शुक्रवार, 12 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

श्रीराजोवाच -

नारायणाभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।

निष्ठाम् अर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः ॥ ३४ ॥

 

श्रीपिप्पलायन उवाच -

स्थित्युद्‌भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य

     यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च ।

 देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन

     सञ्जीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥ ३५ ॥

 नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा

     प्राणेन्द्रियाणि च यथानलमर्चिषः स्वाः ।

 शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयात्ममूलम्

     अर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः ॥ ३६ ॥

 सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ

     सूत्रं महानहमिति प्रवदन्ति जीवम् ।

 ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्ति

     ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत् ॥ ३७ ॥

 नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ

     न क्षीयते सवनविद् व्यभिचारिणां हि ।

 सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं

     प्राणो यथेंद्रियबलेन विकल्पितं सत् ॥ ३८ ॥

 अण्डेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषु

     प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र ।

 सन्ने यदिन्द्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते

     कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर्नः ॥ ३९ ॥

 यह्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या

     चेतोमलानि विधमेद्‌ गुणकर्मजानि ।

 तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं

     साक्षाद् यथामलदृशोः सवितृप्रकाशः ॥ ४० ॥

 

राजा निमि ने पूछा—महर्षियो ! आपलोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जाननेवालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है ? ॥ ३४ ॥

अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजी  ने कहा—राजन् ! जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका निमित्त-कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी— परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओंमें उनके साक्षीके रूपमें विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधिमें भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्तासे ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्त:करण अपना-अपना काम करनेमें समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तुको आप ‘नारायण’ समझिये ॥ ३५ ॥ जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में—आत्मस्वरूपमें न तो मनकी गति है और न वाणीकी, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पासतक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’—इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है—इस रूपमें उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध करानेवाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप  से अपना मूल—निषेधका मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेध के आधारकी, आत्माकी सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है—

इन प्रश्नों  का कोई उत्तर ही न रहे, निषेधकी ही सिद्धि न हो ॥ ३६ ॥ जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टिका निरूपण करनेके लिये उसीको त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसीको ज्ञानप्रधान होनेसे महत्तत्त्व, क्रियाप्रधान होनेसे सूत्रात्मा और जीवकी उपाधि होनेसे अहङ्कार के रूपमें वर्णन किया गया। वास्तवमें जितनी भी शक्तियाँ हैं—चाहे वे इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवताओं के रूपमें हों, चाहे इन्द्रियोंके, उनके विषयोंके अथवा विषयोंके प्रकाश के रूपमें हों—सब-का-सब वह ब्रह्म ही है; क्योंकि ब्रह्मकी शक्ति अनन्त है। कहाँतक कहूँ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है—सब कुछ ब्रह्म है। इनसे परे जो कुछ है, वह भी ब्रह्म ही है ॥ ३७ ॥ वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ हैं—चाहे वे क्रिया, सङ्कल्प और उनके अभाव के रूपमें ही क्यों न हों—सबकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ताका वह साक्षी है। सबमें है। देश, काल और वस्तुसे अपरिच्छिन्न है, अविनाशी है। वह उपलब्धि करनेवाला अथवा उपलब्धिका विषय नहीं है। केवल उपलब्धिस्वरूप—ज्ञानस्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक होनेपर भी इन्द्रियोंके सहयोगसे उसमें अनेकताकी कल्पना हो जाती है ॥ ३८ ॥ जगत्में चार प्रकारके जीव होते हैं—अंडा फोडक़र पैदा होनेवाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनुष्य, धरती फोडक़र निकलनेवाले वृक्ष-वनस्पति और पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले खटमल आदि। इन सभी जीव-शरीरोंमें प्राणशक्ति जीवके पीछे लगी रहती है। शरीरोंके भिन्न-भिन्न होनेपर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति-अवस्थामें जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहङ्कार भी सो जाता है—लीन हो जाता है, अर्थात् लिङ्गशरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बातकी पीछे से स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुख से सोया था । पीछे होनेवाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है ॥ ३९ ॥ जब भगवान्‌ कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करनेकी इच्छासे तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्रिकी भाँति गुण और कर्मोंसे उत्पन्न हुए चित्तके सारे मलोंको जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है—जैसे नेत्रोंके निर्विकार हो जानेपर सूर्यके प्रकाशकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ॥ ४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 11 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

श्रीराजोवाच -

यथेताम् ऐश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभिः ।

तरन्त्यञ्जः स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम् ॥ १७ ॥

 

