॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
प्रद्युम्न का
जन्म और शम्बरासुरका वध
अन्तःपुरवरं राजन् ललनाशतसङ्कुलम् ।
विवेश पत्न्या
गगनाद् विद्युतेव बलाहकः ॥ २६ ॥
तं दृष्ट्वा
जलदश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।
प्रलम्बबाहुं
ताम्राक्षं सुस्मितं रुचिराननम् ॥ २७ ॥
स्वलङ्कृतमुखाम्भोजं नीलवक्रालकालिभिः ।
कृष्णं मत्वा
स्त्रियो ह्रीता निलिल्युस्तत्र तत्र ह ॥ २८ ॥
अवधार्य शनैरीषद् वैलक्षण्येन योषितः ।
उपजग्मुः
प्रमुदिताः सस्त्री रत्नं सुविस्मिताः ॥ २९ ॥
अथ तत्रासितापाङ्गी
वैदर्भी वल्गुभाषिणी ।
अस्मरत् स्वसुतं
नष्टं स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ ३० ॥
को न्वयं
नरवैदूर्यः कस्य वा कमलेक्षणः ।
धृतः कया वा जठरे
केयं लब्धा त्वनेन वा ॥ ३१ ॥
मम चाप्यात्मजो
नष्टो नीतो यः सूतिकागृहात् ।
एतत्तुल्यवयोरूपो
यदि जीवति कुत्रचित् ॥ ३२ ॥
कथं त्वनेन
संप्राप्तं सारूप्यं शार्ङ्गधन्वनः ।
आकृत्यावयवैर्गत्या
स्वरहासावलोकनैः ॥ ३३ ॥
स एव वा भवेत् नूनं
यो मे गर्भे धृतोऽर्भकः ।
अमुष्मिन्
प्रीतिरधिका वामः स्फुरति मे भुजः ॥ ३४ ॥
एवं मीमांसमणायां
वैदर्भ्यां देवकीसुतः ।
देवक्यानकदुन्दुभ्यां उत्तमःश्लोक आगमत् ॥ ३५ ॥
विज्ञातार्थोऽपि
भगवान् तूष्णीमास जनार्दनः ।
नारदोऽकथयत् सर्वं
शम्बराहरणादिकम् ॥ ३६ ॥
तच्छ्रुत्वा
महदाश्चर्यं कृष्णान्तःपुरयोषितः ।
अभ्यनन्दन्
ब्बहूनब्दान् नष्टं मृतमिवागतम् ॥ ३७ ॥
देवकी वसुदेवश्च
कृष्णरामौ तथा स्त्रियः ।
दम्पती तौ
परिष्वज्य रुक्मिणी च ययुर्मुदम् ॥ ३८ ॥
नष्टं
प्रद्युम्नमायातं आकर्ण्य द्वारकौकसः ।
अहो मृत इवायातो
बालो दिष्ट्येति हाब्रुवन् ॥ ३९ ॥
यं वै मुहुः पितृसरूपनिजेशभावाः
तन्मातरो
यदभजन् रहरूढभावाः ।
चित्रं न तत्खलु
रमास्पदबिम्बबिम्बे
कामे
स्मरेऽक्षविषये किमुतान्यनार्यः ॥ ४० ॥
परीक्षित् !
