शुक्रवार, 26 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ की विभूतियों का वर्णन

 

श्रीउद्धव उवाच

त्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम्

सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः १

उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः

उपासते त्वां भगवन्याथातथ्येन ब्राह्मणाः २

येषु येषु च भूतेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः

उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धिं तद्वदस्व मे ३

गूढश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन

न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते ४

याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां

विभूतयो दिक्षु महाविभूते

ता मह्यमाख्याह्यनुभावितास्ते

नमामि ते तीर्थपदाङ्घ्रिपद्मम् ५

 

श्रीभगवानुवाच

एवमेतदहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदां वर

युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै ६

ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम्

ततो निवृत्तो हन्ताहं हतोऽयमिति लौकिकः ७

स तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः

अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि ८

अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदीश्वरः

अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः ९

अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम्

गुणानां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः १०

गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम्

सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मनः ११

हिरण्यगर्भो वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत्

अक्षराणामकारोऽस्मि पदानि च्छन्दुसामहम् १२

इन्द्रो ऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्

आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहितः १३

ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः

देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु १४

सिद्धेश्वराणां कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्रिणाम्

प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा १५

मां विद्ध्युद्धव दैत्यानां प्रह्लादमसुरेश्वरम्

सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम् १६

ऐरावतं गजेन्द्राणां यादसां वरुणं प्रभुम्

तपतां द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिम् १७

उच्चैःश्रवास्तुरङ्गाणां धातूनामस्मि काञ्चनम्

यमः संयमतां चाहम्सर्पाणामस्मि वासुकिः १८

नागेन्द्राणामनन्तोऽहं मृगेन्द्रः शृङ्गिदंष्ट्रिणाम्

आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ १९

तीर्थानां स्रोतसां गङ्गा समुद्र: सरसामहम्

आयुधानां धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम् २०

 

उद्धवजीने कहा—भगवन् ! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त । आप आवरणरहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलयके कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियोंमें स्थित हैं; परन्तु जिन लोगोंने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते हैं ॥ १-२ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियोंकी परम भक्तिके साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, वह आप मुझसे कहिये ॥ ३ ॥ समस्त प्राणियोंके जीवनदाता प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपनेको गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत्के प्राणी आपकी मायासे ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते ॥ ४ ॥ अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो ! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओंमें आपके प्रभावसे युक्त जो-जो भी विभूतियाँ हैं, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो ! मैं आपके उन चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ जो समस्त तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले हैं ॥ ५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम प्रश्रका मर्म समझनेवालोंमें शिरोमणि हो। जिस समय कुरुक्षेत्रमें कौरव-पाण्डवोंका युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओंसे युद्धके लिये तत्पर अर्जुनने मुझसे यही प्रश्र किया था ॥ ६ ॥ अर्जुनके मनमें ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियोंको मारना, और सो भी राज्यके लिये, बहुत ही निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषोंके समान वह यह सोच रहा था कि ‘मैं मारनेवाला हूँ और ये सब मरनेवाले हैं, यह सोचकर वह युद्धसे उपरत हो गया ॥ ७ ॥ तब मैंने रणभूमिमें बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीर-शिरोमणि अर्जुनको समझाया था। उस समय अर्जुनने भी मुझसे यही प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मैं समस्त प्राणियोंका आत्मा, हितैषी, सुहृद् और ईश्वर—नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थोंके रूपमें हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कारण भी हूँ ॥ ९ ॥ गतिशील पदार्थोंमें मैं गति हूँ। अपने अधीन करनेवालोंमें मैं काल हूँ। गुणोंमें मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ ॥ १० ॥ गुणयुक्त वस्तुओंमें मैं क्रिया- शक्तिप्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानोंमें ज्ञानशक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओंमें मैं जीव हूँ और कठिनाईसे वशमें होनेवालोंमें मन हूँ ॥ ११ ॥ मैं वेदोंका अभिव्यक्तिस्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रोंमें तीन मात्राओं (अ+उ+म्) वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरोंमें अकार, छन्दोंमें त्रिपदा गायत्री हूँ ॥ १२ ॥ समस्त देवताओंमें इन्द्र, आठ वसुओंमें अग्रि, द्वादश आदित्योंमें विष्णु और एकादश रुद्रोंमें नीललोहित नामका रुद्र हूँ ॥ १३ ॥ मैं ब्रहमर्षियोंमें भृगु, राजर्षियोंमें मनु, देवर्षियोंमें नारद और गौओंमें कामधेनु हूँ ॥ १४ ॥ मैं सिद्धेश्वरोंमें कपिल, पक्षियोंमें गरुड़, प्रजापतियोंमें दक्ष प्रजापति और पितरोंमें अर्यमा हूँ ॥ १५ ॥ प्रिय उद्धव ! मैं दैत्योंमें दैत्यराज प्रह्लाद, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, ओषधियोंमें सोमरस एवं यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर हूँ—ऐसा समझो ॥ १६ ॥ मैं गजराजोंमें ऐरावत, जलनिवासियोंमें उनका प्रभु वरुण, तपने और चमकनेवालोंमें सूर्य तथा मनुष्योंमें राजा हूँ ॥ १७ ॥ मैं घोड़ोंमें उच्चै:श्रवा, धातुओंमें सोना, दण्डधारियोंमें यम और सर्पोंमें वासुकि हूँ ॥ १८ ॥ निष्पाप उद्धवजी ! मैं नागराजोंमें शेषनाग, सींग और दाढ़वाले प्राणियों  में उनका राजा सिंह, आश्रमों में संन्यास और वर्णों में ब्राह्मण हूँ ॥ १९ ॥ मैं तीर्थ और नदियों में गङ्गा, जलाशयों में समुद्र, अस्त्र-शस्त्रों में धनुष तथा धनुर्धरों  में त्रिपुरारि शङ्कर हूँ ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 25 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण

 

यथा सङ्कल्पयेद्बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्

मयि सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत्समुपाश्नुते २६

यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्

कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम २७

मद्भक्त्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः

तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता २८

अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः

मद्योगशान्तचित्तस्य यादसामुदकं यथा २९

मद्विभूतीरभिध्यायन्श्रीवत्सास्त्रविभूषिताः

ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः ३०

उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः

सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः ३१

जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः

मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा ३२

अन्तरायान्वदन्त्येता युञ्जतो योगमुत्तमम्

मया सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः ३३

जन्मौषधितपोमन्त्रैर्यावतीरिह सिद्धयः

योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत् ३४

सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः

अहं योगस्य साङ्ख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम् ३५

अहमात्मान्तरो बाह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्

यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ३६

 

जिस पुरुष ने मेरे सत्यसङ्कल्पस्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसीके ध्यानमें संलग्न है, वह अपने मनसे जिस समय जैसा सङ्कल्प करता है, उसी समय उसका वह सङ्कल्प सिद्ध हो जाता है ॥ २६ ॥ मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’—इन दोनों सिद्धियोंका स्वामी हूँ; इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूपका चिन्तन करके उसी भावसे युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञाको भी कोई टाल नहीं सकता ॥ २७ ॥ जिस योगीका चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्तिके प्रभावसे शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयोंको भी जान लेती है। और तो क्या—भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं ॥ २८ ॥ जैसे जलके द्वारा जलमें रहनेवाले प्राणियोंका नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगीने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीरको अग्रि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शङ्ख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधोंसे विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदिसे सम्पन्न मेरे अवतारोंका ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है ॥ ३० ॥

इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योगधारणाके द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णत: प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है ॥ ३१ ॥ प्यारे उद्धव ! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूपकी धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं ॥ ३२ ॥ परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगोंका अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियोंका प्राप्त होना एक विघ्र ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समयका दुरुपयोग होता है ॥ ३३ ॥ जतग्में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादिके द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योगके द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योगकी अन्तिम सीमा—मेरे सारूप्य, सालोक्य आदिकी प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधनसे नहीं प्राप्त हो सकती ॥ ३४ ॥ ब्रह्मवादियोंने बहुत-से साधन बतलाये हैं—योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियोंका एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ ॥ ३५ ॥ जैसे स्थूल पञ्चभूतोंमें बाहर, भीतर सर्वत्र सूक्ष्म पञ्च-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतोंके अतिरिक्त स्थूल भूतोंकी कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियोंके भीतर द्रष्टारूपसे और बाहर दृश्यरूपसे स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतरका भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक— अद्वितीय आत्मा हूँ ॥ ३६ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे

पञ्चदशोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण

 

श्रीभगवानुवाच

जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः

मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः १

 

श्रीउद्धव उवाच

कया धारणया का स्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत

कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान् २

 

श्रीभगवानुवाच

सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगैः

तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः ३

अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः

प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता ४

गुणेष्वसङ्गो वशिता यत्कामस्तदवस्यति

एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः ५

अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम्

मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम् ६

स्वच्छन्दमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्

यथासङ्कल्पसंसिद्धिराज्ञाप्रतिहता गतिः ७

त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता

अग्न्यर्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोऽपराजयः ८

एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः

यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यान्निबोध मे ९

भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः

अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम १०

महत्तत्त्वात्मनि मयि यथासंस्थं मनो दधत्

महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक्पृथक् ११

परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रञ्जयन्

कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात् १२

धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्

सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः १३

महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्

प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दतेऽव्यक्तजन्मनः १४

विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे

स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रज्ञक्षेत्रचोदनाम् १५

नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते

मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात् १६

निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः

परमानन्दमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते १७

श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि

धारयञ्छ्वेततां याति षडूर्मिरहितो नरः १८

मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्

तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ १९

चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि

मां तत्र मनसा ध्यायन्विश्वं पश्यति दूरतः २०

मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनुवायुना

मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः २१

यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति

तत्तद्भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः २२

परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्

पिण्डं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत् २३

पार्ष्ण्यापीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्धसु

आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम् २४

विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्

विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः २५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मनको अपने वशमें करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहा—अच्युत ! कौन-सी धारणा करनेसे किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियोंको सिद्धियाँ देते हैं, अत: आप इनका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! धारणायोगके पारगामी योगियोंने अठारह प्रकारकी सिद्धियाँ बतलायी हैं। उनमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधानरूपसे मुझमें ही रहती हैं और दूसरोंमें न्यून। तथा दस सत्त्वगुणके विकाससे भी मिल जाती हैं ॥ ३ ॥ उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीरकी हैं— ‘अणिमा’,‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियोंकी एक सिद्धि है—‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थोंका इच्छानुसार अनुभव करनेवाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ है। माया और उसके कार्योंको इच्छानुसार सञ्चालित करना ‘ईशिता’ नामकी सिद्धि है ॥ ४ ॥ विषयोंमें रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुखकी कामना करे, उसकी सीमातक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नामकी आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभावसे ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हींको अंशत: प्राप्त होती हैं ॥ ५ ॥ इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीरमें भूख-प्यास आदि वेगोंका न होना, बहुत दूरकी वस्तु देख लेना और बहुत दूरकी बात सुन लेना, मनके साथ ही शरीरका उस स्थानपर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीरमें प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोडऩा, अप्सराओंके साथ होनेवाली देवक्रीड़ाका दर्शन, सङ्कल्पकी सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु-नचके आज्ञापालन—ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुणके विशेष विकाससे होती हैं ॥ ६-७ ॥ भूत, भविष्य और वर्तमानकी बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंके वशमें न होना, दूसरेके मन आदिकी बात जान लेना; अग्रि, सूर्य, जल, विष आदिकी शक्तिको स्तम्भित कर देना और किसीसे भी पराजित न होना—ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियोंको प्राप्त होती हैं ॥ ८ ॥ प्रिय उद्धव ! योग-धारणा करनेसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देशके साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणासे कौन- सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो ॥ ९ ॥

