रविवार, 21 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

बद्ध, मुक्त और भक्तजनों  के लक्षण

 

श्रीउद्धव उवाच

साधुस्तवोत्तमश्लोक मतः कीदृग्विधः प्रभो

भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीदृशी सद्भिरादृता २६

एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो

प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम् २७

त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः

अवतीर्णोऽसि भगवन्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः २८

 

श्रीभगवानुवाच

कृपालुरकृतद्रो हस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्

सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः २९

कामैरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिञ्चनः

अनीहो मितभुक्शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ३०

अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः

अमानी मानदः कल्यो मैत्रः कारुणिकः कविः ३१

आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान्

धर्मान्सन्त्यज्य यः सर्वान्मां भजेत स तु सत्तमः ३२

ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वै मां यावान्यश्चास्मि यादृशः

भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मताः ३३

मल्लिङ्गमद्भक्तजन दर्शनस्पर्शनार्चनम्

परिचर्या स्तुतिः प्रह्व गुणकर्मानुकीर्तनम् ३४

मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव

सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम् ३५

मज्जन्मकर्मकथनं मम पर्वानुमोदनम्

गीतताण्डववादित्र गोष्ठीभिर्मद्गृहोत्सवः ३६

यात्रा बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु

वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीयव्रतधारणम् ३७

ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः

उद्यानोपवनाक्रीड पुरमन्दिरकर्मणि ३८

सम्मार्जनोपलेपाभ्यां सेकमण्डलवर्तनैः

गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया ३९

अमानित्वमदम्भित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम्

अपि दीपावलोकं मे नोपयुञ्ज्यान्निवेदितम् ४०

यद्यदिष्टतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मनः

तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते ४१

सूर्योऽग्निर्ब्राह्मणा गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम्

भूरात्मा सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ४२

सूर्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम्

आतिथ्येन तु विप्राग्र्ये गोष्वङ्ग यवसादिना ४३

वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया

वायौ मुख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरःसरैः ४४

स्थण्डिले मन्त्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि

क्षेत्रज्ञं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ४५

धिष्ण्येष्वित्येषु मद्रूपं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः

युक्तं चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नर्चेत्समाहितः ४६

इष्टापूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः

लभते मयि सद्भक्तिं मत्स्मृतिः साधुसेवया ४७

प्रायेण भक्तियोगेन सत्सङ्गेन विनोद्धव

नोपायो विद्यते सम्यक्प्रायणं हि सतामहम् ४८

अथैतत्परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनन्दन

सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्सखा ४९

 

उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! बड़े-बड़े संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुषका क्या लक्षण है ? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संतलोग आदर करते हैं ? ॥ २६ ॥ भगवन् ! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत् के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्तका रहस्य बतलाइये ॥ २७ ॥ भगवन् ! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृतिसे परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रह्म हैं। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीलाके लिये स्वेच्छासे ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तवमें आप ही भक्ति और भक्तका रहस्य बतला सकते हैं ॥ २८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपाकी मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणीसे वैरभाव नहीं रखता और घोर-से-घोर दु:ख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवनका सार है सत्य, और उसके मनमें किसी प्रकारकी पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करनेवाला होता है ॥ २९ ॥ उसकी बुद्धि कामनाओंसे कलुषित नहीं होती। वह संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रहसे सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तुके लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्त्वके चिन्तनमें सदा संलग्र रहता है ॥ ३० ॥ वह प्रमादरहित, गम्भीरस्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु—ये छहों उसके वशमें रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसीसे किसी प्रकारका सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरोंका सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्धकी बातें दूसरोंको समझानेमें बड़ा निपुण होता है और सभीके साथ मित्रताका व्यवहार करता है। उसके हृदयमें करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्वका उसे यथार्थ ज्ञान होता है ॥ ३१ ॥ प्रिय उद्धव ! मैंने वेदों और शास्त्रोंके रूपमें मनुष्योंके धर्मका उपदेश किया है, उनके पालनसे अन्त:करणशुद्धि आदि गुण और उल्लङ्घनसे नरकादि दु:ख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदिमें विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजनमें लगा रहता है, वह परम संत है ॥ ३२ ॥ मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ—इन बातोंको जाने, चाहे न जाने; किन्तु जो अनन्यभावसे मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचारसे मेरे परम भक्त हैं ॥ ३३ ॥

