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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर
तक आठ गुरुओं की कथा
श्रीब्राह्मण
उवाच
सन्ति
मे गुरवो राजन्बहवो बुद्ध्युपश्रिताः
यतो
बुद्धिमुपादाय मुक्तोऽटामीह तान्शृणु ३२
पृथिवी
वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्र मा रविः
कपोतोऽजगरः
सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद्गजः ३३
मधुहा
हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः
कुमारी
शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत् ३४
एते
मे गुरवो राजन्चतुर्विंशतिराश्रिताः
शिक्षा
वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मनः ३५
यतो
यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज
तत्तथा
पुरुषव्याघ्र निबोध कथयामि ते ३६
भूतैराक्रम्यमाणोऽपि
धीरो दैववशानुगैः
तद्विद्वान्न
चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्व्रतम् ३७
शश्वत्परार्थसर्वेहः
परार्थैकान्तसम्भवः
साधुः
शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम् ३८
प्राणवृत्त्यैव
सन्तुष्येन्मुनिर्नैवेन्द्रियप्रियैः
ज्ञानं
यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्मनः ३९
विषयेष्वाविशन्योगी
नानाधर्मेषु सर्वतः
गुणदोषव्यपेतात्मा
न विषज्जेत वायुवत् ४०
पार्थिवेष्विह
देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणाश्रयः
गुणैर्न
युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्मदृक् ४१
अन्तर्हितश्च
स्थिरजङ्गमेषु
ब्रह्मात्मभावेन
समन्वयेन
व्याप्त्याव्यवच्छेदमसङ्गमात्मनो
मुनिर्नभस्त्वं
विततस्य भावयेत् ४२
तेजोऽबन्नमयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः
न
स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसृष्टैर्गुणैः पुमान् ४३
स्वच्छः
प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्नृणाम्
मुनिः
पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः ४४
तेजस्वी
तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः
सर्वभक्ष्योऽपि
युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत् ४५
क्वचिच्छन्नः
क्वचित्स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम्
भुङ्क्ते
सर्वत्र दातॄणां दहन्प्रागुत्तराशुभम् ४६
स्वमायया
सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः
प्रविष्ट
ईयते तत्तत् स्वरूपोऽग्निरिवैधसि ४७
ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजीने
कहा—राजन् ! मैंने अपनी बुद्धिसे बहुत-से
गुरुओंका आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत् में मुक्तभावसे स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन
गुरुओंके नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ॥ ३२ ॥ मेरे गुरुओंके नाम
हैं—पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा
या मधुमक्खी, हाथी, शहद
निकालनेवाला, हरिन, मछली, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी
कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी
और भृङ्गी कीट ॥ ३३-३४ ॥ राजन् ! मैंने इन चौबीस गुरुओंका आश्रय लिया है और
इन्हींके आचरणसे इस लोकमें अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है ॥ ३५ ॥ वीरवर ययातिनन्दन
! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है,
वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ,
सुनो ॥ ३६ ॥
मैंने पृथ्वीसे उसके धैर्यकी, क्षमाकी शिक्षा ली है। लोग पृथ्वीपर कितना आघात और क्या- क्या
उत्पात नहीं करते; परन्तु
वह न तो किसीसे बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसारके सभी प्राणी अपने-अपने
प्रारब्धके अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समयपर भिन्न-भिन्न प्रकारसे जान या अनजानमें आक्रमण कर
बैठते हैं। धीर पुरुषको चाहिये कि उनकी विवशता समझे,
न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्गपर ज्यों-का-त्यों
चलता रहे ॥ ३७ ॥ पृथ्वीके ही विकार पर्वत और वृक्षसे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है
कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरोंके हितके लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरोंका हित
करनेके लिये ही हुआ है, साधु पुरुषको चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकारकी
शिक्षा ग्रहण करे ॥ ३८ ॥
मैंने शरीरके भीतर रहनेवाले
वायु-प्राणवायुसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्रकी इच्छा रखता है और
उसकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधकको भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये बहुत-से विषय न
