शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीबलरामजीका व्रजगमन

 

सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयंगमैः ।

सान्त्वयामास भगवान्नानानुनयकोविदः ॥ १६ ॥

द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवं एव च ।

रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन् ॥ १७ ॥

पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना ।

यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः ॥ १८ ॥

वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात् ।

पतन्ती तद्वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत् ॥ १९ ॥

तं गन्धं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः ।

आघ्रायोपगतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ ॥ २० ॥

उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुध ।

वनेषु व्यचरत्क्षीवो मदविह्वललोचनः ॥ २१ ॥

स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया ।

बिभ्रत्स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम् ॥ २२ ॥

स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः ।

निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः ॥

अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह ॥ २३ ॥

पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाहुता ।

नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम् ॥ २४ ॥

एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनन्दनम् ।

उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप ॥ २५ ॥

राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम् ।

यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते ॥ २६ ॥

परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम् ।

मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल ॥ २७ ॥

ततो व्यमुञ्चद्यमुनां याचितो भगवान् बलः ।

विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट् ॥ २८ ॥

कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासीताम्बरे ।

भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम् ॥ २९ ॥

वसित्वा वाससी नीले मालां आमुच्य काञ्चनीम् ।

रेये स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारणः ॥ ३० ॥

अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाकृष्टवर्त्मना ।

बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि ॥ ३१॥

एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे ।

रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम् ॥ ३२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलरामजी नाना प्रकारसे अनुनय-विनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण के हृदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी ।। १६ ।। और वसन्त के दो महीनेचैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रिके समय गोपियोंमें रहकर उनके प्रेमकी अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान्‌ राम ही जो ठहरे ! ।। १७ ।। उस समय कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनी छिटककर यमुनाजीके तटवर्ती उपवन को उज्ज्वल कर देती और भगवान्‌ बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते ।। १८ ।। वरुणदेव ने अपनी पुत्री वारुणीदेवीको वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडऱ से बह निकली। उसने अपनी सुगन्धसे सारे वनको सुगन्धित कर दिया ।। १९ ।। मधुधारा की वह सुगन्ध वायुने बलरामजीके पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो ! उसकी महँक से आकृष्ट होकर बलरामजी गोपियोंको लेकर वहाँ पहुँच गये और उनके साथ उसका पान किया ।। २० ।। उस समय गोपियाँ बलरामजीके चारों ओर उनके चरित्रका गान कर रही थीं, और वे मतवाले-से होकर वनमें विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमदसे विह्वल हो रहे थे ।। २१ ।। गलेमें पुष्पोंका हार शोभा पा रहा था। वैजयन्तीकी माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कानमें कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्दपर मुसकराहटकी शोभा निराली ही थी। उसपर पसीनेकी बूँदें हिमकणके समान जान पड़ती थीं ।। २२ ।। सर्वशक्तिमान् बलरामजीने जलक्रीडा करनेके लिये यमुनाजीको पुकारा। परंतु यमुनाजीने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब बलरामजीने क्रोधपूर्वक अपने हलकी नोकसे उन्हें खींचा ।। २३ ।। और कहा पापिनी यमुने ! मेरे बुलानेपर भी तू मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है ! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचारका फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हलकी नोकसे सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ।। २४ ।।जब बलरामजीने यमुनाजीको इस प्रकार डाँटा- फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलरामजीके चरणोंपर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं।। २५ ।। लोकाभिराम बलरामजी ! महाबाहो ! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते ! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेषजी इस सारे जगत्को धारण करते हैं ।। २६ ।। भगवन् ! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरूप भक्तवत्सल ! मैं आपकी शरणमें हूँ। आप मेरी भूल- चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये।। २७ ।।

