॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्णभगवान्
का इन्द्रप्रस्थ पधारना
आनर्तसौवीरमरून् तीर्त्वा
विनशनं हरिः ।
गिरीन् नदीरतीयाय
पुरग्रामव्रजाकरान् ॥ २१ ॥
ततो दृषद्वतीं तीर्त्वा
मुकुन्दोऽथ सरस्वतीम् ।
पञ्चालानथ मत्स्यांश्च
शक्रप्रस्थमथागमत् ॥ २२ ॥
तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो
दुर्दर्शनं नृणाम् ।
अजातशत्रुर्निरगात्
सोपाध्यायः सुहृद्वृतः ॥ २३ ॥
गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण
भूयसा ।
अभ्ययात् स हृषीकेशं प्राणाः
प्राणमिवादृतः ॥ २४ ॥
दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः
कृष्णं स्नेहेन पाण्डवः ।
चिराद् दृष्टं प्रियतमं
सस्वजेऽथ पुनः पुनः ॥ २५ ॥
दोर्भ्यां परिष्वज्य रमामलालयं
मुकुन्दगात्रं
नृपतिर्हताशुभः ।
लेभे परां
निर्वृतिमश्रुलोचनो
हृष्यत्तनुर्विस्मृत
लोकविभ्रमः ॥ २६ ॥
तं मातुलेयं
परिरभ्य निर्वृतो
भीमः स्मयन्
प्रेमजलाकुलेन्द्रियः ।
यमौ किरीटी च
सुहृत्तमं मुदा
प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम् ॥ २७ ॥
अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादितः ।
ब्राह्मणेभ्यो
नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथार्हतः ॥ २८ ॥
मानिनो मानयामास
कुरुसृञ्जयकैकयान् ।
सूतमागधगन्धर्वा
वन्दिनश्चोपमंत्रिणः ॥ २९ ॥
मृदङ्गशङ्खपटह
वीणापणवगोमुखैः ।
ब्राह्मणाश्चारविन्दाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः
॥ ३० ॥
एवं सुहृद्भिः
पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः ।
संस्तूयमानो भगवान्
विवेशालङ्कृतं पुरम् ॥ ३१ ॥
संसिक्तवर्त्म करिणां मदगन्धतोयैः
चित्रध्वजैः
कनकतोरणपूर्णकुम्भैः ।
मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्
गन्धैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम् ॥ ३२ ॥
उद्दीप्तदीपबलिभिः
प्रतिसद्म जाल
निर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम् ।
मूर्धन्यहेमकलशै
रजतोरुशृङ्गैः
जुष्टं ददर्श
भवनैः कुरुराजधाम ॥ ३३ ॥
प्राप्तं निशम्य
नरलोचनपानपात्रम्
औत्सुक्यविश्लथितकेश दुकूलबन्धाः ।
सद्यो विसृज्य
गृहकर्म पतींश्च तल्पे
द्रष्टुं
ययुर्युवतयः स्म नरेन्द्रमार्गे ॥ ३४ ॥
तस्मिन् सुसङ्कुल
इभाश्वरथद्विपद्भिः
कृष्णंसभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः ।
नार्यो विकीर्य
कुसुमैर्मनसोपगुह्य
सुस्वागतं
विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन ॥ ३५ ॥
ऊचुः स्त्रियः पथि
निरीक्ष्य मुकुन्दपत्नीः
तारा
यथोडुपसहाः किमकार्यमूभिः ।
यच्चक्षुषां
पुरुषमौलिरुदारहास
लीलावलोककलयोत्सवमातनोति ॥ ३६ ॥
तत्र तत्रोपसङ्गम्य
पौरा मङ्गलपाणयः ।
चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः ॥ ३७ ॥
अन्तःपुरजनैः
प्रीत्या मुकुन्दः फुल्ललोचनैः ।
ससम्भ्रमैरभ्युपेतः
प्राविशद् राजमन्दिरम् ॥ ३८ ॥
पृथा विलोक्य
भ्रात्रेयं कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम् ।
प्रीतात्मोत्थाय
पर्यङ्कात् सस्नुषा परिषस्वजे ॥ ३९ ॥
गोविन्दं गृहमानीय
देवदेवेशमादृतः ।
पूजायां नाविदत्
कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः ॥ ४० ॥
पितृस्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम्
।
स्वयं च कृष्णया
राजन् भगिन्या चाभिवन्दितः ॥ ४१ ॥
श्वश्र्वा
सञ्चोदिता कृष्णा कृष्णपत्नीश्च सर्वशः ।
आनर्च रुक्मिणीं
सत्यां भद्रां जाम्बवतीं तथा ॥ ४२ ॥
कालिन्दीं
मित्रविन्दां च शैब्यां नाग्नजितीं सतीम् ।
अन्याश्चाभ्यागता
यास्तु वासःस्रङ्मण्डनादिभिः ॥ ४३ ॥
सुखं निवासयामास
धर्मराजो जनार्दनम् ।
ससैन्यं
सानुगामत्यं सभार्यं च नवं नवम् ॥ ४४ ॥
तर्पयित्वा
खाण्डवेन वह्निं फाल्गुनसंयुतः ।
मोचयित्वा मयं येन
राज्ञे दिव्या सभा कृता ॥ ४५ ॥
उवास कतिचिन्
मासान् राज्ञः प्रियचिकीर्षया ।
विहरन् रथमारुह्य
फाल्गुनेन भटैर्वृतः ॥ ४६ ॥
परीक्षित् !