आकाशमें अपनी गोरी पत्नीके साथ साँवले प्रद्युम्नजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली और मेघका जोड़ा हो । इस प्रकार
उन्होंने भगवान्के उस उत्तम अन्त:पुरमें प्रवेश किया, जिसमें
सैकड़ों श्रेष्ठ रमणियाँ निवास करती थीं ।। २६ ।। अन्त:पुरकी नारियोंने देखा कि प्रद्युम्नजीका
शरीर वर्षाकालीन मेघके समान श्यामवर्ण है । रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए हैं ।
घुटनोंतक लंबी भुजाएँ हैं, रतनारे नेत्र हैं और सुन्दर मुखपर
मन्द-मन्द मुसकानकी अनूठी ही छटा है । उनके मुखारविन्दपर घुँघराली और नीली अलकें
इस प्रकार शोभायमान हो रही हैं, मानो भौंरें खेल रहे हों ।
वे सब उन्हें श्रीकृष्ण समझकर सकुचा गयीं और घरोंमें इधर-उधर लुक-छिप गयीं ।।
२७-२८ ।। फिर धीरे-धीरे स्त्रियोंको यह मालूम हो गया कि ये श्रीकृष्ण नहीं हैं ।
क्योंकि उनकी अपेक्षा इनमें कुछ विलक्षणता अवश्य है । अब वे अत्यन्त आनन्द और
विस्मयसे भरकर इस श्रेष्ठ दम्पतिके पास आ गयीं ।। २९ ।। इसी समय वहाँ रुक्मिणीजी आ
पहुँचीं । परीक्षित् ! उनके नेत्र कजरारे और वाणी अत्यन्त मधुर थी । इस नवीन
दम्पतिको देखते ही उन्हें अपने खोये हुए पुत्रकी याद हो आयी । वात्सल्यस्नेहकी
अधिकतासे उनके स्तनोंसे दूध झरने लगा ।। ३० ।। रुक्मिणीजी सोचने लगीं—‘यह नररत्न कौन है ? यह कमलनयन किसका पुत्र है ?
किस बड़भागिनीने इसे अपने गर्भमें धारण किया होगा ? इसे यह कौन सौभाग्यवती पत्नीरूपमें प्राप्त हुई है ? ।। ३१ ।। मेरा भी एक नन्हा-सा शिशु खो गया था ! न जाने कौन उसे
सूतिकागृहसे उठा ले गया ! यदि वह कहीं जीता-जागता होगा तो उसकी अवस्था तथा रूप भी
इसीके समान हुआ होगा ।। ३२ ।। मैं तो इस बातसे हैरान हूँ कि इसे भगवान्
श्यामसुन्दरकी-सी रूप-रेखा, अङ्गोंकी गठन, चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और बोल-चाल कहाँसे प्राप्त
हुई ? ।। ३३ ।। हो-न-हो यह वही बालक है, जिसे मैंने अपने गर्भमें धारण किया था । क्योंकि स्वभावसे ही मेरा स्नेह
इसके प्रति उमड़ रहा है और मेरी बायीं बाँह भी फडक़ रही है’ ।।
३४ ।।
जिस समय
रुक्मिणीजी इस प्रकार सोच-विचार कर रही थीं—निश्चय और सन्देहके झूलेमें झूल रही थीं, उसी समय
पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजीके साथ वहाँ पधारे
।। ३५ ।। भगवान् श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे। परंतु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। इतनेमें ही नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने
प्रद्युम्रजीको शम्बरासुरका हर ले जाना, समुद्रमें फेंक देना
आदि जितनी भी घटनाएँ घटित हुई थीं, वे सब कह सुनायीं ।। ३६
।। नारदजीके द्वारा यह महान् आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान् श्रीकृष्णके
अन्त:पुरकी स्त्रियाँ चकित हो गयीं और बहुत वर्षोंतक खोये रहनेके बाद लौटे हुए
प्रद्युम्रजीका इस प्रकार अभिनन्दन करने लगीं, मानो कोई मरकर
जी उठा हो ।। ३७ ।। देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी
और स्त्रियाँ—सब उस नवदम्पतिको हृदयसे लगाकर बहुत ही आनन्दित
हुए ।। ३८ ।। जब द्वारकावासी नर-नारियोंको यह मालूम हुआ कि खोये हुए प्रद्युम्रजी
लौट आये हैं, तब वे परस्पर कहने लगे— ‘अहो,
कैसे सौभाग्यकी बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया’ ।। ३९ ।। परीक्षित् ! प्रद्युम्रजीका रूप-रंग भगवान् श्रीकृष्णसे इतना
मिलता-जुलता था कि उन्हें देखकर उनकी माताएँ भी उन्हें अपना पतिदेव श्रीकृष्ण
समझकर मधुरभावमें मग्न हो जाती थीं और उनके सामने से हटकर एकान्त में चली जाती थीं
! श्रीनिकेतन भगवान् के प्रतिबिम्बस्वरूप कामावतार भगवान् प्रद्युम्रके दीख
जानेपर ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर उन्हें देखकर दूसरी स्त्रियों की
विचित्र दशा हो जाती थी, इसमें तो कहना ही क्या है ।। ४० ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे प्रद्युम्नोत्पत्तिनिरूपणं नाम
पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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