मंगलवार, 1 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्

तस्य पञ्चाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना २१

रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः

रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती २२

सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः

गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् २३

तां बुद्धिलक्षणौदार्य रूपशीलगुणाश्रयाम्

कृष्णश्च सदृशीं भार्यां समुद्वोढुं मनो दधे २४

बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप

ततो निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत २५

तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम्

विचिन्त्याप्तं द्विजं कञ्चित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् २६

द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः

अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं काञ्चनासने २७

दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्

उपवेश्यार्हयां चक्रे यथात्मानं दिवौकसः २८

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गतिः

पाणिनाभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत २९

कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसम्मतः

वर्तते नातिकृच्छ्रेण सन्तुष्टमनसः सदा ३०

सन्तुष्टो यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्

अहीयमानः स्वद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक् ३१

असन्तुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः

अकिञ्चनोऽपि सन्तुष्टः शेते सर्वाङ्गविज्वरः ३२

विप्रान्स्वलाभसन्तुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्

निरहङ्कारिणः शान्तान्नमस्ये शिरसा सकृत् ३३

कच्चिद्वः कुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः

सुखं वसन्ति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः ३४

यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया

सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते ३५

एवं सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मणः परमेष्ठिना

लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत् ३६

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! महाराज भीष्मक विदर्भदेशके अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।। २१ ।। सबसे बड़े पुत्रका नाम था रुक्मी और चार छोटे थेजिनके नाम थे क्रमश: रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ।। २२ ।। जब उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णके सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभवकी प्रशंसा सुनीजो उसके महलमें आनेवाले अतिथि प्राय: गाया ही करते थेतब उसने यही निश्चय किया कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ।। २३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी समझते थे कि रुक्मिणीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य शीलस्वभाव और गुणोंमें भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अत: भगवान्‌ ने रुक्मिणीजीसे विवाह करनेका निश्चय किया ।। २४ ।। रुक्मिणीजीके भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिनका विवाह श्रीकृष्णसे ही हो। परंतु रुक्मी श्रीकृष्णसे बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करनेसे रोक दयिा और शिशुपालको ही अपनी बहिनके योग्य वर समझा ।। २५ ।।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणीको यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपालके साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको तुरंत श्रीकृष्णके पास भेजा ।। २६ ।। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरीमें पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवताने देखा कि आदिपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्ण सोनेके सिंहासनपर विराजमान हैं ।। २७ ।। ब्राह्मणोंके परमभक्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताको देखते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवतालोग उनकी (भगवान्‌की) किया करते हैं ।। २८ ।। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्रके अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतोंके परम आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथोंसे उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भावसे पूछने लगे।। २९ ।। ब्राह्मणशिरोमणे ! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्मका पालन करनेमें कोई कठिनाई तो नहीं होती ।। ३० ।। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तुष्ट रहे और अपने धर्मका पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।। ३१ ।। यदि इन्द्रका पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा। परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह- परिग्रह नहीं है, और जो उसी अवस्थामें सन्तुष्ट है, वह सब प्रकारसे सन्तापरहित होकर सुखकी नींद सोता है ।। ३२ ।। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तुसे सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियोंके परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैंउन ब्राह्मणोंको मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। ३३ ।। ब्राह्मणदेवता ! राजाकी ओरसे तो आपलोगोंको सब प्रकारकी सुविधा है न ? जिसके राज्यमें प्रजाका अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्दसे रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ।। ३४ ।। ब्राह्मणदेवता ! आप कहाँसे, किस हेतुसे और किस अभिलाषासे इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’ ।। ३५ ।। परीक्षित्‌ ! लीला से ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान्‌ से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे ।। ३६ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