अब भगवान् श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरु, कुरुक्षेत्र और
उनके बीचमें पडऩेवाले पर्वत, नदी, नगर,
गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ तथा खानोंको पार करते
हुए आगे बढऩे लगे ॥ २१ ॥ भगवान् मुकुन्द मार्गमें दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार
करके पाञ्चाल और मत्स्य देशोंमें होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे ॥ २२ ॥
परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज
युधिष्ठिरको यह समाचार मिला कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। वे अपने आचार्यों और
स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ भगवान् की अगवानी करनेके लिये नगरसे बाहर आये ॥ २३ ॥
मङ्गल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वरसे वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे। इस
प्रकार वे बड़े आदरसे हृषीकेश भगवान्का स्वागत करनेके लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राणसे मिलने जा रही हों ॥ २४ ॥ भगवान्
श्रीकृष्णको देखकर राजा युधिष्ठिरका हृदय स्नेहातिरेकसे गद्गद हो गया। उन्हें बहुत
दिनोंपर अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अत: वे
उन्हें बार-बार अपने हृदयसे लगाने लगे ॥ २५ ॥ भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह
भगवती लक्ष्मीजीका पवित्र और एकमात्र निवासस्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों
भुजाओंसे उसका आलिङ्गन करके समस्त पाप-तापोंसे छुटकारा पा गये । वे सर्वतोभावेन
परमानन्दके समुद्रमें मग्र हो गये। नेत्रोंमें आँसू छलक आये, अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपञ्चके
भ्रमका तनिक भी स्मरण न रहा ॥ २६ ॥ तदनन्तर भीमसेनने मुसकराकर अपने ममेरे भाई
श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदयमें इतना
प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव
और अर्जुनने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान् श्रीकृष्णका बड़े आनन्दसे
आलिङ्गन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रोंमें आँसुओंकी बाढ़-सी आ गयी थी ॥ २७ ॥
अर्जुनने पुन: भगवान् श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया, नकुल और
सहदेवने अभिवादन किया और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणों और कुरुवंशी
वृद्धोंको यथायोग्य नमस्कार किया ॥ २८ ॥ कुरु, सृञ्जय और
केकय देशके नरपतियोंने भगवान् श्रीकृष्णका सम्मान किया और भगवान् श्रीकृष्णने भी
उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, वंदीजन
और ब्राह्मण भगवान्की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट,
विदूषक आदि मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे
बजा-बजाकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये नाचने-गाने लगे ॥ २९-३०
॥ इस प्रकार परमयशस्वी भगवान् श्रीकृष्णने अपने सुहृद्-स्वजनोंके साथ सब प्रकारसे
सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगरमें प्रवेश किया। उस समय लोग आपसमें भगवान् श्रीकृष्णकी
प्रशंसा करते चल रहे थे ॥ ३१ ॥
इन्द्रप्रस्थ
नगरकी सडक़ें और गलियाँ मतवाले हाथियोंके मदसे तथा सुगन्धित जलसे सींच दी गयी थीं।
जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोनेके
जलभरे कलश स्थान-स्थानपर शोभा पा रहे थे। नगरके नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पोंके हार,
इत्र-फुलेल आदिसे सज-धजकर घूम रहे थे ॥ ३२ ॥ घर-घरमें ठौर-ठौरपर
दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावलीकी-सी छटा हो रही थी।
प्रत्येक घरके झरोखोंसे धूपका धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी
घरोंके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं तथा सोनेके कलश और चाँदीके शिखर जगमगा रहे थे।
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकारके महलोंसे परिपूर्ण पाण्डवोंकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ
