जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु

आविष्टपारावतबर्हिनादिताम् ।

संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां

प्रकीर्णमाल्याङ्‌कुरलाजतण्डुलाम् ॥ २२ ॥

आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः

प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः ।

सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिः

स्वलङ्‌कृतत् द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥

 

अक्रूरजीने कहाप्रभो ! आप दोनोंके बिना मैं मथुरामें नहीं जा सकता। स्वामी ! मैं आपका भक्त हूँ ! भक्तवत्सल प्रभो ! आप मुझे मत छोडिय़े ॥ ११ ॥ भगवन् ! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद् भगवन् ! आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्दरायजी आदि आत्मीयोंके साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये ॥ १२ ॥ हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणोंकी धूलिसे हमारा घर पवित्र कीजिये। आपके चरणोंकी धोवन (गङ्गाजल या चरणामृत) से अग्रि, देवता, पितरसब-के-सब तृप्त हो जाते हैं ॥ १३ ॥ प्रभो ! आपके युगल चरणोंको पखारकर महात्मा बलिने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान संत पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहींउन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी भक्तोंको प्राप्त होती है ॥ १४ ॥ आपके चरणोदकगङ्गाजीने तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान् पवित्रता हैं। उन्हींके स्पर्शसे सगरके पुत्रोंको सद्गति प्राप्त हुई और उसी जलको स्वयं भगवान्‌ शङ्करने अपने सिरपर धारण किया ॥ १५ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! आप देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। जगत्के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओंका श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मङ्गलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणोंका कीर्तन करते रहते हैं। नारायण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहाचाचाजी ! मैं दाऊ भैयाके साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियोंके द्रोही कंसको मारकर तब अपने सभी सुहृद्-स्वजनोंका प्रिय करूँगा ॥ १७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के इस प्रकार कहनेपर अक्रूरजी कुछ अनमने-से हो गये। उन्होंने पुरीमें प्रवेश करके कंससे श्रीकृष्ण और बलरामके ले आनेका समाचार निवेदन किया और फिर अपने घर गये ॥ १८ ॥ दूसरे दिन तीसरे पहर बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने मथुरापुरीको देखनेके लिये नगरमें प्रवेश किया ॥ १९ ॥ भगवान्‌ने देखा कि नगरके परकोटेमें स्फटिकमणि (बिल्लौर) के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर (प्रधान दरवाजे) तथा घरोंमें भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं। उनमें सोनेके बड़े-बड़े ङ्क्षकवाड़ लगे हैं और सोनेके ही तोरण (बाहरी दरवाजे) बने हुए हैं। नगरके चारों ओर ताँबे और पीतलकी चहारदीवारी बनी हुई है। खार्ईंके कारण और कहींसे उस नगरमें प्रवेश करना बहुत कठिन है। स्थान-स्थानपर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन (केवल स्त्रियोंके उपयोगमें आनेवाले बगीचे) शोभायमान हैं ॥ २० ॥ सुवर्णसे सजे हुए चौराहे, धनियोंके महल, उन्हींके साथके बगीचे, कारीगरोंके बैठनेके स्थान या प्रजावर्गके सभा-भवन (टाउनहाल) और साधारण लोगोंके निवासगृह नगरकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वैदूर्य, हीरे, स्फटिक (बिल्लौर), नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदिसे जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं। उनपर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँतिकी बोली बोल रहे हैं। सडक़, बाजार, गली एवं चौराहोंपर खूब छिडक़ाव किया गया है। स्थान-स्थानपर फूलोंके गजरे, जवारे (जौके अङ्कुर), खील और चावल बिखरे हुए हैं ॥ २१-२२ ॥ घरोंके दरवाजोंपर दही और चन्दन आदिसे चॢचत जलसे भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारीके वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रोंसे भलीभाँति सजाए हुए हैं ॥ २३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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