गुरुवार, 10 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ

भगवान्‌ का विवाह

 

श्रीशुक उवाच -

इति भूम्यर्थितो वाग्भिः भगवान् भक्तिनम्रया ।

 दत्त्वाभयं भौमगृहं प्राविशत् सकलर्द्धिमत् ॥ ३२ ॥

 तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम् ।

 भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः ॥ ३३ ॥

 तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवर्यं विमोहिताः ।

 मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं दैवोपसादितम् ॥ ३४ ॥

 भूयात् पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम् ।

 इति सर्वाः पृथक् कृष्णे भावेन हृदयं दधुः ॥ ३५ ॥

 ताः प्राहिणोद् द्वारवतीं सुमृष्टविरजोऽम्बराः ।

 नरयानैर्महाकोशान् रथाश्वान् द्रविणं महत् ॥ ३६ ॥

ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दन्तांस्तरस्विनः ।

 पाण्डुरांश्च चतुःषष्टिं प्रेरयामास केशवः ॥ ३७ ॥

 गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्यै च कुण्डले ।

 पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण सहेन्द्र्याण्या च सप्रियः ॥ ३८ ॥

 चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारीजातं गरुत्मति ।

 आरोप्य सेन्द्रान् विबुधान् निर्जित्योपानयत् पुरम् ॥ ३९ ॥

 स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः ।

 अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात् तद् गन्धासवलम्पटाः ॥ ४० ॥

ययाच आनम्य किरीटकोटिभिः

     पादौ स्पृशन् अच्युतमर्थसाधनम् ।

 सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महान्

     अहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम् ॥ ४१ ॥

अथो मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु ताः स्त्रियः ।

 यथोपयेमे भगवान् तावद् रूपधरोऽव्ययः ॥ ४२ ॥

गृहेषु तासामनपाय्यतर्ककृत्

     निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः ।

 रेमे रमाभिर्निजकामसम्प्लुतो

     यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन् ॥ ४३ ॥

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता

     ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम् ।

 भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग

     हासावलोकनवसङ्गमजल्पलज्जाः ॥ ४४ ॥

 प्रत्युद्‌गमासनवरार्हणपदशौच

     ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।

 केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः

     दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ॥ ४५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब पृथ्वीने भक्तिभावसे विनम्र होकर इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्तको अभयदान दिया और भौमासुरके समस्त सम्पत्तियोंसे सम्पन्न महलमें प्रवेश किया ।। ३२ ।। वहाँ जाकर भगवान्‌ ने देखा कि भौमासुरने बलपूर्वक राजाओंसे सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं ।। ३३ ।। जब उन राजकुमारियों ने अन्त:पुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान्‌ को अपने परम प्रियतम पतिके रूपमें वरण कर लिया ।। ३४ ।। उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मनमें यही निश्चय किया कि ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषाको पूर्ण करें।इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भावसे अपना हृदय भगवान्‌के प्रति निछावर कर दिया ।। ३५ ।। तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियोंको सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों- से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी ।। ३६ ।। ऐरावतके वंशमें उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंगके चौंसठ हाथी भी भगवान्‌ ने वहाँसे द्वारका भेजे ।। ३७ ।।

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्रके महलोंमें  गये। वहाँ देवराज इन्द्रने अपनी पत्नी इन्द्राणीके साथ सत्यभामा जी और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की, तब भगवान्‌ ने अदितिके कुण्डल उन्हें दे दिये ।। ३८ ।। वहाँसे लौटते समय सत्यभामाजीकी प्रेरणासे भगवान्‌ श्रीकृष्णने कल्पवृक्ष उखाडक़र गरुड़पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओंको जीतकर उसे द्वारकामें ले आये ।। ३९ ।। भगवान्‌ ने उसे सत्यभामाके महलके बगीचेमें लगा दिया। इससे उस बगीचेकी शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्षके साथ उसके गन्ध और मकरन्दके लोभी भौंरे स्वर्गसे द्वारकामें चले आये थे ।। ४० ।। परीक्षित्‌ ! देखो तो सही, जब इन्द्रको अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुटकी नोकसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श करके उनसे सहायताकी भिक्षा माँगी थी, परंतु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णसे लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यताका है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यताको ।। ४१ ।।

तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्णने एक ही मुहूर्तमें अलग-अलग भवनोंमें अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियोंका शास्त्रोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान्‌ के लिये इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ।। ४२ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की पत्नियोंके अलग-अलग महलोंमें ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिककी तो बात ही क्या है। उन महलोंमें रहकर मति- गतिके परेकी लीला करनेवाले अविनाशी भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्दमें मग्र रहते हुए लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा उन पत्नियोंके साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमें रहकर गृहस्थ-धर्मके अनुसार आचरण करता हो ।। ४३ ।। परीक्षित्‌ ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान्‌के वास्तविक स्वरूपको और उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने-वाली लज्जासे युक्त होकर सब प्रकारसे भगवान्‌की सेवा करती रहती थीं ।। ४४ ।। उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महलमें भगवान्‌ पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान्‌ की सेवा करतीं ।। ४५ ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पारिजातहरणनरकवधो नाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ

भगवान्‌ का विवाह

 

यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह ।

 हरिस्तान्यच्छिनत् तीक्ष्णैः शरैरेकैक शस्त्रीभिः ॥ १७ ॥

 उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान् ।

 गुरुत्मता हन्यमानाः तुण्डपक्षनखैर्गजाः ॥ १८ ॥

 पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत ।

 दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकं ॥ १९ ॥

 तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः ।

 नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः ॥ २० ॥

 शूलं भौमोऽच्युतं हन्तुं आददे वितथोद्यमः ।

 तद्विसर्गात् पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः ।

 अपाहरद् गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना ॥ २१ ॥

सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणं

     बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलम् ।

 हा हेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा

     माल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईडिरे ॥ २२ ॥

 ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुण्डले ।

     प्रतप्तजाम्बूनदरत्‍नभास्वरे ।

 सवैजयन्त्या वनमालयार्पयत्

     प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम् ॥ २३ ॥

अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम् ।

 प्राञ्जलिः प्रणता राजन् भक्तिप्रवणया धिया ॥ २४ ॥

 

 भूमिरुवाच

 नमस्ते देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर ।

 भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन्नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥

 नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।

 नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २६ ॥

 नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे ।

 पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः ॥ २७ ॥

 अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

 परावरात्मन् भूतात्मन् परमात्मन् नमोऽस्तु ते ॥ २८ ॥

त्वं वै सिसृक्षुरज उत्कटं प्रभो

     तमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः ।

 स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते

     कालः प्रधानं पुरुषो भवान् परः ॥ २९ ॥

 अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो

     मात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि ।

 कर्ता महानित्यखिलं चराचरं

     त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः ॥ ३० ॥

 तस्यात्मजोऽयं तव पादपङ्कजं

     भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः ।

 तत् पालयैनं कुरु हस्तपङ्कजं

     शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम् ॥ ३१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भौमासुरके सैनिकोंने भगवान्‌ पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमेंसे प्रत्येकको भगवान्‌ ने तीन-तीन तीखे बाणोंसे काट गिराया ।। १७ ।। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण गरुडज़ीपर सवार थे और गरुडज़ी अपने पंखोंसे हाथियोंको मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख और पंजोंकी मारसे हाथियोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमिसे भागकर नगरमें घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुडज़ीकी मारसे पीडि़त होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उनपर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्रको भी विफल कर दिया था। परंतु उसकी चोटसे पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसीने मतवाले गजराजपर फूलोंकी मालासे प्रहार किया हो ।। १८२० ।। अब भौमासुरने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्णको मार डालनेके लिये एक त्रिशूल उठाया। परंतु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे हाथीपर बैठे हुए भौमासुरका सिर काट डाला ।। २१ ।। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीटके सहित पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुरके सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग साधु साधुकहने लगे और देवतालोग भगवान्‌ पर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ।। २२ ।।

अब पृथ्वी भगवान्‌के पास आयी। उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णके गले में वैजयन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माताके जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोनेके एवं रत्नजटित थे, भगवान्‌को दे दिये तथा वरुणका छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी ।। २३ ।। राजन् ! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओंके द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रणाम करके हाथ जोडक़र भक्तिभावभरे हृदयसे उनकी स्तुति करने लगीं ।। २४ ।।

