शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

बल्वल का उद्धार और बलराम जी की तीर्थयात्रा

 

ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्

गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः १९

आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः

तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम् २०

प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी

मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत् २१

श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे

सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः २२

स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे

वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनन्दनः २३

युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि

अभिवाद्याभवंस्तुष्णीं किं विवक्षुरिहागतः २४

गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ

मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत् २५

युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर

एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम् २६

तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः

न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः २७

न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्

अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च २८

दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ

उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः २९

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन्मुदा

क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम् ३०

तेभ्यो विशुद्धं विज्ञानं भगवान्व्यतरद्विभुः

येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः ३१

स्वपत्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्वृतः

रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः ३२

ईदृग्विधान्यसङ्ख्यानि बलस्य बलशालिनः

अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि ३३

योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः

सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत् ३४

 

अब भगवान्‌ बलराम वहाँसे चलकर केरल और त्रिगर्त देशोंमें होकर भगवान्‌ शङ्कर के क्षेत्र गोकर्णतीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान्‌ शङ्कर विराजमान रहते हैं ॥ १९ ॥ वहाँसे जलसे घिरे द्वीपमें निवास करनेवाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीपसे चलकर शूर्पारक- क्षेत्रकी यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियोंमें स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये ॥ २० ॥ वहाँ होकर वे नर्मदाजीके तटपर गये। परीक्षित्‌ ! इस पवित्र नदीके तटपर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थमें स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्रमें चले आये ॥ २१ ॥ वहीं उन्होंने ब्राह्मणोंसे सुना कि कौरव और पाण्डवोंके युद्धमें अधिकांश क्षत्रियोंका संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वीका बहुत-सा भार उतर गया ॥ २२ ॥ जिस दिन रणभूमिमें भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकनेके लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ॥ २३ ॥

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनने बलरामजीको देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहनेके लिये यहाँ पधारे हैं ? ॥ २४ ॥ उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथमें गदा लेकर एक- दूसरेको जीतनेके लिये क्रोधसे भरकर भाँति-भाँतिके पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजीने कहा॥ २५ ॥ राजा दुर्योधन और भीमसेन ! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनोंमें बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेनमें बल अधिक है और दुर्योधनने गदायुद्धमें शिक्षा अधिक पायी है ॥ २६ ॥ इसलिये तुमलोगों-जैसे समान बलशालियोंमें किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अत: तुमलोग व्यर्थका युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! बलरामजीकी बात दोनोंके लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनोंका वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजीकी बात न मानी। वे एक-दूसरेकी कटुवाणी और दुव्र्यवहारोंका स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे ॥ २८ ॥ भगवान्‌ बलरामजीने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्धमें विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये। द्वारकामें उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियोंने बड़े प्रेमसे आगे आकर उनका स्वागत किया ॥ २९ ॥ वहाँसे बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। वहाँ ऋषियोंने विरोधभावसेयुद्धादिसे निवृत्त बलरामजीके द्वारा बड़े प्रेमसे सब प्रकारके यज्ञ कराये। परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजीके अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रह के लिये ही था ॥ ३० ॥ सर्वसमर्थ भगवान्‌ बलरामने उन ऋषियोंको विशुद्ध तत्त्वज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्वको अपने-आपमें और अपने-आपको सारे विश्वमें अनुभव करने लगे ॥ ३१ ॥ इसके बाद बलरामजीने अपनी पत्नी रेवतीके साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रोंके साथ चन्द्रदेव होते हैं ॥ ३२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणीके परे है। उन्होंने लीलाके लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलरामजीके ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी गिनती भी नहीं की जा सकती ॥ ३३ ॥ जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान्‌ बलरामजीके चरित्रोंका सायं- प्रात: स्मरण करता है, वह भगवान्‌का अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ३४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

बल्वल का उद्धार और बलराम जी की तीर्थयात्रा

 

