गुरुवार, 24 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्णभगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ पधारना

 

आनर्तसौवीरमरून् तीर्त्वा विनशनं हरिः ।

गिरीन् नदीरतीयाय पुरग्रामव्रजाकरान् ॥ २१ ॥

ततो दृषद्‌वतीं तीर्त्वा मुकुन्दोऽथ सरस्वतीम् ।

पञ्चालानथ मत्स्यांश्च शक्रप्रस्थमथागमत् ॥ २२ ॥

तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो दुर्दर्शनं नृणाम् ।

अजातशत्रुर्निरगात् सोपाध्यायः सुहृद्‌वृतः ॥ २३ ॥

गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ।

अभ्ययात् स हृषीकेशं प्राणाः प्राणमिवादृतः ॥ २४ ॥

दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः कृष्णं स्नेहेन पाण्डवः ।

चिराद् दृष्टं प्रियतमं सस्वजेऽथ पुनः पुनः ॥ २५ ॥

दोर्भ्यां परिष्वज्य रमामलालयं

     मुकुन्दगात्रं नृपतिर्हताशुभः ।

 लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनो

     हृष्यत्तनुर्विस्मृत लोकविभ्रमः ॥ २६ ॥

 तं मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतो

     भीमः स्मयन् प्रेमजलाकुलेन्द्रियः ।

 यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदा

     प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम् ॥ २७ ॥

अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादितः ।

 ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथार्हतः ॥ २८ ॥

 मानिनो मानयामास कुरुसृञ्जयकैकयान् ।

 सूतमागधगन्धर्वा वन्दिनश्चोपमंत्रिणः ॥ २९ ॥

 मृदङ्‌गशङ्खपटह वीणापणवगोमुखैः ।

 ब्राह्मणाश्चारविन्दाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः ॥ ३० ॥

 एवं सुहृद्‌भिः पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः ।

 संस्तूयमानो भगवान् विवेशालङ्कृतं पुरम् ॥ ३१ ॥

संसिक्तवर्त्म करिणां मदगन्धतोयैः

     चित्रध्वजैः कनकतोरणपूर्णकुम्भैः ।

 मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्

     गन्धैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम् ॥ ३२ ॥

 उद्दीप्तदीपबलिभिः प्रतिसद्म जाल

     निर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम् ।

 मूर्धन्यहेमकलशै रजतोरुशृङ्‌गैः

     जुष्टं ददर्श भवनैः कुरुराजधाम ॥ ३३ ॥

 प्राप्तं निशम्य नरलोचनपानपात्रम्

     औत्सुक्यविश्लथितकेश दुकूलबन्धाः ।

 सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्च तल्पे

     द्रष्टुं ययुर्युवतयः स्म नरेन्द्रमार्गे ॥ ३४ ॥

 तस्मिन् सुसङ्कुल इभाश्वरथद्‌विपद्‌भिः

     कृष्णंसभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः ।

 नार्यो विकीर्य कुसुमैर्मनसोपगुह्य

     सुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन ॥ ३५ ॥

 ऊचुः स्त्रियः पथि निरीक्ष्य मुकुन्दपत्‍नीः

     तारा यथोडुपसहाः किमकार्यमूभिः ।

 यच्चक्षुषां पुरुषमौलिरुदारहास

 लीलावलोककलयोत्सवमातनोति ॥ ३६ ॥

 तत्र तत्रोपसङ्‌गम्य पौरा मङ्‌गलपाणयः ।

चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः ॥ ३७ ॥

 अन्तःपुरजनैः प्रीत्या मुकुन्दः फुल्ललोचनैः ।

 ससम्भ्रमैरभ्युपेतः प्राविशद् राजमन्दिरम् ॥ ३८ ॥

 पृथा विलोक्य भ्रात्रेयं कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम् ।