प्रिय उद्धव ! पञ्चभूतोंकी सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर हैं। जो साधक केवल मेरे उसी शरीरकी उपासना करता है और अपने मनको तदाकार बनाकर उसीमें लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीरके अतिरिक्त और किसी भी वस्तुका चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नामकी सिद्धि अर्थात् पत्थरकी चट्टान आदिमें भी प्रवेश करनेकी शक्ति—अणुता प्राप्त हो जाती है ॥ १० ॥ महत्तत्त्वके रूपमें भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूपमें समस्त व्यावहारिक ज्ञानोंका केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूपमें अपने मनको महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पञ्चभूतोंमें—जो मेरे ही शरीर हैं—अलग-अलग मन लगानेसे उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धिके ही अन्तर्गत है ॥ ११ ॥ जो योगी वायु आदि चार भूतोंके परमाणुओंको मेरा ही रूप समझकर चित्तको तदाकार कर देता है, उसे‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है—उसे परमाणुरूप कालके [*] समान सूक्ष्म वस्तु बननेका सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है ॥ १२ ॥ जो सात्त्विक अहङ्कार को मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूपमें चित्तकी धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियोंका अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करनेवाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नामकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ १३ ॥ जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मामें अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्तजन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है—जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं ॥ १४ ॥ जो त्रिगुणमयी मायाके स्वामी मेरे कालस्वरूप विश्वरूपकी धारणा करता है, वह शरीरों और जीवोंको अपने इच्छानुसार प्रेरित करनेकी सामथ्र्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धिका नाम ‘ईशित्व’ है ॥ १५ ॥ जो योगी मेरे नारायण-स्वरूपमें—जिसे तुरीय और भगवान्‌ भी कहते हैं—मनको लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ १६ ॥ निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूपमें स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलनेपर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं ॥ १७ ॥ प्रिय उद्धव ! मेरा वह रूप, जो श्वेत- द्वीपका स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म- मृत्यु और शोक-मोह—इन छ: ऊॢमयोंसे मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥ मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूपमें मनके द्वारा अनाहत नादका चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नामकी सिद्धिसे सम्पन्न हो जाता है और आकाशमें उपलब्ध होनेवाली विविध प्राणियोंकी बोली सुन-समझ सकता है ॥ १९ ॥ जो योगी नेत्रोंको सूर्यमें और सूर्यको नेत्रोंमें संयुक्त कर देता है और दोनोंके संयोगमें मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसारको देख सकता है ॥ २० ॥ मन और शरीरको प्राणवायुके सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभावसे वह योगी जहाँ भी जानेका संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है ॥ २१ ॥ जिस समय योगी मनको उपादान- कारण बनाकर किसी देवता आदिका रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मनके अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्तको मेरे साथ जोड़ दिया है ॥ २२ ॥ जो योगी दूसरे शरीरमें प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीरमें हूँ। ऐसा करनेसे उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूलसे दूसरे फूलपर जानेवाले भौंरेके समान अपना शरीर छोडक़र दूसरे शरीरमें प्रवेश कर जाता है ॥ २३ ॥ योगीको यदि शरीरका परित्याग करना हो तो एड़ीसे गुदाद्वारको दबाकर प्राणवायुको क्रमश: हृदय, वक्ष:स्थल, कण्ठ और मस्तकमें ले जाय। फिर ब्रह्मरन्ध्रके द्वारा उसे ब्रह्ममें लीन करके शरीरका परित्याग कर दे ॥ २४ ॥ यदि उसे देवताओंके विहारस्थलोंमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी भावना करे। ऐसा करनेसे सत्त्वगुणकी अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमानपर चढक़र उसके पास पहुँच जाती हैं ॥ २५ ॥

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[*] पृथ्वी आदिके परमाणुओं में गुरुत्व विद्यमान रहता है। इसीसे उसका भी निषेध करनेके लिये कालके परमाणुकी समानता बतायी है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...