श्रीशुक उवाच

ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांशुवर्षणः

भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगन्धस्तु सर्वशः १

ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्

अभवद्यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक् २

तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम्

तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम् ३

सस्मार मूषलं रामः परसैन्यविदारणम्

हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः ४

तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्

मूषलेनाहनत्क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः ५

सोऽपतद्भुवि निर्भिन्न ललाटोऽसृक्समुत्सृजन्

मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः ६

संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः

अभ्यषिञ्चन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा ७

वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजां

रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च ८

अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः

स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयूरास्रवत् ९

अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः

स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन्जगाम पुलहाश्रमम् १०

गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः

गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे ११

उपस्पृश्य महेन्द्रा द्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च

सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः १२

स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्

द्र विडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः १३

कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम्

श्रीरन्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः १४

ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा

सामुद्रं सेतुमगमत्महापातकनाशनम् १५

तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः

कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम् १६

तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च

योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम् १७

दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः

ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम्

विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद्गवायुतम् १८

 

श्रीसुखदेवजी कहते हैं परीक्षित्‌ पर्व का दिन आनेपर बड़ा भयंकर है ॥ ९ ॥ वहाँसे सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोडक़र प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करके वहाँसे पुलहाश्रम गये ॥ १० ॥ वहाँ से गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियोंमें स्नान करके वे सोननद के तटपर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गयामें जाकर पितरों का वसुदेवजी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गङ्गा-सागर- संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्योंसे निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वतपर गये। वहाँ परशुरामजीका दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदिमें स्नान करते हुए स्वामिकार्तिकका दर्शन करने गये तथा वहाँसे महादेवजीके निवासस्थान श्रीशैलपर पहुँचे। इसके बाद भगवान्‌ बलरामने द्रविड़ देशके परम पुण्यमय स्थान वेङ्कटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँसे वे कामाक्षीशिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमें स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे। श्रीरंगक्षेत्रमें भगवान्‌ विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ॥ ११-१४ ॥ वहाँसे उन्होंने विष्णु भगवान्‌ के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापोंको नष्ट करनेवाले सेतुबन्धकी यात्रा की ॥ १५ ॥ वहाँ बलरामजीने ब्राह्मणोंको दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँसे कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियोंमें स्नान करते हुए वे मलयपर्वतपर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतोंमेंसे एक है ॥ १६ ॥ वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनिको उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजीने दक्षिण समुद्रकी यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवीका कन्याकुमारीके रूपमें दर्शन किया ॥ १७ ॥ इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थअनन्तशयन क्षेत्रमें गये और वहाँके सर्वश्रेष्ठ पञ्चाप्सरस तीर्थमें स्नान किया। उस तीर्थमें सर्वदा विष्णुभगवान्‌ का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान कीं ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा

तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध

 

श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः

तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल १७

स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्

सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः १८

पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्

विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम् १९

यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत

जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते २०

तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः

अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन् २१

सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः

रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत २२

अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम्

अध्यासीनं च तान्विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः २३

यस्मादसाविमान्विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः

धर्मपालांस्तथैवास्मान्वधमर्हति दुर्मतिः २४

ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च

सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः २५

अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः

न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः २६

एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः

वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः २७

एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोऽसद्वधादपि

भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः २८

हाहेतिवादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः

ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो २९

अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन

आयुश्चात्माक्लमं तावद्यावत्सत्रं समाप्यते ३०

अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा

योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः ३१

यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन

चरिष्यति भवांल्लोक सङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः ३२

 

श्रीभगवानुवाच

चरिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया

नियमः प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम् ३३

दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रि यमेव च

आशासितं यत्तद्ब्रूते साधये योगमायया ३४

 

ऋषय ऊचुः

अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च

यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम् ३५

 

श्रीभगवानुवाच

आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्

तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिन्द्रि यसत्त्ववान् ३६

किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ

अजानतस्त्वपइ!तिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः ३७

 