 प्रीतात्मोत्थाय पर्यङ्कात् सस्नुषा परिषस्वजे ॥ ३९ ॥

 गोविन्दं गृहमानीय देवदेवेशमादृतः ।

 पूजायां नाविदत् कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः ॥ ४० ॥

 पितृस्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम् ।

 स्वयं च कृष्णया राजन् भगिन्या चाभिवन्दितः ॥ ४१ ॥

 श्वश्र्वा सञ्चोदिता कृष्णा कृष्णपत्‍नीश्च सर्वशः ।

 आनर्च रुक्मिणीं सत्यां भद्रां जाम्बवतीं तथा ॥ ४२ ॥

 कालिन्दीं मित्रविन्दां च शैब्यां नाग्नजितीं सतीम् ।

 अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्रङ्‌मण्डनादिभिः ॥ ४३ ॥

 सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम् ।

 ससैन्यं सानुगामत्यं सभार्यं च नवं नवम् ॥ ४४ ॥

 तर्पयित्वा खाण्डवेन वह्निं फाल्गुनसंयुतः ।

 मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता ॥ ४५ ॥

 उवास कतिचिन् मासान् राज्ञः प्रियचिकीर्षया ।

 विहरन् रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः ॥ ४६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरु, कुरुक्षेत्र और उनके बीचमें पडऩेवाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ तथा खानोंको पार करते हुए आगे बढऩे लगे ॥ २१ ॥ भगवान्‌ मुकुन्द मार्गमें दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पाञ्चाल और मत्स्य देशोंमें होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको यह समाचार मिला कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ भगवान्‌ की अगवानी करनेके लिये नगरसे बाहर आये ॥ २३ ॥ मङ्गल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वरसे वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदरसे हृषीकेश भगवान्‌का स्वागत करनेके लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राणसे मिलने जा रही हों ॥ २४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर राजा युधिष्ठिरका हृदय स्नेहातिरेकसे गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनोंपर अपने प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अत: वे उन्हें बार-बार अपने हृदयसे लगाने लगे ॥ २५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजीका पवित्र और एकमात्र निवासस्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओंसे उसका आलिङ्गन करके समस्त पाप-तापोंसे छुटकारा पा गये । वे सर्वतोभावेन परमानन्दके समुद्रमें मग्र हो गये। नेत्रोंमें आँसू छलक आये, अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपञ्चके भ्रमका तनिक भी स्मरण न रहा ॥ २६ ॥ तदनन्तर भीमसेनने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदयमें इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुनने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान्‌ श्रीकृष्णका बड़े आनन्दसे आलिङ्गन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रोंमें आँसुओंकी बाढ़-सी आ गयी थी ॥ २७ ॥ अर्जुनने पुन: भगवान्‌ श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया, नकुल और सहदेवने अभिवादन किया और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धोंको यथायोग्य नमस्कार किया ॥ २८ ॥ कुरु, सृञ्जय और केकय देशके नरपतियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका सम्मान किया और भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, वंदीजन और ब्राह्मण भगवान्‌की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये नाचने-गाने लगे ॥ २९-३० ॥ इस प्रकार परमयशस्वी भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने सुहृद्-स्वजनोंके साथ सब प्रकारसे सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगरमें प्रवेश किया। उस समय लोग आपसमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रशंसा करते चल रहे थे ॥ ३१ ॥

इन्द्रप्रस्थ नगरकी सडक़ें और गलियाँ मतवाले हाथियोंके मदसे तथा सुगन्धित जलसे सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोनेके जलभरे कलश स्थान-स्थानपर शोभा पा रहे थे। नगरके नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल आदिसे सज-धजकर घूम रहे थे ॥ ३२ ॥ घर-घरमें ठौर-ठौरपर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावलीकी-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घरके झरोखोंसे धूपका धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरोंके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं तथा सोनेके कलश और चाँदीके शिखर जगमगा रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकारके महलोंसे परिपूर्ण पाण्डवोंकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगरको देखते हुए आगे बढ़ रहे थे ॥ ३३ ॥ जब युवतियोंने सुना कि मानव-नेत्रोंके पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजपथपर आ रहे हैं, तब उनके दर्शनकी उत्सुकताके आवेगसे उनकी चोटियों और साडिय़ोंकी गाँठें ढीली पड़ गयीं। उन्होंने घरका काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेजपर सोये हुए अपने पतियोंको भी छोड़ दिया और भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये राजपथपर दौड़ आयीं ॥ ३४ ॥ सडक़पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाकी भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियोंने अटारियोंपर चढक़र रानियोंके सहित भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा की और मन-ही-मन आलिङ्गन किया तथा प्रेम- भरी मुसकान एवं चितवनसे उनका सुस्वागत किया ॥ ३५ ॥ नगरकी स्त्रियाँ राजपथपर चन्द्रमाके साथ विराजमान ताराओंके समान श्रीकृष्णकी पत्नियोंको देखकर आपसमें कहने लगीं—‘सखी ! इन बड़भागिनी रानियोंने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्षसे उनकी ओर देखकर उनके नेत्रोंको परम आनन्द प्रदान करते हैं ॥ ३६ ॥ इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजपथसे चल रहे थे। स्थान-स्थानपर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकोंने अनेकों माङ्गलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत-सत्कार किया ॥ ३७ ॥