प्यारे उद्धव ! मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजनोंका दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मोंका कीर्तन करे ॥ ३४ ॥ उद्धव ! मेरी कथा सुननेमें श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभावसे मुझे आत्मनिवेदन करे ॥ ३५ ॥ मेरे दिव्य जन्म और कर्मोंकी चर्चा करे। जन्माष्टमी, रामनवमी आदि पर्वोंपर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे और समाजोंद्वारा मेरे मन्दिरोंमें उत्सव करे- करावे ॥ ३६ ॥ वार्षिक त्यौहारोंके दिन मेरे स्थानोंकी यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारोंसे मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा तान्ङ्क्षत्रक पद्धतिसे दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतोंका पालन करे ॥ ३७ ॥ मन्दिरोंमें मेरी मूर्तियोंकी स्थापनामें श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरोंके साथ मिलकर उद्योग करे। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीड़ाके स्थान, नगर और मन्दिर बनवावे ॥ ३८ ॥ सेवककी भाँति श्रद्धाभक्तिके साथ निष्कपट भावसे मेरे मन्दिरोंकी सेवा- शुश्रूषा करे—झाड़े-बुहारे, लीपे-पोते, छिडक़ाव करे और तरह-तरहके चौक पूरे ॥ ३९ ॥ अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मोंका ङ्क्षढढोरा भी न पीटे। प्रिय उद्धव ! मेरे चढ़ावेकी, अपने काममें लगानेकी बात तो दूर रही, मुझे समर्पित दीपकके प्रकाशसे भी अपना काम न ले। किसी दूसरे देवताकी चढ़ायी हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे ॥ ४० ॥ संसारमें जो वस्तु अपनेको सबसे प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करनेसे वह वस्तु अनन्त फल देनेवाली हो जाती है ॥ ४१ ॥

भद्र ! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी—ये सब मेरी पूजाके स्थान हैं ॥ ४२ ॥ प्यारे उद्धव ! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रों- द्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करनी चाहिये। हवनके द्वारा अग्रिमें, आतिथ्यद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणमें और हरी-हरी घास आदिके द्वारा गौमें मेरी पूजा करे ॥ ४३ ॥ भाई-बन्धुके समान सत्कारके द्वारा वैष्णवमें, निरन्तर ध्यानमें लगे रहनेसे हृदयाकाशमें, मुख्य प्राण समझनेसे वायुमें और जल-पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा जलमें मेरी आराधना की जाती है ॥ ४४ ॥ गुप्त मन्त्रोंद्वारा न्यास करके मिट्टीकी वेदीमें, उपयुक्त भोगोंद्वारा आत्मामें और समदृष्टिद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंमें मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभीमें क्षेत्रज्ञ आत्माके रूपसे स्थित हूँ ॥ ४५ ॥ इन सभी स्थानोंमें शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओंवाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान्‌ विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रताके साथ मेरी पूजा करनी चाहिये ॥ ४६ ॥ इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे यज्ञ-यागादि इष्ट और कुआँ-बावली बनवाना आदि पूर्तकर्मोंके द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत-पुरुषोंकी सेवा करनेसे मेरे स्वरूपका ज्ञान भी हो जाता है ॥ ४७ ॥ प्यारे उद्धव ! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्सङ्ग और भक्तियोग—इन दो साधनोंका एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्राय: इन दोनोंके अतिरिक्त संसारसागरसे पार होनेका और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ ॥ ४८ ॥ प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्यकी बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुननेके भी इच्छुक हो ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे

एकादशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

बद्ध, मुक्त और भक्तजनों  के लक्षण

 

