शनिवार, 5 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

प्रद्युम्न  का जन्म और शम्बरासुरका वध

 

अन्तःपुरवरं राजन् ललनाशतसङ्कुलम् ।

 विवेश पत्‍न्या गगनाद् विद्युतेव बलाहकः ॥ २६ ॥

 तं दृष्ट्वा जलदश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।

 प्रलम्बबाहुं ताम्राक्षं सुस्मितं रुचिराननम् ॥ २७ ॥

 स्वलङ्कृतमुखाम्भोजं नीलवक्रालकालिभिः ।

 कृष्णं मत्वा स्त्रियो ह्रीता निलिल्युस्तत्र तत्र ह ॥ २८ ॥

 अवधार्य शनैरीषद् वैलक्षण्येन योषितः ।

 उपजग्मुः प्रमुदिताः सस्त्री रत्‍नं सुविस्मिताः ॥ २९ ॥

 अथ तत्रासितापाङ्गी वैदर्भी वल्गुभाषिणी ।

 अस्मरत् स्वसुतं नष्टं स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ ३० ॥

 को न्वयं नरवैदूर्यः कस्य वा कमलेक्षणः ।

 धृतः कया वा जठरे केयं लब्धा त्वनेन वा ॥ ३१ ॥

 मम चाप्यात्मजो नष्टो नीतो यः सूतिकागृहात् ।

 एतत्तुल्यवयोरूपो यदि जीवति कुत्रचित् ॥ ३२ ॥

 कथं त्वनेन संप्राप्तं सारूप्यं शार्ङ्गधन्वनः ।

 आकृत्यावयवैर्गत्या स्वरहासावलोकनैः ॥ ३३ ॥

 स एव वा भवेत् नूनं यो मे गर्भे धृतोऽर्भकः ।

 अमुष्मिन् प्रीतिरधिका वामः स्फुरति मे भुजः ॥ ३४ ॥

 एवं मीमांसमणायां वैदर्भ्यां देवकीसुतः ।

 देवक्यानकदुन्दुभ्यां उत्तमःश्लोक आगमत् ॥ ३५ ॥

 विज्ञातार्थोऽपि भगवान् तूष्णीमास जनार्दनः ।

 नारदोऽकथयत् सर्वं शम्बराहरणादिकम् ॥ ३६ ॥

 तच्छ्रुत्वा महदाश्चर्यं कृष्णान्तःपुरयोषितः ।

 अभ्यनन्दन् ब्बहूनब्दान् नष्टं मृतमिवागतम् ॥ ३७ ॥

 देवकी वसुदेवश्च कृष्णरामौ तथा स्त्रियः ।

 दम्पती तौ परिष्वज्य रुक्मिणी च ययुर्मुदम् ॥ ३८ ॥

 नष्टं प्रद्युम्नमायातं आकर्ण्य द्वारकौकसः ।

 अहो मृत इवायातो बालो दिष्ट्येति हाब्रुवन् ॥ ३९ ॥

यं वै मुहुः पितृसरूपनिजेशभावाः

     तन्मातरो यदभजन् रहरूढभावाः ।

 चित्रं न तत्खलु रमास्पदबिम्बबिम्बे

     कामे स्मरेऽक्षविषये किमुतान्यनार्यः ॥ ४० ॥

 

