रविवार, 27 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार

 

विविधानीह कर्माणि जनयन् यदवेक्षया ।

 ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २२ ॥

 तस्मात् कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम् ।

 एवं चेत्सर्वभूतानां आत्मनश्चार्हणं भवेत् ॥ २३ ॥

 सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने ।

 देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता ॥ २४ ॥

 इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत् तूष्णीं कृष्णानुभाववित् ।

 तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधु साध्विति सत्तमाः ॥ २५ ॥

 श्रुत्वा द्‌विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदाम् ।

 समर्हयद्‌धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः ॥ २६ ॥

 तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः ।

 सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुम्बो वहन्मुदा ॥ २७ ॥

 वासोभिः पीतकौषेयैः भूषणैश्च महाधनैः ।

 अर्हयित्वाश्रुपूर्णाक्षो नाशकत् समवेक्षितुम् ॥ २८ ॥

 इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राञ्जलयो जनाः ।

 नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ २९ ॥

इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठाद्

     उत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः ।

 उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी

     संश्रावयन् भगवते परुषाण्यभीतः ॥ ३० ॥

ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती स्रुतिः ।

 वृद्धानामपि यद् बुद्धिः बालवाक्यैर्विभिद्यते ॥ ३१ ॥

 यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषीतम् ।

 सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत् सम्मतोऽर्हणे ॥ ३२ ॥

 तपोविद्याव्रतधरान् ज्ञानविध्वस्तकल्मषान् ।

 परमऋषीन् ब्रह्मनिष्ठान् लोकपालैश्च पूजितान् ॥ ३३ ॥

 सदस्पतीन् अतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः ।

 यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति ॥ ३४ ॥

 वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः ।

 स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति ॥ ३५ ॥

 ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्‌भिर्बहिष्कृतम् ।

 वृथापानरतं शश्वत् सपर्यां कथमर्हति ॥ ३६ ॥

 ब्रह्मर्षिसेवितान् देशान् हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम् ।

 समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यवः प्रजाः ॥ ३७ ॥

 एवं आदीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमङ्‌गलः ।

 नोवाच किञ्चिद् भगवान् यथा सिंहः शिवारुतम् ॥ ३८ ॥

 भगवन् निन्दनं श्रुत्वा दुःसहं तत्सभासदः ।

 कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपन्तश्चेदिपं रुषा ॥ ३९ ॥

 निन्दां भगवतः श्रृण्वन् तत्परस्य जनस्य वा ।

 ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः ॥ ४० ॥

 ततः पाण्डुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः ।

 उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः ॥ ४१ ॥

 ततश्चैद्यस्त्वसंभ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी ।

 भर्त्सयन् कृष्णपक्षीयान् राज्ञः सदसि भारत ॥ ४२ ॥

 तावदुत्थाय भगवान् स्वान् निवार्य स्वयं रुषा ।

 शिरः क्षुरान्तचक्रेण जहार पततो रिपोः ॥ ४३ ॥

 शब्दः कोलाहलोऽथासीन् शिशुपाले हते महान् ।

 तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीवितैषिणः ॥ ४४ ॥

 चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिः वासुदेवमुपाविशत् ।

 पश्यतां सर्वभूतानां उल्केव भुवि खाच्च्युता ॥ ४५ ॥

 जन्मत्रयानुगुणित वैरसंरब्धया धिया ।

 ध्यायन् तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम् ॥ ४६ ॥

 ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिनां विपुलामदात् ।

 सर्वान् संपूज्य विधिवत् चक्रेऽवभृथमेकराट् ॥ ४७ ॥

 साधयित्वा क्रतुः राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।

 उवास कतिचिन् मासान् सुहृद्‌भिः अभियाचितः ॥ ४८ ॥

 ततोऽनुज्ञाप्य राजानं अनिच्छन्तमपीश्वरः ।

 ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः ॥ ४९ ॥

 वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम् ।

 वैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात् पुनः पुनः ॥ ५० ॥

 राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः ।

 ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव ॥ ५१ ॥

 राज्ञा सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः ।

 कृष्णं क्रतुं च शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥ ५२ ॥

 दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम् ।

 यो न सेहे श्रीयं स्फीतां दृष्ट्वा पाण्डुसुतस्य ताम् ॥ ५३ ॥

 य इदं कीर्तयेद् विष्णोः कर्म चैद्य वधादिकम् ।

 राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५४ ॥

 

