शनिवार, 12 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीभगवानुवाच

साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्री प्रलम्भिता

मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि ४९

यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि

सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यद ५०

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे

यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता ५१

ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया

कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया ५२

मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं

वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्

ते मन्दभागा निरयेऽपि ये नृणां

मात्रात्मकत्वात्निरयः सुसङ्गमः ५३

दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया

कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः

सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो

ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः ५४

न त्वादृशीम्प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु

पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले

प्राप्तान्नृपान्न विगणय्य रहोहरो मे

प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य ५५

भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य

प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्

दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या

नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते ५६

दूतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमन्त्रः

प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्

मत्वा जिहास इदं अङ्गमनन्ययोग्यं

तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः ५७

 

श्रीशुक उवाच

एवं सौरतसंलापैर्भगवान्जगदीश्वरः

स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन् ५८

तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव

आस्थितो गृहमेधीयान्धर्मांल्लोकगुरुर्हरिः ५९

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहासाध्वी! राजकुमारी ! यही बातें सुननेके लिये तो मैंने तुमसे हँसी- हँसीमें तुम्हारी वञ्चना की थी, तुम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनोंकी जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरश: सत्य है ।। ४९ ।। सुन्दरी ! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओंके समान बन्धनमें डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओंसे मुक्त कर देती हैं ।। ५० ।। पुण्यमयी प्रिये ! मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परंतु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई ।। ५१ ।। प्रिये ! मैं मोक्षका स्वामी हूँ। लोगोंको संसार-सागरसे पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकारके व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवनके विषय-सुखकी अभिलाषासे मेरा भजन करते हैं, वे मेरी मायासे मोहित हैं।। ५२ ।। मानिनी प्रिये ! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंका आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुख के साधन सम्पत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरकमें और नरक के ही समान सूकर-कूकर आदि योनियों में भी प्राप्त हो सकते हैं। परंतु उन लोगों का मन तो विषयों में ही लगा रहता है,इसलिये उन्हें नरक में जाना भी अच्छा जान पड़ता है ।। ५३ ।। गृहेश्वरी प्राणप्रिये ! यह बड़े आनन्दकी बात है कि तुमने अबतक निरन्तर संसार-बन्धन से मुक्त करनेवाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियोंका चित्त दूषित कामनाओंसे भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में ही लगी रहनेके कारण अनेकों प्रकार के छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है ।।५४।। मानिनि ! मुझे अपने घरभर में तुम्हारे समान प्रेम करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाह में आये हुए राजाओं की उपेक्षा करके ब्राह्मण के द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था ।। ५५ ।। तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाईको युद्धमें जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में चौसर खेलते समय बलरामजी ने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जानेकी आशङ्का से तुमने चुपचाप वह सारा दु:ख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुणसे मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ ।। ५६ ।। तुमने मेरी प्राप्तिके लिये दूत के द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परंतु जब तुमने मेरे पहुँचने में कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय तुमने अपना यह सर्वाङ्गसुन्दर शरीर किसी दूसरे के योग्य न समझकर इसे छोडऩेका संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका केवल अभिनन्दन करते हैं ।। ५७ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्योंकी-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेमको बढ़ानेवाले विनोदभरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीके साथ विहार करते हैं ।। ५८ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त जगत् को  शिक्षा देनेवाले और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियोंके महलोंमें भी गृहस्थोंके समान रहते और गृहस्थोचित धर्मका पालन करते थे ।। ५९ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम षष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह

यद्वै भवान्भगवतोऽसदृशी विभूम्नः

क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः

क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा ३४

सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः

शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा

नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं

त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम् ३५

त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां

वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्

यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य

भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम् ३६

निष्किञ्चनो ननु भवान्न यतोऽस्ति किञ्चिद्

यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः

न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः

प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम् ३७

त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा

यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्

तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः

पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न ३८

त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव

आत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि

हित्वा भवद्भ्रुव उदीरितकालवेग

ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन्कुतोऽन्ये ३९

जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्

विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्

सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून्स्वभागं

तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः ४०

यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्गवैन्य

जायन्तनाहुषगयादय ऐक्यपत्यम्

राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष

सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम् ४१

कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्धम्

आघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्

लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य

मर्त्या सदोरुभयमर्थविवीतदृष्टिः ४२

तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीशम्

आत्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्

स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या

यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः ४३

तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः

स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वविडालभृत्याः

यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्

युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता ४४

त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्तर्

मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्

जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा

या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री ४५

अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग

आत्मन्रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः

यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो

मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा ४६

नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन

अम्बाया एव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित् ४७

व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम्

बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः ४८

 