ऋषय ऊचुः

इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः

स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि ३८

तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्

पूयशोणितविन्मूत्र सुरामांसाभिवर्षिणम् ३९

ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः

चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसि ४०

 

एक बार बलरामजीने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसीका पक्ष लेकर लडऩा पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थोंमें स्नान करनेके बहाने द्वारकासे चले गये ॥ १७ ॥ वहाँसे चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मणभोजनके द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्योंको तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणोंके साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े ॥ १८ ॥ वे क्रमश: पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थोंमें गये ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! तदनन्तर यमुनातट और गङ्गातटके प्रधान-प्रधान तीर्थोंमें होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्रमें बड़े-बड़े ऋषि सत्सङ्गरूप महान् सत्र कर रहे थे ॥ २० ॥ दीर्घकालतक सत्सङ्गसत्रका नियम लेकर बैठे हुए ऋषियोंने बलरामजीको आया देख अपने-अपने आसनोंसे उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की ॥ २१ ॥ वे अपने साथियोंके साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान्‌ व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दीपर बैठे हुए हैं ॥ २२ ॥ बलरामजी ने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होनेपर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे ऊँचे आसनपर बैठे हुए हैं और उनके आनेपर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोडक़र प्रणाम ही। इसपर बलरामजी को क्रोध आ गया ॥ २३ ॥ वे कहने लगे कि यह रोमहर्षण प्रतिलोम जातिका होनेपर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे तथा धर्मके रक्षक हमलोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्डका पात्र है ॥ २४ ॥ भगवान्‌ व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रोंका अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मनपर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्मा ने झूठमूठ अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नट की सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँगके लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरेका ॥ २५-२६ ॥ जो लोग धर्मका चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्मका पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत्में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है॥ २७ ॥ भगवान्‌ बलराम यद्यपि तीर्थयात्राके कारण दुष्टोंके वधसे भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथमें स्थित कुशकी नोकसे उनपर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ॥ २८ ॥ सूतजीके मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान्‌ बलरामजीसे कहा—‘प्रभो ! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया ॥ २९ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! सूतजीको हम लोगोंने ही ब्राह्मणोचित आसनपर बैठाया था और जबतक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तबतकके लिये उन्हें शारीरिक कष्टसे रहित आयु भी दे दी थी ॥ ३० ॥ आपने अनजानमें यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्याके समान है। हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आपपर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगोंको पवित्र करनेके लिये हुआ है; यदि आप किसीकी प्रेरणाके बिना स्वयं अपनी इच्छासे ही इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगोंको बहुत शिक्षा मिलेगी॥ ३१-३२ ॥

भगवान्‌ बलरामने कहामैं लोगोंको शिक्षा देनेके लिये, लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस ब्रह्म- हत्याका प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अत: इसके लिये प्रथम श्रेणीका जो प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसीका विधान कीजिये ॥ ३३ ॥ आपलोग इस सूतको लंबी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबलसे सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ ॥ ३४ ॥

ऋषियों ने कहा- बलरामजी ! आप ऐसा कोई उपाय कीजेये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हम लोगोंने इन्हें जो वरदान दिए था वह भी सत्य हो जाय ॥ ३५ ॥

भगवान बलरामने कहा- ऋषियों ! वेदोंका ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्रके रूप मे उत्पन्न होता है | इसलिए रोमहर्षणके स्थानपर उनका पुत्र आपलोगों को पुरानोकी कथा सुनाएगा | उसे मै अपनी सक्तिसे दीर्धायु, इन्द्रियशाक्ति औए बल दिए देता हूँ ॥ ३६ ॥ ऋषियों! इसके अतिरिक्त आपलोग जो कुछ भी चाहते हो , मुझसे कहिये | मे आप लोगों कि इच्छा पूर्ण करूँगा | अनजाने मे मुझसे जो अपराध हो गया है उसका प्रायश्चित भी आपलोग सोच विचारकर बतलाइये | क्यूंकि आपलोग इस विषय के विद्वान है ॥३७॥

