॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान् के अवतारों का वर्णन
क्षुत्तृट्
त्रिकालगुणमारुत जैह्वशैश्यान्
अस्मान् अपारजलधीन् अतितीर्य केचित् ।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गोः
मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति ॥ ११ ॥
इति
प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद्भुतदर्शनाः ।
दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः
॥ १२ ॥
ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः
।
गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः ॥ १३ ॥
तानाह देवदेवेशः प्रणतान् प्रहसन्निव ।
आसां एकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम् ॥
१४ ॥
ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिनः ।
उर्वशीम् अप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः
॥ १५ ॥
इन्द्रायानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम् ।
ऊचुर्नारायणबलं शक्रः तत्रास विस्मितः ॥ १६ ॥
हंसस्वरूप्यवददच्युत
आत्मयोगं
दत्तः कुमार ऋषभो भगवान् पिता नः ।
विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतिर्णः
तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये ॥ १७ ॥
गुप्तोऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये
क्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भसः क्ष्माम् ।
कौर्मे धृतोऽद्रिः अमृतोन्मथने स्वपृष्ठे
ग्राहात् प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम् ॥ १८ ॥
संस्तुन्वतो निपतितान् श्रमणान् ऋषींश्च
शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम् ।
देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा
जघ्नेऽसुरेन्द्रमभयाय सतां नृसिंहे ॥ १९ ॥
देवासुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे
हत्वान्तरेषु भुवनानि अदधात् कलाभिः ।
भूत्वाथ वामन इमामहरद् बलेः क्ष्मां
याच्ञाच्छलेन समदाद् अदितेः सुतेभ्यः ॥ २० ॥
निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिसप्तकृत्वो
रामस्तु हैहयकुलापि अयभार्गवाग्निः ।
सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङ्कं
सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः ॥ २१ ॥
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा
जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्
शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥ २२
॥
एवंविधानि
जन्मानि कर्माणि च जगत्पतेः ।
भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज ॥ २३ ॥
बहुत-से लोग तो ऐसे होते हैं जो
भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी एवं आँधी-पानीके कष्टोंको तथा रसनेन्द्रिय और
जननेन्द्रियके वेगोंको, जो अपार समुद्रोंके समान हैं,
सह लेते हैं—पार कर जाते हैं। परन्तु फिर भी वे उस क्रोधके वशमें
हो जाते हैं, जो गायके खुरसे बने गड्ढेके समान है और जिससे कोई लाभ नहीं
है—आत्मनाशक है। और प्रभो ! वे इस प्रकार अपनी कठिन तपस्या को खो बैठते हैं ॥ ११ ॥
जब कामदेव, वसन्त आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति की तब सर्वशक्तिमान् भगवान्
ने अपने योगबल से उनके सामने बहुत-सी ऐसी रमणियाँ प्रकट करके दिखलायीं, जो अद्भुत रूप-लावण्य से सम्पन्न और विचित्र वस्त्रालङ्कारों से
सुसज्जित थीं तथा भगवान् की सेवा कर रही थीं ॥ १२ ॥ जब देवराज इन्द्रके अनुचरों ने
उन लक्ष्मीजी के समान रूपवती स्त्रियोंको देखा,
तब उनके महान् सौन्दर्य के सामने उनका चेहरा फीका पड़ गया, वे श्रीहीन होकर उनके शरीरसे निकलनेवाली दिव्य सुगन्धसे मोहित हो
गये ॥ १३ ॥ अब उनका सिर झुक गया। देवदेवेश भगवान् नारायण हँसते हुए-से उनसे
बोले—‘तुमलोग इनमेंसे किसी एक स्त्रीको, जो तुम्हारे अनुरूप हो, ग्रहण कर लो। वह तुम्हारे स्वर्गलोककी शोभा बढ़ानेवाली होगी ॥ १४ ॥
देवराज इन्द्रके अनुचरोंने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्के आदेशको स्वीकार किया तथा
उन्हें नमस्कार किया। फिर उनके द्वारा बनायी हुई स्त्रियोंमेंसे श्रेष्ठ अप्सरा
उर्वशीको आगे करके वे स्वर्गलोकमें गये ॥ १५ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने इन्द्रको
नमस्कार किया तथा भरी सभामें देवताओंके सामने भगवान् नर-नारायणके बल और प्रभावका
वर्णन किया। उसे सुनकर देवराज इन्द्र अत्यन्त भयभीत और चकित हो गये ॥१६॥
भगवान् विष्णुने अपने स्वरूपमें
एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत् के कल्याणके लिये बहुत-से कलावतार ग्रहण
किये हैं। विदेहराज ! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभके रूपमें अवतीर्ण
होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कारके साधनोंका उपदेश किया है। उन्होंने ही
हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरोंका संहार करके उन लोगोंके द्वारा चुराये
हुए वेदोंका उद्धार किया है ॥ १७ ॥ प्रलयके समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी
मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियोंकी—धान्यादि की रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके
पृथ्वीका रसातलसे उद्धार करते समय हिरण्याक्षका संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके
उन्हीं भगवान्ने अमृत-मन्थनका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी पीठपर मन्दराचल
धारण किया और उन्हीं भगवान् विष्णुने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्रको
ग्राहसे छुड़ाया ॥ १८ ॥ एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो
गये थे। वे जब कश्यप ऋषिके लिये समिधा ला रहे थे,
तो थककर गायके खुरसे बने हुए गड्ढेमें गिर पड़े, मानो समुद्रमें गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान्ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वृत्रासुरको मारनेके
कारण जब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी और वे उसके भयसे भागकर छिप गये, तब भगवान्ने उस हत्यासे इन्द्रकी रक्षा की; और जब असुरोंने अनाथ देवाङ्गनाओंको बंदी बना लिया, तब भी भगवान्ने ही उन्हें असुरोंके चंगुलसे छुड़ाया। जब
हिरण्यकशिपुके कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषोंको भय पहुँचने लगा, तब उनको निर्भय करनेके लिये भगवान्ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और
हिरण्यकशिपुको मार डाला ॥ १९ ॥ उन्होंने देवताओंकी रक्षाके लिये देवासुर
संग्राममें दैत्यपतियोंका वध किया और विभिन्न मन्वन्तरोंमें अपनी शक्तिसे अनेकों
कलावतार धारण करके त्रिभुवनकी रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचनाके
बहाने इस पृथ्वीको दैत्यराज बलिसे छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओंको दे दिया ॥ २०
॥ परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया।
परशुरामजी तो हैहयवंश का प्रलय करनेके
लिये मानो भृगुवंशमें अग्नि रूपसे ही अवतीर्ण हुए थे। उन्हीं भगवान् ने रामावतार में
समुद्रपर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लङ्का को मटियामेट कर दिया। उनकी
कीर्ति समस्त लोकोंके मलको नष्ट करनेवाली है। सीतापति भगवान् राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं ॥ २१ ॥ राजन् ! अजन्मा होनेपर भी
पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही भगवान् यदुवंशमें जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म
करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान् ही
बुद्धके रूपमें प्रकट होंगे और यज्ञके अनधिकारियोंको यज्ञ करते देखकर अनेक
प्रकारके तर्क-वितर्कोंसे मोहित कर लेंगे और कलियुगके अन्तमें कल्कि-अवतार लेकर वे
ही शूद्र राजाओंका वध करेंगे ॥ २२ ॥ महाबाहु विदेहराज ! भगवान्की कीर्ति अनन्त
है। महात्माओंने जगत्पति भगवान्के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मोंका प्रचुरतासे
गान भी किया है ॥ २३ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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