पृथ्वीदेवीने कहाशङ्खचक्रगदाधारी देवदेवेश्वर ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन् ! आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसीके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको मैं नमस्कार करती हूँ ।। २५ ।। प्रभो ! आपकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। आप कमलकी माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल-से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमलके समान सुकुमार और भक्तोंके हृदयको शीतल करनेवाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ।। २६ ।। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्यके आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होनेपर भी स्वयं वसुदेवनन्दनके रूपमें प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।। २७ ।। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परंतु इस जगत्के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियोंके आश्रय ब्रह्म हैं। जगत्का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैंसब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन् ! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार नमस्कार ।। २८ ।। प्रभो ! जब आप जगत्की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुणको, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुणको स्वीकार करते हैं। परंतु यह सब करनेपर भी आप इन गुणोंसे ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते ! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनोंके संयोग-वियोगके हेतु काल हैं, तथा उन तीनोंसे परे भी हैं ।। २९ ।। भगवन् ! मैं (पृथ्वी), जल, अग्रि, वायु, आकाश, पञ्चतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्वकहाँतक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरूपमें भ्रमके कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ।। ३० ।। शरणागत-भय-भञ्जन प्रभो ! मेरे पुत्र भौमासुरका यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलोंकी शरणमें ले आयी हूँ। प्रभो ! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापोंको नष्ट करनेवाला है ।। ३१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



बुधवार, 9 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ

भगवान्‌ का विवाह

 

श्रीराजोवाच -

यथा हतो भगवता भौमो येने च ताः स्त्रियः ।

 निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इन्द्रेण हृतछत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना ।

 हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम् ।

 सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ ॥ २ ॥

 गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैः जलाग्न्यनिलदुर्गमम् ।

 मुरपाशायुतैर्घोरैः दृढैः सर्वत आवृतम् ॥ ३ ॥

 गदया निर्बिभेदाद्रीन् शस्त्रदुर्गाणि सायकैः ।

 चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना ॥ ४ ॥

 शङ्खनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम् ।

 प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः ॥ ५ ॥

 पाञ्चजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्तशनिभीषणम् ।

 मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात् ॥ ६ ॥

त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो

     युगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बणः ।

 ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पञ्चभिर्मुखैः

     अभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः ॥ ७ ॥

 आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते

     निरस्य वक्त्रैर्व्यनदत् स पञ्चभिः ।

 स रोदसी सर्वदिशोऽन्तरं महान्

     आपूरयन् अण्डकटाहमावृणोत् ॥ ८ ॥

 तदापतद् वै त्रिशिखं गरुत्मते

     हरिः शराभ्यां अभिनत्त्रिधौजसा ।

 मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्

     तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत ॥ ९ ॥

 तामापतन्तीं गदया गदां मृधे

     गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा ।

 उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः

     शिरांसि चक्रेण जहार लीलया ॥ १० ॥

 व्यसुः पपाताम्भसि कृत्तशीर्षो

     निकृत्तशृङ्गोऽद्रिरिवेन्द्रतेजसा ।

 तस्यात्मजाः सप्त पितुर्वधातुराः

     प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः ॥ ११ ॥

 ताम्रोऽन्तरिक्षः श्रवणो विभावसुः

     वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः ।

 पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे

     भौमप्रयुक्ता निरग धृतायुधाः ॥ १२ ॥

 प्रायुञ्जतासाद्य शरानसीन् गदाः

     शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणाः ।

 तच्छस्त्रकूटं भगवान् स्वमार्गणैः

     अमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह ॥ १३ ॥

 तान्पीठमुख्याननयद् यमक्षयं

     निकृत्तशीर्षोरुभुजाङ्घ्रिवर्मणः ।

 स्वानीकपानच्युतचक्रसायकैः

     तथा निरस्तान् नरको धरासुतः ॥ १४ ॥

निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्रवन्मदैः

     गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमात् ।

 दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं

     सूर्योपरिष्टात् सतडिद्‌घनं यथा ।

 कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं

     योधाश्च सर्वे युगपत् च विव्यधुः ॥ १५ ॥

 तद्‌भौमसैन्यं भगवान् गदाग्रजो

     विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः ।

 निकृत्तबाहूरुशिरोध्रविग्रहं

     चकार तर्ह्येव हताश्वकुञ्जरम् ॥ १६ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने भौमासुरको, जिसने उन स्त्रियोंको बंदीगृहमें डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा ? आप कृपा करके शार्ङ्ग-धनुषधारी भगवान्‌ श्रीकृष्णका वह विचित्र चरित्र सुनाइये ।। १ ।।