सारा जगत् श्रीकृष्णके ही अनुग्रहसे अनेकों प्रकारके कर्मका अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोंका सम्पादन करता है ॥ २२ ॥ इसलिये सबसे महान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करनेसे समस्त प्राणियोंकी तथा अपनी भी पूजा हो जाती है ॥ २३ ॥ जो अपने दान-धर्मको अनन्त भावसे युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अन्तरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही दान करे ॥ २४ ॥ परीक्षित्‌ ! सहदेव भगवान्‌ की महिमा और उनके प्रभावको जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस सयम धर्मराज युधिष्ठिरकी यज्ञसभामें जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वरसे बहुत ठीक, बहुत ठीककहकर सहदेवकी बातका समर्थन किया ॥ २५ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंकी यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदोंका अभिप्राय जानकर बड़े आनन्दसे प्रमोद्रेकसे विह्वल होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ २६ ॥ अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियोंके साथ धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेम और आनन्दसे भगवान्‌के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलोंका लोकपावन जल अपने सिरपर धारण किया ॥ २७ ॥ उन्होंने भगवान्‌को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे इस प्रकार भर गये कि वे भगवान्‌को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे ॥ २८ ॥ यज्ञसभामें उपस्थित सभी लोग भगवान्‌ श्रीकृष्णको इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए नमो नम: ! जय-जय !इस प्रकारके नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाशसे स्वयं ही पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ २९ ॥

परीक्षित्‌ ! अपने आसनपर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभामें हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयताके साथ भगवान्‌को सुना-सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा॥ ३० ॥ सभासदो ! श्रुतियोंका यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करनेपर भी वह अपना काम करा ही लेता हैइसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खोंकी बातसे बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धोंकी बुद्धि भी चकरा गयी है ॥ ३१ ॥ पर मैं मानता हूँ कि आपलोग अग्रपूजाके योग्य पात्रका निर्णय करनेमें सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियो ! आपलोग बालक सहदेवकी यह बात ठीक न मानें कि कृष्ण ही अग्रपूजाके योग्य हैं॥ ३२ ॥ यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञानके द्वारा अपने समस्त पाप-तापोंको शान्त करनेवाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैंजिनकी पूजा बड़े- बड़े लोकपाल भी करते हैं ॥ ३३ ॥ यज्ञकी भूल-चूक बतलानेवाले उन सदसस्पतियोंको छोडक़र यह कुलकलङ्क ग्वाला भला, अग्रपूजाका अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौआ कभी यज्ञके पुरोडाशका अधिकारी हो सकता है ? ॥ ३४ ॥ न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मोंसे यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओंका उल्लङ्घन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है ? ॥ ३५ ॥ आपलोग जानते हैं कि राजा ययातिने इसके वंशको शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषोंने इस वंशका ही बहिष्कार कर दिया है। ये सब सर्वदा व्यर्थ मधुपानमें आसक्त रहते हैं। फिर ये अग्रपूजाके योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ ३६ ॥ इन सबने ब्रहमर्षियोंके द्वारा सेवित मथुरा आदि देशोंका परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस् के विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्रमें किला बनाकर रहने लगे। वहाँसे जब ये बाहर निकलते हैं, तो डाकुओंकी तरह सारी प्रजाको सताते हैं॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो शिशुपालका सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसीसे उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान्‌ श्रीकृष्णको सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियारकी हुआँ- हुआँपर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातोंका कुछ भी उत्तर न दिया ॥ ३८ ॥ परन्तु सभासदोंके लिये भगवान्‌की निन्दा सुनना असह्य था। उनमेंसे कई अपने- अपने कान बंद करके क्रोधसे शिशुपालको गाली देते हुए बाहर चले गये ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! जो भगवान्‌ की या भगवत्परायण भक्तोंकी निन्दा सुनकर वहाँसे हट नहीं जाता, वह अपने शुभकर्मोंसे च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ॥ ४० ॥

