शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः

युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः ४२

अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा

हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽगादरिभिर्नृपः ४३

अष्टादशम सङ्ग्राम आगामिनि तदन्तरा

नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत ४४

रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः

नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीन्श्रुत्वात्मसम्मितान् ४५

तं दृष्ट्वाचिन्तयत्कृष्णः सङ्कर्षण सहायवान्

अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत् ४६

यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः

मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वागमिष्यति ४७

आवयोः युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः

बन्धून्हनिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली ४८

तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम्

तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे ४९

इति सम्मन्त्र्य भगवान्दुर्गं द्वादशयोजनम्

अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् ५०

दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम्

रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम् ५१

सुरद्रुमलतोद्यान विचित्रोपवनान्वितम्

हेमशृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फटिकाट्टालगोपुरैः ५२

राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः

रत्नकूतैर्गृहैर्हेमैर्महामारकतस्थलैः ५३

वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वल्लभीभिश्च निर्मितम्

चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत् ५४

सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः

यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते ५५

श्यामैकवर्णान्वरुणो हयान्शुक्लान्मनोजवान्

अष्टौ निधिपतिः कोशान्लोकपालो निजोदयान् ५६

यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये

सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप ५७

तत्र योगप्रभावेन नीत्वा सर्वजनं हरिः

प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः

निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः ५८

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया ।। ४२ ।। किन्तु यादवों ने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता ।। ४३ ।। जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिडऩेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।। ४४ ।। युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारमें दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लेकर उसने मथुराको घेर लिया ।। ४५ ।।

कालयवनकी यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया—‘अहो ! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और कालयवनये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।। ४६ ।। आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायगा ।। ४७ ।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लडऩेमें लग गये और उसी समय जरासन्ध आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा। क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।। ४८ ।। इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्गऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे।। ४९ ।। बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान्‌ श्रीकृष्णने समुद्रके भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगरकी लंबाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी ।। ५० ।। उस नगरकी एक-एक वस्तुमें विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु- विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सडक़ों, चौराहों और गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।। ५१ ।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाशसे बातें करते थे। स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे ।। ५२ ।। अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।। ५३ ।। इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे ।। ५४ ।। परीक्षित्‌ ! उस समय देवराज इन्द्रने भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे ।। ५५ ।। वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्याम- वर्णका था, और जिनकी चाल मनके समान तेज थी। धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान्‌के पास भेज दीं ।। ५६ ।। परीक्षित्‌ ! सभी लोकपालोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णने ही उनके अधिकार के निर्वाहके लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान्‌के चरणोंमें समॢपत कर दीं ।। ५७ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया। शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये ।। ५८ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे

दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम्

हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा ३१

बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः

वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया ३२

सा मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसम्मतः

तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः ३३

वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि

स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः ३४

हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा

उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्मना ययौ ३५

मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः

विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रीदशैरनुमोदितः ३६

माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः

उपगीयमानविजयः सूतमागधबन्दिभिः ३७

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः

वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ ३८

सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरभ्यलङ्कृताम्

निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम् ३९

निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः

निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः ४०

आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्

यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः ४१

 