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! भौमासुरने वरुणका छत्र, माता अदितिके कुण्डल और मेरु पर्वतपर स्थित देवताओंका मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इसपर सबके राजा इन्द्र द्वारकामें आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णको सुनायी। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और भौमासुरकी राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गये ।। २ ।। प्राग्ज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ोंकी किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रोंका घेरा लगाया हुआ था। फिर जलसे भरी खार्ईं थी, उसके बाद आग या बिजलीकी चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्यने नगरके चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे ।। ३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी गदाकी चोटसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रोंकी मोरचेबंदीको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्रके द्वारा अग्रि, जल और वायुकी चहारदीवारियोंको तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्यके फंदोंको तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दिया ।। ४ ।। जो बड़े-बड़े यन्त्रमशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीर-पुरुषोंके हृदयको शङ्खनादसे विदीर्ण कर दिया और नगरके परकोटेको गदाधरभगवान्‌ने अपनी भारी गदासे ध्वंस कर डाला ।। ५ ।।

भगवान्‌ के पाञ्चजन्य शङ्खकी ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कडक़ के समान महाभयङ्कर थी। उसे सुनकर मुर दैत्यकी नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अबतक वह जलके भीतर सो रहा था ।। ६ ।। वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्रिके समान प्रचण्ड तेजस्वी था। वह इतना भयङ्कर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था। उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान्‌की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुडज़ीपर टूट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखोंसे त्रिलोकीको निगल जायगा ।। ७ ।। उसने अपने त्रिशूलको बड़े वेगसे घुमाकर गरुडज़ीपर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखोंसे घोर सिंहनाद करने लगा। उसके सिंहनाद का महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओंमें फैलकर सारे ब्रह्माण्डमें भर गया ।। ८ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मुर दैत्यका त्रिशूल गरुडक़ी ओर बड़े वेगसे आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्तीसे उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्यके मुखोंमें भी भगवान्‌ ने बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान्‌ पर अपनी गदा चलायी ।। ९ ।। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी गदाके प्रहारसे मुर दैत्यकी गदाको अपने पास पहुँचनेके पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जानेके कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेलमें ही चक्रसे उसके पाँचों सिर उतार लिये ।। १० ।। सिर कटते ही मुर दैत्यके प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जलमें गिर पड़ा, जैसे इन्द्रके वज्रसे शिखर कट जानेपर कोई पर्वत समुद्रमें गिर पड़ा हो। मुर दैत्यके सात पुत्र थेताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान् और अरुण। ये अपने पिता की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेनेके लिये क्रोध से भरकर शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्य को अपना सेनापति बनाकर भौमासुर के आदेश से श्रीकृष्णपर चढ़ आये ।। ११-१२ ।। वे वहाँ आकर बड़े क्रोधसे भगवान्‌ श्रीकृष्णपर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌की शक्ति अमोघ और अनन्त है। उन्होंने अपने बाणों से उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये ।। १३ ।। भगवान्‌ के शस्त्रप्रहार से सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्योंके सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभीको भगवान्‌ ने यमराज के घर पहुँचा दिया। जब पृथ्वीके पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चक्र और बाणोंसे हमारी सेना और सेनापतियोंका संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ। वह समुद्रतटपर पैदा हुए बहुत-से मदवाले हाथियोंकी सेना लेकर नगरसे बाहर निकला। उसने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी पत्नीके साथ आकाशमें गरुड़पर स्थित हैं, जैसे सूर्यके ऊपर बिजलीके साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो। भौमासुर ने स्वयं भगवान्‌ के ऊपर शतघ्नी नाम की शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकों ने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े ।। १४-१५ ।। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे। इससे उसी समय भौमासुर के सैनिकों की भुजाएँ, जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे ।। १६ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा

 

श्रीशुक उवाच

तमाह भगवान्हृष्टः कृतासनपरिग्रहः

मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन ३९

 

श्रीभगवानुवाच

नरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिता

राजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिनः

तथापि याचे तव सौहृदेच्छया

कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम् ४०

 