रुक्मिणीजीने कहाकमलनयन ! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणोंसे युक्त, अनन्त भगवान्‌ के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमामें स्थित, तीनों गुणोंके स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंसे सेवित आप भगवान्‌; और कहाँ तीनों गुणोंके अनुसार स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओंके पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं ।। ३४ ।। भला, मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन् ! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओंके भयसे समुद्रमें आ छिपे हैं। परंतु राजा शब्दका अर्थ पृथ्वीके राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हींके भयसे अन्त:करणरूप समुद्रमें चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्माके रूपमें विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओंसे वैर रखते हैं, परंतु वे राजा कौन हैं ? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो ! आप राजसिंहासन से रहित हैं, यह भी ठीक ही है। क्योंकि आपके चरणों की सेवा करनेवालों ने भी राजाके पद को घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूरसे ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ।। ३५ ।। आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मों का मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयोंमें उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त ! आपके मार्गपर चलनेवाले आपके भक्तोंकी भी चेष्टाएँ जब प्राय: अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्यों के आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है ?।। ३६ ।। आपने अपने को अकिञ्चन बतलाया है। परंतु आपकी अकिञ्चनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखनेके लिये कुछ नहीं है। परंतु जिन ब्रह्मा आदि देवताओंकी पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं, और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यता के अभिमानसे अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्युके रूपमें उनके सिरपर सवार हैं ।। ३७ ।। जगत् में जीवके लिये जितने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैंधर्म, अर्थ, काम, मोक्षउन सबके रूपमें आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियोंप्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्योंके फलस्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करनेके लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन् ! उन्हीं विवेकी पुरुषोंका आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुषके सहवाससे प्राप्त होनेवाले सुख या दु:खके वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करनेके योग्य नहीं हैं ।। ३८ ।। यह ठीक है कि भिक्षुकोंने आपकी प्रशंसा की है। परंतु किन भिक्षुकोंने ? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओंने आपकी महिमा और प्रभावका वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्तिको भी दण्ड न देनेका निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शिता से नहीं, इस बातको समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत्के आत्मा हैं और अपने प्रेमियोंको आत्मदान करते हैं। मैंने जानबूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदिका भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहोंके इशारेसे पैदा होनेवाला काल अपने वेगसे उनकी आशा-अभिलाषाओंपर पानी फेर देता है। फिर दूसरोंकीशिशुपाल, दन्तवक्र या जरासन्धकी तो बात ही क्या है ?।। ३९ ।।  

 

सर्वेश्वर आर्यपुत्र ! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होती कि आप राजाओंसे भयभीत होकर समुद्रमें आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुष के टङ्कार से मेरे विवाहके समय आये हुए समस्त राजाओंको भगाकर अपने चरणोंमें समॢपत मुझ दासी को उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपनी कर्कश ध्वनिसे वन-पशुओंको भगाकर अपना भाग ले आवे ।। ४० ।। कमलनयन ! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्राय: कष्ट ही उठाना पड़ता है। प्राचीन कालके अङ्ग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राज- राजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोडक़र आपको पानेकी अभिलाषासे तपस्या करने वनमें चले गये थे, वे आपके मार्गका अनुसरण करनेके कारण क्या किसी प्रकारका कष्ट उठा रहे हैं ।। ४१ ।। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमारका वरण कर लो। भगवन् ! आप समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलोंकी सुगन्धका बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेनेमात्रसे लोग संसारके पाप-तापसे मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हींमें निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थको भली-भाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलोंकी सुगन्ध सूँघनेको मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगोंको वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयोंसे युक्त हैं ! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती ।। ४२ ।। प्रभो ! आप सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोकमें समस्त आशाओंको पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मोंके अनुसार विभिन्न योनियोंमें भटकना पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करनेवालोंका मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूपतक दे डालनेवाले आप परमेश्वरके चरणोंकी शरणमें रहूँ ।। ४३ ।। अच्युत ! शत्रुसूदन ! गधोंके समान घरका बोझा ढोनेवाले, बैलोंके समान गृहस्थीके व्यापारोंमें जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तोंके समान तिरस्कार सहनेवाले, बिलावके समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासोंके समान स्त्रीकी सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें वरण करनेके लिये आपने मुझे संकेत किया हैउसी अभागिनी स्त्रीके पति हों, जिनके कानोंमें भगवान्‌ शङ्कर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरोंकी सभामें गायी जानेवाली आपकी लीलाकथाने प्रवेश नहीं किया है ।। ४४ ।। यह मनुष्यका शरीर जीवित होनेपर भी मुर्दा ही है। ऊपरसे चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशोंसे ढका हुआ है; परंतु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्दके मकरन्दकी सुगन्ध सूँघनेको नहीं मिली है ।। ४५ ।। कमलनयन ! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातोंपर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अत: आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलोंमें मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसारकी अभिवृद्धिके लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है ।। ४६ ।। मधुसूदन ! आपने कहा कि किसी अनुरूप वरको वरण कर लो। मैं आपकी इस बातको भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुषके द्वारा जीती जानेपर भी काशी-नरेशकी कन्या अम्बाके समान किसी-किसीकी दूसरे पुरुषमें भी प्रीति रहती है ।। ४७ ।। कुलटा स्त्रीका मन तो विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंकी ओर खिंचता रहता है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्रीको अपने पास न रखे। उसे अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है ।। ४८ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीशुक उवाच

एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव

मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत् २१

इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः

प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्

आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-

श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह २२

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया

भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः

आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ

तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक् २३

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेर्

हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात

देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्

रम्भेव वायुविहतो प्रविकीर्य केशान् २४

तद्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम्

हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत २५

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः

केशान्समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत्पद्मपाणिना २६

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा

आश्लिष्य बाहुना राजननन्यविषयां सतीम् २७

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः

हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः २८

 

श्रीभगवानुवाच

मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्

त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमङ्गने २९

मुखं च प्रेमसंरम्भ स्फुरिताधरमीक्षितुम्

कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम् ३०

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्

यन्नर्मैरीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि ३१

 

श्रीशुक उवाच

सैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसान्त्विता

ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ ३२

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्

सव्रीडहासरुचिर स्निग्धापाङ्गेन भारत ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके क्षणभरके लिये भी अलग न होनेके कारण रुक्मिणीजीको यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्वकी शान्तिके लिये इतना कहकर भगवान्‌ चुप हो गये ।। २१ ।। परीक्षित्‌ ! जब रुक्मिणीजीने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान्‌ की यह अप्रिय वाणी सुनीजो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धडक़ने लगा, वे रोते-रोते चिन्ताके अगाध समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ।। २२ ।। वे अपने कमलके समान कोमल और नखोंकी लालिमासे कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणोंसे धरती कुरेदने लगीं। अञ्जनसे मिले हुए काले-काले आँसू केशरसे रँगे हुए वक्ष:स्थलको धोने लगे। मुँह नीचेको लटक गया। अत्यन्त दु:खके कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं ।। २३ ।। अत्यन्त व्यथा, भय और शोकके कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोगकी सम्भावनासे वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथका चँवर गिर पड़ा, बुद्धिकी विकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केलेके खंभेकी तरह धरतीपर गिर पडीं ।। २४ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोदकी गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाशकी दृढ़ताके कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभावसे ही परम कारुणिक भगवान्‌ श्रीकृष्णका हृदय उनके प्रति करुणासे भर गया ।। २५ ।। चार भुजाओंवाले वे भगवान्‌ उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणीजीको उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया ।। २६ ।। भगवान्‌ ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसुओं से भींगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजीको बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया ।। २७ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण समझाने-बुझानेमें बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तोंके एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्यकी गम्भीरताके कारण रुक्मिणीजीकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्थाके अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजीको समझाया ।। २८ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाविदर्भनन्दिनी ! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी ! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुननेके लिये ही मैंने हँसी-हँसीमें यह छलना की थी ।। २९ ।। मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहनेपर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोपसे किस प्रकार फडक़ने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखनेसे नेत्रोंमें कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जानेके कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है ।। ३० ।। मेरी परमप्रिये ! सुन्दरी ! घरके काम-धंधोंमें रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थोंके लिये घर-गृहस्थीमें इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धाङ्गिनीके साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ाँ सुखसे बिता ली जाती हैं ।। ३१ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रियाको इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतमने केवल परिहासमें ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे ।। ३२ ।। परीक्षित्‌ ! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान्‌ श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं।। ३३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीबादरायणिरुवाच

कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम्

पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः १

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः

स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः २

तस्मिनन्तर्गृहे भ्राजन् मुक्तादामविलम्बिना

विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ३

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते

जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः ४

पारिजातवनामोद वायुनोद्यानशालिना

धूपैरगुरुजै राजन्जालरन्ध्रविनिर्गतैः ५

पयःफेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे

उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम् ६

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात्

तेन वीजयती देवी उपासांचक्र ईश्वरम् ७

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां

रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता

वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार

भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्च्या ८

तां रूपिणीं श्रीयमनन्यगतिं निरीक्ष्य

या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा

प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ

वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे ९

 

