॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
बद्ध, मुक्त और भक्तजनों के लक्षण
श्रीउद्धव
उवाच
साधुस्तवोत्तमश्लोक
मतः कीदृग्विधः प्रभो
भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत
कीदृशी सद्भिरादृता २६
एतन्मे
पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो
प्रणतायानुरक्ताय
प्रपन्नाय च कथ्यताम् २७
त्वं
ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः
अवतीर्णोऽसि
भगवन्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः २८
श्रीभगवानुवाच
कृपालुरकृतद्रो
हस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्
सत्यसारोऽनवद्यात्मा
समः सर्वोपकारकः २९
कामैरहतधीर्दान्तो
मृदुः शुचिरकिञ्चनः
अनीहो
मितभुक्शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ३०
अप्रमत्तो
गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः
अमानी
मानदः कल्यो मैत्रः कारुणिकः कविः ३१
आज्ञायैवं
गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान्
धर्मान्सन्त्यज्य
यः सर्वान्मां भजेत स तु सत्तमः ३२
ज्ञात्वाज्ञात्वाथ
ये वै मां यावान्यश्चास्मि यादृशः
भजन्त्यनन्यभावेन
ते मे भक्ततमा मताः ३३
मल्लिङ्गमद्भक्तजन
दर्शनस्पर्शनार्चनम्
परिचर्या
स्तुतिः प्रह्व गुणकर्मानुकीर्तनम् ३४
मत्कथाश्रवणे
श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव
सर्वलाभोपहरणं
दास्येनात्मनिवेदनम् ३५
मज्जन्मकर्मकथनं
मम पर्वानुमोदनम्
गीतताण्डववादित्र
गोष्ठीभिर्मद्गृहोत्सवः ३६
यात्रा
बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु
वैदिकी
तान्त्रिकी दीक्षा मदीयव्रतधारणम् ३७
ममार्चास्थापने
श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः
उद्यानोपवनाक्रीड
पुरमन्दिरकर्मणि ३८
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां
सेकमण्डलवर्तनैः
गृहशुश्रूषणं
मह्यं दासवद्यदमायया ३९
अमानित्वमदम्भित्वं
कृतस्यापरिकीर्तनम्
अपि
दीपावलोकं मे नोपयुञ्ज्यान्निवेदितम् ४०
यद्यदिष्टतमं
लोके यच्चातिप्रियमात्मनः
तत्तन्निवेदयेन्मह्यं
तदानन्त्याय कल्पते ४१
सूर्योऽग्निर्ब्राह्मणा
गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम्
भूरात्मा
सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ४२
सूर्ये
तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम्
आतिथ्येन
तु विप्राग्र्ये गोष्वङ्ग यवसादिना ४३
वैष्णवे
बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया
वायौ
मुख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरःसरैः ४४
स्थण्डिले
मन्त्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि
क्षेत्रज्ञं
सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ४५
धिष्ण्येष्वित्येषु
मद्रूपं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः
युक्तं
चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नर्चेत्समाहितः ४६
इष्टापूर्तेन
मामेवं यो यजेत समाहितः
लभते
मयि सद्भक्तिं मत्स्मृतिः साधुसेवया ४७
प्रायेण
भक्तियोगेन सत्सङ्गेन विनोद्धव
नोपायो
विद्यते सम्यक्प्रायणं हि सतामहम् ४८
अथैतत्परमं
गुह्यं शृण्वतो यदुनन्दन
सुगोप्यमपि
वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्सखा ४९
उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! बड़े-बड़े
संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुषका
क्या लक्षण है ? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये,
जिसका संतलोग आदर करते हैं ?
