शनिवार, 19 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच

नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप

वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत् १

त्वं वासुदेवो भगवानवतीऋनो जगत्पतिः

इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम् २

दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने

द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः ३

दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्

कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत् ४

वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः

भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज ५

यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्बिभर्षि सात्वत

त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम् ६

 

श्रीशुक उवाच

कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः

उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा ७

उवाच दूतं भगवान्परिहासकथामनु

उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे ८

मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः

शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम् ९

इति दूतस्तमाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्

कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह १०

पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः

अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम् ११

तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप

अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौण्ड्रकं हइः! १२

शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्ग श्रीवत्साद्युपलक्षितम्

बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम् १३

कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्

अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् १४

दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यं वेषं कृत्रिममास्थितम्

यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरीः १५

शुलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः

असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम् १६

कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयोर्

बलं गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्

गदासिचक्रेषुभिरार्दयद्भृशं

यथा युगान्ते हुतभुक्पृथक्प्रजाः १७

आयोधनं तद्र थवाजिकुञ्जर

द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः

बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-

माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम् १८

अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भो पौण्ड्रक यद्भवान्

दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्रण्युत्सृजामि ते १९

त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्

व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम् २०

इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्

शिरोऽवृश्चद्रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः २१

तथा काशीपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः

न्यपातयत्काशीपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः २२

एवं मत्सरिणम्हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः

द्वारकामाविशत्सिद्धैर्गीयमानकथामृतः २३

स नित्यं भगवद्ध्यान प्रध्वस्ताखिलबन्धनः

बिभ्राणश्च हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोऽभवत् २४

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ बलरामजी नन्दबाबा के व्रजमें गये हुए थे, तब पीछेसे करूष देशके अज्ञानी राजा पौण्ंड्रक ने भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान्‌ वासुदेव मैं हूँ।। १ ।। मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान्‌ वासुदेव हैं और जगत् की रक्षाके लिये पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपनेको ही भगवान्‌ मान बैठा ।। २ ।। जैसे बच्चे आपसमें खेलते समय किसी बालकको ही राजा मान लेते हैं और वह राजाकी तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ंड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला और रहस्य न जानकर द्वारकामें उनके पास दूत भेज दिया ।। ३ ।। पौण्ंड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभामें बैठे हुए कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णको उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया।। ४ ।। एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियोंपर कृपा करनेके लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो ।। ५ ।। यदुवंशी ! तुमने मूर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोडक़र मेरी शरणमें आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो।। ६ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मन्दमति पौण्ंड्रककी यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे ।। ७ ।। उन लोगोंकी हँसी समाप्त होनेके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने दूतसे कहा—‘तुम जाकर अपने राजासे कह देना कि रे मूढ़ ! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूंगा और केवल तुझपर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख ! तू अपना मुँह छिपाकरऔंधे मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा, और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथकर खा जायँगे ।। ८-९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ंड्रक का दूत अपने स्वामी के पास गया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी रथपर सवार होकर काशीपर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करूषका राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराजके पास रहता था) ।। १० ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णके आक्रमणका समाचार पाकर महारथी पौण्ंड्रक भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ शीघ्र ही नगरसे बाहर निकल आया ।। ११ ।। काशीका राजा पौण्ंड्रकका मित्र था। अत: वह भी उसकी सहायता करनेके लिये तीन अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित्‌ ! अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने पौण्ंड्रकको देखा ।। १२ ।। पौण्ंड्रकने भी शङ्ख, चक्र, तलवार, गदा, शार्ङ्गधनुष और श्रीवत्सचिह्न आदि धारणकर रखे थे। उसके वक्ष:स्थलपर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला भी लटक रही थी ।। १३ ।। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथकी ध्वजापर गरुडक़ा चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिरपर अमूल्य मुकुट था और कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे ।। १४ ।। उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंचपर अभिनय करनेके लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे ।। १५ ।। अब शत्रुओंने भगवान्‌ श्रीकृष्णपर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार किया ।। १६ ।। प्रलयके समय जिस प्रकार आग सभी प्रकारके प्राणियोंको जला देती है, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ंड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदलकी चतुरङ्गिणी सेनाको तहस-नहस कर दिया ।। १७ ।। वह रणभूमि भगवान्‌ के चक्रसे खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटोंसे पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शङ्कर की भयङ्कर क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था ।। १८ ।।

अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने पौण्ंड्रक से कहा—‘रे पौण्ंड्रक ! तूने दूतके द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शस्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझपर छोड़ रहा हूँ ।। १९ ।। तूने झूठमूठ मेरा नाम रख लिया है। अत: मूर्ख ! अब मैं तुझसे उन नामोंको भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरणमें आनेकी बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा।। २० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार पौण्ंड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणोंसे उसके रथको तोड़-फोड़ डाला और चक्रसे उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पहाडक़ी चोटियोंको उड़ा दिया था ।। २१ ।। इसी प्रकार भगवान्‌ ने अपने बाणोंसे काशिनरेशका सिर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीमें गिरा दिया, जैसे वायु कमलका पुष्प गिरा देती है ।। २२ ।। इस प्रकार अपने साथ डाह करनेवाले पौण्ंड्रकको और उसके सखा काशिनरेशको मारकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारकामें लौट आये। उस समय सिद्धगण भगवान्‌की अमृतमयी कथाका गान कर रहे थे ।। २३ ।। परीक्षित्‌ ! पौण्ंड्रक भगवान्‌ के रूपका, चाहे वह किसी भावसे हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान्‌ का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसीका स्मरण होनेके कारण वह भगवान्‌ के सारूप्यको ही प्राप्त हुआ ।। २४ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीबलरामजीका व्रजगमन

 

सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयंगमैः ।

सान्त्वयामास भगवान्नानानुनयकोविदः ॥ १६ ॥

द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवं एव च ।

रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन् ॥ १७ ॥

पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना ।

यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः ॥ १८ ॥

वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात् ।

पतन्ती तद्वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत् ॥ १९ ॥

तं गन्धं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः ।

आघ्रायोपगतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ ॥ २० ॥

उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुध ।

वनेषु व्यचरत्क्षीवो मदविह्वललोचनः ॥ २१ ॥

स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया ।

बिभ्रत्स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम् ॥ २२ ॥

स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः ।

निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः ॥

अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह ॥ २३ ॥

पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाहुता ।

नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम् ॥ २४ ॥

एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनन्दनम् ।

उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप ॥ २५ ॥

राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम् ।

यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते ॥ २६ ॥

परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम् ।

मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल ॥ २७ ॥

ततो व्यमुञ्चद्यमुनां याचितो भगवान् बलः ।

विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट् ॥ २८ ॥

कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासीताम्बरे ।

भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम् ॥ २९ ॥

वसित्वा वाससी नीले मालां आमुच्य काञ्चनीम् ।

रेये स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारणः ॥ ३० ॥

अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाकृष्टवर्त्मना ।

बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि ॥ ३१॥

एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे ।

रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम् ॥ ३२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलरामजी नाना प्रकारसे अनुनय-विनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण के हृदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी ।। १६ ।। और वसन्त के दो महीनेचैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रिके समय गोपियोंमें रहकर उनके प्रेमकी अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान्‌ राम ही जो ठहरे ! ।। १७ ।। उस समय कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनी छिटककर यमुनाजीके तटवर्ती उपवन को उज्ज्वल कर देती और भगवान्‌ बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते ।। १८ ।। वरुणदेव ने अपनी पुत्री वारुणीदेवीको वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडऱ से बह निकली। उसने अपनी सुगन्धसे सारे वनको सुगन्धित कर दिया ।। १९ ।। मधुधारा की वह सुगन्ध वायुने बलरामजीके पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो ! उसकी महँक से आकृष्ट होकर बलरामजी गोपियोंको लेकर वहाँ पहुँच गये और उनके साथ उसका पान किया ।। २० ।। उस समय गोपियाँ बलरामजीके चारों ओर उनके चरित्रका गान कर रही थीं, और वे मतवाले-से होकर वनमें विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमदसे विह्वल हो रहे थे ।। २१ ।। गलेमें पुष्पोंका हार शोभा पा रहा था। वैजयन्तीकी माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कानमें कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्दपर मुसकराहटकी शोभा निराली ही थी। उसपर पसीनेकी बूँदें हिमकणके समान जान पड़ती थीं ।। २२ ।। सर्वशक्तिमान् बलरामजीने जलक्रीडा करनेके लिये यमुनाजीको पुकारा। परंतु यमुनाजीने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब बलरामजीने क्रोधपूर्वक अपने हलकी नोकसे उन्हें खींचा ।। २३ ।। और कहा पापिनी यमुने ! मेरे बुलानेपर भी तू मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है ! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचारका फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हलकी नोकसे सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ।। २४ ।।जब बलरामजीने यमुनाजीको इस प्रकार डाँटा- फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलरामजीके चरणोंपर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं।। २५ ।। लोकाभिराम बलरामजी ! महाबाहो ! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते ! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेषजी इस सारे जगत्को धारण करते हैं ।। २६ ।। भगवन् ! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरूप भक्तवत्सल ! मैं आपकी शरणमें हूँ। आप मेरी भूल- चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये।। २७ ।।