परीक्षित्‌ ! अब शिशुपालको मार डालनेके लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृञ्जयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथोंमें हथियार ले उठ खड़े हुए ॥ ४१ ॥ परन्तु शिशुपालको इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभामें श्रीकृष्णके पक्षपाती राजाओंको ललकारने लगा ॥ ४२ ॥ उन लोगोंको लड़ते- झगड़ते देख भगवान्‌ श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओंको शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपालका सिर छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे काट लिया ॥ ४३ ॥ शिशुपालके मारे जानेपर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचानेके लिये वहाँसे भाग खड़े हुए ॥ ४४ ॥ जैसे आकाशसे गिरा हुआ लूक धरतीमें समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियोंके देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकलकर भगवान्‌ श्रीकृष्णमें समा गयी ॥ ४५ ॥ परीक्षित्‌ ! शिशुपालके अन्त:करणमें लगातार तीन जन्मसे वैरभावकी अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभावसे ही सही, ध्यान करते- करते वह तन्मय हो गयापार्षद हो गया। सच हैमृत्युके बाद होनेवाली गतिमें भाव ही कारण है ॥ ४६ ॥ शिशुपालकी सद्गति होनेके बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिरने सदस्यों और ऋत्विजोंको पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नानअवभृथ-स्नान किया ॥ ४७ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदोंकी प्रार्थनासे कुछ महीनोंतक वहीं रहे ॥ ४८ ॥ इसके बाद राजा युधिष्ठिरकी इच्छा न होनेपर भी सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियोंके साथ इन्द्रप्रस्थसे द्वारकापुरीकी यात्रा की ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तारसे (सातवें स्कन्धमें) सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजयको सनकादि ऋषियोंके शापसे बार-बार जन्म लेना पड़ा था ॥ ५० ॥ महाराज युधिष्ठिर राजसूयका यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी सभामें देवराज इन्द्रके समान शोभायमान होने लगे ॥ ५१ ॥ राजा युधिष्ठिरने देवता, मनुष्य और आकाशचारियोंका यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे अपने-अपने लोकको चले गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित्‌ ! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधनसे पाण्डवोंकी यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मीका उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभावसे ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुलका नाश करनेके लिये एक महान् रोग था ॥ ५३ ॥

परीक्षित्‌ ! जो पुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस लीलाकाशिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी राजाओंकी मुक्ति और यज्ञानुष्ठानका कीर्तन करेगा, वह समस्त पापोंसे छूट जायगा ॥ ५४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः ।

 कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत् ॥ १ ॥

 

 श्रीयुधिष्ठिर उवाच -

ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः ।

 वहन्ति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम् ॥ २ ॥

 स भवान् अरविन्दाक्षो दीनानां ईशमानिनाम् ।

 धत्तेऽनुशासनं भूमन् तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३ ॥

 न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।

 कर्मभिर्वर्धते तेजो ह्रसते च यथा रवेः ॥ ४ ॥

 न वै तेऽजित भक्तानां ममाहमिति माधव ।

 त्वं तवेति च नानाधीः पशूनामिव वैकृती ॥ ५ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः ।

 कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ॥ ६ ॥

 द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गोतमोऽसितः ।

 वसिष्ठश्च्यवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः ॥ ७ ॥

 विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः ।

 पैलः पराशरो गर्गो वैशम्पायन एव च ॥ ८ ॥

 अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः ।

 वीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनोऽकृतव्रणः ॥ ९ ॥

 उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः ।

 धृतराष्ट्रः सहसुतो विदुरश्च महामतिः ॥ १० ॥

 ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः ।

 तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप ॥ ११ ॥

 ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्‌गलैः ।

 कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयां चक्रिरे नृपम् ॥ १२ ॥

 हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा ।

 इन्द्रादयो लोकपाला विरिञ्चिभवसंयुताः ॥ १३ ॥

 सगणाः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः ।

 मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः ॥ १४ ॥

राजानश्च समाहूता राजपत्‍न्यश्च सर्वशः ।

 राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै ॥ १५ ॥

 मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः ।

 अयाजयन् महाराजं याजका देववर्चसः ।

 राजसूयेन विधिवत् प्रचेतसमिवामराः ॥ १६ ॥

 सूत्येऽहन्यवनीपालो याजकान् सदसस्पतीन् ।

 अपूजयन् महाभागान् यथावत् सुसमाहितः ॥ १७ ॥

 सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशन्तः सभासदः ।

 नाध्यगच्छन् नन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ॥ १८ ॥

 अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान्सात्वतां पतिः ।

 एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः ॥ १९ ॥

 यस् आत्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः ।

 अग्निराहुतयो मंत्राः साङ्ख्यं योगश्च यत्परः ॥ २० ॥

 एक एवाद्‌वितीयोऽसौ अवैतदात्म्यमिदं जगत् ।

 आत्मनात्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ २१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्धका वध और सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ॥ १ ॥

धर्मराज युधिष्ठिरने कहासच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! त्रिलोकी के स्वामी ब्रह्मा, शङ्कर आदि और इन्द्रादि लोकपालसब आपकी आज्ञा पानेके लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धासे उसको शिरोधार्य करते हैं ॥ २ ॥ अनन्त ! हमलोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपनेको भूपति और नरपति। ऐसी स्थितिमें हैं तो हम दण्डके पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान्‌के लिये यह मनुष्य-लीलाका अभिनयमात्र है ॥ ३ ॥ जैसे उदय अथवा अस्तके कारण सूर्यके तेजमें घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकारके कर्मोंसे न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ ४ ॥ किसीसे पराजित न होनेवाले माधव ! यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस प्रकारकी विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओंकी होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्तमें ऐसे पागलपनके विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँसे ? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है) ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमतिसे यज्ञके योग्य समय आनेपर यज्ञके कर्मोंमें निपुण वेदवादी ब्राह्मणोंको ऋत्विज्, आचार्य आदिके रूपमें वरण किया ॥ ६ ॥ उनके नाम ये हैंश्रीकृष्णद्वैपायनव्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण ॥ ७-९ ॥ इनके अतिरिक्त धर्मराजने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदिको भी बुलवाया ॥ १० ॥ राजन् ! राजसूय यज्ञका दर्शन करनेके लिये देशके सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रसब-के-सब वहाँ आये ॥ ११ ॥

इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणोंने सोनेके हलोंसे यज्ञभूमिको जुतवाकर राजा युधिष्ठिरको शास्त्रानुसार यज्ञकी दीक्षा दी ॥ १२ ॥ प्राचीन कालमें जैसे वरुणदेवके यज्ञमें सब-के-सब यज्ञपात्र सोनेके बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिरके यज्ञमें भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिरके यज्ञमें निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शङ्करजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणोंके साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँये सभी उपस्थित हुए ॥ १३१५ ॥ सबने बिना किसी प्रकारके कौतूहलके यह बात मान ली कि राजसूय यज्ञ करना युधिष्ठिरके योग्य ही है; क्योंकि भगवान्‌ श्रीकृष्णके भक्तके लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओंके समान तेजस्वी याजकोंने धर्मराज युधिष्ठिरसे विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकालमें देवताओंने वरुणसे करवाया था ॥ १६ ॥ सोमलतासे रस निकालनेके दिन महाराज युधिष्ठिरने अपने परम भाग्यवान् याजकों और यज्ञकर्मकी भूल-चूकका निरीक्षण करनेवाले सदसस्पतियोंका बड़ी सावधानीसे विधिपूर्वक पूजन किया ॥ १७ ॥