 श्रीप्रबुद्ध उवाच -

 कर्माण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च ।

 पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ॥ १८ ॥

 नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना ।

 गृहापत्याप्तपशुभिः का प्रीतिः साधितैश्चलैः ॥ १९ ॥

 एवं लोकं परं विद्यात् नश्वरं कर्मनिर्मितम् ।

 सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मण्डलवर्तिनाम् ॥ २० ॥

 तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् ।

 शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ २१ ॥

 तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः ।

 अमाययानुवृत्त्या यैः तुष्येदात्माऽऽत्मदो हरिः ॥ २२ ॥

 सर्वतो मनसोऽसङ्‌गमादौ सङ्गं च साधुषु ।

 दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम् ॥ २३ ॥

 शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम् ।

 ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयोः ॥ २४ ॥

 सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम् ।

 विविक्तचीरवसनं सन्तोषं येन केनचित् ॥ २५ ॥

 श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापि हि ।

 मनोवाक्कर्मदण्डं च सत्यं शमदमावपि ॥ २६ ॥

 श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः ।

 जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम् ॥ २७ ॥

 इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः प्रियम् ।

 दारान् सुतान् गृहान् प्राणान् यत्परस्मै निवेदनम् ॥ २८ ॥

 एवं कृष्णात्मनाथेषु मनुष्येषु च सौहृदम् ।

 परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु ॥ २९ ॥

 परस्परानुकथनं पावनं भगवद्यशः ।

 मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिः निवृत्तिर्मिथ आत्मनः ॥ ३० ॥

 स्मरन्तः स्मारन्तश्च मिथोऽघौघहरं हरिम् ।

 भक्त्या सञ्जातया भक्त्या बिभ्रत्युत्पुलकां तनुम् ॥ ३१ ॥

 क्वचिद् रुदन्त्यच्युतचिन्तया क्वचिद्

     हसन्ति नन्दन्ति वदन्त्यलौकिकाः ।

 नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजं

     भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥ ३२ ॥

इति भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्त्या तदुत्थया ।

नारायणपरो मायां अञ्जस्तरति दुस्तराम् ॥ ३३ ॥

 

राजा निमिने पूछा—महर्षिजी ! इस भगवान्‌की मायाको पार करना उन लोगोंके लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मनको वशमें नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदिमें आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं ? ॥ १७ ॥

अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले—राजन् ! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनोंमें बँधे हुए संसारी मनुष्य सुखकी प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष मायाके पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मोंका फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुखके बदले दु:ख पाते हैं और दु:ख-निवृत्तिके स्थानपर दिनोंदिन दु:ख बढ़ता ही जाता है ॥ १८ ॥ एक धनको ही लो। इससे दिन-पर-दिन दु:ख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्माके लिये तो यह मृत्युस्वरूप ही है। जो इसकी उलझनोंमें पड़ जाता है, वह अपने-आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन- सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ १९ ॥ इसी प्रकार जो मनुष्य मायासे पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरनेके बाद प्राप्त होनेवाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं।