॥ २६ ॥ भगवन् ! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत् के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्तका रहस्य बतलाइये
॥ २७ ॥ भगवन् ! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृतिसे परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप
ब्रह्म हैं। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीलाके लिये स्वेच्छासे ही यह अलग शरीर धारण करके
अवतार लिया है। इसलिये वास्तवमें आप ही भक्ति और भक्तका रहस्य बतला सकते हैं ॥ २८
॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्यारे
उद्धव ! मेरा भक्त कृपाकी मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणीसे वैरभाव नहीं रखता
और घोर-से-घोर दु:ख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवनका सार है सत्य, और उसके मनमें किसी प्रकारकी पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और
सबका भला करनेवाला होता है ॥ २९ ॥ उसकी बुद्धि कामनाओंसे कलुषित नहीं होती। वह
संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रहसे सर्वथा दूर रहता
है। किसी भी वस्तुके लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त
रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह
आत्मतत्त्वके चिन्तनमें सदा संलग्र रहता है ॥ ३० ॥ वह प्रमादरहित, गम्भीरस्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु—ये छहों उसके वशमें रहते हैं। वह स्वयं तो
कभी किसीसे किसी प्रकारका सम्मान नहीं चाहता,
परन्तु दूसरोंका सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्धकी बातें
दूसरोंको समझानेमें बड़ा निपुण होता है और सभीके साथ मित्रताका व्यवहार करता है।
उसके हृदयमें करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्वका उसे यथार्थ ज्ञान होता है ॥ ३१ ॥
प्रिय उद्धव ! मैंने वेदों और शास्त्रोंके रूपमें मनुष्योंके धर्मका उपदेश किया है, उनके पालनसे अन्त:करणशुद्धि आदि गुण और उल्लङ्घनसे नरकादि दु:ख
प्राप्त होते हैं; परन्तु
मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदिमें विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल
मेरे ही भजनमें लगा रहता है, वह परम संत है ॥ ३२ ॥ मैं कौन हूँ,
कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ—इन बातोंको जाने,
चाहे न जाने; किन्तु जो अनन्यभावसे मेरा भजन करते हैं,
वे मेरे विचारसे मेरे परम भक्त हैं ॥ ३३ ॥
प्यारे उद्धव ! मेरी मूर्ति और मेरे
भक्तजनोंका दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मोंका कीर्तन करे ॥ ३४ ॥
उद्धव ! मेरी कथा सुननेमें श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ
मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभावसे मुझे आत्मनिवेदन करे ॥ ३५ ॥
मेरे दिव्य जन्म और कर्मोंकी चर्चा करे। जन्माष्टमी,
रामनवमी आदि पर्वोंपर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे
और समाजोंद्वारा मेरे मन्दिरोंमें उत्सव करे- करावे ॥ ३६ ॥ वार्षिक त्यौहारोंके
दिन मेरे स्थानोंकी यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारोंसे मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा
तान्ङ्क्षत्रक पद्धतिसे दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतोंका पालन करे ॥ ३७ ॥
मन्दिरोंमें मेरी मूर्तियोंकी स्थापनामें श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरोंके साथ मिलकर उद्योग करे। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीड़ाके
स्थान, नगर और मन्दिर बनवावे ॥ ३८ ॥ सेवककी भाँति श्रद्धाभक्तिके साथ
निष्कपट भावसे मेरे मन्दिरोंकी सेवा- शुश्रूषा करे—झाड़े-बुहारे, लीपे-पोते, छिडक़ाव करे और तरह-तरहके चौक पूरे ॥ ३९ ॥ अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मोंका ङ्क्षढढोरा भी न पीटे। प्रिय
उद्धव ! मेरे चढ़ावेकी, अपने काममें लगानेकी बात तो दूर रही,
मुझे समर्पित दीपकके प्रकाशसे भी अपना काम न ले। किसी दूसरे
देवताकी चढ़ायी हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे ॥ ४० ॥ संसारमें जो वस्तु अपनेको सबसे
प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करनेसे वह वस्तु
अनन्त फल देनेवाली हो जाती है ॥ ४१ ॥
भद्र ! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी—ये सब मेरी पूजाके स्थान हैं ॥ ४२ ॥ प्यारे
उद्धव ! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रों- द्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करनी
चाहिये। हवनके द्वारा अग्रिमें, आतिथ्यद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणमें और हरी-हरी घास आदिके द्वारा
गौमें मेरी पूजा करे ॥ ४३ ॥ भाई-बन्धुके समान सत्कारके द्वारा वैष्णवमें, निरन्तर ध्यानमें लगे रहनेसे हृदयाकाशमें,
मुख्य प्राण समझनेसे वायुमें और जल-पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा
जलमें मेरी आराधना की जाती है ॥ ४४ ॥ गुप्त मन्त्रोंद्वारा न्यास करके मिट्टीकी
वेदीमें, उपयुक्त भोगोंद्वारा आत्मामें और समदृष्टिद्वारा सम्पूर्ण
प्राणियोंमें मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभीमें क्षेत्रज्ञ आत्माके रूपसे स्थित हूँ ॥ ४५ ॥ इन
सभी स्थानोंमें शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओंवाले शान्तमूर्ति
श्रीभगवान् विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रताके साथ मेरी पूजा करनी चाहिये ॥ ४६ ॥
इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे यज्ञ-यागादि इष्ट और कुआँ-बावली बनवाना आदि पूर्तकर्मोंके
द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत-पुरुषोंकी सेवा
करनेसे मेरे स्वरूपका ज्ञान भी हो जाता है ॥ ४७ ॥ प्यारे उद्धव ! मेरा ऐसा निश्चय
है कि सत्सङ्ग और भक्तियोग—इन दो साधनोंका एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये।
प्राय: इन दोनोंके अतिरिक्त संसारसागरसे पार होनेका और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा
उनके पास बना रहता हूँ ॥ ४८ ॥ प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय
परम रहस्यकी बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक,
हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुननेके भी इच्छुक हो ॥ ४९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे
एकादशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से