बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत

 

श्रीलक्ष्मणोवाच

ममापि राज्ञ्यच्युतजन्मकर्म

श्रुत्वा मुहुर्नारदगीतमास ह

चित्तं मुकुन्दे किल पद्महस्तया

वृतः सुसम्मृश्य विहाय लोकपान् १७

ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सलः

बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत् १८

यथा स्वयंवरे राज्ञि मत्स्यः पार्थेप्सया कृतः

अयं तु बहिराच्छन्नो दृश्यते स जले परम् १९

श्रुत्वैतत्सर्वतो भूपा आययुर्मत्पितुः पुरम्

सर्वास्त्रशस्त्रतत्त्वज्ञाः सोपाध्यायाः सहस्रशः २०

पित्रा सम्पूजिताः सर्वे यथावीर्यं यथावयः

आददुः सशरं चापं वेद्धुं पर्षदि मद्धियः २१

आदाय व्यसृजन्केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वराः

आकोष्ठं ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेकेऽमुनाहताः २२

सज्यं कृत्वापरे वीरा मागधाम्बष्ठचेदिपाः

भीमो दुर्योधनः कर्णो नाविदंस्तदवस्थितिम् २३

मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम्

पार्थो यत्तोऽसृजद्बाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम् २४

राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु

भगवान्धनुरादाय सज्यं कृत्वाथ लीलया २५

तस्मिन्सन्धाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले

छित्त्वेषुणापातयत्तं सूर्ये चाभिजिति स्थिते २६

दिवि दुन्दुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि

देवाश्च कुसुमासारान्मुमुचुर्हर्षविह्वलाः २७

तद्रङ्गमाविशमहं कलनूपुराभ्यां

पद्भ्यां प्रगृह्य कनकोज्वलरत्नमालाम्

नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाग्र्ये

सव्रीडहासवदना कवरीधृतस्रक् २८

उन्नीय वक्त्रमुरुकुन्तलकुण्डलत्विड्

गण्डस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः

राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारेर्

अंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम् २९

तावन्मृदङ्गपटहाः शङ्खभेर्यानकादयः

निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगुः ३०

एवं वृते भगवति मयेशे नृपयूथपाः

न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हृच्छयातुराः ३१

मां तावद्रथमारोप्य हयरत्नचतुष्टयम्

शार्ङ्गमुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः ३२

दारुकश्चोदयामास काञ्चनोपस्करं रथम्

मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव ३३

तेऽन्वसज्जन्त राजन्या निषेद्धुं पथि केचन

संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम् ३४

ते शार्ङ्गच्युतबाणौघैः कृत्तबाह्वङ्घ्रिकन्धराः

निपेतुः प्रधने केचिदेके सन्त्यज्य दुद्रुवुः ३५

ततः पुरीं यदुपतिरत्यलङ्कृतां

रविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम्

कुशस्थलीं दिवि भुवि चाभिसंस्तुतां

समाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम् ३६

पिता मे पूजयामास सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्

महार्हवासोऽलङ्कारैः शय्यासनपरिच्छदैः ३७

दासीभिः सर्वसम्पद्भिर्भटेभरथवाजिभिः

आयुधानि महार्हाणि ददौ पूर्णस्य भक्तितः ३८

आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिकाः

सर्वसङ्गनिवृत्त्याद्धा तपसा च बभूविम ३९

 

महिष्य ऊचुः

भौमं निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धा

ज्ञात्वाथ नः क्षितिजये जितराजकन्याः

निर्मुच्य संसृतिविमोक्षमनुस्मरन्तीः

पादाम्बुजं परिणिनाय य आप्तकामः ४०

न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भौज्यमप्युत

वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनन्त्यं वा हरेः पदम् ४१

कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजः श्रियः

कुचकुङ्कुमगन्धाढ्यं मूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः ४२

व्रजस्त्रियो यद्वाञ्छन्ति पुलिन्द्यस्तृणवीरुधः

गावश्चारयतो गोपाः पदस्पर्शं महात्मनः ४३

 

