रविवार, 11 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सुभद्राहरण और भगवान्‌ का मिथिलापुरी में राजा जनक

और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना

 

श्रीराजोवाच -

ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः ।

 यथोपयेमे विजयो या ममासीत् पितामही ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन् अवनीं प्रभुः ।

 गतः प्रभासमश्रृणोन् मातुलेयीं स आत्मनः ॥ २ ॥

 दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे ।

 तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात् ॥ ३ ॥

 तत्र वै वार्षिकान् मासान् अवात्सीत् स्वार्थसाधकः ।

 पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः ॥ ४ ॥

 एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमंत्र्य तम् ।

 श्रद्धयोपहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल ॥ ५ ॥

 सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम् ।

 प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे ॥ ६ ॥

 सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयंगमम् ।

 हसन्ती व्रीडितापाङ्गी तन्न्यस्तहृदयेक्षणा ॥ ७ ॥

 तां परं समनुध्यायन् नन्तरं प्रेप्सुरर्जुनः ।

 न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा ॥ ८ ॥

 महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गतां ।

 जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः ॥ ९ ॥

 रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चारुन्धतो भटान् ।

 विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव ॥ १० ॥

 तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीव महार्णवः ।

 गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद्‌भिश्चानुसाम्यत ॥ ११ ॥

 प्राहिणोत्पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः ।

 महाधनोपस्करेभ रथाश्वनरयोषितः ॥ १२ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

कृष्णस्यासीद् द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः ।

 कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शान्तः कविरलम्पटः ॥ १३ ॥

 स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी ।

 अनीहयागताहार्य निर्वर्तितनिजक्रियः ॥ १४ ॥

 यात्रामात्रं त्वहरहः दैवाद् उपनमत्युत ।

 नाधिकं तावता तुष्टः क्रिया चक्रे यथोचिताः ॥ १५ ॥

 तथा तद्‌राष्ट्रपालोऽङ्ग बहुलाश्व इति श्रुतः ।

 मैथिलो निरहम्मान उभावप्यच्युतप्रियौ ॥ १६ ॥

 तयोः प्रसन्नो भगवान् दारुकेणाहृतं रथम् ।

 आरुह्य साकं मुनिभिः विदेहान् प्रययौ प्रभुः ॥ १७ ॥

 नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः ।

 अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः ॥ १८ ॥

 तत्र तत्र तमायान्तं पौरा जानपदा नृप ।

 उपतस्थुः सार्घ्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम् ॥ १९ ॥

आनर्तधन्वकुरुजाङ्गलकङ्कमत्स्य

     पाञ्चालकुन्तिमधुकेकयकोशलार्णाः ।

 अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहास

     स्निग्धेक्षणं नृप पपुर्दृशिभिर्नृनार्यः ॥ २० ॥

 तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः

     क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन् ।

 श्रृणवन् दिगन्तधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं

     गीतं सुरैर्नृभिरगात् शनकैर्विदेहान् ॥ २१ ॥

तेऽच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप ।

 अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः ॥ २२ ॥

 दृष्ट्वा त उत्तमःश्लोकं प्रीत्युत्फुलाननाशयाः ।

 कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वान् तथा मुनीन् ॥ २३ ॥

 स्वानुग्रहाय सम्प्राप्तं मन्वानौ तं जगद्‌गुरुम् ।

 मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः ॥ २४ ॥

 न्यमन्त्रयेतां दाशार्हं आतिथ्येन सह द्विजैः ।

 मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत् संहताञ्जली ॥ २५ ॥

 भगवान् तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया ।

 उभयोराविशद्‌ गेहं उभाभ्यां तदलक्षितः ॥ २६ ॥

 श्रोतुमप्यसतां दूरान् जनकः स्वगृहागतान् ।

 आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान् महामनाः ॥ २७ ॥

 प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्ष हृदयास्राविलेक्षणः ।

 नत्वा तदङ्‌घ्रीन् प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः ॥ २८ ॥

 सकुटुम्बो वहन्मूर्ध्ना पूजयां चक्र ईश्वरान् ।

 गन्धमाल्याम्बराकल्प धूपदीपार्घ्यगोवृषैः ॥ २९ ॥

 वाचा मधुरया प्रीणन् इदमाहान्नतर्पितान् ।

 पादावङ्कगतौ विष्णोः संस्पृशञ्छनकैर्मुदा ॥ ३० ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! मेरे दादा अर्जुनने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीकी बहिन सुभद्राजीसे, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया ? मैं यह जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्राके लिये पृथ्वीपर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामाकी पुत्री सुभद्राका विवाह दुर्योधनके साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषयमें सहमत नहीं हैं। अब अर्जुनके मनमें सुभद्राको पानेकी लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णवका वेष धारण करके द्वारका पहुँचे ॥ २-३ ॥ अर्जुन सुभद्राको प्राप्त करनेके लिये वहाँ वर्षाकालमें चार महीनेतक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलरामजीने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं ॥ ४ ॥