अन्त:पुरकी स्त्रियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्दसे खिले नेत्रोंके द्वारा भगवान्‌का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत- सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहलमें पधारे ॥ ३८ ॥ जब कुन्तीने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्णको देखा, तब उनका हृदय प्रेमसे भर आया। वे पलंगसे उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हृदयसे लगा लिया ॥ ३९ ॥ देवदेवेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को राजमहलके अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्दके उद्रेकसे आत्मविस्मृत हो गये; उन्हें इस बातकी भी सुधि न रही कि किस क्रमसे भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये ॥ ४० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी फूआ कुन्ती और गुरुजनोंकी पत्नियोंका अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदीने भगवान्‌को नमस्कार किया ॥ ४१ ॥ अपनी सास कुन्तीकी प्रेरणासे द्रौपदीने वस्त्र, आभूषण, माला आदिके द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्याभगवान्‌ श्रीकृष्णकी इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्णकी अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया ॥ ४२-४३ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णको उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियोंके साथ ऐसे स्थानमें ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुखकी सामग्रियाँ प्राप्त हों ॥ ४४ ॥ अर्जुनके साथ रहकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने खाण्डव वनका दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और मयासुरको उससे बचाया था। परीक्षित्‌ ! उस मयासुरने ही धर्मराज युधिष्ठिरके लिये भगवान्‌ की आज्ञासे एक दिव्य सभा तैयार कर दी ॥ ४५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिरको आनन्दित करनेके लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थमें ही रहे। वे समय-समयपर अर्जुन के साथ रथपर सवार होकर विहार करनेके लिये इधर- उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते ॥ ४६ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णस्य इंद्रप्रस्थगमनं नाम एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ पधारना

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोऽब्रवीत् ।

 सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥ १ ॥  

 

श्रीउद्धव उवाच -

यदुक्तं ऋषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।

 कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम् ॥ २ ॥

 यष्टव्यम्राजसूयेन दिक् चक्रजयिना विभो ।

 अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥ ३ ॥

 अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति ।

 यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान् विमुञ्चतः ॥ ४ ॥

 स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।

 बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना ॥ ५ ॥

 द्‌वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।

 ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैः न प्रत्याख्याति कर्हिचित् ॥ ६ ॥

 ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः ।

 हनिष्यति न सन्देहो द्‌वैरथे तव सन्निधौ ॥ ७ ॥

 निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः ।

 हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥ ८ ॥

गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो

     राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।

 गोप्यश्च कुञ्जरपतेर्जनकात्मजायाः

     पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥ ९ ॥

जरासन्धवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।

 प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतुः ॥ १० ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युद्धव वचो राजन् सर्वतोभद्रमच्युतम् ।

 देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन् ॥ ११ ॥

 अथादिशत् प्रयाणाय भगवान् देवकीसुतः ।

 भृत्यान् दारुकजैत्रादीन् अनुज्ञाप्य गुरून् विभुः ॥ १२ ॥

 निर्गमय्यावरोधान् स्वान् ससुतान् सपरिच्छदान् ।

 सङ्कर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन् ।

 सूतोपनीतं स्वरथं आरुहद् गरुडध्वजम् ॥ १३ ॥

ततो रथद्‌विपभटसादिनायकैः

     करालया परिवृत आत्मसेनया ।

 मृदङ्‌ग भेर्यानक शङ्खगोमुखैः

     प्रघोषघोषितककुभो निराक्रमत् ॥ १४ ॥

 नृवाजिकाञ्चन शिबिकाभिरच्युतं

     सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः ।

 वरांबराभरणविलेपनस्रजः

     सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभिः ॥ १५ ॥

 नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनः

     करेणुभिः परिजनवारयोषितः ।

 स्वलङ्कृताः कटकुटिकम्बलाम्बराद्

     उपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥ १६ ॥

 बलं बृहद्ध्वजपटछत्रचामरैः

     वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः ।

 दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवेः

     यथार्णवः क्षुभिततिमिङ्‌गिलोर्मिभिः ॥ १७ ॥

 अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः

     प्रणम्य तं हृदि विदधद् विहायसा ।

 निशम्य तद्‌व्यवसितमाहृतार्हणो

     मुकुन्दसन्दर्शननिर्वृतेन्द्रियः ॥ १८ ॥

राजदूतमुवाचेदं भगवान् प्रीणयन् गिरा ।

 मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम् ॥ १९ ॥

 इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावद् अवदन् नृपान् ।

 तेऽपि सन्दर्शनं शौरेः प्रत्यैक्षन् यन्मुमुक्षवः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के मतपर विचार किया और फिर वे कहने लगे ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहाभगवन् ! देवर्षि नारदजीने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवोंके राजसूय यज्ञमें सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतोंकी रक्षा अवश्यकर्तव्य है ॥ २ ॥ प्रभो ! जब हम इस दृष्टिसे विचार करते हैं कि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णयपर बिना किसी दुविधाके पहुँच जाते हैं कि पाण्डवोंके यज्ञ और शरणागतोंकी रक्षा दोनों कामोंके लिये जरासन्धको जीतना आवश्यक है ॥ ३ ॥ प्रभो ! केवल जरासन्धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओंकी मुक्ति और उसके कारण आपको सुयशकी भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४ ॥ राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगोंके भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियोंका बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ॥ ५ ॥ उसे आमने-सामनेके युद्धमें एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बातकी याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ॥ ६ ॥ इसलिये भीमसेन ब्राह्मणके वेषमें जायँ और उससे युद्धकी भिक्षा माँगें। भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थितिमें भीमसेन और जरासन्धका द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ॥ ७ ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं। विश्वकी सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्तिसे होता है। ब्रह्मा और शङ्कर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्धका वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ॥ ८ ॥ जब इस प्रकार आप जरासन्धका वध कर डालेंगे, तब कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रानियाँ अपने महलोंमें आपकी इस विशुद्ध लीलाका गान करेंगी कि आपने उनके शत्रुका नाश कर दिया और उनके प्राणपतियोंको छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शङ्खचूड़से छुड़ानेकी लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजीके उद्धारकी लीलाका तथा हमलोग आपके माता-पिताको कंसके कारागारसे छुड़ानेकी लीलाका गान करते हैं ॥ ९ ॥ इसलिये प्रभो ! जरासन्धका वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियोंके पुण्य-परिणामसे अथवा जरासन्धके पाप-परिणामसे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञका होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये) ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उद्धवजीकी यह सलाह सब प्रकारसे हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंशके बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनकी बातका समर्थन किया ॥ ११ ॥ अब अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णने वसुदेव आदि गुरुजनोंसे अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकोंको इन्द्रप्रस्थ जानेकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दी ॥ १२ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने यदुराज उग्रसेन और बलरामजीसे आज्ञा लेकर बाल-बच्चोंके साथ रानियों और उनके सब सामानोंको आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथपर स्वयं सवार हुए ॥ १३ ॥ इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदङ्ग, नगारे, ढोल, शङ्ख और नरसिंगोंकी ऊँची ध्वनिसे दसों दिशाएँ गूँज उठीं ॥ १४ ॥ सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण-पत्नियाँ अपनी सन्तानोंके साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन,अङ्गराग और पुष्पोंके हार आदिसे सज-धजकर डोलियों, रथों और सोनेकी बनी हुई पालकियोंमें चढक़र अपने पतिदेव भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ॥ १५ ॥ इसी प्रकार अनुचरोंकी स्त्रियाँ और वाराङ्गनाएँ भलीभाँति शृङ्गार करके खस आदिकी झोपडिय़ों, भाँति-भाँतिके तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढऩे-बिछाने आदिकी सामग्रियोंको बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरोंपर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियोंपर सवार होकर चलीं ॥ १६ ॥ जैसे मगरमच्छों और लहरोंकी उछल-कूदसे क्षुब्ध समुद्रकी शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहलसे परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिनके समय उनपर पड़ती हुई सूर्यकी किरणोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ॥ १७ ॥ देवर्षि नारदजी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे सम्मानित होकर और उनके निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान्‌के दर्शनसे उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्दमें मग्र हो गयीं। विदा होनेके समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनका नाना प्रकारकी सामग्रियों से पूजन किया । अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्तिको हृदय में धारण करके आकाशमार्ग से प्रस्थान किया ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियोंके दूतको अपनी मधुर वाणीसे आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत ! तुम अपने राजाओंसे जाकर कहनाडरो मत ! तुम लोगोंका कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा॥ १९ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णका सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटनेके लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्‌ के शुभ दर्शनकी बाट जोहने लगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



बुधवार, 23 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास

जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना

 

तत्रैकः पुरुषो राजन् आगतोऽपूर्वदर्शनः ।

 विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः ॥ २२ ॥

 स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः ।

 राज्ञामावेदयद् दुखं जरासन्धनिरोधजम् ॥ २३ ॥

 ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः ।

 प्रसह्य रुद्धास्तेनासन् अयुते द्वे गिरिव्रजे ॥ २४ ॥

 