अब यमुनाजीकी प्रार्थना स्वीकार करके भगवान्‌ बलरामजी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियोंके साथ जलक्रीडा करने लगे ।। २८ ।। जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुनाजीसे बाहर निकले, तब लक्ष्मीजीने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोनेका सुन्दर हार दिया ।। २९ ।। बलरामजीने नीले वस्त्र पहन लिये और सोनेकी माला गलेमें डाल ली। वे अङ्गराग लगाकर, सुन्दर भूषणोंसे विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो ।। ३० ।। परीक्षित्‌ ! यमुनाजी अब भी बलरामजीके खींचे हुए मार्गसे बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान्‌ बलरामजीका यश-गान कर रही हों ।। ३१ ।। बलरामजीका चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समयका कुछ ध्यान ही न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रातके समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलरामजी व्रजमें विहार करते रहे ।। ३२ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवविजये यामुनाकर्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीबलरामजीका व्रजगमन

 

श्रीशुक उवाच

बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः ।

सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ ०१ ॥

परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च ।

रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः ॥ ०२ ॥

चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः ।

इत्यारोप्याङ्कमालिङ्ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः ॥ ०३ ॥

गोपवृद्धांश्च विधिवद्यविष्ठैरभिवन्दितः ।

यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मनः ॥ ०४ ॥

समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः ।

विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः ॥ ०५ ॥

पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा ।

कृष्णे कमलपत्राक्षे सन्न्यस्ताखिलराधसः ॥ ०६ ॥

कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते ।

कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः ॥ ०७ ॥

दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः ।

निहत्य निर्जित्य रिपून् दिष्ट्या दुर्गं समाश्रीताः ॥ ०८ ॥

गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः ।

कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः ॥ ०९ ॥

कच्चित्स्मरति वा बन्धून् पितरं मातरं च सः ।

अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति ।

अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः ॥ १०॥

मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄनपि ।

यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो ॥ ११ ॥

ता नः सद्यः परित्यज्य गतः सञ्छिन्नसौहृदः ।

कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम् ॥ १२ ॥

कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो

वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः ।

गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-

स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः ॥ १३ ॥

किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः ।

यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः ॥ १४ ॥

इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारुवीक्षितम् ।

गतिं प्रेमपरिष्वङ्गं स्मरन्त्यो रुरुदुः स्त्रियः ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलरामजीके मनमें व्रजके नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियोंसे मिलनेकी बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथपर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबाके व्रजमें आये ।। १ ।। इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीचमें पाकर सबने बड़े प्रेमसे गले लगाया। बलरामजी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को प्रणाम किया। उन लोगोंने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया ।। २ ।। यह कहकर कि बलरामजी ! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्णके साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोदमें ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओंसे उन्हें भिगो दिया ।। ३ ।। इसके बाद बड़े-बड़े गोपोंको बलरामजीने और छोटे-छोटे गोपोंने बलरामजीको नमस्कार किया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्धके अनुसार सबसे मिले-जुले ।। ४ ।। ग्वालबालोंके पास जाकर किसीसे हाथ मिलाया, किसीसे मीठी-मीठी बातें कीं, किसीको खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजीकी थकावट दूर हो गयी, वे आरामसे बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालोंने कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्षतक त्याग रखा था। बलरामजीने जब उनके और उनके घरवालोंके सम्बन्धमें कुशलप्रश्र किया, तब उन्होंने प्रेम-गद्गद वाणीसे उनसे प्रश्र किया ।। ५-६ ।। बलरामजी ! वसुदेवजी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न ? अब आपलोग स्त्री-पुत्र आदिके साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आपलोगोंको हमारी याद भी आती है ?।। ७ ।। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि पापी कंसको आपलोगोंने मार डाला और अपने सुहृद्-सम्बन्धियोंको बड़े कष्टसे बचा लिया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि आपलोगोंने और भी बहुत-से शत्रुओंको मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आपलोग निवास करते हैं।। ८ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलरामजीके दर्शनसे, उनकी प्रेमभरी चितवनसे गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी ! नगर-नारियोंके प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल तो हैं न ?।। ९ ।। क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माताकी भी याद आती है ! क्या वे अपनी माताके दर्शनके लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे ! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी सेवाका भी कुछ स्मरण करते हैं ।। १० ।। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियोंको छोडऩा बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियोंको भी छोड़ दिया। परंतु प्रभो ! वे बात-की-बातमें हमारे सौहार्द और प्रेमका बन्धन काटकर, हमसे नाता तोडक़र परदेश चले गये; हमलोगोंको बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परंतु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैंतुम्हारे उपकारका बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातोंपर विश्वास न कर लेती।। ११-१२ ।। एक गोपीने कहा—‘बलरामजी ! हम तो गाँवकी गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातोंमें आ गयीं। परंतु नगरकी स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चञ्चल और कृतघ्न श्रीकृष्णकी बातोंमें क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे !दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनानेमें तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना ! उनकी सुन्दर मुसकराहट और प्रेमभरी चितवनसे नगर-नारियाँ भी प्रेमावेशसे व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातोंमें आकर अपनेको निछावर कर देती होंगी।। १३ ।। तीसरी गोपीने कहा—‘अरी गोपियो ! हमलोगोंको उसकी बातसे क्या मतलब है ? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुरका समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसीकी तरह, भले ही दु:खसे क्यों न हो, कट ही जायगा।। १४ ।। अब गोपियोंके भाव-नेत्रोंके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिङ्गन आदि मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातोंकी मधुर स्मृतिमें तन्मय होकर रोने लगीं ।। १५ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