श्रीराजोवाच

कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः

गुणैकधाम्नो यस्याङ्गे श्रीर्वसत्यनपायिनी ४१

किन्त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्वतर्षभ

पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया ४२

सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः

एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः ४३

यदिमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनन्दन

वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियःपते ४४

एवं समयमाकर्ण्य बद्ध्वा परिकरं प्रभुः

आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान् ४५

बद्ध्वा तान्दामभिः शौरिर्भग्नदर्पान्हतौजसः

व्यकर्षल्लीलया बद्धान्बालो दारुमयान्यथा ४६

ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः

तां प्रत्यगृह्णाद्भगवान्विधिवत्सदृशीं प्रभुः ४७

राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्

लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सवः ४८

शङ्खभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः

नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासःस्रगलङ्कृताः ४९

दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद्विभुः

युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्रीवसुवाससम् ५०

नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान्रथान्

रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान्नरान् ५१

दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ

स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोशलः ५२

श्रुत्वैतद्रुरुधुर्भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम्

भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा ५३

तानस्यतः शरव्रातान्बन्धुप्रियकृदर्जुनः

गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव ५४

पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया

रेमे यदूनामृषभो भगवान्देवकीसुतः ५५

श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रां उपयेमे पितृष्वसुः

कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्णः सन्तर्दनादिभिः ५६

सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्

स्वयंवरे जहारैकः स सुपर्णः सुधामिव ५७

अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन्सहस्रशः

भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः ५८

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा नग्नजित् का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान्‌ श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहा ।। ३९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाराजन् ! जो क्षत्रिय अपने धर्ममें स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानोंने उसके इस कर्मकी निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्दकाप्रेमका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदलेमें कुछ शुल्क देनेकी प्रथा नहीं है ।। ४० ।।

राजा नग्नजित् ने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त गुणोंके धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्ष:स्थलपर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आप से बढक़र कन्याके लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है ? ।। ४१ ।। परंतु यदुवंशशिरोमणे ! हमने पहले ही इस विषयमें एक प्रण कर लिया है। कन्याके लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा हैइत्यादि बातें जाननेके लिये ही ऐसा किया गया है ।। ४२ ।। वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ! हमारे ये सातों बैल किसीके वशमें न आनेवाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होंने बहुत-से राजकुमारों के अङ्गों को खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है ।। ४३ ।। श्रीकृष्ण ! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वशमें कर लें, तो लक्ष्मीपते ! आप ही हमारी कन्याके लिये अभीष्ट वर होंगे ।। ४४ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजा नग्नजित् का ऐसा प्रण सुनकर कमरमें फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेलमें ही उन बैलों को नाथ लिया ।। ४५ ।। इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा- सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है ।। ४६ ।। राजा नग्नजित् को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपनी कन्याका दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ४७ ।। रानियोंने देखा कि हमारी कन्याको उसके अत्यन्त प्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही पतिके रूपमें प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा ।। ४८ ।। शङ्ख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पोंके हार और गहनोंसे सज-धजकर नगरके नर-नारी आनन्द मनाने लगे ।। ४९ ।। राजा नग्रजित्ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गलेमें स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेजमें दीं। इनके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेजमें दिये ।। ५०-५१ ।। कोसलनरेश राजा नग्नजित् ने कन्या और दामाद को रथपर चढ़ाकर एक बड़ी सेनाके साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहके उद्रेकसे द्रवित हो रहा था ।। ५२ ।।

परीक्षित्‌ ! यदुवंशियोंने और राजा नग्नजित् के  बैलोंने पहले बहुत-से राजाओंका बल-पौरुष धूलमें मिला दिया था। जब उन राजाओंने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह विजय सहन न हुई। उन लोगोंने नाग्नजिती सत्याको लेकर जाते समय मार्गमें भगवान्‌ श्रीकृष्णको घेर लिया ।। ५३ ।। और वे बड़े वेगसे उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डववीर अर्जुनने अपने मित्र भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रिय करनेके लिये गाण्डीव धनुष धारण करकेजैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओंको खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियोंको मारपीटकर भगा दिया ।। ५४ ।। तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्याके साथ द्वारकामें आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे ।। ५५ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देशमें ब्याही गयी थीं। उनकी कन्याका नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदिने उसे स्वयं ही भगवान्‌ श्रीकृष्णको दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया ।। ५६ ।। मद्रप्रदेश के राजाकी एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुडऩे स्वर्ग से अमृतका हरण किया था, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में अकेले ही उसे हर लिया ।। ५७ ।।

परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण की और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियों को वे भौमासुर को मारकर उसके बंदीगृह से छुड़ा लाये थे ।। ५८ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धेऽष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...