इस प्रकार जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान्‌ श्रीबलरामजीने जैसे एक ङ्क्षसह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़ लिया ।। ३१ ।। जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परंतु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको रोक दिया ।। ३२ ।। बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्धका सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बातपर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलरामने दया करके दीनकी भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करनेका निश्चय किया। परंतु रास्तेमें उसके साथी नरपतियोंने बहुत समझाया कि राजन् ! यदुवंशियोंमें क्या रखा है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।उन लोगोंने भगवान्‌की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करनेकी आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये।। ३३-३४ ।। परीक्षित्‌ ! उस समय मगधराज जरासन्धकी सारी सेना मर चुकी थी। भगवान्‌ बलरामजीने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगधको चला गया ।। ३५ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उनपर नन्दनवनके पुष्पोंकी वर्षा और उनके इस महान् कार्यका अनुमोदनप्रशंसा कर रहे थे ।। ३६ ।। जरासन्धकी सेनाके पराजयसे मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विजयसे उनका हृदय आनन्दसे भर रहा था। भगवान्‌ श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजयके गीत गा रहे थे ।। ३७ ।। जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया, उस समय वहाँ शङ्ख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे थे ।। ३८ ।। मथुराकी एक-एक सडक़ और गलीमें छिडक़ाव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकोंकी चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओंसे सजा दिया गया था। ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सवके सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे ।। ३९ ।। जिस समय श्रीकृष्ण नगरमें प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगरकी नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठासे भरे हुए नेत्रोंसे उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलोंके हार, दही, अक्षत और जौ आदिके अङ्कुरोंकी उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं ।। ४० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण रणभूमिसे अपार धन और वीरोंके आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियोंके राजा उग्रसेनके पास भेज दिया ।। ४१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




गुरुवार, 27 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

श्रीशुक उवाच

जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ

महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्

ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी

सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः २१

सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथाव्

अलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे

स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं

समाश्रिताः सम्मुमुहुः शुचार्दितः २२

हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः

शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्

स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं

व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम् २३

गृह्णन्निशङ्गादथ सन्दधच्छरान्

विकृष्य मुञ्चन्शितबाणपूगान्

निघ्नन्रथान्कुञ्जरवाजिपत्तीन्

निरन्तरं यद्वदलातचक्रम् २४

निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-

रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः

रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः

पदायतश्छिन्नभुजोरुकन्धराः २५

सञ्छिद्यमानद्विपदेभवाजिना-

मङ्गप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः

भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा

हतद्विपद्वीपहय ग्रहाकुलाः २६

करोरुमीना नरकेशशैवला

धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः

अच्छूरिकावर्तभयानका महा-

मणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः २७

प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे

मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्

विनिघ्नतारीन्मुषलेन दुर्मदान्-

सङ्कर्षणेनापरीमेयतेजसा २८

बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं

दुरन्तपारं मगधेन्द्र पालितम्

क्षणं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-

र्विक्रीडितं तज्जगदीशयो:परम् २९

स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः

समीहितेऽनन्तगुणः स्वलीलया

न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्

तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते ३०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जैसे वायु बादलोंसे सूर्यको और धूएँसे आगको ढक लेती है, किन्तु वास्तवमें वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्धने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामके सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेनाके द्वारा उन्हें चारों ओरसे घेर लियायहाँतक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियोंका दीखना भी बंद हो गया ।। २१ ।। मथुरापुरीकी स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढक़र युद्धका कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्ध भूमिमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं ।। २२ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीडि़त, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर-दोनोंसे सम्मानित शार्ङ्गधनुष का टङ्कार किया ।। २३ ।। इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोडऩे लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरङ्गिणीहाथी, घोड़े, रथ और पैदलसेनाका संहार करने लगे ।। २४ ।। इससे बहुत-से हाथियोंके सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणोंकी बौछारसे अनेकों घोड़ोंके सिर धड़से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियोंके नष्ट हो जानेसे बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेनाकी बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यङ्ग कट-कटकर गिर पड़े ।। २५ ।। उस युद्धमें अपार तेजस्वी भगवान्‌ बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको मार-मारकर उनके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियोंमें मनुष्योंकी भुजाएँ साँपके समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओंकी भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियोंकी तरह, मनुष्योंके केश सेवारके समान, धनुष तरङ्गोंकी भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकोंके समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थरके रोड़ों तथा कंकड़ोंके समान बहे जा रहे थे। उन नदियोंको देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरोंका आपसमें खूब उत्साह बढ़ रहा था ।। २६२८ ।। परीक्षित्‌ ! जरासन्धकी वह सेना समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य थी। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत्के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है ।। २९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।। ३० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

