बुधवार, 17 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा

 

श्रीब्राह्मण उवाच

सन्ति मे गुरवो राजन्बहवो बुद्ध्युपश्रिताः

यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोऽटामीह तान्शृणु ३२

पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्र मा रविः

कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद्गजः ३३

मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः

कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत् ३४

एते मे गुरवो राजन्चतुर्विंशतिराश्रिताः

शिक्षा वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मनः ३५

यतो यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज

तत्तथा पुरुषव्याघ्र निबोध कथयामि ते ३६

भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः

तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्व्रतम् ३७

शश्वत्परार्थसर्वेहः परार्थैकान्तसम्भवः

साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम् ३८

प्राणवृत्त्यैव सन्तुष्येन्मुनिर्नैवेन्द्रियप्रियैः

ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्मनः ३९

विषयेष्वाविशन्योगी नानाधर्मेषु सर्वतः

गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत् ४०

पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणाश्रयः

गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्मदृक् ४१

अन्तर्हितश्च स्थिरजङ्गमेषु

ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन

व्याप्त्याव्यवच्छेदमसङ्गमात्मनो

मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत् ४२

तेजोऽबन्नमयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः

न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसृष्टैर्गुणैः पुमान् ४३

स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्नृणाम्

मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः ४४

तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः

सर्वभक्ष्योऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत् ४५

क्वचिच्छन्नः क्वचित्स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम्

भुङ्क्ते सर्वत्र दातॄणां दहन्प्रागुत्तराशुभम् ४६

स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः

प्रविष्ट ईयते तत्तत् स्वरूपोऽग्निरिवैधसि ४७

 

ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजीने कहा—राजन् ! मैंने अपनी बुद्धिसे बहुत-से गुरुओंका आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत् में  मुक्तभावसे स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन गुरुओंके नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ॥ ३२ ॥ मेरे गुरुओंके नाम हैं—पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हरिन, मछली, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट ॥ ३३-३४ ॥ राजन् ! मैंने इन चौबीस गुरुओंका आश्रय लिया है और इन्हींके आचरणसे इस लोकमें अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है ॥ ३५ ॥ वीरवर ययातिनन्दन ! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ, सुनो ॥ ३६ ॥

मैंने पृथ्वीसे उसके धैर्यकी, क्षमाकी शिक्षा ली है। लोग पृथ्वीपर कितना आघात और क्या- क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसीसे बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसारके सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धके अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समयपर भिन्न-भिन्न प्रकारसे जान या अनजानमें आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुषको चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्गपर ज्यों-का-त्यों चलता रहे ॥ ३७ ॥ पृथ्वीके ही विकार पर्वत और वृक्षसे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरोंके हितके लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरोंका हित करनेके लिये ही हुआ है, साधु पुरुषको चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकारकी शिक्षा ग्रहण करे ॥ ३८ ॥

मैंने शरीरके भीतर रहनेवाले वायु-प्राणवायुसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्रकी इच्छा रखता है और उसकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधकको भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेपमें उतने ही विषयोंका उपयोग करना चाहिये, जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चञ्चल न हो और वाणी व्यर्थकी बातोंमें न लग जाय ॥ ३९ ॥ शरीरके बाहर रहनेवाले वायुसे मैंने यह सीखा है कि जैसे वायुको अनेक स्थानोंमें जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसीका भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होनेपर विभिन्न प्रकारके धर्म और स्वभाववाले विषयोंमें जाय, परन्तु अपने लक्ष्यपर स्थिर रहे। किसीके गुण या दोषकी ओर झुक न जाय, किसीसे आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ॥ ४० ॥ गन्ध वायुका गुण नहीं, पृथ्वीका गुण है। परन्तु वायुको गन्धका वहन करना पड़ता है। ऐसा करनेपर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्धसे उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधकका जबतक इस पार्थिव शरीरसे सम्बन्ध है, तबतक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदिका भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपनेको शरीर नहीं, आत्माके रूपमें देखनेवाला साधक शरीर और उसके गुणोंका आश्रय होनेपर भी उनसे सर्वथा निॢलप्त रहता है ॥ ४१ ॥