एक दिन बलरामजीने आतिथ्यके लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुनको बलरामजीने अत्यन्त श्रद्धाके साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने बड़े प्रेमसे भोजन किया ॥ ५ ॥ अर्जुनने भोजनके समय वहाँ विवाहयोग्य परम सुन्दरी सुभद्राको देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरोंका मन हरनेवाला था। अर्जुनके नेत्र प्रेमसे प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पानेकी आकाङ्क्षासे क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनानेका दृढ़ निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीरकी गठन, भाव-भङ्गी स्त्रियोंका हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्राने भी मनमें उन्हींको पति बनानेका निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवनसे उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥ अब अर्जुन केवल उसीका चिन्तन करने लगे और इस बातका अवसर ढूँढऩे लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ ! सुभद्राको प्राप्त करनेकी उत्कट कामनासे उनका चित्त चक्कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी ॥ ८ ॥

एक बार सुभद्राजी देव-दर्शनके लिये रथपर सवार होकर द्वारका-दुर्गसे बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुनने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्णकी अनुमतिसे सुभद्राका हरण कर लिया ॥ ९ ॥ रथपर सवार होकर वीर अर्जुनने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकनेके लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्राके निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्राको लेकर चल पड़े ॥ १० ॥ यह समाचार सुनकर बलरामजी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमाके दिन समुद्र। परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियोंने उनके पैर पकडक़र उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए ॥ ११ ॥ इसके बाद बलरामजीने प्रसन्न होकर वर-वधूके लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेजमें भेजे ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! विदेहकी राजधानी मिथिलामें एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद्भक्तिसे ही पूर्णमनोरथ, परम शान्त, ज्ञानी और विरक्त थे ॥ १३ ॥ वे गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी किसी प्रकारका उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसीसे अपना निर्वाह कर लेते थे ॥ १४ ॥ प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाहभरके लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं। वे उतनेसे ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रमके अनुसार धर्मपालनमें तत्पर रहते थे ॥ १५ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! उस देशके राजा भी, ब्राह्मणके समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंशके उन प्रतिष्ठित नरपतिका नाम था बहुलाश्व। उनमें अहङ्कारका लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे भक्त थे ॥ १६ ॥

एक बार भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन दोनोंपर प्रसन्न होकर दारुकसे रथ मँगवाया और उसपर सवार होकर द्वारकासे विदेह देशकी ओर प्रस्थान किया ॥ १७ ॥ भगवान्‌के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँकी नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजाकी सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करनेवालोंको भगवान्‌ ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहोंके साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! उस यात्रामें आनर्त, धन्व, कुरु- जांगल, कङ्क, मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेक देशोंके नर- नारियोंने अपने नेत्ररूपी दोनोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवनसे युक्त मुखारविन्दके मकरन्द-रसका पान किया ॥ २० ॥ त्रिलोकगुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे उन लोगोंकी अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियोंको अपनी दृष्टिसे परम कल्याण और तत्त्वज्ञानका दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थानपर मनुष्य और देवता भगवान्‌की उस कीर्तिका गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओंको उज्ज्वल बनानेवाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करनेवाली है। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देशमें पहुँचे ॥२१॥

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियोंके आनन्दकी सीमा न रही। वे अपने हाथोंमें पूजाकी विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये ॥ २२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। उन्होंने भगवान्‌को तथा उन मुनियोंको, जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न थाहाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ २३ ॥ मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेवने, यह समझकर कि जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही पधारे हैं, उनके चरणोंपर गिरकर प्रणाम किया ॥ २४ ॥ बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनोंने ही एक साथ हाथ जोडक़र मुनि-मण्डलीके सहित भगवान्‌ श्रीकृष्णको आतिथ्य ग्रहण करनेके लिये निमन्त्रित किया ॥ २५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण दोनोंकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंको ही प्रसन्न करनेके लिये एक ही समय पृथक्-पृथक्-रूपसे दोनोंके घर पधारे और यह बात एक-दूसरेको मालूम न हुई कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मेरे घरके अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ॥ २६ ॥ विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण और ऋषि- मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आरामसे उनपर बैठ गये। उस समय बहुलाश्वकी विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्तिके उद्रेकसे उनका हृदय भर आया था। नेत्रोंमें आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियोंके चरणोंमें नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्बके साथ उनके चरणोंका लोकपावन जल सिरपर धारण किया और फिर भगवान्‌ एवं भगवत्स्वरूप ऋषियोंको गन्ध, माला, वस्त्र, अलङ्कार, धूप, दीप, अघ्र्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की ॥ २७२९ ॥ जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंको अपनी गोद में लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्दसे धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणीसे भगवान्‌ की स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीभगवान्‌ के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश

तथा देवकी जी के छ: पुत्रों को लौटा लाना

 

ऋषिरुवाच

एवं सञ्चोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्च भारत

सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ ३४

तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराड्

विश्वात्मदैवं सुतरां तथात्मनः

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः

सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः ३५

तयोः समानीय वरासनं मुदा

निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः

दधार पादाववनिज्य तज्जलं

सवृन्द आब्रह्म पुनद्यदम्बु ह ३६

समर्हयामास स तौ विभूतिभि-

र्महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः

ताम्बूलदीपामृतभक्षणादिभिः

स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च ३७

स इन्द्रसेनो भगवत्पदाम्बुजं

बिभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया

उवाच हानन्दजलाकुलेक्षणः

प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम् ३८

 

बलिरुवाच

नमोऽनन्ताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे

साङ्ख्ययोगवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने ३९

दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्

रजस्तमः स्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया ४०

दैत्यदानवगन्धर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः

यक्षरक्षः पिशाचाश्च भूतप्रमथनायकाः ४१

विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि

नित्यं निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः ४२

केचनोद्बद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः

न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः ४३

इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर

न विदन्त्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम् ४४

तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्

पादारविन्दधिषणान्यगृहान्धकूपात्

निष्क्रम्य विश्वशरणाङ्घ्र्युपलब्धवृत्तिः

शान्तो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि ४५

शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो

पुमान्यच्छ्रद्धयातिष्ठंश्चोदनाया विमुच्यते ४६

 

श्रीभगवानुवाच

आसन्मरीचेः षट्पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेऽन्तरे

देवाः कं जहसुर्वीक्ष्य सुतं यभितुमुद्यतम् ४७

तेनासुरीमगन्योनिमधुनावद्यकर्मणा

हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया ४८

देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिताः

सा तान्शोचत्यात्मजान्स्वांस्त इमेऽध्यासतेऽन्तिके ४९

इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये

ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यन्ति विज्वराः ५०

स्मरोद्गीथः परिष्वङ्गः पतङ्गः क्षुद्रभृद्घृणी

षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यन्ति सद्गतिम् ५१

इत्युक्त्वा तान्समादाय इन्द्रसेनेन पूजितौ

पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम् ५२

तान्दृष्ट्वा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी

परिष्वज्याङ्कमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः ५३

अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिस्नुतम्

मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते ५४

पीत्वामृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः

नारायणाङ्गसंस्पर्श प्रतिलब्धात्मदर्शनाः ५५

ते नमस्कृत्य गोविन्दं देवकीं पितरं बलम्

मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम् ५६

तं दृष्ट्वा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम्

मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप ५७

एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः

वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य सन्त्यनन्तानि भारत ५८

 

श्रीसूत उवाच

य इदमनुशृणोति श्रावयेद्वा मुरारेश्

चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः

जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं

भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ५९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! माता देवकीजीकी यह बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंने योगमायाका आश्रय लेकर सुतल लोकमें प्रवेश किया ॥ ३४ ॥ जब दैत्यराज बलिने देखा कि जगत्के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोकमें पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शनके आनन्दमें निमग्र हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्बके साथ आसनसे उठकर भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ अत्यन्त आनन्दसे भरकर दैत्यराज बलिने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उसपर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिरपर धारण किया। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के चरणोंका जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत् को पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥ इसके बाद दैत्यराज बलिने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृतके समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियोंसे उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदिको उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! दैत्यराज बलि बार- बार भगवान्‌ के चरणकमलोंको अपने वक्ष:स्थल और सिरपर रखने लगे, उनका हृदय प्रेमसे विह्वल हो गया। नेत्रोंसे आनन्द के आँसू बहने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वरसे भगवान्‌ की स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥

दैत्यराज बलिने कहाबलरामजी ! आप अनन्त हैं। आप इतने महान् हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप सकल जगत्के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनोंके प्रवर्तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनोंको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवन् ! आप दोनोंका दर्शन प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपासे वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाववाले दैत्योंको भी दर्शन दिया है ॥ ४० ॥ प्रभो ! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेमसे भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है। इसलिये हमलोगोंमेंसे बहुतोंने दृढ़ वैरभावसे, कुछने भक्तिसे और कुछने कामनासे आपका स्मरण करके उस पदको प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहनेवाले सत्त्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते ॥ ४१-४३ ॥ योगेश्वरोंके अधीश्वर ! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्राय: यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है ? ॥ ४४ ॥ इसलिये स्वामी ! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलोंमें लग जाय, जिसे किसीकी अपेक्षा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँसे निकल जाऊँ। प्रभो ! इस प्रकार आपके उन चरणकमलोंकी, जो सारे जगत्के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसीका सङ्ग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतोंका ही ॥ ४५ ॥ प्रभो ! आप समस्त चराचर जगत्के नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइए हमारे पापोंका नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाका पालन करता है, वह विधि-निषेधके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहा—‘दैत्यराज ! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें प्रजापति मरीचिकी पत्नी ऊर्णाके गर्भसे छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनी पुत्रीसे समागम करनेके लिये उद्यत हैं, हँसने लगे ॥ ४७ ॥ इस परिहासरूप अपराधके कारण उन्हें ब्रह्माजीने शाप दे दिया और वे असुर-योनिमें हिरण्यकशिपुके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। अब योगमायाने उन्हें वहाँसे लाकर देवकीके गर्भमें रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंसने मार डाला। दैत्यराज ! माता देवकीजी अपने उन पुत्रोंके लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ॥ ४८-४९ ॥ अत: हम अपनी माताका शोक दूर करनेके लिये इन्हें यहाँसे ले जायँगे। इसके बाद ये शापसे मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोकमें चले जायँगे ॥ ५० ॥ इनके छ: नाम हैंस्मर, उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग, क्षुद्रभृत् और घृणि। इन्हें मेरी कृपासे पुन: सद्गति प्राप्त होगी॥ ५१ ॥ परीक्षित्‌ ! इतना कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण चुप हो गये। दैत्यराज बलिने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकोंको लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकीको उनके पुत्र सौंप दिये ॥ ५२ ॥ उन बालकोंको देखकर देवी देवकीके हृदयमें वात्सल्य-स्नेहकी बाढ़ आ गयी। उनके स्तनोंसे दूध बहने लगा। वे बार-बार उन्हें गोदमें लेकर छातीसे लगातीं और उनका सिर सूँघतीं ॥ ५३ ॥ पुत्रोंके स्पर्शके आनन्दसे सराबोर एवं आनन्दित देवकीने उनको स्तन-पान कराया। वे विष्णुभगवान्‌ की उस मायासे मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ॥ ५४ ॥ परीक्षित्‌ ! देवकीजीके स्तनोंका दूध साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान्‌ श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे ! उन बालकोंने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूधके पीनेसे और भगवान्‌ श्रीकृष्णके अङ्गोंका संस्पर्श होनेसे उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ॥ ५५ ॥ इसके बाद उन लोगोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजीको नमस्कार किया। तदनन्तर सबके सामने ही वे देवलोकमें चले गये ॥ ५६ ॥ परीक्षित्‌ ! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्णका ही कोई लीला-कौशल है ॥ ५७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ॥ ५८ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कीर्ति अमर है, अमृतमयी है। उनका चरित्र जगत् के समस्त पाप-तापों को मिटानेवाला तथा भक्तजनोंके कर्णकुहरों में आनन्दसुधा प्रवाहित करनेवाला है। इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने किया है। जो इसका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान्‌में लग जाती है और वह उन्हींके परम कल्याणस्वरूप धाम को प्राप्त होता है ॥ ५९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मृताग्रजानयनं नाम पञ्चाशीतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीभगवान्‌ के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश

तथा देवकी जी के छ: पुत्रों को लौटा लाना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

अथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ

वसुदेवोऽभिनन्द्याह प्रीत्या सङ्कर्षणाच्युतौ १

मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्

तद्वीर्यैर्जातविश्रम्भः परिभाष्याभ्यभाषत २

कृष्ण कृष्ण महायोगिन्सङ्कर्षण सनातन

जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ ३

यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा

स्यादिदं भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः ४

एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज

आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यज ५

प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः

पारतन्त्र्याद्वै सादृश्याद् द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम् ६

कान्तिस्तेजः प्रभा सत्ता चन्द्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम्

यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गन्धोऽर्थतो भवान् ७

तर्पणं प्राणनमपां देव त्वं ताश्च तद्रसः

ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर ८

दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः

नादो वर्णस्त्वमॐकार आकृतीनां पृथक्कृतिः ९

इन्द्रियं त्विन्द्रियाणां त्वं देवाश्च तदनुग्रहः

अवबोधो भवान्बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिः सती १०

भूतानामसि भूतादिरिन्द्रियाणां च तैजसः

वैकारिको विकल्पानां प्रधानमनुशायिनम् ११

नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्

यथा द्रव्यविकारेषु द्रव्यमात्रं निरूपितम् १२

सत्त्वम्रजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्च याः

त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया १३

तस्मान्न सन्त्यमी भावा यर्हि त्वयि विकल्पिताः

त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदा व्यावहारिकः १४

गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः

गतिं सूक्ष्मामबोधेन संसरन्तीह कर्मभिः १५

यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम्

स्वार्थे प्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर १६

असावहम्ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु

स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत् १७

युवां न नः सुतौ साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरौ

भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थ ह १८

तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविन्दम्

आपन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो

एतावतालमलमिन्द्रियलालसेन

मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः १९

सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ

सञ्जज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै

नानातनूर्गगनवद्विदधज्जहासि

को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम् २०

 

श्रीशुक उवाच

आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभः

प्रत्याह प्रश्रयानम्रः प्रहसन्श्लक्ष्णया गिरा २१

 

श्रीभगवानुवाच

वचो वः समवेतार्थं तातैतदुपमन्महे

यन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः २२

अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः

सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृग्याः सचराचरम् २३

आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः

आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते २४

खं वायुर्ज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्

आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानात्वं यात्यसावपि २५

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहृतः

श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत् २६

अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता

श्रुत्वानीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता २७

कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्

स्मरन्ती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना २८

 

