॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अक्रूरजीका
हस्तिनापुर जाना
श्रीशुक
उवाच -
इत्यनुस्मृत्य
स्वजनं कृष्णं च जगदीश्वरम् ।
प्रारुदद्
दुखिता राजन् भवतां प्रपितामही ॥ १४ ॥
समदुःखसुखोऽक्रूरो
विदुरश्च महायशाः ।
सान्त्वयामासतुः
कुन्तीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभिः ॥ १५ ॥
यास्यन्
राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम् ।
अवदत्सुहृदां
मध्ये बन्धुभिः सौहृदोदितम् ॥ १६ ॥
अक्रूर
उवाच -
भो
भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन ।
भ्रातर्युपरते
पाण्डौ अधुनाऽऽसनमास्थितः ॥ १७ ॥
धर्मेण
पालयन् उर्वीं प्रजाः शीलेन रञ्जयन् ।
वर्तमानः
समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि ॥ १८ ॥
अन्यथा
त्वाचरँल्लोके गर्हितो यास्यसे तमः ।
तस्मात्समत्वे
वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषु च ॥ १९ ॥
नेह
चात्यन्तसंवासः कस्यचित् केनचित् सह ।
राजन्
स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः ॥ २० ॥
एकः
प्रसूयते जन्तुः एक एव प्रलीयते ।
एकोऽनुभुङ्क्ते
सुकृतं एक एव च दुष्कृतम् ॥ २१ ॥
अधर्मोपचितं
वित्तं हरन्त्यन्येऽल्पमेधसः ।
सम्भोजनीयापदेशैः
जलानीव जलौकसः ॥ २२ ॥
पुष्णाति
यानधर्मेण स्वबुद्ध्या तमपण्डितम् ।
तेऽकृतार्थं
प्रहिण्वन्ति प्राणा रायः सुतादयः ॥ २३ ॥
स्वयं
किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः ।
असिद्धार्थो
विशत्यन्धं स्वधर्मविमुखस्तमः ॥ २४ ॥
तस्माल्लोकमिमं
राजन् स्वप्नमायामनोरथम् ।
वीक्ष्यायम्यात्मनात्मानं
समः शान्तो भव प्रभो ॥ २५ ॥
धृतराष्ट्र
उवाच -
यथा
वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान् ।
तथानया
न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम् ॥ २६ ॥
तथापि
सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले ।
पुत्रानुरागविषमे
विद्युत् सौदामनी यथा ॥ २७ ॥
ईश्वरस्य
विधिं को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान् ।
भूमेर्भारावताराय
योऽवतीर्णो यदोः कुले ॥ २८ ॥
यो
दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं
सृष्ट्वा
गुणान् विभजते तदनुप्रविष्टः ।
तस्मै
नमो दुरवबोधविहारतन्त्र
संसारचक्रगतये
परमेश्वराय ॥ २९ ॥
श्रीशुक
उवाच -
इत्यभिप्रेत्य
नृपतेः अभिप्रायं स यादवः ।
सुहृद्भिः
समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात् ॥ ३० ॥
शशंस
रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम् ।
पाण्डवान्
प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम् ॥ ३१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और
अन्तमें जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको स्मरण करके अत्यन्त दु:खित हो गयीं और
फफक-फफककर रोने लगीं ।। १४ ।। अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दु:खको समान
दृष्टिसे देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओंने कुन्तीको उसके पुत्रोंके जन्मदाता
धर्म, वायु आदि देवताओंकी याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्मका नाश करनेके लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी ।। १५ ।। अक्रूरजी जब मथुरा जाने
लगे, तब राजा धृतराष्ट्रके पास आये। अबतक यह स्पष्ट हो गया
था कि राजा अपने पुत्रोंका पक्षपात करते हैं और भतीजोंके साथ अपने पुत्रोंका-सा
बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूरजीने कौरवोंकी भरी सभामें श्रीकृष्ण और बलरामजी आदिका
हितैषितासे भरा सन्देश कह सुनाया ।। १६ ।।
अक्रूरजीने
कहा—महाराज धृतराष्ट्रजी ! आप कुरुवंशियोंकी उज्ज्वल कीर्ति को और भी बढ़ाइये।
आपको यह काम विशेषरूपसे इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डुके परलोक सिधार
जानेपर अब आप राज्यङ्क्षसहासनके अधिकारी हुए हैं ।। १७ ।। आप धर्मसे पृथ्वीका पालन
कीजिये। अपने सद्व्यवहारसे प्रजाको प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनोंके साथ समान बर्ताव
कीजिये। ऐसा करनेसे ही आपको लोकमें यश और परलोकमें सद्गति प्राप्त होगी ।। १८ ।।
यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोकमें आपकी निन्दा होगी और मरनेके बाद आपको
नरकमें जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंके साथ समानताका बर्ताव
कीजिये ।। १९ ।। आप जानते ही हैं कि इस संसारमें कभी कहीं कोई किसीके साथ सदा नहीं
रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुडऩा पड़ेगा
ही। राजन् ! यह बात अपने शरीरके लिये भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदिको छोडक़र जाना पड़ेगा, इसके विषयमें तो कहना ही क्या है ।। २० ।। जीव अकेला ही पैदा होता है और
अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनीका, पाप-पुण्यका फल भी
अकेला ही भुगतता है ।। २१ ।। जिन स्त्री-पुत्रोंको हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा
भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’—इस प्रकारकी बातें बनाकर मूर्ख
प्राणीके अधर्मसे इक_े किये हुए धनको लूट लेते हैं, जैसे जलमें रहनेवाले जन्तुओंके सर्वस्व जलको उन्हींके सम्बन्धी चाट जाते
हैं ।। २२ ।। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है,
वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीवको
असन्तुष्ट छोडक़र ही चले जाते हैं ।। २३ ।। जो अपने धर्मसे विमुख है—सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता।
जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे;
उसे कभी सन्तोषका अनुभव न होगा और वह अपने पापोंकी गठरी सिरपर लादकर
स्वयं घोर नरकमें जायगा ।। २४ ।। इसलिये महाराज ! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया
चार दिनकी चाँदनी है, सपनेका खिलवाड़ है, जादूका तमाशा है और है मनोराज्यमात्र ! आप अपने प्रयत्नसे, अपनी शक्तिसे चित्तको रोकिये; ममतावश पक्षपात न
कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्वमें स्थित हो जाइये और इस
संसारकी ओरसे उपराम—शान्त हो जाइये ।। २५ ।।
राजा
धृतराष्ट्रने कहा—दानपते अक्रूरजी ! आप मेरे कल्याणकी, भलेकी बात कह
रहे हैं, जैसे मरनेवालेको अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त
नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातोंसे तृप्त नहीं हो
रहा हूँ ।। २६ ।। फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी ! मेरे चञ्चल चित्तमें आपकी यह
प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय
पुत्रोंकी ममताके कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वतके शिखरपर एक बार
बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही
दशा आपके उपदेशोंकी है ।। २७ ।। अक्रूरजी ! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान्
पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं । ऐसा कौन पुरुष है,
जो उनके विधानमें उलट-फेर कर सके । उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा ।। २८ ।। भगवान्की मायाका मार्ग अचिन्त्य है । उसी मायाके
द्वारा इस संसारकी सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलोंका
विभाजन कर देते हैं । इस संसार-चक्रकी बेरोक-टोक चालमें उनकी अचिन्त्य लीलाशक्तिके
अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभुको नमस्कार
करता हूँ ।। २९ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्रका अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन
सम्बन्धियोंसे प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये ।। ३० ।। परीक्षित् !
उन्होंने वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके सामने धृतराष्ट्रका वह सारा
व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवोंके साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजनेका
वास्तवमें उद्देश्य भी यही था ।। ३१ ।।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे एकोनपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
इति
दशम स्कन्ध पूर्वार्ध समाप्त
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से