परीक्षित्‌ ! आकाशमें अपनी गोरी पत्नीके साथ साँवले प्रद्युम्नजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली और मेघका जोड़ा हो । इस प्रकार उन्होंने भगवान्‌के उस उत्तम अन्त:पुरमें प्रवेश किया, जिसमें सैकड़ों श्रेष्ठ रमणियाँ निवास करती थीं ।। २६ ।। अन्त:पुरकी नारियोंने देखा कि प्रद्युम्नजीका शरीर वर्षाकालीन मेघके समान श्यामवर्ण है । रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए हैं । घुटनोंतक लंबी भुजाएँ हैं, रतनारे नेत्र हैं और सुन्दर मुखपर मन्द-मन्द मुसकानकी अनूठी ही छटा है । उनके मुखारविन्दपर घुँघराली और नीली अलकें इस प्रकार शोभायमान हो रही हैं, मानो भौंरें खेल रहे हों । वे सब उन्हें श्रीकृष्ण समझकर सकुचा गयीं और घरोंमें इधर-उधर लुक-छिप गयीं ।। २७-२८ ।। फिर धीरे-धीरे स्त्रियोंको यह मालूम हो गया कि ये श्रीकृष्ण नहीं हैं । क्योंकि उनकी अपेक्षा इनमें कुछ विलक्षणता अवश्य है । अब वे अत्यन्त आनन्द और विस्मयसे भरकर इस श्रेष्ठ दम्पतिके पास आ गयीं ।। २९ ।। इसी समय वहाँ रुक्मिणीजी आ पहुँचीं । परीक्षित्‌ ! उनके नेत्र कजरारे और वाणी अत्यन्त मधुर थी । इस नवीन दम्पतिको देखते ही उन्हें अपने खोये हुए पुत्रकी याद हो आयी । वात्सल्यस्नेहकी अधिकतासे उनके स्तनोंसे दूध झरने लगा ।। ३० ।। रुक्मिणीजी सोचने लगीं—‘यह नररत्न कौन है ? यह कमलनयन किसका पुत्र है ? किस बड़भागिनीने इसे अपने गर्भमें धारण किया होगा ? इसे यह कौन सौभाग्यवती पत्नीरूपमें प्राप्त हुई है ? ।। ३१ ।। मेरा भी एक नन्हा-सा शिशु खो गया था ! न जाने कौन उसे सूतिकागृहसे उठा ले गया ! यदि वह कहीं जीता-जागता होगा तो उसकी अवस्था तथा रूप भी इसीके समान हुआ होगा ।। ३२ ।। मैं तो इस बातसे हैरान हूँ कि इसे भगवान्‌ श्यामसुन्दरकी-सी रूप-रेखा, अङ्गोंकी गठन, चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और बोल-चाल कहाँसे प्राप्त हुई ? ।। ३३ ।। हो-न-हो यह वही बालक है, जिसे मैंने अपने गर्भमें धारण किया था । क्योंकि स्वभावसे ही मेरा स्नेह इसके प्रति उमड़ रहा है और मेरी बायीं बाँह भी फडक़ रही है।। ३४ ।।

जिस समय रुक्मिणीजी इस प्रकार सोच-विचार कर रही थींनिश्चय और सन्देहके झूलेमें झूल रही थीं, उसी समय पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजीके साथ वहाँ पधारे ।। ३५ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे। परंतु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। इतनेमें ही नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने प्रद्युम्रजीको शम्बरासुरका हर ले जाना, समुद्रमें फेंक देना आदि जितनी भी घटनाएँ घटित हुई थीं, वे सब कह सुनायीं ।। ३६ ।। नारदजीके द्वारा यह महान् आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्त:पुरकी स्त्रियाँ चकित हो गयीं और बहुत वर्षोंतक खोये रहनेके बाद लौटे हुए प्रद्युम्रजीका इस प्रकार अभिनन्दन करने लगीं, मानो कोई मरकर जी उठा हो ।। ३७ ।। देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी और स्त्रियाँसब उस नवदम्पतिको हृदयसे लगाकर बहुत ही आनन्दित हुए ।। ३८ ।। जब द्वारकावासी नर-नारियोंको यह मालूम हुआ कि खोये हुए प्रद्युम्रजी लौट आये हैं, तब वे परस्पर कहने लगे— ‘अहो, कैसे सौभाग्यकी बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया।। ३९ ।। परीक्षित्‌ ! प्रद्युम्रजीका रूप-रंग भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इतना मिलता-जुलता था कि उन्हें देखकर उनकी माताएँ भी उन्हें अपना पतिदेव श्रीकृष्ण समझकर मधुरभावमें मग्न हो जाती थीं और उनके सामने से हटकर एकान्त में चली जाती थीं ! श्रीनिकेतन भगवान्‌ के प्रतिबिम्बस्वरूप कामावतार भगवान्‌ प्रद्युम्रके दीख जानेपर ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर उन्हें देखकर दूसरी स्त्रियों की विचित्र दशा हो जाती थी, इसमें तो कहना ही क्या है ।। ४० ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे प्रद्युम्नोत्पत्तिनिरूपणं नाम पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