क्योंकि इस लोककी वस्तुओंके समान वे भी कुछ सीमित कर्मोंके सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वीके छोटे-छोटे राजाओंके समान बराबरवालोंसे होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुखवालोंके प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेषका भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्यवालोंके प्रति घृणा रहती है एवं कर्मोंका फल पूरा हो जानेपर वहाँसे पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाशका भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ॥ २० ॥ इसलिये जो परम कल्याणका जिज्ञासु हो , उसे गुरुदेवकी शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म—वेदोंके पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रह्ममें परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभवके द्वारा प्राप्त हुई रहस्यकी बातोंको बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहारके प्रपञ्चमें विशेष प्रवृत्त न हो ॥ २१ ॥ जिज्ञासुको चाहिये कि गुरुको ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपटभावसे सेवा करे और उनके पास रहकर भागवतधर्मकी—भगवान्‌- को प्राप्त करानेवाले भक्तिभावके साधनोंकी क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनोंसे सर्वात्मा एवं भक्तको अपने आत्माका दान करनेवाले भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं ॥ २२ ॥ पहले शरीर, सन्तान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखे। फिर भगवान्‌के भक्तोंसे प्रेम कैसा करना चाहिये—यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करे ॥ २३ ॥ मिट्टी, जल आदिसे बाह्य शरीरकी पवित्रता, छल-कपट आदिके त्यागसे भीतरकी पवित्रता, अपने धर्मका अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें हर्ष-विषादसे रहित होना सीखे ॥ २४ ॥ सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओंमें चेतनरूपसे आत्मा और नियन्तारूपसे ईश्वरको देखना, एकान्तसेवन, ‘यही मेरा घर है’—ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे- पुराने पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्धके अनुसार मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना सीखे ॥ २५ ॥ भगवान्‌की प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले शास्त्रोंमें श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्रकी निन्दा न करना, प्राणायामके द्वारा मनका, मौनके द्वारा वाणीका और वासनाहीनताके अभ्याससे कर्मोंका संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियोंको अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर रखना और मनको कहीं बाहर न जाने देना सीखे ॥ २६ ॥ राजन् ! भगवान्‌की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हींका श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीरसे जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान्‌के लिये करना सीखे ॥ २७ ॥ यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचारका पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपनेको प्रिय लगता हो—सब-का-सब भगवान्‌के चरणोंमें निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ॥ २८ ॥ जिन संत पुरुषोंने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णका अपने आत्मा और स्वामीके रूपमें साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जङ्गम दोनों प्रकारके प्राणियोंकी सेवा; विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्योंमें भी परोपकारी सज्जनोंकी और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतोंकी करना सीखे ॥ २९ ॥ भगवान्‌के परम पावन यशके सम्बन्धमें ही एक-दूसरेसे बातचीत करना और इस प्रकारके साधकोंका इकट्ठेहोकर आपसमें प्रेम करना, आपसमें सन्तुष्ट रहना और प्रपञ्चसे निवृत्त होकर आपसमें ही आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव करना सीखे ॥ ३० ॥ राजन् ! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापोंको एक क्षणमें भस्म कर देते हैं। सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें। इस प्रकार साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते-करते प्रेम- भक्तिका उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेकसे पुलकित-शरीर धारण करते हैं ॥ ३१ ॥ उनके हृदयकी बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अबतक भगवान्‌ नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे ? इस तरह सोचते- सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान्‌की लीलाकी स्फूर्ति हो जानेसे ऐसा देखकर कि परमैश्वर्य- शाली भगवान्‌ गोपियोंके डरसे छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शनकी अनुभूतिसे आनन्दमग्र हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भावमें स्थित होकर भगवान्‌ के साथ बातचीत करने लगते हैं । कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणोंका गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढऩे लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी सन्निधि में स्थित होकर परम शान्तिका अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! जो इस प्रकार भागवतधर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान्‌ नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है ॥ ३३ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

 

श्रीराजोवाच -

परस्य विष्णोरीशस्य मायिनां अपि मोहिनीम् ।

 मायां वेदितुमिच्छामो भगवन्तो ब्रुवन्तु नः ॥ १ ॥

 नानुतृप्ये जुषन् युष्मद्वचो हरिकथामृतम् ।

 संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यः तत्तापभेषजम् ॥ २ ॥

 

 श्री अन्तरिक्ष उवाच -

एभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज ।

 ससर्जोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये ॥ ३ ॥

 एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पञ्चधातुभिः ।

 एकधा दशधाऽऽत्मानं विभजन् जुषते गुणान् ॥ ४ ॥

 गुणैर्गुणान् स भुञ्जान आत्मप्रद्योतितैः प्रभुः ।

 मन्यमान इदं सृष्टं आत्मानमिह सज्जते ॥ ५ ॥

 कर्माणि कर्मभिः कुर्वन् सनिमित्तानि देहभृत् ।

 तत्तत् कर्मफलं गृह्णन् भ्रमतीह सुखेतरम् ॥ ६ ॥

 इत्थं कर्मगतीर्गच्छन् बह्वभद्रवहाः पुमान् ।

 आभूतसंप्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेऽवशः ॥ ७ ॥

 धातूपप्लव आसन्ने व्यक्तं द्रव्यगुणात्मकम् ।

 अनादिनिधनः कालो ह्यव्यक्तायापकर्षति ॥ ८ ॥

 शतवर्षा ह्यनावृष्टिः भविष्यत्युल्बणा भुवि ।

 तत्कालोपचितोष्णार्को लोकान् त्रीन् प्रतपिष्यति ॥ ९ ॥

 पातालतलमारभ्य सङ्‌कर्षणमुखानलः ।

 दहन् ऊर्ध्वशिखो विष्वग् वर्धते वायुनेरितः ॥ १० ॥

 सांवर्तको मेघगणो वर्षति स्म शतं समाः ।

 धाराभिर्हस्तिहस्ताभिः लीयते सलिले विराट् ॥ ११ ॥

 ततो विराजमुत्सृज्य वैराजः पुरुषो नृप ।

 अव्यक्तं विशते सूक्ष्मं निरिन्धन इवानलः ॥ १२ ॥

 वायुना हृतगन्धा भूः सलिलत्वाय कल्पते ।

 सलिलं तद्‌धृतरसं ज्योतिष्ट्वायोपकल्पते ॥ १३ ॥

 हृतरूपं तु तमसा वायौ ज्योतिः प्रलीयते ।

 हृतस्पर्शोऽवकाशेन वायुर्नभसि लीयते ॥ १४ ॥

 कालात्मना हृतगुणं नभ आत्मनि लीयते ।

 इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सह वैकारिकैर्नृप ।

 प्रविशन्ति ह्यहङ्‌कारं स्वगुणैः अहमात्मनि ॥ १५ ॥

 एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।

 त्रिवर्णा वर्णितास्माभिः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६ ॥

 