श्रीशुक उवाच

अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ

मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान् १

पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते

वेदयां चक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम् २

स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप

अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम् ३

अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः

यदुराजधानीं मथुरां न्यरुधत्सर्वतो दिशम् ४

निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्

स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम् ५

चिन्तयामास भगवान्हरिः कारणमानुषः

तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम् ६

हनिष्यामि बलं ह्येतद्भुवि भारं समाहितम्

मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम् ७

अक्षौहिणीभिः सङ्ख्यातं भटाश्वरथकुञ्जरैः

मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम् ८

एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे

संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां वधाय च ९

अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया

विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित् १०

एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात्सूर्यवर्चसौ

रथावुपस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ ११

आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया

दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः सङ्कर्षणमथाब्रवीत् १२

पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो

एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च १३

यानमास्थाय जह्येतद् व्यसनात् स्वान् समुद्धर

एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत् १४

त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु

एवं सम्मन्त्र्य दाशार्हौ दंशितौ रथिनौ पुरात् १५

निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्य बलेनाल्पीयसाssवृतौ

शङ्खं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः१६

ततोऽभूत्परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः

तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम १७

न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया

गुप्तेन हि त्वया मन्द न योत्स्ये याहि बन्धुहन् १८

तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह्

हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि १९

 

श्रीभगवानुवाच

न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम्

न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभरतवंशशिरोमणि परीक्षित्‌ ! कंसकी दो रानियाँ थींअस्ति और प्राप्ति। पतिकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे अपने पिताकी राजधानीमें चली गयीं ।। १ ।। उन दोनोंका पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दु:खके साथ अपने विधवा होनेके कारणोंका वर्णन किया ।। २ ।। परीक्षित्‌ ! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्धको बड़ा शोक हुआ, परंतु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वीपर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की ।। ३ ।। और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया ।। ४ ।।

 भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखाजरासन्धकी सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं ।। ५ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतारका क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थानपर मुझे क्या करना चाहिये ।। ६ ।। उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्धने अपने अधीनस्थ नरपतियोंकी पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंसे युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वीका भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परंतु अभी मगधराज जरासन्धको नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिरसे असुरोंकी बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा ।। ७-८ ।। मेरे अवतारका यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वीका बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनोंकी रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनोंका संहार ।। ९ ।। समयसमयपर धर्म-रक्षाके लिये और बढ़ते हुए अधर्मको रोकनेके लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।। १० ।।

 परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाशसे सूर्यके समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्धकी सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे ।। ११ ।। इसी समय भगवान्‌के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा।। १२ ।। भाईजी ! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उनपर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं ।। १३ ।। अब आप इस रथपर सवार होकर शत्रु-सेनाका संहार कीजिये और अपने स्वजनोंको इस विपत्तिसे बचाइये। भगवन् ! साधुओंका कल्याण करनेके लिये ही हम दोनोंने अवतार ग्रहण किया है ।। १४ ।। अत: अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वीका यह विपुल भार नष्ट कीजिये।भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथपर सवार होकर वे मथुरासे निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्णका रथ हाँक रहा था दारुक। पुरीसे बाहर निकलकर उन्होंने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया ।। १५-१६ ।। उनके शङ्ख की भयङ्कर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंका हृदय डरके मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्धने कहा—‘पुरुषाधम कृष्ण ! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लडऩेमें मुझे लाज लग रही है। इतने दिनोंतक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द ! तू तो अपने मामाका हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामनेसे भाग जा ।। १७-१८ ।। बलराम यदि तेरे चित्तमें यह श्रद्धा हो कि युद्धमें मरनेपर स्वर्ग मिलता है तो तू आ हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए शरीरको यहाँ छोडक़र स्वर्गमें जा, अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल।। १९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामगधराज ! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिरपर नाच रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मरनेके समय कोई सन्निपातका रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बातपर ध्यान नहीं देता ।। २० ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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