अब सभासद् लोग इस विषयपर विचार करने लगे कि सदस्योंमें सबसे पहले किसकी पूजाअग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मतिसे कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थितिमें सहदेवने कहा॥ १८ ॥ यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सदस्योंमें सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजाके पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओंके रूपमें हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूपमें भी ये ही हैं ॥ १९ ॥ यह सारा विश्व श्रीकृष्णका ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही अग्रि, आहुति और मन्त्रोंके रूपमें हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्गये दोनों भी श्रीकृष्णकी प्राप्तिके ही हेतु हैं ॥ २० ॥ सभासदो ! मैं कहाँतक वर्णन करूँ, भगवान्‌ श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्रका भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हींका स्वरूप है। वे अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छ: भावविकारोंसे रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप सङ्कल्प से ही जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 26 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई

और भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

 

श्रीशुक उवाच -

संस्तूयमानो भगवान् राजभिर्मुक्तबन्धनैः ।

 तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा ॥ १७ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

अद्य प्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे ।

 सुदृढा जायते भक्तिः बाढमाशंसितं तथा ॥ १८ ॥

 दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवन्त ऋतभाषिणः ।

 श्रीयैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम् ॥ १९ ॥

 हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे ।

 श्रीमदाद्‌ भ्रंशिताः स्थानाद् देवदैत्यनरेश्वराः ॥ २० ॥

 भवन्त एतद्‌ विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमन्तवत् ।

 मां यजन्तोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ ॥ २१ ॥

 संतन्वन्तः प्रजातन्तून् सुखं दुःखं भवाभवौ ।

 प्राप्तं प्राप्तं च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ ॥ २२ ॥

 उदासीनाश्च देहादौ आत्मारामा धृतव्रताः ।

 मय्यावेश्य मनः सम्यङ्‌ मां अन्ते ब्रह्म यास्यथ ॥ २३ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान् भुवनेश्वरः ।

 तेषां न्ययुङ्क्त पुरुषान् स्त्रियो मज्जनकर्मणि ॥ २४ ॥

 सपर्यां कारयामास सहदेवेन भारत ।

 नरदेवोचितैर्वस्त्रैः भूषणैः स्रग्विलेपनैः ॥ २५ ॥

 भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान् समलङ्कृतान् ।

 भोगैश्च विविधैर्युक्तान् तांबूलाद्यैर्नृपोचितैः ॥ २६ ॥

 ते पूजिता मुकुन्देन राजानो मृष्टकुण्डलाः ।

 विरेजुर्मोचिताः क्लेशात् प्रावृडन्ते यथा ग्रहाः ॥ २७ ॥

 रथान् सदश्वान् आरोप्य मणिकाञ्चनभूषितान् ।

 प्रीणय्य सुनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान् प्रत्ययापयत् ॥ २८ ॥