श्रीदेवक्युवाच

राम रामाप्रमेयात्मन्कृष्ण योगेश्वरेश्वर

वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपूरुषौ २९

कलविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञामुच्छास्त्रवर्तिनाम्

भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे ३०

यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः

भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गतिं गता ३१

चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ

आनिन्यथुः पितृस्थानाद्गुरवे गुरुदक्षिणाम् ३२

तथा मे कुरुतं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ

भोजराजहतान्पुत्रान्कामये द्रष्टुमाहृतान् ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसके बाद एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रात:कालीन प्रणाम करनेके लिये माता-पिताके पास गये। प्रणाम कर लेनेपर वसुदेवजी बड़े प्रेमसे दोनों भाइयोंका अभिनन्दन करके कहने लगे ॥ १ ॥ वसुदेवजीने बड़े-बड़े ऋषियोंके मुँहसे भगवान्‌की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बातका दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान्‌ हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रोंको प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा॥ २ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगीश्वर सङ्कर्षण ! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत्के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ॥ ३ ॥ इस जगत्के आधार, निर्माता और निर्माण- सामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत् के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडा के लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता हैवह सब तुम्हीं हो। इस जगत् में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूप से भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनों के नियामक साक्षात् भगवान्‌ भी तुम्हीं हो ॥ ४ ॥ इन्द्रियातीत ! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारोंसे रहित परमात्मन् ! इस चित्र-विचित्र जगत् का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूपसे प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूपमें इसका पालन-पोषण कर रहे हो ॥ ५ ॥ क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदिमें जो जगत्की वस्तुओंकी सृष्टि करनेकी सामथ्र्य है, वह उनकी अपनी सामथ्र्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अत: उन चेष्टाशील प्राण आदिमें केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी ही है ॥ ६ ॥ प्रभो ! चन्द्रमाकी कान्ति, अग्रिका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदि की स्फुरणरूपसे सत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता, पृथ्वीकी साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुणये सब वास्तवमें तुम्हीं हो ॥ ७ ॥ परमेश्वर ! जलमें तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करनेकी जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो ! इन्द्रियशक्ति, अन्त:करणकी शक्ति, शरीरकी शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरनाये सब वायुकी शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ॥ ८ ॥ दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोटशब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नादपश्यन्ती, ओंकारमध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थोंका अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो ॥ ९ ॥ इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो ! बुद्धिकी निश्चयात्मिका शक्ति और जीवकी विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो ॥ १० ॥ भूतोंमें उनका कारण तामस अहङ्कार, इन्द्रियोंमें उनका कारण तैजस अहङ्कार और इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ- देवताओंमें उनका कारण सात्त्विक अहङ्कार तथा जीवोंके आवागमनका कारण माया भी तुम्हीं हो ॥ ११ ॥ भगवन् ! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओंके विकार घड़ा, वृक्ष आदिमें मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तवमें वे कारण (मृत्तिका) रूप ही हैंउसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूपसे अविनाशी तत्त्व हो ! वास्तवमें वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ॥ १२ ॥ प्रभो ! सत्त्व, रज, तमये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में, तुममें योगमायाके द्वारा कल्पित हैं ॥ १३ ॥ इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारोंमें अनुगत जान पड़ते हो। कल्पनाकी निवृत्ति हो जानेपर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ॥ १४ ॥ यह जगत् सत्त्व, रज, तमइन तीनों गुणोंका प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्त:करण, सुख, दु:ख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्माका सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञानके कारण ही कर्मोंके फंदेमें फँसकर बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकते रहते हैं ॥ १५ ॥ परमेश्वर ! मुझे शुभ प्रारब्धके अनुसार इन्द्रियादिकी सामथ्र्यसे युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी मायाके वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ- परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ॥ १६ ॥ प्रभो ! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुमने इस सारे जगत् को बाँध रखा है ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवों के स्वामी हो ! पृथ्वी के भारभूत राजाओं के नाश के लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ॥ १८ ॥ इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल ! मैं अब तुम्हारे चरणकमलोंकी शरणमें हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतोंके संसारभयको मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियोंकी लोलुपतासे भर पाया। इसीके कारण मैंने मृत्युके ग्रास इस शरीरमें आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ॥ १९ ॥ प्रभो ! तुमने प्रसव-गृहमें ही हमसे कहा था कि यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये प्रत्येक युगमें तुम दोनोंके द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।भगवन् ! तुम आकाशके समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तवमें तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायाका रहस्य भला कौन जान सकता है ? सब लोग तुम्हारी कीर्तिका ही गान करते रहते हैं ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वसुदेवजीके ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान्‌श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनयसे झुककर मधुर वाणीसे कहा ॥ २१ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहापिताजी ! हम तो आपके पुत्र ही हैं हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ॥ २३ ॥ पिताजी ! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपनेमें ही गुणोंकी सृष्टि कर लेता है और गुणोंके द्वारा बनाये हुए पञ्चभूतोंमें एक होनेपर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होनेपर भी दृश्य, अपना स्वरूप होनेपर भी अपनेसे भिन्न, नित्य होनेपर भी अनित्य और निर्गुण होनेपर भी सगुणके रूपमें प्रतीत होता है ॥ २४ ॥ जैसे आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वीये पञ्चमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदिमें प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक-से प्रतीत होते हैंपरन्तु वास्तवमें सत्तारूपसे वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मामें भी उपाधियोंके भेदसे ही नानात्वकी प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैंइस दृष्टिसे आपका कहना ठीक ही है ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन वचनोंको सुनकर वसुदेवजीने नानात्वबुद्धि छोड़ दी; वे आनन्दमें मग्र होकर वाणीसे मौन और मनसे निस्सङ्कल्प हो गये ॥ २६ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहलेसे ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजीने अपने मरे हुए गुरुपुत्रको यमलोकसे वापस ला दिया ॥ २७ ॥ अब उन्हें अपने उन पुत्रोंकी याद आ गयी, जिन्हें कंसने मार डाला था। उनके स्मरणसे देवकीजीका हृदय आतुर हो गया, नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वरसे श्रीकृष्ण और बलरामजीको सम्बोधित करके कहा ॥ २८ ॥

देवकीजीने कहालोकाभिराम राम ! तुम्हारी शक्ति मन और वाणीके परे है। श्रीकृष्ण ! तुम योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियोंके भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ॥ २९ ॥ यह भी मुझे निश्चत रूपसे मालूम है कि जिन लोगोंने कालक्रमसे अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्रकी आज्ञाओंका उल्लङ्घन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमिके भारभूत उन राजाओंका नाश करनेके लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भसे अवतीर्ण हुए हो ॥ ३० ॥ विश्वात्मन् ! तुम्हारे पुरुषरूप अंशसे उत्पन्न हुई मायासे गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्रसे जगत् की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्त:करण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देनेके लिये उनकी आज्ञा तथा कालकी प्रेरणासे तुम दोनोंने उनके पुत्रको यमपुरीसे वापस ला दिया ॥ ३२ ॥ तुम दोनों योगीश्वरोंके भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रोंको, जिन्हें कंसने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ॥ ३३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...