अब यमुनाजीकी प्रार्थना स्वीकार करके भगवान्‌ बलरामजी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियोंके साथ जलक्रीडा करने लगे ।। २८ ।। जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुनाजीसे बाहर निकले, तब लक्ष्मीजीने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोनेका सुन्दर हार दिया ।। २९ ।। बलरामजीने नीले वस्त्र पहन लिये और सोनेकी माला गलेमें डाल ली। वे अङ्गराग लगाकर, सुन्दर भूषणोंसे विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो ।। ३० ।। परीक्षित्‌ ! यमुनाजी अब भी बलरामजीके खींचे हुए मार्गसे बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान्‌ बलरामजीका यश-गान कर रही हों ।। ३१ ।। बलरामजीका चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समयका कुछ ध्यान ही न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रातके समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलरामजी व्रजमें विहार करते रहे ।। ३२ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवविजये यामुनाकर्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीबलरामजीका व्रजगमन

 

श्रीशुक उवाच

बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः ।

सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ ०१ ॥

परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च ।

रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः ॥ ०२ ॥

चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः ।

इत्यारोप्याङ्कमालिङ्ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः ॥ ०३ ॥

गोपवृद्धांश्च विधिवद्यविष्ठैरभिवन्दितः ।

यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मनः ॥ ०४ ॥

समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः ।

विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः ॥ ०५ ॥

पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा ।

कृष्णे कमलपत्राक्षे सन्न्यस्ताखिलराधसः ॥ ०६ ॥

कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते ।

कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः ॥ ०७ ॥

दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः ।

निहत्य निर्जित्य रिपून् दिष्ट्या दुर्गं समाश्रीताः ॥ ०८ ॥

गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः ।

कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः ॥ ०९ ॥

कच्चित्स्मरति वा बन्धून् पितरं मातरं च सः ।

अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति ।

अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः ॥ १०॥

मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄनपि ।

यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो ॥ ११ ॥

ता नः सद्यः परित्यज्य गतः सञ्छिन्नसौहृदः ।

कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम् ॥ १२ ॥

कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो

वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः ।

गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-

स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः ॥ १३ ॥

किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः ।

यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः ॥ १४ ॥

इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारुवीक्षितम् ।

गतिं प्रेमपरिष्वङ्गं स्मरन्त्यो रुरुदुः स्त्रियः ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलरामजीके मनमें व्रजके नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियोंसे मिलनेकी बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथपर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबाके व्रजमें आये ।। १ ।। इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीचमें पाकर सबने बड़े प्रेमसे गले लगाया। बलरामजी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को प्रणाम किया। उन लोगोंने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया ।। २ ।। यह कहकर कि बलरामजी ! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्णके साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोदमें ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओंसे उन्हें भिगो दिया ।। ३ ।। इसके बाद बड़े-बड़े गोपोंको बलरामजीने और छोटे-छोटे गोपोंने बलरामजीको नमस्कार किया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्धके अनुसार सबसे मिले-जुले ।। ४ ।। ग्वालबालोंके पास जाकर किसीसे हाथ मिलाया, किसीसे मीठी-मीठी बातें कीं, किसीको खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजीकी थकावट दूर हो गयी, वे आरामसे बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालोंने कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्षतक त्याग रखा था। बलरामजीने जब उनके और उनके घरवालोंके सम्बन्धमें कुशलप्रश्र किया, तब उन्होंने प्रेम-गद्गद वाणीसे उनसे प्रश्र किया ।। ५-६ ।। बलरामजी ! वसुदेवजी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न ? अब आपलोग स्त्री-पुत्र आदिके साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आपलोगोंको हमारी याद भी आती है ?।। ७ ।। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि पापी कंसको आपलोगोंने मार डाला और अपने सुहृद्-सम्बन्धियोंको बड़े कष्टसे बचा लिया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि आपलोगोंने और भी बहुत-से शत्रुओंको मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आपलोग निवास करते हैं।। ८ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलरामजीके दर्शनसे, उनकी प्रेमभरी चितवनसे गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी ! नगर-नारियोंके प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल तो हैं न ?।। ९ ।। क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माताकी भी याद आती है ! क्या वे अपनी माताके दर्शनके लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे ! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी सेवाका भी कुछ स्मरण करते हैं ।। १० ।। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियोंको छोडऩा बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियोंको भी छोड़ दिया। परंतु प्रभो ! वे बात-की-बातमें हमारे सौहार्द और प्रेमका बन्धन काटकर, हमसे नाता तोडक़र परदेश चले गये; हमलोगोंको बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परंतु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैंतुम्हारे उपकारका बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातोंपर विश्वास न कर लेती।। ११-१२ ।। एक गोपीने कहा—‘बलरामजी ! हम तो गाँवकी गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातोंमें आ गयीं। परंतु नगरकी स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चञ्चल और कृतघ्न श्रीकृष्णकी बातोंमें क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे !दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनानेमें तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना ! उनकी सुन्दर मुसकराहट और प्रेमभरी चितवनसे नगर-नारियाँ भी प्रेमावेशसे व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातोंमें आकर अपनेको निछावर कर देती होंगी।। १३ ।। तीसरी गोपीने कहा—‘अरी गोपियो ! हमलोगोंको उसकी बातसे क्या मतलब है ? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुरका समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसीकी तरह, भले ही दु:खसे क्यों न हो, कट ही जायगा।। १४ ।। अब गोपियोंके भाव-नेत्रोंके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिङ्गन आदि मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातोंकी मधुर स्मृतिमें तन्मय होकर रोने लगीं ।। १५ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