 त एवं मोचिताः कृच्छ्रात् कृष्णेन सुमहात्मना ।

 ययुस्तमेव ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पतेः ॥ २९ ॥

 जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम् ।

 यथान्वशासद्‌ भगवान् तथा चक्रुरतन्द्रिताः ॥ ३० ॥

 जरासन्धं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः ।

 पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात् सहदेवेन पूजितः ॥ ३१ ॥

 गत्वा ते खाण्डवप्रस्थं शङ्खान् दध्मुर्जितारयः ।

 हर्षयन्तः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः ॥ ३२ ॥

 तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः ।

 मेनिरे मागधं शान्तं राजा चाप्तमनोरथः ॥ ३३ ॥

 अभिवन्द्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः ।

 सर्वमाश्रावयां चक्रुः आत्मना यदनुष्ठितम् ॥ ३४ ॥

 निशम्य धर्मराजस्तत् केशवेनानुकम्पितम् ।

 आनन्दाश्रुकलां मुञ्चन् प्रेम्णा नोवाच किञ्चन ॥ ३५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कारागारसे मुक्त राजाओंने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणीसे उनसे कहा ॥१७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहानरपतियो ! तुमलोगोंने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आजसे मुझमें तुम लोगोंकी निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ ॥ १८ ॥ नरपतियो ! तुमलोगोंने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है। तुमलोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे चूर होकर बहुत-से लोग उच्छृङ्खल और मतवाले हो जाते हैं ॥ १९ ॥ हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थानसे, पदसे च्युत हो गये ॥ २० ॥ तुमलोग यह समझ लो कि शरीर और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अत: उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानीसे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करो ॥ २१ ॥ तुमलोग अपनी वंश-परम्पराकी रक्षाके लिये, भोगके लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्धके अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख, लाभ-हानिजो कुछ भी प्राप्त हों, उन्हें समानभावसे मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ॥ २२ ॥ देह और देहके सम्बन्धियोंसे किसी प्रकारकी आसक्ति न रखकर उदासीन रहो; अपने-आपमें, आत्मामें ही रमण करो और भजन तथा आश्रमके योग्य व्रतोंका पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्तमें तुमलोग मुझ ब्रह्मस्वरूपको ही प्राप्त हो जाओगे ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भुवनेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजाओंको यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि करानेके लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ॥ २४ ॥ परीक्षित्‌ ! जरासन्ध के पुत्र सहदेवसे उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ॥ २५ ॥ जब वे स्नान करके वस्त्राभूषणसे सुसज्जित हो चुके, तब भगवान्‌ने उन्हें उत्तम उत्तम पदार्थोंका भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकारके राजोचित भोग दिलवाये ॥ २६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार उन बंदी राजाओंको सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशोंसे छुटकारा पाकर तथा कानोंमें झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतुका अन्त हो जानेपर तारे ॥ २७ ॥ फिर भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें सुवर्ण और मणियोंसे भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ोंसे युक्त रथोंपर चढ़ाया, मधुर वाणीसे तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशोंको भेज दिया ॥ २८ ॥ इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन राजाओंको महान् कष्टसे मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान्‌ श्रीकृष्णके रूप, गुण और लीलाओंका चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानीको चले गये ॥ २९ ॥ वहाँ जाकर उन लोगोंने अपनी-अपनी प्रजासे परमपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानीसे भगवान्‌के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ॥ ३० ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण भीमसेनके द्वारा जरासन्धका वध करवाकर भीमसेन और अर्जुनके साथ जरासन्धनन्दन सहदेवसे सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थके लिये चले। उन विजयी वीरोंने इन्द्रप्रस्थके पास पहुँचकर अपने-अपने शङ्ख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रोंको सुख और शत्रुओंको बड़ा दु:ख हुआ ॥ ३१-३२ ॥ इन्द्रप्रस्थनिवासियोंका मन उस शङ्खध्वनिको सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ करनेका सङ्कल्प एक प्रकारसे पूरा हो गया ॥ ३३ ॥ भीमसेन, अर्जुन और भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजा युधिष्ठिरकी वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्धके वधके लिये करना पड़ा था ॥ ३४ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर भगवान्‌ श्रीकृष्णके इस परम अनुग्र हकी बात सुनकर प्रेमसे भर गये, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ॥ ३५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णाद्यागमने नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई

और भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

 

श्रीशुक उवाच -

अयुते द्वे शतान्यष्टौ निरुद्धा युधि निर्जिताः ।

 ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः ॥ १ ॥

 क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः ।

 ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ॥ २ ॥

 श्रीवत्साङ्कं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।

 चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ ३ ॥

 पद्महस्तं गदाशङ्ख रथाङ्‌गैरुपलक्षितम् ।

 किरीटहारकटक कटिसूत्राङ्‌गदाञ्चितम् ॥ ४ ॥

 भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया ।

 पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ॥ ५ ॥

 जिघ्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभिः ।

 प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोर्हरेः ॥ ६ ॥

 कृष्णसन्दर्शनाह्लाद ध्वस्तसंरोधनक्लमाः ।

 प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्राञ्जलयो नृपाः ॥ ७ ॥

 

 राजान ऊचुः -

नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय ।

 प्रपन्ना पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान् घोरसंसृतेः ॥ ८ ॥

