॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
पौण्ड्रक और
काशिराज का उद्धार
श्रीशुक उवाच
नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप
वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत् १
त्वं वासुदेवो भगवानवतीऋनो जगत्पतिः
इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम् २
दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने
द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः ३
दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्
कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत् ४
वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः
भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज ५
यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्बिभर्षि सात्वत
त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम् ६
श्रीशुक उवाच
कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः
उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा ७
उवाच दूतं भगवान्परिहासकथामनु
उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे ८
मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः
शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम् ९
इति दूतस्तमाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्
कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह १०
पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः
अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम् ११
तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौण्ड्रकं हइः! १२
शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्ग श्रीवत्साद्युपलक्षितम्
बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम् १३
कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्
अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् १४
दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यं वेषं कृत्रिममास्थितम्
यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरीः १५
शुलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः
असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम् १६
कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयोर्
बलं गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्
गदासिचक्रेषुभिरार्दयद्भृशं
यथा युगान्ते हुतभुक्पृथक्प्रजाः १७
आयोधनं तद्र थवाजिकुञ्जर
द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः
बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-
माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम् १८
अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भो पौण्ड्रक यद्भवान्
दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्रण्युत्सृजामि ते १९
त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्
व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम् २०
इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्
शिरोऽवृश्चद्रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः २१
तथा काशीपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः
न्यपातयत्काशीपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः २२
एवं मत्सरिणम्हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः
द्वारकामाविशत्सिद्धैर्गीयमानकथामृतः २३
स नित्यं भगवद्ध्यान प्रध्वस्ताखिलबन्धनः
बिभ्राणश्च हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोऽभवत् २४
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब भगवान्
बलरामजी नन्दबाबा के व्रजमें गये हुए थे, तब पीछेसे करूष
देशके अज्ञानी राजा पौण्ंड्रक ने भगवान् श्रीकृष्णके पास एक दूत भेजकर यह कहलाया
कि ‘भगवान् वासुदेव मैं हूँ’ ।। १ ।।
मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान् वासुदेव हैं
और जगत् की रक्षाके लिये पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल
यह हुआ कि वह मूर्ख अपनेको ही भगवान् मान बैठा ।। २ ।। जैसे बच्चे आपसमें खेलते
समय किसी बालकको ही राजा मान लेते हैं और वह राजाकी तरह उनके साथ व्यवहार करने
लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ंड्रक ने अचिन्त्यगति
भगवान् श्रीकृष्णकी लीला और रहस्य न जानकर द्वारकामें उनके पास दूत भेज दिया ।। ३
।। पौण्ंड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभामें बैठे हुए कमलनयन भगवान्
श्रीकृष्णको उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया— ।। ४ ।।
‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है।
प्राणियोंपर कृपा करनेके लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना
नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो ।। ५ ।। यदुवंशी !
तुमने मूर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोडक़र मेरी शरणमें आओ और यदि
मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’ ।। ६ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! मन्दमति
पौण्ंड्रककी यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे ।। ७ ।। उन
लोगोंकी हँसी समाप्त होनेके बाद भगवान् श्रीकृष्णने दूतसे कहा—‘तुम जाकर अपने राजासे कह देना कि ‘रे मूढ़ ! मैं
अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूंगा और केवल तुझपर
ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके
बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख ! तू अपना मुँह छिपाकर—औंधे मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर
आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा, और तू मेरा
शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथकर खा जायँगे ।। ८-९ ।। परीक्षित् ! भगवान् का यह
तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ंड्रक का दूत अपने स्वामी के पास गया और उसे कह
सुनाया। इधर भगवान् श्रीकृष्णने भी रथपर सवार होकर काशीपर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि
वह करूषका राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराजके पास रहता था) ।। १० ।।
भगवान्
श्रीकृष्णके आक्रमणका समाचार पाकर महारथी पौण्ंड्रक भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ
शीघ्र ही नगरसे बाहर निकल आया ।। ११ ।। काशीका राजा पौण्ंड्रकका मित्र था। अत: वह
भी उसकी सहायता करनेके लिये तीन अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पीछे-पीछे आया।
परीक्षित् ! अब भगवान् श्रीकृष्णने पौण्ंड्रकको देखा ।। १२ ।। पौण्ंड्रकने भी
शङ्ख, चक्र, तलवार,
गदा, शार्ङ्गधनुष और श्रीवत्सचिह्न आदि धारणकर
रखे थे। उसके वक्ष:स्थलपर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला भी लटक रही थी ।। १३ ।।
उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथकी ध्वजापर गरुडक़ा चिह्न भी लगा रखा था।
उसके सिरपर अमूल्य मुकुट था और कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे ।। १४ ।।
उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता
रंगमंचपर अभिनय करनेके लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान्
श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे ।। १५ ।। अब शत्रुओंने भगवान् श्रीकृष्णपर त्रिशूल,
गदा, मुद्गर, शक्ति,
ऋष्टि, प्रास, तोमर,
तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे
प्रहार किया ।। १६ ।। प्रलयके समय जिस प्रकार आग सभी प्रकारके प्राणियोंको जला
देती है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ंड्रक
तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और
पैदलकी चतुरङ्गिणी सेनाको तहस-नहस कर दिया ।। १७ ।। वह रणभूमि भगवान् के चक्रसे
खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी,
मनुष्य, गधे और ऊँटोंसे पट गयी। उस समय ऐसा
मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शङ्कर की भयङ्कर
क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था ।। १८ ।।
अब भगवान्
श्रीकृष्णने पौण्ंड्रक से कहा—‘रे पौण्ंड्रक ! तूने दूतके द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न
अस्त्र-शस्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझपर छोड़ रहा हूँ ।। १९ ।। तूने
झूठमूठ मेरा नाम रख लिया है। अत: मूर्ख ! अब मैं तुझसे उन नामोंको भी छुड़ाकर
रहूँगा। रही तेरे शरणमें आनेकी बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध
न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा’ ।। २० ।। भगवान्
श्रीकृष्णने इस प्रकार पौण्ंड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणोंसे उसके रथको
तोड़-फोड़ डाला और चक्रसे उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे
इन्द्रने अपने वज्रसे पहाडक़ी चोटियोंको उड़ा दिया था ।। २१ ।। इसी प्रकार भगवान् ने
अपने बाणोंसे काशिनरेशका सिर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीमें गिरा दिया, जैसे वायु कमलका पुष्प गिरा देती है ।। २२ ।। इस प्रकार अपने साथ डाह
करनेवाले पौण्ंड्रकको और उसके सखा काशिनरेशको मारकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी
राजधानी द्वारकामें लौट आये। उस समय सिद्धगण भगवान्की अमृतमयी कथाका गान कर रहे
थे ।। २३ ।। परीक्षित् ! पौण्ंड्रक भगवान् के रूपका, चाहे
वह किसी भावसे हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे
बन्धन कट गये। वह भगवान् का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे
बार-बार उसीका स्मरण होनेके कारण वह भगवान् के सारूप्यको ही प्राप्त हुआ ।। २४ ।।
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गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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