गुरुवार, 17 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

नृग राजाकी कथा

 

कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः

ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन् ३१

दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि

तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञां ईश्वरमानिनाम् ३२

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया

ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि ३३

हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति

कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ३४

ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्

प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान् ३५

राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते

निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः ३६

गृह्णन्ति यावतः पांशून्क्रन्दतामश्रुबिन्दवः

विप्राणां हृतवृत्तीनाम्वदान्यानां कुटुम्बिनाम् ३७

राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः

कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः ३८

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः

षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ३९

न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृध्वाल्पायुषो नराः

पराजिताश्च्युता राज्याद्भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः ४०

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः

घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ४१

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः

तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ४२

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः

अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ४३

एवं विश्राव्य भगवान्मुकुन्दो द्वारकौकसः

पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम् ४४

 

राजा नृगके चले जानेपर ब्राह्मणोंके परम प्रेमी, धर्मके आधार देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्षत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा।। ३१ ।। जो लोग अग्रिके समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणोंका थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपनेको लोगोंका स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ?।। ३२ ।। मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है; उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध, कोई उपाय नहीं है ।। ३३ ।। हलाहल विष केवल खानेवालेका ही प्राण लेता है, और आग भी जलके द्वारा बुझायी जा सकती है; परंतु ब्राह्मणके धनरूप अरणिसे जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है ।। ३४ ।। ब्राह्मणका धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लडक़े और पौत्रइन तीन पीढिय़ोंको ही चौपट करता है। परंतु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषोंकी दस पीढिय़ाँ और आगेकी भी दस पीढिय़ाँ नष्ट हो जाती हैं ।। ३५ ।। जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मीके घमंडसे अंधे होकर ब्राह्मणोंका धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरकमें जानेका रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अध:पतनके कैसे गहरे गड्ढेमें गिरना पड़ेगा ।। ३६ ।। जिन उदारहृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणोंकी वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूकी बूँदोंसे धरतीके जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षोंतक ब्राह्मणके स्वत्वको छीननेवाले उस उच्छृङ्खल राजा और उसके वंशजोंको कुम्भीपाक नरकमें दु:ख भोगना पड़ता है ।। ३७-३८ ।। जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति, उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्षतक विष्ठाके कीड़े होते हैं ।। ३९ ।। इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंका धन कभी भूलसे भी मेरे कोषमें न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणोंके धनकी इच्छा भी करते हैंउसे छीननेकी बात तो अलग रहीवे इस जन्ममें अल्पायु, शत्रुओंसे पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्युके बाद भी वे दूसरोंको कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं ।। ४० ।। इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो । वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो ।। ४१ ।। जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानीसे तीनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञाका उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा ।। ४२ ।। यदि ब्राह्मणके धनका अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवालेकोअनजानमें उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भीअध:पतनके गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मणकी गाय ने अनजान में उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकमें डाल दिया था ।। ४३ ।। परीक्षित्‌ ! समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका- वासियोंको इस प्रकार उपदेश देकर अपने महलमें चले गये ।। ४४ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

नृग राजाकी कथा

 

कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने

सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये १६

तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्रोवाच ममेति तम्

ममेति परिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति १७

विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ

भवान्दातापहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद्भ्रमः १८

अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै

गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम् १९

भवन्तावनुगृह्णीतां किङ्करस्याविजानतः

समुद्धरतं मां कृच्छ्रात्पतन्तं निरयेऽशुचौ २०

नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्

नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ २१

एतस्मिन्नन्तरे यामैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्

यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते २२

पूर्वं त्वमशुभं भुङ्क्ष उताहो नृपते शुभम्

नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः २३

पूर्वं देवाशुभं भुञ्ज इति प्राह पतेति सः

तावदद्रा क्षमात्मानं कृकलासं पतन्प्रभो २४

ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव

स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः २५

स त्वं कथं मम विभोऽपिथः परात्मा

योगेश्वरः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः

साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः

स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः २६

देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम

नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय २७

अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो

यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम् २८

नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये

कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः २९

इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना

अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत्पश्यतां नृणाम् ३०

 

एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेनेवाले), तपस्वी ब्राह्मणकी एक गाय बिछुडक़र मेरी गौओंमें आ मिली। मुझे इस बातका बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजानमें उसे किसी दूसरे ब्राह्मणको दान कर दिया ।। १६ ।। जब उस गायको वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गायके असली स्वामीने कहा—‘यह गौ मेरी है।दान ले जानेवाले ब्राह्मणने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृगने मुझे इसका दान किया है।। १७ ।। वे दोनों ब्राह्मण आपसमें झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करनेके लिये मेरे पास आये। एकने कहा—‘यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी हैऔर दूसरेने कहा कि यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।भगवन् ! उन दोनों ब्राह्मणोंकी बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया ।। १८ ।। मैंने धर्मसंकटमें पडक़र उन दोनोंसे बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि मैं बदलेमें एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आपलोग मुझे यह गाय दे दीजिये ।। १९ ।। मैं आपलोगोंका सेवक हूँ। मुझसे अनजानमें यह अपराध बन गया है। मुझपर आपलोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्टसे तथा घोर नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये।। २० ।। राजन् ! मैं इसके बदलेमें कुछ नहीं लूँगा।यह कहकर गायका स्वामी चला गया। तुम इसके बदलेमें एक लाख ही नहीं, दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेनेका नहीं।इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया ।। २१ ।। देवाधिदेव जगदीश्वर ! इसके बाद आयु समाप्त होनेपर यमराजके दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराजने मुझसे पूछा।। २२ ।। राजन् ! तुम पहले अपने पापका फल भोगना चाहते हो या पुण्यका ? तुम्हारे दान और धर्मके फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होनेवाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है।। २३ ।। भगवन् ! तब मैंने यमराजसे कहा—‘देव ! पहले मैं अपने पापका फल भोगना चाहता हूँ।और उसी क्षण यमराजने कहा—‘तुम गिर जाओ।उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँसे गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ ।। २४ ।। प्रभो ! मैं ब्राह्मणोंका सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बातकी उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपासे मेरे पूर्वजन्मोंकी स्मृति नष्ट न हुई ।। २५ ।। भगवन् ! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदोंकी दृष्टिसे (अभेददृष्टिसे) अपने हृदयमें आपका ध्यान करते रहते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! साक्षात् आप मेरे नेत्रोंके सामने कैसे आ गये ! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकारके व्यसनों, दु:खद कर्मोंमें फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसारके चक्करसे छुटकारा मिलनेका समय आता है ।। २६ ।। देवताओंके भी आराध्यदेव ! पुरुषोत्तम गोविन्द ! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवोंके स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत ! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण ! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियोंके स्वामी हैं ।। २७ ।। प्रभो ! श्रीकृष्ण ! मैं अब देवताओंके लोकमें जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलोंमें ही लगा रहे ।। २८ ।। आप समस्त कार्यों और कारणोंके रूपमें विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त है और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण ! आप समस्त योगोंके स्वामी, योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।। २९ ।।

राजा नृगने इस प्रकार कहकर भगवान्‌की परिक्रमा की और अपने मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमानपर सवार हो गये ।। ३० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



बुधवार, 16 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

नृग राजाकी कथा

 

