॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान् की
अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
विविधानीह कर्माणि जनयन्
यदवेक्षया ।
ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २२ ॥
तस्मात् कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम् ।
एवं चेत्सर्वभूतानां आत्मनश्चार्हणं भवेत् ॥ २३
॥
सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने ।
देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता ॥
२४ ॥
इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत् तूष्णीं
कृष्णानुभाववित् ।
तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधु साध्विति
सत्तमाः ॥ २५ ॥
श्रुत्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं
सभासदाम् ।
समर्हयद्धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः ॥ २६ ॥
तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः ।
सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुम्बो वहन्मुदा ॥ २७ ॥
वासोभिः पीतकौषेयैः भूषणैश्च महाधनैः ।
अर्हयित्वाश्रुपूर्णाक्षो नाशकत् समवेक्षितुम् ॥
२८ ॥
इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राञ्जलयो जनाः ।
नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ २९ ॥
इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठाद्
उत्थाय
कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः ।
उत्क्षिप्य
बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी
संश्रावयन्
भगवते परुषाण्यभीतः ॥ ३० ॥
ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती स्रुतिः ।
वृद्धानामपि यद्
बुद्धिः बालवाक्यैर्विभिद्यते ॥ ३१ ॥
यूयं पात्रविदां
श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषीतम् ।
सदसस्पतयः सर्वे
कृष्णो यत् सम्मतोऽर्हणे ॥ ३२ ॥
तपोविद्याव्रतधरान्
ज्ञानविध्वस्तकल्मषान् ।
परमऋषीन् ब्रह्मनिष्ठान्
लोकपालैश्च पूजितान् ॥ ३३ ॥
सदस्पतीन्
अतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः ।
यथा काकः पुरोडाशं
सपर्यां कथमर्हति ॥ ३४ ॥
वर्णाश्रमकुलापेतः
सर्वधर्मबहिष्कृतः ।
स्वैरवर्ती
गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति ॥ ३५ ॥
ययातिनैषां हि कुलं
शप्तं सद्भिर्बहिष्कृतम् ।
वृथापानरतं शश्वत्
सपर्यां कथमर्हति ॥ ३६ ॥
ब्रह्मर्षिसेवितान्
देशान् हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम् ।
समुद्रं
दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यवः प्रजाः ॥ ३७ ॥
एवं आदीन्यभद्राणि
बभाषे नष्टमङ्गलः ।
नोवाच किञ्चिद्
भगवान् यथा सिंहः शिवारुतम् ॥ ३८ ॥
भगवन् निन्दनं
श्रुत्वा दुःसहं तत्सभासदः ।
कर्णौ पिधाय
निर्जग्मुः शपन्तश्चेदिपं रुषा ॥ ३९ ॥
निन्दां भगवतः
श्रृण्वन् तत्परस्य जनस्य वा ।
ततो नापैति यः
सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः ॥ ४० ॥
ततः पाण्डुसुताः
क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः ।
उदायुधाः
समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः ॥ ४१ ॥
ततश्चैद्यस्त्वसंभ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी ।
भर्त्सयन्
कृष्णपक्षीयान् राज्ञः सदसि भारत ॥ ४२ ॥
तावदुत्थाय भगवान्
स्वान् निवार्य स्वयं रुषा ।
शिरः
क्षुरान्तचक्रेण जहार पततो रिपोः ॥ ४३ ॥
शब्दः
कोलाहलोऽथासीन् शिशुपाले हते महान् ।
तस्यानुयायिनो भूपा
दुद्रुवुर्जीवितैषिणः ॥ ४४ ॥
चैद्यदेहोत्थितं
ज्योतिः वासुदेवमुपाविशत् ।
पश्यतां
सर्वभूतानां उल्केव भुवि खाच्च्युता ॥ ४५ ॥
जन्मत्रयानुगुणित
वैरसंरब्धया धिया ।
ध्यायन् तन्मयतां
यातो भावो हि भवकारणम् ॥ ४६ ॥
ऋत्विग्भ्यः
ससदस्येभ्यो दक्षिनां विपुलामदात् ।
सर्वान् संपूज्य
विधिवत् चक्रेऽवभृथमेकराट् ॥ ४७ ॥
साधयित्वा क्रतुः
राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।
उवास कतिचिन्
मासान् सुहृद्भिः अभियाचितः ॥ ४८ ॥
ततोऽनुज्ञाप्य
राजानं अनिच्छन्तमपीश्वरः ।
ययौ सभार्यः
सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः ॥ ४९ ॥
वर्णितं
तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम् ।
वैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात् पुनः पुनः ॥ ५०
॥
राजसूयावभृथ्येन
स्नातो राजा युधिष्ठिरः ।
ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव ॥ ५१ ॥
राज्ञा सभाजिताः
सर्वे सुरमानवखेचराः ।
कृष्णं क्रतुं च
शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥ ५२ ॥
दुर्योधनमृते पापं
कलिं कुरुकुलामयम् ।
यो न सेहे श्रीयं
स्फीतां दृष्ट्वा पाण्डुसुतस्य ताम् ॥ ५३ ॥
य इदं कीर्तयेद्
विष्णोः कर्म चैद्य वधादिकम् ।
राजमोक्षं वितानं च
सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५४ ॥
सारा जगत्
श्रीकृष्णके ही अनुग्रहसे अनेकों प्रकारके कर्मका अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और
मोक्षरूप पुरुषार्थोंका सम्पादन करता है ॥ २२ ॥ इसलिये सबसे महान् भगवान्
श्रीकृष्णकी ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करनेसे समस्त प्राणियोंकी तथा
अपनी भी पूजा हो जाती है ॥ २३ ॥ जो अपने दान-धर्मको अनन्त भावसे युक्त करना चाहता
हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अन्तरात्मा,
भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान्
श्रीकृष्णको ही दान करे ॥ २४ ॥ परीक्षित् ! सहदेव भगवान् की महिमा और उनके
प्रभावको जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस सयम धर्मराज युधिष्ठिरकी
यज्ञसभामें जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वरसे ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर
सहदेवकी बातका समर्थन किया ॥ २५ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंकी यह आज्ञा
सुनकर तथा सभासदोंका अभिप्राय जानकर बड़े आनन्दसे प्रमोद्रेकसे विह्वल होकर भगवान्
श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ २६ ॥ अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियोंके साथ धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेम और आनन्दसे
भगवान्के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलोंका लोकपावन जल अपने सिरपर धारण किया ॥ २७ ॥
उन्होंने भगवान्को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस
समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे इस प्रकार भर गये कि वे भगवान्को
भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे ॥ २८ ॥ यज्ञसभामें उपस्थित सभी लोग भगवान्
श्रीकृष्णको इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नम: ! जय-जय !’ इस प्रकारके नारे लगाकर उन्हें
नमस्कार करने लगे। उस समय आकाशसे स्वयं ही पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ २९ ॥
परीक्षित् !
अपने आसनपर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान् श्रीकृष्णके गुण सुनकर
उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभामें हाथ उठाकर बड़ी
असहिष्णुता किन्तु निर्भयताके साथ भगवान्को सुना-सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कहने
लगा— ॥ ३० ॥ ‘सभासदो ! श्रुतियोंका यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख
चेष्टा करनेपर भी वह अपना काम करा ही लेता है—इसका प्रत्यक्ष
प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खोंकी बातसे बड़े-बड़े वयोवृद्ध और
ज्ञानवृद्धोंकी बुद्धि भी चकरा गयी है ॥ ३१ ॥ पर मैं मानता हूँ कि आपलोग
अग्रपूजाके योग्य पात्रका निर्णय करनेमें सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियो !
आपलोग बालक सहदेवकी यह बात ठीक न मानें कि ‘कृष्ण ही
अग्रपूजाके योग्य हैं’ ॥ ३२ ॥ यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी,
विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञानके
द्वारा अपने समस्त पाप-तापोंको शान्त करनेवाले, परम ज्ञानी
परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैं—जिनकी
पूजा बड़े- बड़े लोकपाल भी करते हैं ॥ ३३ ॥ यज्ञकी भूल-चूक बतलानेवाले उन
सदसस्पतियोंको छोडक़र यह कुलकलङ्क ग्वाला भला, अग्रपूजाका
अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौआ कभी यज्ञके पुरोडाशका
अधिकारी हो सकता है ? ॥ ३४ ॥ न इसका कोई वर्ण है और न तो
आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मोंसे यह बाहर है। वेद और
लोकमर्यादाओंका उल्लङ्घन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी
स्थितिमें यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है ? ॥ ३५ ॥
आपलोग जानते हैं कि राजा ययातिने इसके वंशको शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषोंने
इस वंशका ही बहिष्कार कर दिया है। ये सब सर्वदा व्यर्थ मधुपानमें आसक्त रहते हैं।
फिर ये अग्रपूजाके योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ ३६ ॥ इन सबने
ब्रहमर्षियोंके द्वारा सेवित मथुरा आदि देशोंका परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस् के
विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्रमें किला बनाकर रहने लगे। वहाँसे जब ये बाहर निकलते
हैं, तो डाकुओंकी तरह सारी प्रजाको सताते हैं’ ॥ ३७ ॥ परीक्षित् ! सच पूछो तो शिशुपालका सारा शुभ नष्ट हो चुका था।
इसीसे उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान् श्रीकृष्णको सुनायीं। परन्तु
जैसे सिंह कभी सियारकी ‘हुआँ- हुआँ’ पर
ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण चुप रहे,
उन्होंने उसकी बातोंका कुछ भी उत्तर न दिया ॥ ३८ ॥ परन्तु सभासदोंके
लिये भगवान्की निन्दा सुनना असह्य था। उनमेंसे कई अपने- अपने कान बंद करके
क्रोधसे शिशुपालको गाली देते हुए बाहर चले गये ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! जो भगवान् की
या भगवत्परायण भक्तोंकी निन्दा सुनकर वहाँसे हट नहीं जाता, वह
अपने शुभकर्मोंसे च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ॥ ४० ॥
परीक्षित् !
अब शिशुपालको मार डालनेके लिये पाण्डव,
मत्स्य, केकय और सृञ्जयवंशी नरपति क्रोधित
होकर हाथोंमें हथियार ले उठ खड़े हुए ॥ ४१ ॥ परन्तु शिशुपालको इससे कोई घबड़ाहट न
हुई। उसने बिना किसी प्रकारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी
सभामें श्रीकृष्णके पक्षपाती राजाओंको ललकारने लगा ॥ ४२ ॥ उन लोगोंको लड़ते-
झगड़ते देख भगवान् श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओंको शान्त
किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपालका सिर छुरेके समान तीखी
धारवाले चक्रसे काट लिया ॥ ४३ ॥ शिशुपालके मारे जानेपर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया।
उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचानेके लिये वहाँसे भाग खड़े हुए ॥ ४४ ॥ जैसे
आकाशसे गिरा हुआ लूक धरतीमें समा जाता है, वैसे ही सब
प्राणियोंके देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्णमें
समा गयी ॥ ४५ ॥ परीक्षित् ! शिशुपालके अन्त:करणमें लगातार तीन जन्मसे वैरभावकी
अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभावसे ही सही,
ध्यान करते- करते वह तन्मय हो गया—पार्षद हो
गया। सच है—मृत्युके बाद होनेवाली गतिमें भाव ही कारण है ॥
४६ ॥ शिशुपालकी सद्गति होनेके बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिरने सदस्यों और
ऋत्विजोंको पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नान—अवभृथ-स्नान किया ॥ ४७ ॥
परीक्षित् !
इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ
पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदोंकी प्रार्थनासे कुछ महीनोंतक वहीं रहे
॥ ४८ ॥ इसके बाद राजा युधिष्ठिरकी इच्छा न होनेपर भी सर्वशक्तिमान् भगवान्
श्रीकृष्णने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियोंके साथ
इन्द्रप्रस्थसे द्वारकापुरीकी यात्रा की ॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! मैं यह उपाख्यान
तुम्हें बहुत विस्तारसे (सातवें स्कन्धमें) सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और
विजयको सनकादि ऋषियोंके शापसे बार-बार जन्म लेना पड़ा था ॥ ५० ॥ महाराज युधिष्ठिर
राजसूयका यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी सभामें देवराज इन्द्रके
समान शोभायमान होने लगे ॥ ५१ ॥ राजा युधिष्ठिरने देवता, मनुष्य और आकाशचारियोंका यथायोग्य सत्कार
किया तथा वे भगवान् श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे
अपने-अपने लोकको चले गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित् ! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधनसे पाण्डवोंकी यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मीका उत्कर्ष सहन न
हुआ। क्योंकि वह स्वभावसे ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुलका
नाश करनेके लिये एक महान् रोग था ॥ ५३ ॥
परीक्षित् !
जो पुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी इस लीलाका—शिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी
राजाओंकी मुक्ति और यज्ञानुष्ठानका कीर्तन करेगा, वह समस्त
पापोंसे छूट जायगा ॥ ५४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
॥ ७४ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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