लक्ष्मणाने कहारानीजी ! देवर्षि नारद बार-बार भगवान्‌ के अवतार और लीलाओंका गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मीजीने समस्त लोकपालोंका त्याग करके भगवान्‌का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान्‌के चरणोंमें आसक्त हो गया ॥ १७ ॥ साध्वी ! मेरे पिता बृहत्सेन मुझपर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छाकी पूर्तिके लिये यह उपाय किया ॥ १८ ॥ महारानी ! जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुनकी प्राप्तिके लिये आपके पिताने स्वयंवरमें मत्स्यवेधका आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिताने भी किया। आपके स्वयंवरकी अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहरसे ढका हुआ था, केवल जलमें ही उसकी परछार्ईं दीख पड़ती थी ॥ १९ ॥ जब यह समाचार राजाओंको मिला, तब सब ओरसे समस्त अस्त्र-शस्त्रोंके तत्त्वज्ञ हजारों राजा अपने-अपने गुरुओंके साथ मेरे पिताजीकी राजधानीमें आने लगे ॥ २० ॥ मेरे पिताजीने आये हुए सभी राजाओंका बल-पौरुष और अवस्थाके अनुसार भलीभाँति स्वागत सत्कार किया। उन लोगोंने मुझे प्राप्त करनेकी इच्छासे स्वयंवर-सभामें रखे हुए धनुष और बाण उठाये ॥ २१ ॥ उनमेंसे कितने ही राजा तो धनुषपर ताँत भी न चढ़ा सके। उन्होंने धनुषको ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयोंने धनुषकी डोरीको एक सिरेसे बाँधकर दूसरे सिरेतक खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरेसे बाँध न सके, उसका झटका लगनेसे गिर पड़े ॥ २२ ॥ रानीजी ! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीरजैसे जरासन्ध, अम्बष्ठनरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्णइन लोगोंने धनुषपर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछलीकी स्थितिका पता न चला ॥ २३ ॥ पाण्डववीर अर्जुनने जलमें उस मछलीकी परछार्ईं देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानीसे उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाणने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ॥ २४ ॥

रानीजी ! इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियोंका मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियोंने मुझे पानेकी लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेधकी चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान्‌ने धनुष उठाकर खेल-खेलमेंअनायास ही उसपर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जलमें केवल एक बार मछलीकी परछार्ईं देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक अभिजित्नामक मुहूर्त बीत रहा था ॥ २५-२६ ॥ देवीजी ! उस समय पृथ्वीमें जय-जयकार होने लगा और आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ रानीजी ! उसी समय मैंने रंगशालामें प्रवेश किया। मेरे पैरोंके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे। मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियोंमें मालाएँ गुँथी हुई थीं और मुँहपर लज्जामिश्रित मुसकराहट थी। मैं अपने हाथोंमें रत्नोंका हार लिये हुए थी, जो बीच-बीचमें लगे हुए सोनेके कारण और भी दमक रहा था। रानीजी ! उस समय मेरा मुखमण्डल घनी घुँघराली अलकोंसे सुशोभित हो रहा था तथा कपोलोंपर कुण्डलोंकी आभा पडऩेसे वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर चन्द्रमा- की किरणोंके समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवनसे चारों ओर बैठे हुए राजाओंकी ओर देखा, फिर धीरेसे अपनी वरमाला भगवान्‌के गलेमें डाल दी। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहलेसे ही भगवान्‌के प्रति अनुरक्त था ॥ २८-२९ ॥ मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल, नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे ॥ ३० ॥

द्रौपदीजी ! जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान्‌को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब कामातुर राजाओंको बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये ॥ ३१ ॥ चतुर्भुज- भगवान्‌ने अपने श्रेष्ठ चार घोड़ोंवाले रथपर मुझे चढ़ा लिया और हाथमें शार्ङ्गधनुष लेकर तथा कवच पहनकर युद्ध करनेके लिये वे रथपर खड़े हो गये ॥ ३२ ॥ पर रानीजी ! दारुकने सोनेके साज-सामानसे लदे हुए रथको सब राजाओंके सामने ही द्वारकाके लिये हाँक दिया, जैसे कोई सिंह हरिनोंके बीचसे अपना भाग ले जाय ॥ ३३ ॥ उनमेंसे कुछ राजाओंने धनुष लेकर युद्धके लिये सज-धजकर इस उद्देश्यसे रास्तेमें पीछा किया कि हम भगवान्‌को रोक लें; परन्तु रानीजी ! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही थी, जैसे कुत्ते सिंहको रोकना चाहें ॥ ३४ ॥ शार्ङ्गधनुषके छूटे हुए तीरोंसे किसीकी बाँह कट गयी तो किसीके पैर कटे और किसीकी गर्दन ही उतर गयी। बहुत-से लोग तो उस रणभूमिमें ही सदाके लिये सो गये और बहुत-से युद्धभूमि छोडक़र भाग खड़े हुए ॥ ३५ ॥

तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ने सूर्यकी भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वीमें सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरीमें प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूपसे सजायी गयी थी। इतनी झंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे कि उनके कारण सूर्यका प्रकाश धरतीतक नहीं आ पाता था ॥ ३६ ॥ मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जानेसे पिताजीको बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी- सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओंको बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकारकी सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया ॥ ३७ ॥ भगवान्‌ परिपूर्ण हैंतथापि मेरे पिताजीने प्रेमवश उन्हें बहुत-सी दासियाँ, सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहुत-से बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र समर्पित किये ॥ ३८ ॥ रानीजी ! हमने पूर्वजन्ममें सबकी आसक्ति छोडक़र कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी। तभी तो हम इस जन्ममें आत्माराम भगवान्‌की गृह-दासियाँ हुई हैं ॥ ३९ ॥

सोलह हजार पत्नियोंकी ओरसे रोहिणीजीने कहाभौमासुरने दिग्विजयके समय बहुत-से राजाओंको जीतकर उनकी कन्या हमलोगोंको अपने महलमें बंदी बना रखा था। भगवान्‌ने यह जानकर युद्धमें भौमासुर और उसकी सेनाका संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होनेपर भी उन्होंने हमलोगोंको वहाँसे छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी ! हम सदा- सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलोंका चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसारसे मुक्त करनेवाले हैं ॥ ४० ॥ साध्वी द्रौपदीजी ! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनोंके भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्माका पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँकुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभुके सुकोमल चरणकमलोंकी वह श्रीरज सर्वदा अपने सिरपर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजीके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केशरकी सुगन्धसे युक्त है ॥ ४१-४२ ॥ उदारशिरोमणि भगवान्‌ के जिन चरणकमलोंका स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिनें, तिनके और घास लताएँतक करना चाहती थीं, उन्हींकी हमें भी चाह है ॥ ४३ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे

उत्तरार्धे त्र्यशीतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ की पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत

 

श्रीशुक उवाच

तथानुगृह्य भगवान्गोपीनां स गुरुर्गतिः

युधिष्ठिरमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम् १

त एवं लोकनाथेन परिपृष्टाः सुसत्कृताः

प्रत्यूचुर्हृष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहसः २

कुतोऽशिवं त्वच्चरणाम्बुजासवं

महन्मनस्तो मुखनिःसृतं क्वचित्

पिबन्ति ये कर्णपुटैरलं प्रभो

देहंभृतां देहकृदस्मृतिच्छिदम् ३

हित्वात्म धामविधुतात्मकृतत्र्यवस्थाम्

आनन्दसम्प्लवमखण्डमकुण्ठबोधम्

कालोपसृष्टनिगमावन आत्तयोग

मायाकृतिं परमहंसगतिं नताः स्म ४

 

श्रीऋषिरुवाच

इत्युत्तमःश्लोकशिखामणिं जनेष्व्

अभिष्टुवत्स्वन्धककौरवस्त्रियः

समेत्य गोविन्दकथा मिथोऽगृणंस्

त्रिलोकगीताः शृणु वर्णयामि ते ५

 

श्रीद्रौपद्युवाच

हे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जाम्बवति कौशले

हे सत्यभामे कालिन्दि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे ६

हे कृष्णपत्न्य एतन्नो ब्रूत वो भगवान्स्वयम्

उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन्स्वमायया ७

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

चैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषु

राजस्वजेयभटशेखरिताङ्घ्रिरेणुः

निन्ये मृगेन्द्र इव भागमजावियूथात्

तच्छ्रीनिकेतचरणोऽस्तु ममार्चनाय ८

 

श्रीसत्यभामोवाच

यो मे सनाभिवधतप्तहृदा ततेन

लिप्ताभिशापमपमार्ष्टुमुपाजहार

जित्वर्क्षराजमथ रत्नमदात्स तेन

भीतः पितादिशत मां प्रभवेऽपि दत्ताम् ९

 