 नैनं नाथानुसूयामो मागधं मधुसूदन ।

 अनुग्रहो यद्‌ भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो ॥ ९ ॥

 राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः ।

 त्वन्मायामोहितोऽनित्या मन्यते सम्पदोऽचलाः ॥ १० ॥

 मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम् ।

 एवं वैकारिकीं मायां अयुक्ता वस्तु चक्षते ॥ ११ ॥

वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो

     जिगीषयास्या इतरेतरस्पृधः ।

 घ्नन्तः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो

     मृत्युं पुरस्त्वाविगणय्य दुर्मदाः ॥ १२ ॥

 त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा

     दुरन्तवीर्येण विचालिताः श्रियः ।

 कालेन तन्वा भवतोऽनुकम्पया

     विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम ते ॥ १३ ॥

 अथो न राज्यम्मृगतृष्णिरूपितं

     देहेन शश्वत् पतता रुजां भुवा ।

 उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो

     क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम् ॥ १४ ॥

तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः ।

 स्मृतिर्यथा न विरमेद् अपि संसरतामिह ॥ १५ ॥

 कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।

 प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जरासन्धने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओंको जीतकर पहाड़ोंकी घाटीमें एक किलेके भीतर कैद कर रखा था। भगवान्‌ श्रीकृष्णके छोड़ देनेपर जब वे वहाँसे निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे ॥ १ ॥ वे भूखसे दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेलमें बंद रहनेके कारण उनके शरीरका एक-एक अङ्ग ढीला पड़ गया था। वहाँसे निकलते ही उन नरपतियोंने देखा कि सामने भगवान्‌ श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघके समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उसपर पीले रंगका रेशमी वस्त्र फहरा रहा है ॥ २ ॥ चार भुजाएँ हैंजिनमें गदा, शङ्ख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। वक्ष:स्थलपर सुनहली रेखाश्रीवत्सका चिह्न है और कमलके भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नताका सदन है। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियोंका हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर शोभा पा रहे हैं ॥ ३-४ ॥ गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है। भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर उन राजाओंकी ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रोंसे उन्हें पी रहे हैं। जीभसे चाट रहे हैं, नासिकासे सूँघ रहे हैं और बाहुओंसे आलिङ्गन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान्‌के दर्शनसे ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे उन राजाओंको इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैदमें रहनेका क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोडक़र विनम्र वाणीसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

राजाओंने कहाशरणागतोंके सारे दु:ख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर ! सच्चिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्धके कारागारसे तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्रसे भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसारमें दु:खका कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो ! अब आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥ मधुसूदन ! हमारे स्वामी ! हम मगधराज जरासन्धका कोई दोष नहीं देखते। भगवन् ! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलानेवाले लोग राज्यलक्ष्मीसे च्युत कर दिये गये ॥ ९ ॥ क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुखकीकल्याणकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी मायासे मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियोंको ही अचल मान बैठता है ॥ १० ॥ जैसे मूर्खलोग मृगतृष्णाके जलको ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील मायाको सत्य वस्तु मान लेते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! पहले हमलोग धन-सम्पत्तिके नशेमें चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वीको जीत लेनेके लिये एक-दूसरेकी होड़ करते थे और अपनी ही प्रजाका नाश करते रहते थे ! सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरतासे भरा हुआ था, और हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूपसे हमारे सामने खड़े हैं, इस बातकी भी हम तनिक परवा नहीं करते थे ॥ १२ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! कालकी गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसीके टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हमलोगोंको श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पासे हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं ॥ १३ ॥ विभो ! यह शरीर दिन-दिन क्षीण होता जा रहा है। रोगोंकी तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीरसे भोगे जानेवाले राज्यकी अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णाके जलके समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्मके फल स्वर्गादि लोकोंकी भी, जो मरनेके बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुननेमें ही आकर्षक जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े ॥ १५ ॥ प्रणाम करनेवालों के क्लेश का नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...