चाहे। संक्षेपमें उतने ही विषयोंका उपयोग करना चाहिये,
जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चञ्चल न हो और वाणी व्यर्थकी बातोंमें न लग जाय ॥ ३९ ॥ शरीरके
बाहर रहनेवाले वायुसे मैंने यह सीखा है कि जैसे वायुको अनेक स्थानोंमें जाना पड़ता
है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता,
किसीका भी गुण-दोष नहीं अपनाता,
वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होनेपर विभिन्न प्रकारके धर्म और
स्वभाववाले विषयोंमें जाय, परन्तु अपने लक्ष्यपर स्थिर रहे। किसीके गुण या दोषकी ओर झुक न जाय, किसीसे आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ॥ ४० ॥ गन्ध वायुका गुण नहीं, पृथ्वीका गुण है। परन्तु वायुको गन्धका वहन करना पड़ता है। ऐसा
करनेपर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्धसे उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधकका जबतक इस पार्थिव शरीरसे
सम्बन्ध है, तबतक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदिका भी वहन करना पड़ता
है। परन्तु अपनेको शरीर नहीं, आत्माके रूपमें देखनेवाला साधक शरीर और उसके गुणोंका आश्रय होनेपर
भी उनसे सर्वथा निॢलप्त रहता है ॥ ४१ ॥
राजन् ! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ
हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न भिन्न प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें आकाश एक और
अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर- अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मारूपसे सर्वत्र स्थित होनेके कारण ब्रह्म सभीमें है।
साधकको चाहिये कि सूतके मनियोंमें व्याप्त सूतके समान आत्माको अखण्ड और असङ्गरूपसे
देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाशसे ही की जा सकती है। इसलिये
साधकको आत्माकी आकाशरूपताकी भावना करनी चाहिये ॥ ४२ ॥ आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं,
वायुकी प्रेरणासे बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होनेपर भी आकाश अछूता रहता है। आकाशकी दृष्टिसे यह सब कुछ है
ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्यके चक्करमें न जाने किन-किन नामरूपोंकी सृष्टि और
प्रलय होते हैं; परन्तु आत्माके साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ॥ ४३ ॥
जिस प्रकार जल स्वभावसे ही स्वच्छ, चिकना, मधुर
और पवित्र करनेवाला होता है तथा गङ्गा आदि तीर्थोंके दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारणसे भी लोग पवित्र हो जाते हैं—वैसे ही साधकको
भी स्वभावसे ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चाहिये। जलसे शिक्षा ग्रहण करनेवाला अपने
दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारणसे लोगोंको पवित्र कर देता है ॥ ४४ ॥
राजन् ! मैंने अग्नि से यह शिक्षा
ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है,
जैसे उसे कोई अपने तेजसे दबा नहीं सकता,
जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रहके लिये कोई पात्र नहीं—सब कुछ अपने
पेट में
रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेनेपर भी विभिन्न वस्तुओंके दोषोंसे वह
लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी,
तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियोंसे अपराभूत, भोजनमात्र का संग्रही और यथायोग्य
सभी विषयोंका उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखे, किसीका दोष अपनेमें न आने दे ॥ ४५ ॥ जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी
आदिमें) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। वह
कहीं-कहीं ऐसे रूपमें भी प्रकट हो जाता है,
जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्नि के समान ही
भिक्षारूप हवन करनेवालोंके अतीत और भावी अशुभको भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न
ग्रहण करता है ॥ ४६ ॥ साधक पुरुषको इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि
लंबी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकडिय़ों में रहकर उनके समान ही
सीधी-टेढ़ी या लंबी-चौड़ी दिखायी पड़ती है—वास्तवमें वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी मायासे रचे हुए कार्य-कारणरूप
जगत् में व्याप्त होनेके कारण उन-उन वस्तुओंके नाम-रूपसे कोई सम्बन्ध न होनेपर भी
उनके रूपमें प्रतीत होने लगता है ॥ ४७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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