श्रीजाम्बवत्युवाच

प्राज्ञाय देहकृदमुं निजनाथदैवं

सीतापतिं त्रिनवहान्यमुनाभ्ययुध्यत्

ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मां

पादौ प्रगृह्य मणिनाहममुष्य दासी १०

 

श्रीकालिन्द्युवाच

तपश्चरन्तीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाशया

सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं योऽहं तद्गृहमार्जनी ११

 

श्रीमित्रविन्दोवाच

यो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्

निन्ये श्वयूथगं इवात्मबलिं द्विपारिः

भ्रातॄंश्च मेऽपकुरुतः स्वपुरं श्रियौकस्

तस्यास्तु मेऽनुभवमङ्घ्र्यवनेजनत्वम् १२

 

श्रीसत्योवाच

सप्तोक्षणोऽतिबलवीर्यसुतीक्ष्णशृङ्गान्

पित्रा कृतान्क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय

तान्वीरदुर्मदहनस्तरसा निगृह्य

क्रीडन्बबन्ध ह यथा शिशवोऽजतोकान् १३

य इत्थं वीर्यशुल्कां मां

दासीभिश्चतुरङ्गिणीम्

पथि निर्जित्य राजन्यान्

निन्ये तद्दास्यमस्तु मे १४

 

श्रीभद्रोवाच

पिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान्

कृष्णे कृष्णाय तच्चित्तामक्षौहिण्या सखीजनैः १५

अस्य मे पादसंस्पर्शो भवेज्जन्मनि जन्मनि

कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छ्रेय आत्मनः १६

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही गोपियोंको शिक्षा देनेवाले हैं और वही उस शिक्षाके द्वारा प्राप्त होनेवाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनपर महान् अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियोंसे कुशल-मङ्गल पूछा ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंका दर्शन करनेसे ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे। अब जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनका सत्कार किया, कुशल-मङ्गल पूछा, तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कहने लगे॥ २ ॥ भगवन् ! बड़े-बड़े महापुरुष मन-ही-मन आपके चरणारविन्दका मकरन्दरस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुखकमलसे लीला- कथाके रूपमें वह रस छलक पड़ता है। प्रभो ! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है कि कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाली विस्मृति अथवा अविद्याको नष्ट कर देता है। उसी रसको जो लोग अपने कानोंके दोनोंमें भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमङ्गलकी आशङ्का ही क्या है ? ॥ ३ ॥ भगवन् ! आप एकरस ज्ञानस्वरूप और अखण्ड आनन्दके समुद्र हैं। बुद्धि- वृत्तियोंके कारण होनेवाली जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिये तीनों अवस्थाएँ आपके स्वयंप्रकाश स्वरूप- तक पहुँच ही नहीं पातीं, दूरसे ही नष्ट हो जाती हैं। आप परमहंसोंकी एकमात्र गति हैं। समयके फेरसे वेदोंका ह्रास होते देखकर उनकी रक्षाके लिये आपने अपनी अचिन्त्य योगमायाके द्वारा मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणोंमें बार-बार नमस्कार करते हैं॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुलकी स्त्रियाँ एकत्र होकर आपसमें भगवान्‌की त्रिभुवन-विख्यात लीलाओंका वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हींकी बातें सुनाता हूँ ॥ ५ ॥

द्रौपदीने कहाहे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियो ! तुमलोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी मायासे लोगोंका अनुकरण करते हुए तुमलोगोंका किस प्रकार पाणिग्रहण किया ? ॥ ६-७ ॥

रुक्मिणीजीने कहाद्रौपदीजी ! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपालके साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धके लिये तैयार थे। परन्तु भगवान्‌ मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ोंके झुंडमेंसे अपना भाग छीन ले जाय। क्यों न होजगत्में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटोंपर इन्हींकी चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी ! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान्‌ के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्योंके आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करनेके लिये प्राप्त होते रहें, मैं उन्हींकी सेवा में लगी रहूँ ॥ ८ ॥

सत्यभामा ने कहाद्रौपदीजी ! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेनकी मृत्युसे बहुत दुखी हो रहे थे, अत: उन्होंने उनके वधका कलङ्क भगवान्‌पर ही लगाया। उस कलङ्कको दूर करनेके लिये भगवान्‌ने ऋक्षराज जाम्बवान्पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिताको दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलङ्क लगानेके कारण डर गये। अत: यद्यपि वे दूसरेको मेरा वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणिके साथ भगवान्‌के चरणोंमें ही समर्पित कर दिया ॥ ९ ॥