 राजान ऊचुः -

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन ।

 वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः ॥ २५ ॥

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः

     कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

 यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां

     सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ २६ ॥

 लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः

     सद् रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः ।

 कश्चित् त्वदीयमतियाति निदेशमीश

     किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः ॥ २७ ॥

 स्वप्नायितं नृपसुखं परतंत्रमीश

     शश्वद्‌भयेन मृतकेन धुरं वहामः ।

 हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं

     क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह ॥ २८ ॥

 तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्‌घ्रियुग्मो

     बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात् ।

 यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको

     बिभ्रद् रुरोध भवने मृगराडिवावीः ॥ २९ ॥

 यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्र

     भग्नो मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम् ।

 जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो

     युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद्विधेहि ॥ ३० ॥

 

 दूत उवाच -

इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकाङ्‌क्षिणः ।

 प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम् ॥ ३१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः ।

 बिभ्रत् पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद् यथा रविः ॥ ३२ ॥

 तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः ।

 ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा ॥ ३३ ॥

 सभाजयित्वा विधिवत् कृतासनपरिग्रहम् ।

 बभाषे सुनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम् ॥ ३४ ॥

 अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणां अकुतोभयम् ।

 ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः ॥ ३५ ॥

 न हि तेऽविदितं किञ्चित् लोकेषु ईश्वर कर्तृषु ।

 अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम् ॥ ३६ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

दृष्टा माया ते बहुशो दुरत्यया

     माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः ।

 भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभिः

     वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्‌भुतम् ॥ ३७ ॥

 तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं

     स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः ।

 यद् विद्यमानात् मतयावभासते

     तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने ॥ ३८ ॥

 जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं

     न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः ।

 लीलावतारैः स्वयशः प्रदीपकं

     प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ३९ ॥

अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम् ।

 राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम् ॥ ४० ॥

 यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः ।

 पारमेष्ठ्यकामो नृपतिः तद्‌भवाननुमोदताम् ॥ ४१ ॥

 तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः ।

 दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः ॥ ४२ ॥

 श्रवणात् कीर्तनाद् ध्यानात् पूयन्तेऽन्तेवसायिनः ।

 तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः ॥ ४३ ॥

यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां

     भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम् ।

 मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो

     गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम् ॥ ४४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

तत्र तेष्वात्मपक्षेष्व गृण्हत्सु विजिगीषया ।

 वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः ॥ ४५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन् मंत्रार्थतत्त्ववित् ।

 अथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत् ॥ ४६ ॥

 इत्युपामंत्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत् ।

 निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत ॥ ४७ ॥

 

एक दिनकी बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वारपर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान्‌ को उसके आने की सूचना देकर उसे सभाभवनमें उपस्थित किया ॥ २२ ॥ उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको हाथ जोडक़र नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजयके समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्धके बंदी बननेका दु:ख श्रीकृष्णके सामने निवेदन किया॥ २३-२४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप मन और वाणीके अगोचर हैं। जो आपकी शरणमें आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो ! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥ २५ ॥ भगवन् ! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मोंमें फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओंके साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतोंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। ऐसी अवस्थामें प्रभो ! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञाके विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझमें नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमेंउसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दु:ख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेशसे मुक्त कीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो! हम जानते हैं कि राजापनेका सुख प्रारब्धके अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुखके समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकारसे मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकारके भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसीके द्वारा जगत्के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अन्त:करणके निष्कामभाव और निस्सङ्कल्प स्थितिसे प्राप्त होनेवाले आत्मसुखका परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी मायाके फंदेमें फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं ॥ २८ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमल शरणागत पुरुषोंके समस्त शोक और मोहोंको नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मोंके बन्धनसे हमें छुड़ाइये। प्रभो ! यह अकेला ही दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता है और हमलोगोंको उसी प्रकार बंदी बनाये हुए है, जैसे सिंह भेड़ोंको घेर रखे ॥ २९ ॥ चक्रपाणे ! आपने अठारह बार जरासन्धसे युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्योंका-सा आचरण करते आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्रसे अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ त्रिभुवनमङ्गल ! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओंमें छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पातालमें व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती और मत्र्यलोकमें गङ्गाके नामसे प्रवाहित होकर सारे विश्वको पवित्र कर रही है ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सभामें जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बातके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्धपर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अत: उन्हें नारदजीकी बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदिके शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणीमें उद्धवजीसे कहा॥ ४५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘उद्धव ! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्यके तत्त्वको भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बातपर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाहके अनुसार ही काम करेंगे॥ ४६ ॥ जब उद्धवजीने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होनेपर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ॥ ४७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भगवद्यानविचारे नाम सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...