राजा निमिने पूछा—भगवन् ! सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान्‌ की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अत: अब मैं उस मायाका स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ॥ १ ॥ योगीश्वरो ! मैं एक मृत्युका शिकार मनुष्य हूँ। संसारके तरह-तरहके तापोंने मुझे बहुत दिनोंसे तपा रखा है। आपलोग जो भगवत्कथारूप अमृतका पान करा रहे हैं, वह उन तापोंको मिटानेकी एकमात्र ओषधि है; इसलिये मैं आपलोगोंकी इस वाणीका सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता। आप कृपया और कहिये ॥ २ ॥

अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष जी ने कहा—राजन् ! (भगवान्‌ की माया स्वरूपत: अनिर्वचनीय है, इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष परमात्मा जिस शक्तिसे सम्पूर्ण भूतोंके कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा मोक्षकी सिद्धिके लिये अथवा अपने उपासकोंकी उत्कृष्ट सिद्धिके लिये स्वनिर्मित पञ्चभूतोंके द्वारा नाना प्रकारके देव, मनुष्य आदि शरीरोंकी सृष्टि करते हैं, उसीको माया कहते हैं ॥ ३ ॥ इस प्रकार पञ्चमहाभूतोंके द्वारा बने हुए प्राणिशरीरों में उन्होंने अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश किया और अपनेको ही पहले एक मनके रूपमें और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय—इन दस रूपोंमें विभक्त कर दिया तथा उन्हींके द्वारा विषयोंका भोग कराने लगे ॥ ४ ॥ वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामीके द्वारा प्रकाशित इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करता है और इस पञ्चभूतोंके द्वारा निर्मित शरीरको आत्मा—अपना स्वरूप मानकर उसीमें आसक्त हो जाता है। (यह भगवान्‌की माया है) ॥ ५ ॥ अब वह कर्मेन्द्रियोंसे सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्मका फल सुख और अशुभ कर्मका फल दु:ख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसारमें भटकने लगता है। यह भगवान्‌की माया है ॥ ६ ॥ इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमङ्गलमय कर्मगतियोंको, उनके फलोंको प्राप्त होता है और महाभूतोंके प्रलयपर्यन्त विवश होकर जन्मके बाद मृत्यु और मृत्युके बाद जन्मको प्राप्त होता रहता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ ७ ॥ जब पञ्चभूतोंके प्रलयका समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस समस्त व्यक्त सृष्टिको अव्यक्तकी ओर, उसके मूल कारणकी ओर खींचता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ ८ ॥ उस समय पृथ्वीपर लगातार सौ वर्षतक भयङ्कर सूखा पड़ता है, वर्षा बिलकुल नहीं होती; प्रलयकालकी शक्तिसे सूर्यकी उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकोंको तपाने लगते हैं—यह भगवान्‌ की माया है ॥ ९ ॥ उस समय शेषनाग—सङ्कर्षणके मुँहसे आगकी प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायुकी प्रेरणासे वे लपटें पाताललोकसे जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं— यह भगवान्‌की माया है ॥ १० ॥ इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथीकी सूँडके समान मोटी-मोटी धाराओंसे सौ वर्षतक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जलमें डूब जाता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ ११ ॥ राजन् ! उस समय जैसे बिना र्ईंधनके आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीरको छोडक़र सूक्ष्मस्वरूप अव्यक्तमें लीन हो जाते हैं—यह भगवान्‌की माया है ॥ १२ ॥ वायु पृथ्वीकी गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जलके रूपमें हो जाती है और जब वही वायु जलके रसको खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्रि बन जाता है— यह भगवान्‌की माया है ॥ १३ ॥ जब अन्धकार अग्रिका रूप छीन लेता है, तब वह अग्रि वायुमें लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायुकी स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाशमें लीन हो जाता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ १४ ॥ राजन् ! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाशके शब्द गुणको हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहङ्कार  में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहङ्कार में लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहङ्कारसे उत्पन्न देवताओंके साथ सात्त्विक अहङ्कार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकारके कार्योंके साथ अहङ्कार महत्त्वमें लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृतिमें और प्रकृति ब्रह्ममें लीन होती है। फिर इसीके उलटे क्रमसे सृष्टि होती है। यह भगवान्‌की माया है ॥ १५ ॥ यह सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...