राजन् ! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न भिन्न प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर- अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मारूपसे सर्वत्र स्थित होनेके कारण ब्रह्म सभीमें है। साधकको चाहिये कि सूतके मनियोंमें व्याप्त सूतके समान आत्माको अखण्ड और असङ्गरूपसे देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाशसे ही की जा सकती है। इसलिये साधकको आत्माकी आकाशरूपताकी भावना करनी चाहिये ॥ ४२ ॥ आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायुकी प्रेरणासे बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होनेपर भी आकाश अछूता रहता है। आकाशकी दृष्टिसे यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्यके चक्करमें न जाने किन-किन नामरूपोंकी सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्माके साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ॥ ४३ ॥

जिस प्रकार जल स्वभावसे ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करनेवाला होता है तथा गङ्गा आदि तीर्थोंके दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारणसे भी लोग पवित्र हो जाते हैं—वैसे ही साधकको भी स्वभावसे ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चाहिये। जलसे शिक्षा ग्रहण करनेवाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारणसे लोगोंको पवित्र कर देता है ॥ ४४ ॥

राजन् ! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेजसे दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रहके लिये कोई पात्र नहीं—सब कुछ अपने पेट  में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेनेपर भी विभिन्न वस्तुओंके दोषोंसे वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियोंसे अपराभूत, भोजनमात्र  का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयोंका उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखे, किसीका दोष अपनेमें न आने दे ॥ ४५ ॥ जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदिमें) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। वह कहीं-कहीं ऐसे रूपमें भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करनेवालोंके अतीत और भावी अशुभको भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है ॥ ४६ ॥ साधक पुरुषको इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लंबी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकडिय़ों  में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लंबी-चौड़ी दिखायी पड़ती है—वास्तवमें वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी मायासे रचे हुए कार्य-कारणरूप जगत् में व्याप्त होनेके कारण उन-उन वस्तुओंके नाम-रूपसे कोई सम्बन्ध न होनेपर भी उनके रूपमें प्रतीत होने लगता है ॥ ४७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 16 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा

 

श्रीभगवानुवाच

प्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणाः

समुद्धरन्ति ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात् १९

आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः

यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविन्दते २०

पुरुषत्वे च मां धीराः साङ्ख्ययोगविशारदाः

आविस्तरां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम् २१

एकद्वित्रिचतुष्पादो बहुपादस्तथापदः

बह्व्यः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया २२

अत्र मां मृगयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम्

गृह्यमाणैर्गुणैर्लिङ्गैरग्राह्यमनुमानतः २३

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्

अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजसः २४

अवधूतं द्विजं कञ्चिच्चरन्तमकुतोभयम्

कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित् २५

 

श्रीयदुरुवाच

कुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तुः सुविशारदा

यामासाद्य भवाँल्लोकं विद्वाँश्चरति बालवत् २६

प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवाः

हेतुनैव समीहन्त आयुषो यशसः श्रियः २७

त्वं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः

न कर्ता नेहसे किञ्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत् २८

जनेषु दह्यमानेषु कामलोभदवाग्निना

न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गङ्गाम्भःस्थ इव द्विपः २९

त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्

ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः ३०

 

श्रीभगवानुवाच

यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा

पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ३१

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धव ! संसारमें जो मनुष्य ‘यह जगत् क्या है ? इसमें क्या हो रहा है ?’ इत्यादि बातोंका विचार करनेमें निपुण हैं, वे चित्तमें भरी हुई अशुभ वासनाओंसे अपने- आपको स्वयं अपनी विवेकशक्तिसे ही प्राय: बचा लेते हैं ॥ १९ ॥ समस्त प्राणियोंका विशेषकर मनुष्यका आत्मा अपने हित और अहितका उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमानके द्वारा अपने हित-अहितका निर्णय करनेमें पूर्णत: समर्थ है ॥ २० ॥ सांख्ययोगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनिमें इन्द्रियशक्ति, मन:शक्ति आदिके आश्रयभूत मुझ आत्मतत्त्वको पूर्णत: प्रकटरूपसे साक्षात्कार कर लेते हैं ॥ २१ ॥ मैंने एक पैरवाले, दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चारसे अधिक पैरवाले और बिना पैरके—इत्यादि अनेक प्रकारके शरीरोंका निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्यका ही शरीर है ॥ २२ ॥ इस मनुष्य-शरीरमें एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जानेवाले हेतुओंसे जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमानसे अग्राह्य अर्थात् अहङ्कार आदि विषयोंसे भिन्न मुझ सर्वप्रवर्तक ईश्वरको साक्षात् अनुभव करते हैं [*] ॥ २३ ॥ इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदुके संवादके रूपमें है ॥ २४ ॥ एक बार धर्मके मर्मज्ञ राजा यदुने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया॥२५॥