प्रद्युम्न  का जन्म और शम्बरासुरका वध

 

श्रीशुक उवाच -

कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग् रुद्रमन्युना ।

 देहोपपत्तये भूयः तमेव प्रत्यपद्यत ॥ १ ॥

 स एव जातो वैदर्भ्यां कृष्णवीर्यसमुद्‌भवः ।

 प्रद्युम्न इति विख्यातः सर्वतोऽनवमः पितुः ॥ २ ॥

 तं शम्बरः कामरूपी हृत्वा तोकमनिर्दशम् ।

 स विदित्वात्मनः शत्रुं प्रास्योदन्वत्यगाद् गृहम् ॥ ३ ॥

 तं निर्जगार बलवान् मीनः सोऽप्यपरैः सह ।

 वृतो जालेन महता गृहीतो मत्स्यजीविभिः ॥ ४ ॥

 तं शम्बराय कैवर्ता उपाजह्रुरुपायनम् ।

 सूदा महानसं नीत्वा वद्यन् स्वधितिनाद्‌भुतम् ॥ ५ ॥

 दृष्ट्वा तद् उदरे बालं मायावत्यै न्यवेदयन् ।

 नारदोऽकथयत्सर्वं तस्याः शङ्‌कितचेतसः ।

 बालस्य तत्त्वमुत्पत्तिं मत्स्योदरनिवेशनम् ॥ ६ ॥

 सा च कामस्य वै पत्‍नी रतिर्नाम यशस्विनी ।

 पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिं प्रतीक्षती ॥ ७ ॥

 निरूपिता शम्बरेण सा सूदौदनसाधने ।

 कामदेवं शिशुं बुद्ध्वा चक्रे स्नेहं तदार्भके ॥ ८ ॥

 नातिदीर्घेण कालेन स कार्ष्णि रूढयौवनः ।

 जनयामास नारीणां वीक्षन्तीनां च विभ्रमम् ॥ ९ ॥

सा तं पतिं पद्मदलायतेक्षणं

     प्रलम्बबाहुं नरलोकसुन्दरम् ।

 सव्रीडहासोत्तभितभ्रुवेक्षती

     प्रीत्योपतस्थे रतिरङ्ग सौरतैः ॥ १० ॥

तामह भगवान् कार्ष्णिः मातस्ते मतिरन्यथा ।

 मातृभावं अतिक्रम्य वर्तसे कामिनी यथा ॥ ११ ॥

 

 रतिरुवाच -

भवान् नारायणसुतः शम्बरेणाहृतो गृहात् ।

 अहं तेऽधिकृता पत्‍नी रतिः कामो भवान् प्रभो ॥ १२ ॥

 एष त्वानिर्दशं सिन्धौ अक्षिपत् शंबरोऽसुरः ।

 मत्स्योऽग्रसीत् तत् उदराद् इतः प्राप्तो भवान् प्रभो ॥ १३ ॥

 तमिमं जहि दुर्धर्षं दुर्जयं शत्रुमात्मनः ।

 मायाशतविदं तं च मायाभिर्मोहनादिभिः ॥ १४ ॥

 परीशोचति ते माता कुररीव गतप्रजा ।

 पुत्रस्नेहाकुला दीना विवत्सा गौरिवातुरा ॥ १५ ॥

 प्रभाष्यैवं ददौ विद्यां प्रद्युम्नाय महात्मने ।

 मायावती महामायां सर्वमायाविनाशिनीम् ॥ १६ ॥

 स च शम्बरमभ्येत्य संयुगाय समाह्वयत् ।

 अविषह्यैस्तमाक्षेपैः क्षिपन् सञ्जनयन् कलिम् ॥ १७ ॥

 सोऽधिक्षिप्तो दुर्वाचोभिः पदाहत इवोरगः ।

 निश्चक्राम गदापाणिः अमर्षात् ताम्रलोचनः ॥ १८ ॥

 गदामाविध्य तरसा प्रद्युम्नाय महात्मने ।

 प्रक्षिप्य व्यनदद् नादं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम् ॥ १९ ॥