गुरुवार, 17 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

नृग राजाकी कथा

 

कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः

ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन् ३१

दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि

तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञां ईश्वरमानिनाम् ३२

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया

ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि ३३

हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति

कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ३४

ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्

प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान् ३५

राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते

निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः ३६

गृह्णन्ति यावतः पांशून्क्रन्दतामश्रुबिन्दवः

विप्राणां हृतवृत्तीनाम्वदान्यानां कुटुम्बिनाम् ३७

राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः

कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः ३८

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः

षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ३९

न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृध्वाल्पायुषो नराः

पराजिताश्च्युता राज्याद्भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः ४०

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः

घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ४१

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः

तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ४२

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः

अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ४३

एवं विश्राव्य भगवान्मुकुन्दो द्वारकौकसः

पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम् ४४

 

राजा नृगके चले जानेपर ब्राह्मणोंके परम प्रेमी, धर्मके आधार देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्षत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा।। ३१ ।। जो लोग अग्रिके समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणोंका थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपनेको लोगोंका स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ?।। ३२ ।। मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है; उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध, कोई उपाय नहीं है ।। ३३ ।। हलाहल विष केवल खानेवालेका ही प्राण लेता है, और आग भी जलके द्वारा बुझायी जा सकती है; परंतु ब्राह्मणके धनरूप अरणिसे जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है ।। ३४ ।। ब्राह्मणका धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लडक़े और पौत्रइन तीन पीढिय़ोंको ही चौपट करता है। परंतु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषोंकी दस पीढिय़ाँ और आगेकी भी दस पीढिय़ाँ नष्ट हो जाती हैं ।। ३५ ।। जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मीके घमंडसे अंधे होकर ब्राह्मणोंका धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरकमें जानेका रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अध:पतनके कैसे गहरे गड्ढेमें गिरना पड़ेगा ।। ३६ ।। जिन उदारहृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणोंकी वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूकी बूँदोंसे धरतीके जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षोंतक ब्राह्मणके स्वत्वको छीननेवाले उस उच्छृङ्खल राजा और उसके वंशजोंको कुम्भीपाक नरकमें दु:ख भोगना पड़ता है ।। ३७-३८ ।। जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति, उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्षतक विष्ठाके कीड़े होते हैं ।। ३९ ।। इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंका धन कभी भूलसे भी मेरे कोषमें न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणोंके धनकी इच्छा भी करते हैंउसे छीननेकी बात तो अलग रहीवे इस जन्ममें अल्पायु, शत्रुओंसे पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्युके बाद भी वे दूसरोंको कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं ।। ४० ।। इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो । वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो ।। ४१ ।। जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानीसे तीनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञाका उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा ।। ४२ ।। यदि ब्राह्मणके धनका अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवालेकोअनजानमें उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भीअध:पतनके गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मणकी गाय ने अनजान में उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकमें डाल दिया था ।। ४३ ।। परीक्षित्‌ ! समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका- वासियोंको इस प्रकार उपदेश देकर अपने महलमें चले गये ।। ४४ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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