राजा यदुने पूछा—ब्रह्मन् ! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई ? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होनेपर भी बालकके समान संसारमें विचरते रहते हैं ॥ २६ ॥ ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदिकी अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व-जिज्ञासामें प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसीकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती ॥ २७ ॥ मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करनेमें समर्थ, विद्वान् और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणीसे तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड़, उन्मत्त अथवा पिशाचके समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ॥ २८ ॥ संसारके अधिकांश लोग काम और लोभके दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आपतक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वनमें दावाग्रि लगनेपर उससे छूटकर गङ्गाजल में खड़ा हो ॥ २९ ॥ ब्रह्मन् ! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसारके स्पर्शसे भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मामें ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्दका अनुभव कैसे होता है ? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये ॥ ३० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदुकी बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदयमें ब्राह्मण-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजीका अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्र पूछा और बड़े विनम्रभावसे सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजीने कहा ॥ ३१ ॥

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[*] अनुसंधानके दो प्रकार हैं (१) एक स्वप्रकाश तत्त्वके बिना बुद्धि आदि जड पदार्थोंका प्रकाश नहीं हो सकता। इस प्रकार अर्थापत्तिके द्वारा और (२) जैसे बसीला आदि औजार किसी कर्ताके द्वारा प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार यह बुद्धि आदि औजार किसी कर्ताके द्वारा ही प्रयुक्त हो रहे हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आत्मा आनुमानिक है। यह तो देहादिसे विलक्षण त्वं पदार्थके शोधनकी युक्तिमात्र है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा

 

श्रीभगवानुवाच

यदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे

ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकाङ्क्षिणः १

मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यमशेषतः

यदर्थमवतीर्णोऽहमंशेन ब्रह्मणार्थितः २

कुलं वै शापनिर्दग्धं नङ्क्ष्यत्यन्योन्यविग्रहात्

समुद्रः! सप्तमे ह्येनां पुरीं च प्लावयिष्यति ३

यर्ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमङ्गलः

भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृतः ४

न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले

जनोऽधर्मरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ५

त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबन्धुषु

मय्यावेश्य मनः संयक्समदृग्विचरस्व गाम् ६

यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः

नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम् ७

पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक्

कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ८

तस्माद्युक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदं जगत्

आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधीश्वरे ९

ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम्

अत्मानुभवतुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे १०

दोषबुद्ध्योभयातीतो निषेधान्न निवर्तते

गुणबुद्ध्या च विहितं न करोति यथार्भकः ११

सर्वभूतसुहृच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः

पश्यन्मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः १२

 

श्रीशुक उवाच

इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप

उद्धवः प्रणिपत्याह तत्त्वं जिज्ञासुरच्युतम् १३

 