नगरको देखते हुए आगे बढ़ रहे थे ॥ ३३ ॥ जब युवतियोंने सुना कि मानव-नेत्रोंके
पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्ण राजपथपर आ रहे हैं, तब उनके दर्शनकी उत्सुकताके आवेगसे उनकी चोटियों और साडिय़ोंकी गाँठें ढीली
पड़ गयीं। उन्होंने घरका काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेजपर
सोये हुए अपने पतियोंको भी छोड़ दिया और भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये
राजपथपर दौड़ आयीं ॥ ३४ ॥ सडक़पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाकी भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियोंने अटारियोंपर चढक़र
रानियोंके सहित भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन किया, उनके ऊपर
पुष्पोंकी वर्षा की और मन-ही-मन आलिङ्गन किया तथा प्रेम- भरी मुसकान एवं चितवनसे
उनका सुस्वागत किया ॥ ३५ ॥ नगरकी स्त्रियाँ राजपथपर चन्द्रमाके साथ विराजमान
ताराओंके समान श्रीकृष्णकी पत्नियोंको देखकर आपसमें कहने लगीं—‘सखी ! इन बड़भागिनी रानियोंने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और
विलासपूर्ण कटाक्षसे उनकी ओर देखकर उनके नेत्रोंको परम आनन्द प्रदान करते हैं ॥ ३६
॥ इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण राजपथसे चल रहे थे। स्थान-स्थानपर बहुत-से निष्पाप
धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकोंने अनेकों माङ्गलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी
पूजा-अर्चा और स्वागत-सत्कार किया ॥ ३७ ॥
अन्त:पुरकी
स्त्रियाँ भगवान् श्रीकृष्णको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। उन्होंने अपने
प्रेमविह्वल और आनन्दसे खिले नेत्रोंके द्वारा भगवान्का स्वागत किया और श्रीकृष्ण
उनका स्वागत- सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहलमें पधारे ॥ ३८ ॥ जब कुन्तीने अपने
त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्णको देखा,
तब उनका हृदय प्रेमसे भर आया। वे पलंगसे उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी
के साथ आगे गयीं और भगवान् श्रीकृष्ण को हृदयसे लगा लिया ॥ ३९ ॥ देवदेवेश्वर
भगवान् श्रीकृष्ण को राजमहलके अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्दके
उद्रेकसे आत्मविस्मृत हो गये; उन्हें इस बातकी भी सुधि न रही
कि किस क्रमसे भगवान्की पूजा करनी चाहिये ॥ ४० ॥ भगवान् श्रीकृष्णने अपनी फूआ
कुन्ती और गुरुजनोंकी पत्नियोंका अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदीने
भगवान्को नमस्कार किया ॥ ४१ ॥ अपनी सास कुन्तीकी प्रेरणासे द्रौपदीने वस्त्र,
आभूषण, माला आदिके द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती,
कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा
और परम साध्वी सत्या—भगवान् श्रीकृष्णकी इन पटरानियों का
तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्णकी अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया ॥
४२-४३ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णको उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियोंके साथ ऐसे स्थानमें
ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुखकी सामग्रियाँ प्राप्त हों ॥ ४४ ॥ अर्जुनके
साथ रहकर भगवान् श्रीकृष्णने खाण्डव वनका दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और
मयासुरको उससे बचाया था। परीक्षित् ! उस मयासुरने ही धर्मराज युधिष्ठिरके लिये
भगवान् की आज्ञासे एक दिव्य सभा तैयार कर दी ॥ ४५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण राजा
युधिष्ठिरको आनन्दित करनेके लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थमें ही रहे। वे
समय-समयपर अर्जुन के साथ रथपर सवार होकर विहार करनेके लिये इधर- उधर चले जाया करते
थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते ॥ ४६ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णस्य इंद्रप्रस्थगमनं नाम
एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से