श्रीबादरायणिरुवाच

एकदोपवनं राजन्जग्मुर्यदुकुमारकाः

विहर्तुं साम्बप्रद्युम्न चारुभानुगदादयः १

क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्तः पिपासिताः

जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्त्वमद्भुतम् २

कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः

तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृयान्विताः ३

चर्मजैस्तान्तवैः पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भकाः

नाशक्नुरन्समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः ४

तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान्विश्वभावनः

वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण स लीलया ५

स उत्तमःश्लोककराभिमृष्टो

विहाय सद्यः कृकलासरूपम्

सन्तप्तचामीकरचारुवर्णः

स्वर्ग्यद्भुतालङ्करणाम्बरस्रक् ६

पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं

जनेषु विख्यापयितुं मुकुन्दः

कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो

देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम् ७

दशामिमां वा कतमेन कर्मणा

सम्प्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र

आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो

यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम् ८

 

श्रीशुक उवाच

इति स्म राजा सम्पृष्टः कृष्णेनानन्तमूर्तिना

माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा ९

 

नृग उवाच

नृगो नाम नरेन्द्रो ऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो

दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम् १०

किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः

कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया ११

यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः

यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गाः १२

पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूप-

गुणोपपन्नाः कपिला हेमसृङ्गीः

न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा

दुकूलमालाभरणा ददावहम् १३

स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यः

सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्यः

तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः

प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्यः १४

गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः

कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः

वासांसि रत्नानि परिच्छदान्रथा-

निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम् १५

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! एक दिन साम्ब, प्रद्युम्र, चारुभानु और गद आदि यदुवंशी राजकुमार घूमनेके लिये उपवनमें गये ।। १ ।। वहाँ बहुत देरतक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जलकी खोज करने लगे। वे एक कूएँके पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा ।। २ ।। वह जीव पर्वतके समान आकारका एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उनका हृदय करुणासे भर आया और वे उसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करने लगे ।। ३ ।। परंतु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिटको चमड़े और सूतकी रस्सियोंसे बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास जाकर निवेदन किया ।। ४ ।। जगत्के जीवनदाता कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस कूएँपर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथसे खेल-खेलमेंअनायास ही उसको बाहर निकाल लिया ।। ५ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णके करकमलोंका स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवताके रूपमें परणित हो गया। अब उसके शरीरका रंग तपाये हुए सोनेके समान चमक रहा था। और उसके शरीरपर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पोंके हार शोभा पा रहे थे ।। ६ ।। यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुषको गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारणको मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुषसे पूछा—‘महाभाग ! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन ? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो ।। ७ ।। कल्याणमूर्ते ! किस कर्मके फलसे तुम्हें इस योनिमें आना पड़ा था ? वास्तवमें तुम इसके योग्य नहीं हो। हमलोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हमलोगोंको वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो।। ८ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब अनन्तमूर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजा नृगसे [क्योंकि वे ही इस रूपमें प्रकट हुए थे] इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्यके समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान्‌ को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे ।। ९ ।।

राजा नृगने कहाप्रभो ! मैं महाराज इक्ष्वाकुका पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसीने आपके सामने दानियोंकी गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानोंमें पड़ा होगा ।। १० ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंकी एक-एक वृत्तिके साक्षी हैं। भूत और भविष्यका व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञानमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं डाल सकता। अत: आपसे छिपा ही क्या है ? फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये कहता हूँ ।। ११ ।। भगवन् ! पृथ्वीमें जितने धूलिकण हैं, आकाशमें जितने तारे हैं और वर्षामें जितनी जलकी धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं ।। १२ ।। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्यायके धनसे प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था और खुरोंमें चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनोंसे सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैंने दी थीं ।। १३ ।। भगवन् ! मैं युवावस्थासे सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों कोजो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्टमें पड़े हुए कुटुम्बवाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्योंको विद्यादान करनेवाले तथा सच्चरित्र होतेवस्त्राभूषणसे अलंकृत करता और उन गौओंका दान करता ।। १४ ।। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियोंके सहित कन्याएँ, तिलोंके पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कूएँ, बावली आदि बनवाये ।। १५ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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