ऋषियों ने कहा- बलरामजी ! इल्वल का पुत्र बल्वल नामक एक भयंकर दानव है| वह प्रत्येक पर्व पर यहाँ वहां पहुँचता है और हमारे इस सत्रको दूषित कर देता है ॥ ३८ ॥ यदुनंदन ! वह यहाँ आकर पीच, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मसकी वर्षा करने लगता है| आप उस पापी को मर डालिये | हम लोगों कि यह बहुत बड़ी सेवा होगी ॥ ३९ ॥ इसके बाद आप एकाग्रचितसे तीर्थोंमे स्नान करते हुए बारह महीनो तक भारतवर्षकी परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिए | इससे आपकी शुद्धि हो जायगी ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवचरित्रे बल्वलवधोपक्रमो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा

तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध

 

श्रीशुक उवाच

शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः

परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्यसौहृदम् १

एकः पदातिः सङ्क्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन्

पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत २

तं तथायान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः

अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात् ३

गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः

दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः ४

त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि

अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया ५

तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः

बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा ६

एवं रूक्षैस्तुदन्वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विपम्

गदयाताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद्व्यनदच्च सः ७

गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः

कृष्णोऽपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे ८

गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन्रुधिरं मुखात्

प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन्धरण्यां न्यपतद्व्यसुः ९

ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्

पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप १०

विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः

आगच्छदसिचर्माभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया ११

तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना

शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम् १२

एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्रं सहानुजम्

हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः १३

मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः

अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः १४

उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः

वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम् १५

एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवान्जगदीश्वरः

ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः १६

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रक के मारे जानेपर उनकी मित्रताका ऋण चुकानेके लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमिमें आ धमका। वह क्रोधके मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्रके नामपर उसके हाथमें एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित्‌ ! लोगोंने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी हिल रही है ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथमें गदा लेकर वे रथसे कूद पड़े। फिर जैसे समुद्रके तटकी भूमि उसके ज्वार-भाटेको आगे बढऩेसे रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया ॥ ३ ॥ घमंडके नशेमें चूर करूषनरेश दन्तवक्त्रने गदा तानकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने पड़ गये ॥ ४ ॥ कृष्ण ! तुम मेरे मामाके लडक़े हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रोंको मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द ! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा ॥ ५ ॥ मूर्ख ! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीरमें रहनेवाला कोई रोग हो ! मैं अपने मित्रोंसे बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋणसे उऋण हो सकता हूँ ॥ ६ ॥ जैसे महावत अङ्कुश से हाथीको घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातोंसे श्रीकृष्णको चोट पहुँचानेकी चेष्टा की और फिर वह उनके सिरपर बड़े वेगसे गदा मारकर सिंहके समान गरज उठा ॥ ७ ॥ रणभूमिमें गदाकी चोट खाकर भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सम्हालकर उससे दन्तवक्त्रके वक्ष:स्थलपर प्रहार किया ॥ ८ ॥ गदाकी चोटसे दन्तवक्त्रका कलेजा फट गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरतीपर गिर पड़ा ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसा कि शिशुपालकी मृत्युके समय हुआ था, सब प्राणियोंके सामने ही दन्तवक्त्रके मृत शरीरसे एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीतिसे भगवान्‌ श्रीकृष्णमें समा गयी ॥ १० ॥

दन्तवक्त्रके भाईका नाम था विदूरथ। वह अपने भाईकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेता हुआ हाथमें ढाल-तलवार लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे आया ॥ ११ ॥ राजेन्द्र ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे किरीट और कुण्डलके साथ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि- मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी विजयके गीत गा रहे थे। भगवान्‌के प्रवेशके अवसरपर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥ १३१५ ॥ योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल-खेलते रहते हैं। जो पशुओंके समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तवमें तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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