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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०३)
माया, माया से पार होने के
उपाय
तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
श्रीराजोवाच
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नारायणाभिधानस्य
ब्रह्मणः परमात्मनः ।
निष्ठाम्
अर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः ॥ ३४ ॥
श्रीपिप्पलायन
उवाच -
स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य
यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च ।
देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन
सञ्जीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥ ३५ ॥
नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा
प्राणेन्द्रियाणि च यथानलमर्चिषः स्वाः ।
शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयात्ममूलम्
अर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः ॥ ३६ ॥
सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ
सूत्रं महानहमिति प्रवदन्ति जीवम् ।
ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्ति
ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत् ॥ ३७ ॥
नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ
न क्षीयते सवनविद् व्यभिचारिणां हि ।
सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं
प्राणो यथेंद्रियबलेन विकल्पितं सत् ॥ ३८ ॥
अण्डेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषु
प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र ।
सन्ने यदिन्द्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते
कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर्नः ॥ ३९ ॥
यह्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या
चेतोमलानि विधमेद् गुणकर्मजानि ।
तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं
साक्षाद् यथामलदृशोः सवितृप्रकाशः ॥ ४० ॥
राजा निमि ने पूछा—महर्षियो ! आपलोग
परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जाननेवालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये मुझे यह
बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है ? ॥ ३४ ॥
अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजी ने कहा—राजन् ! जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका निमित्त-कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी— परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओंमें उनके साक्षीके रूपमें विद्यमान
रहता है और उनके अतिरिक्त समाधिमें भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्तासे ही सत्तावान् होकर शरीर,
इन्द्रिय, प्राण और अन्त:करण अपना-अपना काम करनेमें समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तुको आप ‘नारायण’ समझिये ॥ ३५ ॥ जैसे चिनगारियाँ न
तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में—आत्मस्वरूपमें न तो मनकी गति है और न
वाणीकी, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पासतक नहीं फटक पातीं।
‘नेति-नेति’—इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है—इस रूपमें उसका वर्णन नहीं
करते, बल्कि उसको बोध करानेवाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप
से अपना मूल—निषेधका मूल लक्षित करा देते हैं;
क्योंकि यदि निषेध के आधारकी,
आत्माकी सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है—
इन प्रश्नों का कोई उत्तर ही न रहे,
निषेधकी ही सिद्धि न हो ॥ ३६ ॥ जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टिका निरूपण करनेके लिये उसीको त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम)
मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसीको ज्ञानप्रधान होनेसे महत्तत्त्व, क्रियाप्रधान होनेसे सूत्रात्मा और जीवकी उपाधि होनेसे अहङ्कार के
रूपमें वर्णन किया गया। वास्तवमें जितनी भी शक्तियाँ हैं—चाहे वे इन्द्रियोंके
अधिष्ठातृदेवताओं के रूपमें हों, चाहे इन्द्रियोंके, उनके विषयोंके अथवा विषयोंके प्रकाश के रूपमें हों—सब-का-सब वह
ब्रह्म ही है; क्योंकि ब्रह्मकी शक्ति अनन्त है। कहाँतक कहूँ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है—सब कुछ ब्रह्म है। इनसे परे जो कुछ है, वह भी ब्रह्म ही है ॥ ३७ ॥ वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म
लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जितने भी परिवर्तनशील
पदार्थ हैं—चाहे वे क्रिया, सङ्कल्प और उनके अभाव के रूपमें ही क्यों न हों—सबकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ताका वह साक्षी है। सबमें है। देश, काल और वस्तुसे अपरिच्छिन्न है,
अविनाशी है। वह उपलब्धि करनेवाला अथवा उपलब्धिका विषय नहीं है।
केवल उपलब्धिस्वरूप—ज्ञानस्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक
होनेपर भी इन्द्रियोंके सहयोगसे उसमें अनेकताकी कल्पना हो जाती है ॥ ३८ ॥ जगत्में
चार प्रकारके जीव होते हैं—अंडा फोडक़र पैदा होनेवाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनुष्य,
धरती फोडक़र निकलनेवाले वृक्ष-वनस्पति और पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले
खटमल आदि। इन सभी जीव-शरीरोंमें प्राणशक्ति जीवके पीछे लगी रहती है। शरीरोंके
भिन्न-भिन्न होनेपर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति-अवस्थामें जब इन्द्रियाँ
निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहङ्कार भी सो जाता है—लीन हो जाता है,
अर्थात् लिङ्गशरीर नहीं रहता,
उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बातकी पीछे से स्मृति ही
कैसे हो कि मैं सुख से सोया था । पीछे होनेवाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के
अस्तित्व को प्रमाणित करती है ॥ ३९ ॥ जब भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त
करनेकी इच्छासे तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्रिकी भाँति गुण और
कर्मोंसे उत्पन्न हुए चित्तके सारे मलोंको जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता
है, तब आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है—जैसे नेत्रोंके निर्विकार
हो जानेपर सूर्यके प्रकाशकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
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(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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