श्रीभगवानुवाच

बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः

गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् १

शोकमोहौ सुखं दुःखं देहापत्तिश्च मायया

स्वप्नो यथात्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी २

विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्

मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ३

एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते

बन्धोऽस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतरः ४

अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते

विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ५

सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ

यदृच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे

एकस्तयोः खादति पिप्पलान्न-

मन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् ६

आत्मानमन्यं च स वेद विद्वा-

नपिप्पलादो न तु पिप्पलादः

योऽविद्यया युक्स तु नित्यबद्धो

विद्यामयो यः स तु नित्यमुक्तः ७

देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थितः

अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग्यथा ८

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च

गृह्यमाणेष्वहं कुर्यान्न विद्वान्यस्त्वविक्रियः ९

दैवाधीने शरीरेऽस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा

वर्तमानोऽबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते १०

एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने

दर्शनस्पर्शनघ्राण भोजनश्रवणादिषु

न तथा बध्यते विद्वान्तत्र तत्रादयन्गुणान् ११

प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः

वैशारद्येक्षयासङ्ग शितया छिन्नसंशयः

प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते १२

यस्य स्युर्वीतसङ्कल्पाः प्राणेन्द्रि यर्ननोधियाम्

वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोऽपि हि तद्गुणैः १४

यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर्येन किञ्चिद्यदृच्छया

अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुधः १५

न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा

वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ्मुनिः १६

न कुर्यान्न वदेत्किञ्चिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा

आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः १७

शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि

श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः १८

गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यां

देहं पराधीनमसत्प्रजां च

वित्तं त्वतीर्थीकृतमङ्ग वाचं

हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी १९

यस्यां न मे पावनमङ्ग कर्म

स्थित्युद्भवप्राणनिरोधमस्य

लीलावतारेप्सितजन्म वा स्या-

द्वन्ध्यां गिरं तां बिभृयान्न धीरः २०

एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि

उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे २१

यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम्

मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर २२

श्रद्धालुर्मत्कथाः शृण्वन्सुभद्रा लोकपावनीः

गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहुः २३

मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपाश्रयः

लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने २४

सत्सङ्गलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता

स वै मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम् २५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण  ने कहा—प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकारकी व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहनेवाले सत्त्वादि गुणोंकी उपाधि से ही होता है। वस्तुत:—तत्त्वदृष्टिसे नहीं। सभी गुण मायामूलक हैं—इन्द्रजाल हैं—जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है ॥ १ ॥ जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है—उसमें बिना हुए ही भासता है—मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दु:ख, शरीरकी उत्पत्ति और मृत्यु—यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होनेपर भी वास्तविक नहीं है ॥ २ ॥ उद्धव ! शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव करानेवाली आत्मविद्या और बन्धनका अनुभव करानेवाली अविद्या—ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी मायासे ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है ॥ ३ ॥ भाई ! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान् हो, विचार करो—जीव तो एक ही है। वह व्यवहारके लिये ही मेरे अंशके रूपमें कल्पित हुआ है, वस्तुत: मेरा स्वरूप ही है। आत्मज्ञानसे सम्पन्न होनेपर उसे मुक्त कहते हैं और आत्माका ज्ञान न होनेसे बद्ध। और यह अज्ञान अनादि होनेसे बन्धन भी अनादि कहलाता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार मुझ एक ही धर्मीमें रहनेपर भी जो शोक और आनन्दरूप विरुद्ध धर्मवाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीवका भेद मैं बतलाता हूँ ॥ ५ ॥ (वह भेद दो प्रकारका है—एक तो नित्यमुक्त ईश्वरसे जीवका भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीवका भेद। पहला सुनो)—जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्तके भेदसे भिन्न-भिन्न होनेपर भी एक ही शरीरमें नियन्ता और नियन्त्रितके रूपसे स्थित हैं। ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदयका घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नामके दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होनेके कारण समान हैं और कभी न बिछुडऩेके कारण सखा हैं। इनके निवास करनेका कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होनेपर भी जीव तो शरीररूप वृक्षके फल सुख-दु:ख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दु:ख आदिसे असङ्ग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता होनेपर भी ईश्वरकी यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामथ्र्य आदिमें भोक्ता जीवसे बढक़र है ॥ ६ ॥ साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत् को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूपको जानता है और न अपनेसे अतिरिक्त को ! इन दोनोंमें जीव तो अविद्यासे युक्त होनेके कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरूप होनेके कारण नित्यमुक्त है ॥ ७ ॥ प्यारे उद्धव ! ज्ञानसम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही है; जैसे स्वप्न टूट जानेपर जगा हुआ पुरुष स्वप्नके स्मर्यमाण शरीरसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूलशरीरमें रहनेपर भी उनसे किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तवमें शरीरसे कोई सम्बन्ध न रखनेपर भी अज्ञानके कारण शरीरमें ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्न देखनेवाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वाप्निक शरीरमें बँध जाता है ॥ ८ ॥ व्यवहारादिमें इन्द्रियाँ शब्द-स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुणको ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिये जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूपको समझ लिया है, वह उन विषयोंके ग्रहण-त्यागमें किसी प्रकारका अभिमान नहीं करता ॥ ९ ॥ यह शरीर प्रारब्धके अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणोंकी प्रेरणासे ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपनेको उन ग्रहण-त्याग आदि कर्मोंका कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमानके कारण वह बँध जाता है ॥ १० ॥