श्रीभगवानुवाच

राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः

महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः १०

तान्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्

दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान् ११

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रु समुद्रं शरणं गतान्

बलवद्भिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान् १२

अस्पष्टवर्त्मनाम्पुंसामलोकपथमीयुषाम्

आस्थिताः पदवीं सुभ्रु प्रायः सीदन्ति योषितः १३

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः

तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे १४

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः

तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित् १५

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वया दीर्घसमीक्षया

वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा १६

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्

येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे १७

चैद्यशाल्वजरासन्ध दन्तवक्त्रादयो नृपाः

मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः १८

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये

आनितासि मया भद्रे तेजोपहरता सताम् १९

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः

आत्मलब्ध्यास्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिन समस्त जगत् के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियोंके साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं ।। १ ।। परीक्षित्‌ ! जो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ खेल-खेल में ही इस जगत् की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैंवही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओं की रक्षा करनेके लिये यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं ।। २ ।। रुक्मिणी जी का महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिन में मोतियों की लडिय़ों की झालरें लटक रही थीं। मणियों के दीपक जगमगा रहे थे ।।३।। बेला-चमेली के फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूलों पर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखों की जालियों में से चन्द्र माकी शुभ्र किरणें महल के भीतर छिटक रही थीं ।। ४ ।। उद्यान में पारिजात के उपवनकी सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखोंकी जालियोंमेंसे अगरुके धूपका धूआँ बाहर निकल रहा था ।। ५ ।। ऐसे महलमें दूधके फेनके समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनोंसे युक्त सुन्दर पलँगपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े आनन्दसे विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकीके स्वामीको पतिरूपमें प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं ।। ६ ।। रुक्मिणीजीने अपनी सखीके हाथसे वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नोंकी डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान्‌की सेवा करने लगीं ।। ७ ।। उनके करकमलों में जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणोंमें मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अञ्चलके नीचे छिपे हुए स्तनोंकी केशरकी लालिमासे हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभागमें बहुमूल्य करधनीकी लडिय़ाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान्‌के पास ही रहकर उनकी सेवामें संलग्र थीं ।। ८ ।। रुक्मिणीजीकी घुँघराली अलकें, कानोंके कुण्डल और गलेके स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्रसे मुसकराहटकी अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलाव- ण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान्‌ ने लीलाके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेमसे मुसकराते हुए उनसे कहा ।। ९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाराजकुमारी ! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालोंके समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं, तथा सुन्दरता, उदारता और बलमें भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे ।। १० ।। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँतक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरोंको, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे- जैसे व्यक्तिको, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया ? ।। ११ ।। सुन्दरी ! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानोंसे हमने वैर बाँध रखा है और प्राय: राजङ्क्षसहासनके अधिकारसे भी हम वञ्चित ही हैं ।। १२ ।। सुन्दरी ! हम किस मार्गके अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगोंको अच्छी तरह मालूम नहीं है। हमलोग लौकिक व्यवहारका भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनयके द्वारा स्त्रियोंको रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषोंका अनुसरण करती हैं, उन्हें प्राय: कलेश-ही-कलेश भोगना पड़ता है ।। १३ ।। सुन्दरी ! हम तो सदाके अकिञ्चन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिञ्चन लोगोंसे हम प्रेम भी करते हैं, और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपनेको धनी समझनेवाले लोग प्राय: हमसे प्रेम नहीं करते हमारी सेवा नहीं करते ।। १४ ।। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती हैउन्हींसे विवाह और मित्रताका सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपनेसे श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये ।। १५ ।। विदर्भराजकुमारी ! तुमने अपनी अदूरदर्शिताके कारण इन बातोंका विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकोंसे मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीनको वरण कर लिया ।। १६ ।। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोककी सारी आशा- अभिलाषाएँ पूरी हो सकें ।। १७ ।। सुन्दरी ! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी सभी मुझसे द्वेष करते थे ।। १८ ।। कल्याणी ! वे सब बल-पौरुषके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टोंका मान मर्दन करनेके लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था। और कोई कारण नहीं था ।। १९ ।। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धनके लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेहसे सम्बन्धरहित दीपशिखाके समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्माके साक्षात्कारसे ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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