 तामापतन्तीं भगवानन् प्रद्युम्नो गदया गदाम् ।

 अपास्य शत्रवे क्रुद्धः प्राहिणोर् स्वगदां नृप ॥ २० ॥

 स च मायां समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शितम् ।

 मुमुचेऽस्त्रमयं वर्षं कार्ष्णौ वैहायसोऽसुरः ॥ २१ ॥

 बाध्यमानोऽस्त्रवर्षेण रौक्मिणेयो महारथः ।

 सत्त्वात्मिकां महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम् ॥ २२ ॥

 ततो गौह्यकगान्धर्व पैशाचोरगराक्षसीः ।

 प्रायुङ्क्त शतशो दैत्यः कार्ष्णिर्व्यधमयत्स ताः ॥ २३ ॥

 निशातमसिमुद्यम्य सकिरीटं सकुण्डलम् ।

 शम्बरस्य शिरः कायात् ताम्रश्मश्र्वोजसाहरत् ॥ २४ ॥

 आकीर्यमाणो दिविजैः स्तुवद्‌भिः कुसुमोत्करैः ।

 भार्ययाम्बरचारिण्या पुरं नीतो विहायसा ॥ २५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कामदेव भगवान्‌ वासुदेवके ही अंश हैं। वे पहले रुद्र- भगवान्‌ की क्रोधाग्नि से भस्म हो गये थे। अब फिर शरीर-प्राप्तिके लिये उन्होंने अपने अंशी भगवान्‌ वासुदेवका ही आश्रय लिया ।। १ ।। वे ही काम अबकी बार भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा रुक्मिणीजी- के गर्भसे उत्पन्न हुए और प्रद्युम्न नामसे जगत् में प्रसिद्ध हुए। सौन्दर्य, वीर्य, सौशील्य आदि सद्गुणोंमें भगवान्‌ श्रीकृष्णसे वे किसी प्रकार कम न थे ।। २ ।। बालक प्रद्युम्न अभी दस दिनके भी न हुए थे कि कामरूपी शम्बरासुर वेष बदलकर सूतिकागृहसे उन्हें हर ले गया और समुद्रमें फेंककर अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था कि यह मेरा भावी शत्रु है ।। ३ ।। समुद्रमें बालक प्रद्युम्न को एक बड़ा भारी मच्छ निगल गया। तदनन्तर मछुओंने अपने बहुत बड़े जालमें फँसाकर दूसरी मछलियोंके साथ उस मच्छको भी पकड़ लिया ।। ४ ।। और उन्होंने उसे ले जाकर शम्बरासुरको भेंटके रूपमें दे दिया। शम्बरासुरके रसोइये उस अद्भुत मच्छको उठाकर रसोईघरमें ले आये और कुल्हाडिय़ोंसे उसे काटने लगे ।। ५ ।। रसोइयोंने मत्स्यके पेटमें बालक देखकर उसे शम्बरासुरकी दासी मायावतीको समॢपत किया। उसके मनमें बड़ी शंका हुई। तब नारदजीने आकर बालकका कामदेव होना, श्रीकृष्णकी पत्नी रुक्मिणीके गर्भसे जन्म लेना, मच्छके पेटमें जाना सब कुछ कह सुनाया ।। ६ ।। परीक्षित्‌ ! वह मायावती कामदेवकी यशस्विनी पत्नी रति ही थी। जिस दिन शङ्करजीके क्रोधसे कामदेवका शरीर भस्म हो गया था, उसी दिनसे वह उसकी देहके पुन: उत्पन्न होनेकी प्रतीक्षा कर रही थी ।। ७ ।। उसी रतिको शम्बरासुरने अपने यहाँ दाल-भात बनानेके काममें नियुक्त कर रखा था। जब उसे मालूम हुआ कि इस शिशुके रूपमें मेरे पति कामदेव ही हैं, तब वह उसके प्रति बहुत प्रेम करने लगी ।। ८ ।। श्रीकृष्णकुमार भगवान्‌ प्रद्युम्न बहुत थोड़े दिनोंमें जवान हो गये। उनका रूप-लावण्य इतना अद्भुत था कि जो स्त्रियाँ उनकी ओर देखतीं, उनके मनमें शृङ्गार-रसका उद्दीपन हो जाता ।। ९ ।। कमलदल के समान कोमल एवं विशाल नेत्र, घुटनोंतक लंबी-लंबी बाँहें और मनुष्यलोकमें सबसे सुन्दर शरीर ! रति सलज्ज हास्यके साथ भौंह मटकाकर उनकी ओर देखती और प्रेमसे भरकर स्त्री-पुरुषसम्बन्धी भाव व्यक्त करती हुई उनकी सेवा-शुश्रूषामें लगी रहती ।। १० ।। श्रीकृष्णनन्दन भगवान्‌ प्रद्युम्रने उसके भावोंमें परिवर्तन देखकर कहा—‘देवि ! तुम तो मेरी माँके समान हो। तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? मैं देखता हूँ कि तुम माताका भाव छोडक़र कामिनीके समान हाव-भाव दिखा रही हो।। ११ ।।