सोमवार, 31 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना


 श्रीशुक उवाच

इत्थं सोऽनुग्रहीतोऽङ्ग कृष्णेनेक्ष्वाकु नन्दनः

तं परिक्रम्य सन्नम्य निश्चक्राम गुहामुखात् १

संवीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान्पशून्वीरुद्वनस्पतीन्

मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम् २

तपःश्रद्धायुतो धीरो निःसङ्गो मुक्तसंशयः

समाधाय मनः कृष्णे प्राविशद्गन्धमादनम् ३

बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम्

सर्वद्वन्द्वसहः शान्तस्तपसाराधयद्धरिम् ४

भगवान्पुनराव्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम्

हत्वा म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम् ५

नीयमाने धने गोभिर्नृभिश्चाच्युतचोदितैः

आजगाम जरासन्धस्त्रयोविंशत्यनीकपः ६

विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ

मनुष्यचेष्टामापन्नौ राजन्दुद्रुवतुर्द्रुतम् ७

विहाय वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत्

पद्भ्यां पलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम् ८

पलायमानौ तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन्बली

अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित् ९

प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम्

प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति १०

गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप

ददाह गिरिमेधोभिः समन्तादग्निमुत्सृजन् ११

तत उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ

दशैकयोजनात्तुङ्गान्निपेततुरधो भुवि १२

अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ

स्वपुरं पुनरायातौ समुद्र परिखां नृप १३

सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ

बलमाकृष्य सुमहन्मगधान्मागधो ययौ १४

आनर्ताधिपतिः श्रीमान्रैवतो रैवतीं सुताम्

ब्रह्मणा चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम् १५

भगवानपि गोविन्द उपयेमे कुरूद्वह

वैदर्भीं भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे १६

प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान्

पश्यतां सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव १७


श्रीराजोवाच

भगवान्भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम्

राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम् १८

भगवन्श्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजसः

यथा मागधशाल्वादीन्जित्वा कन्यामुपाहरत् १९

ब्रह्मन्कृष्णकथाः पुण्या माध्वीर्लोकमलापहाः

को नु तृप्येत शृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः २०


श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्यारे परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्दपर अनुग्रह किया। अब उन्होंने भगवान्‌ की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफासे बाहर निकले ।। १ ।। उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष- वनस्पति पहलेकी अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकारके हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशाकी ओर चल दिये ।। २ ।। महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्तिसे युक्त एवं संशय-सन्देहसे मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगाकर गन्धमादन पर्वतपर जा पहुँचे ।। ३ ।। भगवान्‌ नर-नारायणके नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रममें जाकर बड़े शान्तभावसे गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्व सहते हुए वे तपस्याके द्वारा भगवान्‌की आराधना करने लगे ।। ४ ।।

 इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मथुरापुरीमें लौट आये। अबतक कालयवनकी सेनाने उसे घेर रखा था। अब उन्होंने म्लेच्छोंकी सेनाका संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारकाको ले चले ।। ५ ।। जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णके आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलोंपर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका ।। ६ ।। परीक्षित्‌ ! शत्रु-सेनाका प्रबल वेग देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए उसके सामनेसे बड़ी फुर्तीके साथ भाग निकले ।। ७ ।। उनके मनमें तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये होंइस प्रकारका नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोडक़र अनेक योजनोंतक वे अपने कमलदलके समान सुकोमल चरणोंसे हीपैदल भागते चले गये ।। ८ ।। जब महाबली मगधराज जरासन्धने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेनाके साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके ऐश्वर्य, प्रभाव आदिका ज्ञान न था ।। ९ ।। बहुत दूरतक दौडऩेके कारण दोनों भाई कुछ थक-से गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण पर्वतपर चढ़ गये। उस पर्वतका प्रवर्षणनाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा हीमेघ वर्षा किया करते थे ।। १० ।। परीक्षित्‌ ! जब जरासन्धने देखा कि वे दोनों पहाड़में छिप गये और बहुत ढूँढनेपर भी पता न चला, तब उसने र्ईंधनसे भरे हुए प्रवर्षण पर्वतके चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया ।। ११ ।। जब भगवान्‌ ने देखा कि पर्वतके छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्धकी सेनाके घेरेको लाँघते हुए बड़े वेगसे उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वतसे एकदम नीचे धरतीपर कूद आये ।। १२ ।। राजन् ! उन्हें जरासन्धने अथवा उसके किसी सैनिकने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँसे चलकर फिर अपनी समुद्रसे घिरी हुई द्वारकापुरीमें चले आये ।। १३ ।। जरासन्ध ने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये, और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेशको चला गया ।। १४ ।।

 यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्धमें) कह चुका हूँ कि आनर्तदेशके राजा श्रीमान् रैवतजीने अपनी रेवती नामकी कन्या ब्रह्माजीकी प्रेरणासे बलरामजीके साथ ब्याह दी ।। १५ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी स्वयंवरमें आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियोंको बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुडऩे सुधाका हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेशकी राजकुमारी रुक्मिणीको हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मिणीजी राजा भीष्मककी कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजीका अवतार थीं ।। १६-१७ ।।

 राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! हमने सुना है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने भीष्मकनन्दिनी परम- सुन्दरी रुक्मिणीदेवीको बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधिसे उनके साथ विवाह किया था ।। १८ ।। महाराज ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान्‌ श्रीकृष्णने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियोंको जीतकर किस प्रकार रुक्मिणीका हरण किया ? ।। १९ ।। ब्रह्मर्षे ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत्का मल धो- बहाकर उसे भी पवित्र कर देनेवाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहनेपर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

करोति कर्माणि तपःसुनिष्ठितो

निवृत्तभोगस्तदपेक्षयाददत्

पुनश्च भूयासमहं स्वराडिति

प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते ५३

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-

ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः

सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ

परावरेशे त्वयि जायते मतिः ५४

मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो

राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया

यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया

वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः ५५

न कामयेऽन्यं तव पादसेवना-

दकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो

आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे वृ

णीत आर्यो वरमात्मबन्धनम् ५६

तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो

रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः

निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं

त्वां ज्ञाप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम् ५७

चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै-

रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित्

शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्

अभयमृतमशोकं पाहि मापन्नमीश ५८

 

श्रीभगवानुवाच

सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता

वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः ५९

प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्

न धीरेकान्तभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित् ६०

युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः

अक्षीणवासनं राजन्दृश्यते पुनरुत्थितम् ६१

विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः

अस्त्वेवं नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी ६२

क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून्न्यवधीर्मृगयादिभिः

समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः ६३

जन्मन्यनन्तरे राजन्सर्वभूतसुहृत्तमः

भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम् ६४

 

बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलने की इच्छा से दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट होऊँ’ ऐसी कामना रखकर तपस्या में भलीभाँति स्थित हो शुभ कर्म करते हैं। इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता। अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहने वाले भगवन! जीव अनादिकाल से जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटक रहा है। जब उस चक्कर से छूटने का समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतों के आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत के एकमात्र स्वामी आप में जीव की बुद्धि अत्यन्त दृढ़ता से लग जाती है।

भगवन! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रह की वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रम के, अनायास ही मेरे राज्य का बन्धन टूट गया। साधु-स्वभाव के चक्रवर्ती राजा भी अब अपना राज्य छोड़कर एकान्त में भजन-साधन करने के उद्देश्य से वन में जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धन से मुक्त होने के लिये बड़े प्रेम से आपसे प्रार्थन किया करते हैं। अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणों की सेवा के अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकार का संग्रह-परग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमान से रहित हैं, वे लोग भी केवल उसी के लिये प्रार्थना करते हैं। भगवन! भला, बतलाइये तो सही- मोक्ष देने वाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को बाँधने वाले सांसारिक विषयों का वर माँगे।

 इसलिये प्रभो! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सम्बन्ध रखने वाली समस्त कामनाओं को छोड़कर केवल माया के लेशमात्र सम्बन्ध से रहित, गुणातीत, एक- अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। भगवन! मैं अनादिकाल से अपने कर्मफलों को भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझे जलाती रहती थी। मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयों की प्यास बढ़ती ही जा रही थी। कभी किसी प्रकार एक क्षण के लिये भी मुझे शान्ति न मिली। शरणदाता! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोक से रहित चरणकमलों की शरण में आया हूँ। सारे जगत के एकमात्र स्वामी! परमात्मन! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये।