प्यारे उद्धव ! पूर्वोक्त पद्धतिसे विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयोंसे विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओंमें अपनेको कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणोंको ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मोंके कर्ता-भोक्ता हैं—ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष कर्मवासना और फलोंसे नहीं बँधते। वे प्रकृतिमें रहकर भी वैसे ही असङ्ग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदिसे आकाश, जलकी आद्र्रता आदिसे सूर्य और गन्ध आदिसे वायु। उनकी विमल बुद्धिकी तलवार असङ्ग-भावनाकी सानसे और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे संशय-सन्देहोंको काट-कूटकर फेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्नसे जाग उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धिके भ्रमसे मुक्त हो जाते हैं ॥ ११—१३ ॥ जिनके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी समस्त चेष्टाएँ बिना सङ्कल्पके होती हैं, वे देहमें स्थित रहकर भी उसके गुणोंसे मुक्त हैं ॥ १४ ॥ उन तत्त्वज्ञ मुक्त पुरुषोंके शरीरको चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोगसे पूजा करने लगे—वे न तो किसीके सतानेसे दुखी होते हैं और न पूजा करनेसे सुखी ॥ १५ ॥ जो समदर्शी महात्मा गुण और दोषकी भेददृष्टिसे ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करनेवालेकी स्तुति करते हैं और न बुरे काम करनेवालेकी निन्दा; न वे किसीकी अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसीको झिडक़ते ही हैं ॥ १६ ॥ जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहारमें अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्दमें ही मग्र रहते हैं और जडके समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ॥ १७ ॥

प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदोंका तो पारगामी विद्वान् हो, परन्तु परब्रह्मके ज्ञानसे शून्य हो, उसके परिश्रमका कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूधकी गायका पालनेवाला ॥ १८ ॥ दूध न देनेवाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्रके प्राप्त होनेपर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणोंसे रहित वाणी व्यर्थ है। इन वस्तुओंकी रखवाली करनेवाला दु:ख- पर-दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १९ ॥ इसलिये उद्धव ! जिस वाणीमें जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीलाका वर्णन न हो और लीलावतारोंमें भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारोंका जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि ऐसी वाणीका उच्चारण एवं श्रवण न करे ॥ २० ॥

प्रिय उद्धव ! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचारके द्वारा आत्मामें जो अनेकताका भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मामें अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसारके व्यवहारोंसे उपराम हो जाय ॥ २१ ॥ यदि तुम अपना मन परब्रह्ममें स्थिर न कर सको, तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो ॥ २२ ॥ मेरी कथाएँ समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। श्रद्धाके साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओंका गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये ॥ २३ ॥ मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थका सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव ! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुषके प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ २४ ॥ भक्तिकी प्राप्ति सत्सङ्गसे होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपदको—वास्तविक स्वरूप को सहज ही में प्राप्त हो जाता है ॥ २५ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 20 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण

 

श्रुतं च दृष्टवद्दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः

बह्वन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम् २१

अन्तरायैरविहितो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः

तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु २२

इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः

भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान् २३

स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते

गन्धर्वैर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक् २४

स्त्रीभिः कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना

क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः २५

तावत्स मोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते

क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन्कालचालितः २६

यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः

कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः २७

पशूनविधिनालभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्

नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः २८

कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः

देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः २९

लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्

ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः ३०

गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्

जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ ३१

यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः

नानात्वमात्मनो यावत्पारतन्त्र्यं तदैव हि ३२

यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदीश्वरतो भयम्

य एतत्समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः ३३

काल आत्मागमो लोकः स्वभावो धर्म एव च

इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ३४

 

श्रीउद्धव उवाच

गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः

गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो ३५

कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः

किं भुञ्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ३६

एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर

नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रमः ३७

 

प्यारे उद्धव ! लौकिक सुखके समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगनेवालों के प्रति असूया होती है—उनके गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटोंसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँके सुख भी क्षय  के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँकी कामना पूर्ण होनेमें भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदिकी त्रुटियोंके कारण बड़े-बड़े विघ्नों की सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदिके कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते- होते विघ्नों के कारण नहीं मिल पाता ॥ २१ ॥ यदि यज्ञ-यागादि धर्म बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाय, तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्तिका प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ २२ ॥ यज्ञ करनेवाला पुरुष यज्ञोंके द्वारा देवताओंकी आराधना करके स्वर्गमें जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मोंके द्वारा उपाॢजत दिव्य भोगोंको देवताओंके समान भोगता है ॥ २३ ॥ उसे उसके पुण्योंके अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उसपर सवार होकर सुर- सुन्दरियोंके साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणोंका गान करते हैं और उसके रूप- लावण्यको देखकर दूसरोंका मन लुभा जाता है ॥ २४ ॥ उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओंको गुञ्जारित करती हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार-स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा ॥ २५ ॥ जबतक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है ॥ २६ ॥

यदि कोई मनुष्य दुष्टोंकी संगतिमें पडक़र अधर्मपरायण हो जाय, अपनी इन्द्रियोंके वशमें होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दानेमें कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाय अथवा प्राणियोंको सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओंकी बलि देकर भूत और प्रेतोंकी उपासनामें लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरकमें जाता है। उसे अन्तमें घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थसे रहित अज्ञानमें ही भटकना पड़ता है ॥ २७-२८ ॥ जितने भी सकाम और बहिर्मुख करनेवाले कर्म हैं, उनका फल दु:ख ही है। जो जीव शरीरमें अहंता-ममता करके उन्हींमें लग जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थितिमें मृत्युधर्मा जीवको क्या सुख हो सकता है ? ॥ २९ ॥ सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित—केवल दो पराद्र्ध है ॥ ३० ॥ सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण इन्द्रियोंको उनके कर्मोंमें प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियोंको अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मोंका फल सुख-दु:ख भोगने लगता है ॥ ३१ ॥ जबतक गुणोंकी विषमता है अर्थात् शरीरादिमें मैं और मेरेपनका अभिमान है; तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ॥ ३२ ॥ जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कर्मोंका ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है ॥ ३३ ॥ प्यारे उद्धव ! जब मायाके गुणोंमें क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ) ॥ ३४ ॥

उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! यह जीव देह आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दु:ख आदि रूप फलोंमें क्यों नहीं बँधता है ? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निॢलप्त है, देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धनकी प्राप्ति कैसे होती है ? ॥ ३५ ॥ बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है ? और मल-त्याग आदि कैसे करता है ? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? ॥ ३६ ॥ अच्युत ! प्रश्न का मर्म जाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्रका उत्तर दीजिये—एक ही आत्मा अनादि गुणोंके संसर्गसे नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असङ्ग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ॥ ३७ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे

भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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