रतिने कहा—‘प्रभो ! आप स्वयं भगवान्‌ नारायणके पुत्र हैं। शम्बरासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था। आप मेरे पति स्वयं कामदेव हैं और मैं आपकी सदाकी धर्मपत्नी रति हूँ ।। १२ ।। मेरे स्वामी ! जब आप दस दिनके भी न थे, तब इस शम्बरासुरने आपको हरकर समुद्रमें डाल दिया था। वहाँ एक मच्छ आपको निगल गया और उसीके पेटसे आप यहाँ मुझे प्राप्त हुए हैं ।। १३ ।। यह शम्बरासुर सैकड़ों प्रकारकी माया जानता है। इसको अपने वशमें कर लेना या जीत लेना बहुत ही कठिन है। आप अपने इस शत्रुको मोहन आदि मायाओंके द्वारा नष्ट कर डालिये ।। १४ ।। स्वामिन् ! अपनी सन्तान आपके खो जानेसे आपकी माता पुत्रस्नेहसे व्याकुल हो रही हैं, वे आतुर होकर अत्यन्त दीनतासे रात-दिन चिन्ता करती रहती हैं। उनकी ठीक वैसी ही दशा हो रही है, जैसी बच्चा खो जानेपर कुररी पक्षीकी अथवा बछड़ा खो जानेपर बेचारी गायकी होती है ।। १५ ।। मायावती रतिने इस प्रकार कहकर परमशक्तिशाली प्रद्युम्रको महामाया नामकी विद्या सिखायी । यह विद्या ऐसी है, जो सब प्रकारकी मायाओंका नाश कर देती है ।। १६ ।। अब प्रद्युम्रजी शम्बरासुरके पास जाकर उसपर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे । वे चाहते थे कि यह किसी प्रकार झगड़ा कर बैठे । इतना ही नहीं, उन्होंने युद्धके लिये उसे स्पष्टरूपसे ललकारा ।। १७ ।।

प्रद्युम्न जी के कटुवचनोंकी चोटसे शम्बरासुर तिलमिला उठा । मानो किसीने विषैले साँपको पैर से ठोकर मार दी हो । उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं । वह हाथमें गदा लेकर बाहर निकल आया ।। १८ ।। उसने अपनी गदा बड़े जोरसे आकाश में घुमायी और इसके बाद प्रद्युम्नजी पर चला दी । गदा चलाते समय उसने इतना कर्कश सिंहनाद किया, मानो बिजली कडक़ रही हो ।। १९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ प्रद्युम्रने देखा कि उसकी गदा बड़े वेगसे मेरी ओर आ रही है । तब उन्होंने अपनी गदाके प्रहारसे उसकी गदा गिरा दी और क्रोधमें भरकर अपनी गदा उसपर चलायी ।। २० ।। तब वह दैत्य मयासुरकी बतलायी हुई आसुरी मायाका आश्रय लेकर आकाशमें चला गया और वहींसे प्रद्युम्न जी पर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा ।। २१ ।। महारथी प्रद्युम्नजी पर बहुत-सी अस्त्र- वर्षा करके जब वह उन्हें पीडि़त करने लगा, तब उन्होंने समस्त मायाओं को शान्त करनेवाली सत्त्वमयी महाविद्याका प्रयोग किया ।। २२ ।। तदनन्तर शम्बरासुर ने यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षसोंकी सैकड़ों मायाओंका प्रयोग किया; परंतु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्रजीने अपनी महाविद्यासे उन सबका नाश कर दिया ।। २३ ।। इसके बाद उन्होंने एक तीक्ष्ण तलवार उठायी और शम्बरासुरका किरीट एवं कुण्डलसे सुशोभित सिर, जो लाल-लाल दाढ़ी, मूछोंसे बड़ा भयङ्कर लग रहा था, काटकर धड़से अलग कर दिया ।। २४ ।। देवतालोग पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाश में चलना जानती थी, अपने पति प्रद्युम्न जी को आकाशमार्ग से द्वारकापुरीमें ले गयी ।। २५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मी की हार

तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह

 

श्रीशुक उवाच

तया परित्रासविकम्पिताङ्गया

शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया

कातर्यविस्रंसितहेममालया

गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत ३४

चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं

सश्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्

तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं

यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः ३५

कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्

तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः

विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमब्रवीत् ३६

असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्

वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः ३७

मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया

सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान् ३८

बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति

त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः ३९

क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः

भ्रातापि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्ततः ४०

राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः

मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि ४१

तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्

यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत् ४२

आत्ममोहो नृणामेव कल्पते देवमायया

सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम् ४३

एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्

नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः ४४

देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः

आत्मन्यविद्यया कॢप्तः संसारयति देहिनम् ४५

नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्च सतः सति

तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः ४६

जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्

कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव ४७

यथा शयान आत्मानं विषयान्फलमेव च

अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम् ४८

तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्

तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ४९

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता

वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे ५०

प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः

स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः ५१

चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत्पुरम्

अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्

कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा ५२

भगवान्भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान्

पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह ५३

तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे

अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप ५४

नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः

पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः ५५

सा वृष्णिपुर्युत्तम्भितेन्द्र केतुभिर्

विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः

बभौ प्रतिद्वार्युपकॢप्तमङ्गलैर्

आपूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः ५६

सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्

गजैर्द्वाःसु परामृष्ट रम्भापूगोपशोभिता ५७

कुरुसृञ्जयकैकेय विदर्भयदुकुन्तयः

मिथो मुमुदिरे तस्मिन्सम्भ्रमात्परिधावताम् ५८

रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः

राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः ५९

द्वारकायामभूद्राजन्महामोदः पुरौकसाम्

रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम् ६०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंरुक्मिणीजीका एक-एक अङ्ग भयके मारे थर-थर काँप रहा था। शोककी प्रबलतासे मुँह सूख गया था, गला रुँध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे गिर पड़ा था और इसी अवस्थामें वे भगवान्‌के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान्‌ उन्हें भयभीत देखकर करुणासे द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मीको मार डालनेका विचार छोड़ दिया ।। ३४ ।। फिर भी रुक्मी उनके अनिष्टकी चेष्टासे विमुख न हुआ। तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसको उसीके दुपट्टेसे बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगहसे मूँडक़र उसे कुरूप बना दिया। तबतक यदुवंशी वीरोंने शत्रुकी अद्भुत सेनाको तहस-नहस कर डालाठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको रौंद डालता है ।। ३५ ।। फिर वे लोग उधरसे लौटकर श्रीकृष्णके पास आये, तो देखा कि रुक्मी दुपट्टेसे बँधा हुआ अधमरी अवस्थामें पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ बलरामजीको बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्णसे कहा।। ३६ ।। कृष्ण ! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगोंके योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धीकी दाढ़ी-मूँछ मूँडक़र उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकारका वध ही है।। ३७ ।। इसके बाद बलरामजीने रुक्मिणीको सम्बोधन करके कहा— ‘साध्वी ! तुम्हारे भाईका रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हमलोगोंसे बुरा न मानना; क्योंकि जीवको सुख-दु:ख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्मका फल भोगना पड़ता है।। ३८ ।। अब श्रीकृष्णसे बोले—‘कृष्ण ! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे, तो भी अपने ही सम्बन्धियोंके द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराधसे ही मर चुका है, मरे हुएको फिर क्या मारना ?’ ।। ३९ ।। फिर रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी ! ब्रह्माजीने क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाईको मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है।। ४० ।। इसके बाद श्रीकृष्णसे बोले—‘भाई कृष्ण ! यह ठीक है कि जो लोग धनके नशेमें अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारणसे अपने बन्धुओंका भी तिरस्कार कर दिया करते हैं।। ४१ ।। अब वे रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी ! तुम्हारे भाई- बन्धु समस्त प्राणियोंके प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मङ्गलके लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियोंकी भाँति अमङ्गल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी विषमता है ।। ४२ ।। देवि ! जो लोग भगवान्‌की मायासे मोहित होकर देहको ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हींको ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है ।। ४३ ।। समस्त देहधारियोंकी आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, मायासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियोंके भेदसे जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परंतु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीरके भेदसे आत्माका भेद मानते हैं ।। ४४ ।। यह शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मामें उसके अज्ञानसे ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे मैं समझता है, उसको जन्म-मृत्युके चक्करमें ले जाता है ।। ४५ ।। साध्वी ! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्यके द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्यके साथ नेत्र और रूपका न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसारकी सत्ता आत्मसत्ताके कारण जान पड़ती है, समस्त संसारका प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्माके साथ दूसरे असत् पदार्थोंका संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है ? ।। ४६ ।। जन्म लेना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और मरनाये सारे विकार शरीरके ही होते हैं, आत्माके नहीं। जैसे कृष्णपक्षमें कलाओंका ही क्षय होता है, चन्द्रमाका नहीं, परंतु अमावस्याके दिन व्यवहारमें लोग चन्द्रमाका ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीरके ही होते हैं, परंतु लोग उसे भ्रमवश अपनाअपने आत्माका मान लेते हैं ।। ४७ ।। जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थके न होनेपर भी स्वप्नमें भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलोंका अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठमूठ संसारचक्रका अनुभव करते हैं ।। ४८ ।। इसलिये साध्वी ! अज्ञानके कारण होनेवाले इस शोकको त्याग दो। यह शोक अन्त:करणको मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोडक़र तुम अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ ।। ४९ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब बलरामजीने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने अपने मनका मैल मिटाकर विवेक-बुद्धिसे उसका समाधान किया ।। ५० ।। रुक्मीकी सेना और उसके तेजका नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्तकी सारी आशा- अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओंने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जानेकी कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी ।। ५१ ।। अत: उसने अपने रहनेके लिये भोजकट नामकी एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि दुर्बुद्धि कृष्णको मारे बिना और अपनी छोटी बहिनको लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा ।। ५२ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सब राजाओंको जीत लिया और विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीको द्वारकामें लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ५३ ।। हे राजन् ! उस समय द्वारकापुरीमें घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँके सभी लोगोंका यदुपति श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम जो था ।। ५४ ।। वहाँके सभी नर-नारी मणियोंके चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्दसे भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिनको अनेकों भेंटकी सामग्रियाँ उपहारमें दीं ।। ५५ ।। उस समय द्वारकाकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी- बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचेतक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नोंके तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वारपर दूब, खील आदि मङ्गलकी वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा और धूपकी सुगन्ध तथा दीपावलीसे बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी ।। ५६ ।। मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियोंके मदसे द्वारकाकी सडक़ और गलियोंका छिडक़ाव हो गया था। प्रत्येक दरवाजेपर केलोंके खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे ।। ५७ ।। उस उत्सवमें कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धुवर्गोंमें कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशोंके लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे ।। ५८ ।। जहाँ-तहाँ रुक्मिणी-हरणकी ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं ।। ५९ ।। महाराज ! भगवती लक्ष्मीजीको रुक्मिणीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियोंको परम आनन्द हुआ ।। ६० ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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