 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘सार्वभौम महाराज! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटि का है। यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देने का प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओं के अधीन न हुई। मैंने तुम्हें जो वर देने का प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानी की परीक्षा के लिये। मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओं से इधर-उधर नहीं भटकती। जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदि के द्वारा अपने मन को वश में करने का कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होतीं और राजन! उनका मन फिर से विषयों के लिये मचल पड़ता है। तुम अपने मन और सारे मनोभावों को मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वछन्द रूप से पृथ्वी पर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदा बनी रहेगी। तुमने क्षत्रिय धर्म का आचरण करते समय शिकार आदि के अवसरों पर बहुत-से पशुओं का वध किया है। अब एकाग्रचित्त से मेरी उपासना करते हुए तपस्या के द्वारा उस पाप को धो डालो।

 राजन! अगले जन्म में तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियों के सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्मा को प्राप्त करोगे।' ।।५३-६४ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 30 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

श्रीमुचुकुन्द उवाच

विमोहितोऽयं जन ईश मायया त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्

सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते गृहेषु योषित्पुरुषश्च वञ्चितः ४६

लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं

कथञ्चिदव्यङ्गमयत्नतोऽनघ

पादारविन्दं न भजत्यसन्मतिर्

गृहान्धकूपे पतितो यथा पशुः ४७

ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो

राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः

मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभू-

ष्वासज्जमानस्य दुरन्तचिन्तया ४८

कलेवरेऽस्मिन्घटकुड्यसन्निभे

निरूढमानो नरदेव इत्यहम्

वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपैर्

गां पर्यटंस्त्वागणयन्सुदुर्मदः ४९

प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया

प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्

त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे

क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः ५०

पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्

मतंगजैर्वा नरदेवसंज्ञितः

स एव कालेन दुरत्ययेन ते

कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः ५१

निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो

वरासनस्थः समराजवन्दितः

गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां

क्रीडामृगः पूरुष ईश नीयते ५२

         

मुचुकुन्द ने कहा- ‘प्रभो! जगत के सभी प्राणी आपकी माया से अत्यन्त मोहित हो रहे हैं। वे आपसे विमुख होकर अनर्थ में ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते। वे सुख के लिये घर-गृहस्थी के उन झंझटों में फँस जाते हैं, जो सारे दुःखों के मूल स्रोत हैं। इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं। इस पापरूप संसार से सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्य का जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिए कोई भी असुविधा नहीं है। अपने परम सौभाग्य और भगवान की अहैतुक कृपा से उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसार में ही लगा देते हैं और तुच्छ विषय सुख के लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में पड़े रहते हैं- भगवान के चरणकमलों की उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशु के समान हैं, जो तुच्छ तृण के लोभ से अँधेरे कूएँ में गिर जाता है।

 भगवन! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मी के मद से मैं मतवाला हो रहा था। इस मरने वाले शरीर को ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वी के लोभ-मोह में ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओं की चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवन का यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल-व्यर्थ चला गया। जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीत के समान मिट्टी का है और दृश्य होने के कारण उन्हीं के समान अपने से अलग भी है, उसी को मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपने को मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियों से घिरकर मैं पृथ्वी में इधर-उधर घूमता रहता। मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्यों की चिन्ता में पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्ति से विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है।

 संसार में बाँध रखने वाले विषयों के लिये उनकी लालसा दिन दूनी, रात चौगिनी बढ़ती ही जाती है। परन्तु जैसे भूख के कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहे को दबोच लेता है, वैसे ही कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहने वाले आप एकाएक उस प्रसादग्रस्त प्राणी पर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं। जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल का ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढेर बन जाता है।

 प्रभो! जिसने सारी दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़ने वाला संसार में कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणों में सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगने के लिए, जो घर-गृहस्थी की एक विशेष वस्तु है, स्त्रियों के पास जाता है, तब उनके हाथ का खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है ।।४६-५२ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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