श्रीउद्धव उवाच

योगेश योगविन्यास योगात्मन्योगसम्भव

निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्यागः सन्न्यासलक्षणः १४

त्यागोऽयं दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः

सुतरां त्वयि सर्वात्मन्नभक्तैरिति मे मतिः १५

सोऽहं ममाहमिति मूढमतिर्विगाढः

त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबन्धे

तत्त्वञ्जसा निगदितं भवता यथाहं

संसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यम् १६

सत्यस्य ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं

वक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे

सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमे

ब्रह्मादयस्तनुभृतो बहिरर्थभावाः १७

तस्माद्भवन्तमनवद्यमनन्तपारं

सर्वज्ञमीश्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम्

निर्विण्णधीरहमु ह वृजिनाभितप्तो

नारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये १८

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहा—महाभाग्यवान् उद्धव ! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकोंमें होकर अपने धामको चला जाऊँ ॥ १ ॥ पृथ्वीपर देवताओंका जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी कामके लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे मैं बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुआ था ॥ २ ॥ अब यह यदुवंश, जो ब्राह्मणोंके शापसे भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्धसे नष्ट हो जायगा। आजके सातवें दिन समुद्र इस पुरी-द्वारकाको डुबो देगा ॥ ३ ॥ प्यारे उद्धव ! जिस क्षण मैं मत्र्यलोकका परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मङ्गल नष्ट हो जायँगे और थोड़े ही दिनोंमें पृथ्वीपर कलियुगका बोलबाला हो जायगा ॥ ४ ॥ जब मैं इस पृथ्वीका त्याग कर दूँ, तब तुम इसपर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव ! कलियुगमें अधिकांश लोगोंकी रुचि अधर्ममें ही होगी ॥ ५ ॥ अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवोंका स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्यप्रेमसे मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टिसे पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरण करो ॥ ६ ॥ इस जगत्में जो कुछ मनसे सोचा जाता है, वाणीसे कहा जाता है, नेत्रोंसे देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियोंसे अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सपनेकी तरह मनका विलास है। इसलिये मायामात्र है, मिथ्या है—ऐसा समझ लो ॥ ७ ॥ जिस पुरुषका मन अशान्त है, असंयत है, उसीको पागलकी तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तवमें यह चित्तका भ्रम ही है। नानात्वका भ्रम हो जानेपर ही ‘यह गुण है’ और ‘यह दोष’ इस प्रकारकी कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धिमें गुण और दोषका भेद बैठ गया है, दृढ़मूल हो गया है, उसीके लिये कर्म [1] अकर्म [2] और विकर्मरूप [3] भेदका प्रतिपादन हुआ है ॥ ८ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथमें ले लो और केवल इन्द्रियोंको ही नहीं, चित्तकी समस्त वृत्तियोंको भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत् अपने आत्मामें ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्मसे एक है, अभिन्न है ॥ ९ ॥ जब वेदोंके मुख्य तात्पर्य—निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञानसे भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्माके अनुभव में ही आनन्दमग्र रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियोंके आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी भी विघ्रसे तुम पीडित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न करनेवालों की आत्मा भी तुम्हीं होगे ॥ १० ॥ जो पुरुष गुण और दोष-बुद्धिसे अतीत हो जाता है, वह बालक के समान निषिद्ध कर्मसे निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धिसे नहीं। वह विहित कर्मका अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धिसे नहीं ॥ ११ ॥ जिसने श्रुतियोंके तात्पर्यका यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चयसे सम्पन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियोंका हितैषी सुहृद् होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्वको मेरा ही स्वरूप—आत्मस्वरूप देखता है; इसलिये उसे फिर कभी जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पडऩा पड़ता ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान्‌के परम प्रेमी उद्धवजीने उन्हें प्रणाम करके तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिकी इच्छासे यह प्रश्र किया ॥ १३ ॥

उद्धवजीने कहा—भगवन् ! आप ही समस्त योगियोंकी गुप्त पूँजी योगोंके कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगोंके आधार, उनके कारण और योगस्वरूप भी हैं। आपने मेरे परम- कल्याणके लिये उस संन्यासरूप त्यागका उपदेश किया है ॥ १४ ॥ परन्तु अनन्त ! जो लोग विषयोंके चिन्तन और सेवनमें घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओंका त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्वस्वरूप ! उनमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं, उनके लिये तो इस प्रकारका त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा निश्चय है ॥ १५ ॥ प्रभो ! मैं भी ऐसा ही हूँ; मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस भावसे मैं आपकी मायाके खेल, देह और देहके सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदिमें डूब रहा हूँ। अत: भगवन् ! आपने जिस संन्यासका उपदेश किया है, उसका तत्त्व मुझ सेवकको इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ ॥ १६ ॥ मेरे प्रभो ! आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालोंसे अबाधित, एकरस सत्य हैं। आप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश आत्मस्वरूप हैं। प्रभो ! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्त्वका उपदेश करनेवाला आपके अतिरिक्त देवताओंमें भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने बड़े-बड़े देवता हैं, वे सब शरीराभिमानी होनेके कारण आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि मायाके वशमें हो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियोंसे अनुभव किये जानेवाले बाह्य विषयोंको सत्य मानते हैं। इसीलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये ॥ १७ ॥ भगवन् ! इसीसे चारों ओरसे दु:खोंकी दावाग्रिसे जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप निर्दोष देश-कालसे अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठ- लोक के निवासी एवं नर के नित्य सखा नारायण हैं। (अत: आप ही मुझे उपदेश कीजिये) ॥ १८ ॥

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[1] विहित कर्म।

[2] विहित कर्मका लोप।

[3] निषिद्ध कर्म।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...