जाम्बवतीने कहाद्रौपदीजी ! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान् को इस बातका पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान्‌ सीतापति हैं। इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिनतक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान्‌ राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकडक़र स्यमन्तक- मणि के साथ उपहारके रूपमें मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हींकी दासी बनी रहूँ ॥ १० ॥

कालिन्दीने कहाद्रौपदीजी ! जब भगवान्‌ को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणोंका स्पर्श करनेकी आशा-अभिलाषासे तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुनके साथ यमुना-तटपर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारनेवाली उनकी दासी हूँ ॥ ११ ॥

मित्रविन्दाने कहाद्रौपदीजी ! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान्‌ने सब राजाओंको जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड कुत्तोंमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारकापुरीमें ले आये। मेरे भाइयोंने भी मुझे भगवान्‌से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारनेका सौभाग्य प्राप्त होता रहे ॥ १२ ॥

सत्याने कहाद्रौपदीजी ! मेरे पिताजीने मेरे स्वयंवरमें आये हुए राजाओंके बल-पौरुषकी परीक्षाके लिये बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलोंने बड़े- बड़े वीरोंका घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान्‌ने खेल-खेलमें ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरीके बच्चोंको पकड़ लेते हैं ॥ १३ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ बल-पौरुषके द्वारा मुझे प्राप्तकर चतुरङ्गिणी सेना और दासियोंके साथ द्वारका ले आये। मार्गमें जिन क्षत्रियोंने विघ्र डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवाका अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे ॥ १४ ॥

भद्राने कहाद्रौपदीजी ! भगवान्‌ मेरे मामाके पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हींके चरणोंमें अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजीको यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान्‌को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियोंके साथ मुझे इन्हींके चरणोंमें समर्पित कर दिया ॥ १५ ॥ मैं अपना परम कल्याण इसीमें समझती हूँ कि कर्मके अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हींके चरणकमलोंका संस्पर्श प्राप्त होता रहे ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट

 

भीष्मो द्रोणोऽम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा ।

 सदाराः पाण्डवाः कुन्ती सञ्जयो विदुरः कृपः ॥ २४ ॥

 कुन्तीभोजो विराटश्च भीष्मको नग्नजिन्महान् ।

 पुरुजिद् द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः सकाशिराट् ॥ २५ ॥

 दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ ।

 युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्लिकादयः ॥ २६ ॥

 राजानो ये च राजेन्द्र युधिष्ठिरमनुव्रताः ।

 श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः ॥ २७ ॥

 अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक् प्राप्तसमर्हणाः ।

 प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन् कृष्णपरिग्रहान् ॥ २८ ॥

 अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह ।

 यत् पश्यथासकृत् कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम् ॥ २९ ॥

यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति

     पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम् ।

 भूः कालभर्जितभगापि यदङ्‌घ्रिपद्म

     स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान् ॥ ३० ॥

 तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प

     शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्धः ।

 येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः

     स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः ॥ ३१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

नन्दस्तत्र यदून् प्राप्तान् ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान् ।

 तत्रागमद्वृतो गोपैः अनः स्थार्थैः दिदृक्षया ॥ ३२ ॥

 तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टाः तन्वः प्राणमिवोत्थिताः ।

 परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः ॥ ३३ ॥

 वसुदेवः परिष्वज्य सम्प्रीतः प्रेमविह्वलः ।

 स्मरन् कंसकृतान् क्लेशान् पुत्रन्यासं च गोकुले ॥ ३४ ॥

 कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च ।

 न किञ्चनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह ॥ ३५ ॥

 तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च ।

 यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः ॥ ३६ ॥

 रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम् ।

 स्मरन्त्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतुः ॥ ३७ ॥

 का विस्मरेत वां मैत्रीं अनिवृत्तां व्रजेश्वरि ।

 अवाप्याप्यैन्द्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया ॥ ३८ ॥

एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः

     सम्प्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि ।

 प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णोः

     न्यस्तावकुत्र च भयौ न सतां परः स्वः ॥ ३९ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं

     यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति ।

 दृग्भिर्हृदीकृतमलं परिरभ्य सर्वाः

     तद्‌भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम् ॥ ४० ॥

भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसङ्गतः ।

 आश्लिष्यानामयं पृष्ट्वा प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ ४१ ॥

 अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया ।

 गतांश्चिरायिताञ्छत्रु पक्षक्षपणचेतसः ॥ ४२ ॥

 अप्यवध्यायथास्मान् स्विदकृतज्ञाविशङ्कया ।

 नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च ॥ ४३ ॥

 वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च ।

 संयोज्याक्षिपते भूयः तथा भूतानि भूतकृत् ॥ ४४ ॥

 मयि भक्तिर्हि भूतानां अमृतत्वाय कल्पते ।

 दिष्ट्या यदासीत् मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥ ४५ ॥

 अहं हि सर्वभूतानां आदिरन्तोऽन्तरं बहिः ।

 भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः ॥ ४६ ॥

 एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः ।

 उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे ॥ ४७ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः ।

 तदनुस्मरणध्वस्त जीवकोशास्तमध्यगन् ॥ ४८ ॥

आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं

     योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।

 संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं

     गेहं जुषामपि मनस्युदियात् सदा नः ॥ ४९ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रोंके साथ गान्धारी, पत्नियोंके सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृञ्जय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्नजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशी- नरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सुशर्मा, अपने पुत्रोंके साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिरके अनुयायी नृपति भगवान्‌ श्रीकृष्णका परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ २४२७ ॥ अब वे बलरामजी तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्दसे श्रीकृष्णके स्वजनोंयदुवंशियोंकी प्रशंसा करने लगे ॥ २८ ॥ उन लोगोंने मुख्यतया उग्रसेनजीको सम्बोधित कर कहा— ‘भोजराज उग्रसेनजी ! सच पूछिये तो इस जगत् के मनुष्योंमें आपलोगोंका जीवन ही सफल है, धन्य है ! धन्य है ! क्योंकि जिन श्रीकृष्णका दर्शन बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, उन्हींको आपलोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं ॥ २९ ॥ वेदोंने बड़े आदरके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कीर्तिका गान किया है। उनके चरणधोवन का जल गङ्गाजल, उनकी वाणीशास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत् को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हमलोगोंके जीवनकी ही बात है, समयके फेरसे पृथ्वीका सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके चरणकमलोंके स्पर्शसे पृथ्वीमें फिर समस्त शक्तियोंका सञ्चार हो गया और अब वह फिर हमारी समस्त अभिलाषाओंमनोरथोंको पूर्ण करने लगी ॥ ३० ॥ उग्रसेनजी ! आपलोगोंका श्रीकृष्णके साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं, आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आपलोग गृहस्थीकी झंझटोंमें फँसे रहते हैंजो नरकका मार्ग है, परन्तु आपलोगोंके घर वे सर्वव्यापक विष्णुभगवान्‌ मूर्तिमान् रूपसे निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्रसे स्वर्ग और मोक्षतककी अभिलाषा मिट जाती है॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब नन्दबाबाको यह बात मालूम हुई कि श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्रमें आये हुए हैंतब वे गोपोंके साथ अपनी सारी सामग्री गाडिय़ोंपर लादकर अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण-बलराम आदिको देखनेके लिये वहाँ आये ॥ ३२ ॥ नन्द आदि गोपोंको देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्दसे भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीरमें प्राणोंका सञ्चार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरेसे मिलनेके लिये बहुत दिनोंसे आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरेको बहुत देरतक अत्यन्त गाढ़भावसे आलिङ्गन करते रहे ॥ ३३ ॥ वसुदेवजीने अत्यन्त प्रेम और आनन्दसे विह्वल होकर नन्दजीको हृदयसे लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयींकंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्रको गोकुलमें ले जाकर नन्दजीके घर रख दिया था ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने माता यशोदा और पिता नन्दजीके हृदयसे लगकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। परीक्षित्‌ ! उस समय प्रेमके उद्रेकसे दोनों भाइयोंका गला रुँध गया, वे कुछ भी बोल न सके ॥ ३५ ॥ महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबाने दोनों पुत्रोंको अपनी गोदमें बैठा लिया और भुजाओंसे उनका गाढ़ आलिङ्गन किया। उनके हृदयमें चिरकालतक न मिलनेका जो दु:ख था, वह सब मिट गया ॥ ३६ ॥ रोहिणी और देवकीजीने व्रजेश्वरी यशोदाको अपनी अँकवारमें भर लिया। यशोदाजीने उन लोगोंके साथ मित्रताका जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनोंका गला भर आया। वे यशोदाजीसे कहने लगीं॥ ३७ ॥ यशोदारानी ! आपने और व्रजेश्वर नन्दजीने हमलोगोंके साथ जो मित्रताका व्यवहार किया है, वह कभी मिटनेवाला नहीं है, उसका बदला इन्द्रका ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी ! भला ऐसा कौन कृतघ्र है, जो आपके उस उपकारको भूल सके ? ॥ ३८ ॥ देवि ! जिस समय बलराम और श्रीकृष्णने अपने मा-बापको देखातक न था और इनके पिताने धरोहरके रूपमें इन्हें आप दोनोंके पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनोंकी इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियोंकी रक्षा करती हैं। तथा आपलोगोंने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मङ्गलके लिये अनेकों प्रकारके उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग हैं। आपलोगोंकी देख-रेखमें इन्हें किसीकी आँचतक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आपलोगोंके अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें अपने-परायेका भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी ! सचमुच आपलोग परम संत हैं ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मैं कह चुका हूँ कि गोपियोंके परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शनके समय नेत्रोंकी पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकोंको बनाने- वालेको ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेमकी मूर्ति गोपियोंको आज बहुत दिनोंके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन हुआ। उनके मनमें इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रोंके रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्णको हृदयमें ले जाकर गाढ़ आलिङ्गन किया और मन-ही-मन आलिङ्गन करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित्‌ ! कहाँतक कहूँ, वे उस भावको प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करनेवाले योगियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४० ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि गोपियाँ मुझसे तादात्म्यको प्राप्तएक हो रही हैं, तब वे एकान्तमें उनके पास गये, उनको हृदयसे लगाया, कुशल-मङ्गल पूछा और हँसते हुए यों बोले॥ ४१ ॥ सखियो ! हमलोग अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका काम करनेके लिये व्रजसे बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियोंको छोडक़र हम शत्रुओंका विनाश करनेमें उलझ गये। बहुत दिन बीत गये, क्या कभी तुमलोग हमारा स्मरण भी करती हो ? ॥ ४२ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! कहीं तुमलोगोंके मनमें यह आशङ्का तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुमलोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो ? निस्सन्देह भगवान्‌ ही प्राणियोंके संयोग और वियोगके कारण हैं ॥ ४३ ॥ जैसे वायु बादलों, तिनकों, रूई और धूलके कणोंको एक-दूसरेसे मिला देती है, और फिर स्वच्छन्दरूपसे उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थोंके निर्माता भगवान्‌ भी सबका संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं ॥ ४४ ॥ सखियो ! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम सब लोगोंको मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति करानेवाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियोंको अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करनेमें समर्थ है ॥ ४५ ॥ प्यारी गोपियो ! जैसे घट, पट आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्यमें, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीचमें, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ॥ ४६ ॥ इसी प्रकार सभी प्राणियोंके शरीरमें यही पाँचों भूत कारणरूपसे स्थित हैं और आत्मा भोक्ताके रूपसे अथवा जीवके रूपसे स्थित है। परन्तु मैं इन दोनोंसे परे अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुमलोग ऐसा अनुभव करो ॥ ४७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार गोपियोंको अध्यात्मज्ञानकी शिक्षासे शिक्षित किया। उसी उपदेशके बार-बार स्मरणसे गोपियोंका जीवकोशलिङ्गशरीर नष्ट हो गया और वे भगवान्‌ से एक हो गयीं, भगवान्‌ को ही सदा-सर्वदाके लिये प्राप्त हो गयीं ॥ ४८ ॥ उन्होंने कहा—‘हे कमलनाभ ! अगाधबोधसम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमलमें आपके चरणकमलोंका चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसारके कूएँमें गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकलनेके लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपका वह चरणकमल, घर-गृहस्थके काम करते रहनेपर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदयमें विराजमान रहे, हम एक क्षणके लिये भी उसे न भूलें ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे वृष्णीगोपसंगमो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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