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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् की विभूतियों का वर्णन
श्रीउद्धव
उवाच
त्वं
ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम्
सर्वेषामपि
भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः १
उच्चावचेषु
भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः
उपासते
त्वां भगवन्याथातथ्येन ब्राह्मणाः २
येषु
येषु च भूतेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः
उपासीनाः
प्रपद्यन्ते संसिद्धिं तद्वदस्व मे ३
गूढश्चरसि
भूतात्मा भूतानां भूतभावन
न
त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते ४
याः
काश्च भूमौ दिवि वै रसायां
विभूतयो
दिक्षु महाविभूते
ता
मह्यमाख्याह्यनुभावितास्ते
नमामि
ते तीर्थपदाङ्घ्रिपद्मम् ५
श्रीभगवानुवाच
एवमेतदहं
पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदां वर
युयुत्सुना
विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै ६
ज्ञात्वा
ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम्
ततो
निवृत्तो हन्ताहं हतोऽयमिति लौकिकः ७
स
तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः
अभ्यभाषत
मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि ८
अहमात्मोद्धवामीषां
भूतानां सुहृदीश्वरः
अहं
सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः ९
अहं
गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम्
गुणानां
चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः १०
गुणिनामप्यहं
सूत्रं महतां च महानहम्
सूक्ष्माणामप्यहं
जीवो दुर्जयानामहं मनः ११
हिरण्यगर्भो
वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत्
अक्षराणामकारोऽस्मि
पदानि च्छन्दुसामहम् १२
इन्द्रो
ऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्
आदित्यानामहं
विष्णू रुद्राणां नीललोहितः १३
ब्रह्मर्षीणां
भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः
देवर्षीणां
नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु १४
सिद्धेश्वराणां
कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्रिणाम्
प्रजापतीनां
दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा १५
मां
विद्ध्युद्धव दैत्यानां प्रह्लादमसुरेश्वरम्
सोमं
नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम् १६
ऐरावतं
गजेन्द्राणां यादसां वरुणं प्रभुम्
तपतां
द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिम् १७
उच्चैःश्रवास्तुरङ्गाणां
धातूनामस्मि काञ्चनम्
यमः
संयमतां चाहम्सर्पाणामस्मि वासुकिः १८
नागेन्द्राणामनन्तोऽहं
मृगेन्द्रः शृङ्गिदंष्ट्रिणाम्
आश्रमाणामहं
तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ १९
तीर्थानां
स्रोतसां गङ्गा समुद्र: सरसामहम्
आयुधानां
धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम् २०
उद्धवजीने कहा—भगवन् ! आप स्वयं
परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त । आप आवरणरहित,
अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलयके कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी
प्राणियोंमें स्थित हैं; परन्तु जिन लोगोंने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष
ही करते हैं ॥ १-२ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियोंकी परम
भक्तिके साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं,
वह आप मुझसे कहिये ॥ ३ ॥ समस्त प्राणियोंके जीवनदाता प्रभो ! आप
समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपनेको गुप्त रखकर लीला करते रहते
हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत्के प्राणी आपकी मायासे ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको
नहीं देख पाते ॥ ४ ॥ अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो ! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओंमें आपके प्रभावसे युक्त जो-जो भी
विभूतियाँ हैं, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो ! मैं आपके उन
चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ जो समस्त तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले हैं ॥ ५ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय
उद्धव ! तुम प्रश्रका मर्म समझनेवालोंमें शिरोमणि हो। जिस समय कुरुक्षेत्रमें
कौरव-पाण्डवोंका युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओंसे युद्धके लिये तत्पर अर्जुनने मुझसे यही प्रश्र
किया था ॥ ६ ॥ अर्जुनके मनमें ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियोंको मारना, और सो भी राज्यके लिये, बहुत ही निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषोंके समान वह यह सोच रहा
था कि ‘मैं मारनेवाला हूँ और ये सब मरनेवाले हैं,
यह सोचकर वह युद्धसे उपरत हो गया ॥ ७ ॥ तब मैंने रणभूमिमें बहुत-सी
युक्तियाँ देकर वीर-शिरोमणि अर्जुनको समझाया था। उस समय अर्जुनने भी मुझसे यही
प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मैं समस्त प्राणियोंका आत्मा, हितैषी, सुहृद् और ईश्वर—नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और
पदार्थोंके रूपमें हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कारण भी हूँ ॥ ९ ॥ गतिशील पदार्थोंमें मैं गति
हूँ। अपने अधीन करनेवालोंमें मैं काल हूँ। गुणोंमें मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था
हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ ॥ १० ॥ गुणयुक्त वस्तुओंमें मैं
क्रिया- शक्तिप्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानोंमें ज्ञानशक्तिप्रधान
प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओंमें मैं जीव हूँ और कठिनाईसे वशमें
होनेवालोंमें मन हूँ ॥ ११ ॥ मैं वेदोंका अभिव्यक्तिस्थान हिरण्यगर्भ हूँ और
मन्त्रोंमें तीन मात्राओं (अ+उ+म्) वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरोंमें अकार, छन्दोंमें त्रिपदा गायत्री हूँ ॥ १२ ॥ समस्त देवताओंमें इन्द्र, आठ वसुओंमें अग्रि, द्वादश आदित्योंमें विष्णु और एकादश रुद्रोंमें नीललोहित नामका
रुद्र हूँ ॥ १३ ॥ मैं ब्रहमर्षियोंमें भृगु,
राजर्षियोंमें मनु, देवर्षियोंमें नारद और गौओंमें कामधेनु हूँ ॥ १४ ॥ मैं
सिद्धेश्वरोंमें कपिल, पक्षियोंमें
गरुड़, प्रजापतियोंमें दक्ष प्रजापति और पितरोंमें अर्यमा हूँ ॥ १५ ॥
प्रिय उद्धव ! मैं दैत्योंमें दैत्यराज प्रह्लाद,
नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, ओषधियोंमें सोमरस एवं यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर हूँ—ऐसा समझो ॥ १६ ॥
मैं गजराजोंमें ऐरावत, जलनिवासियोंमें
उनका प्रभु वरुण, तपने
और चमकनेवालोंमें सूर्य तथा मनुष्योंमें राजा हूँ ॥ १७ ॥ मैं घोड़ोंमें
उच्चै:श्रवा, धातुओंमें सोना, दण्डधारियोंमें यम और सर्पोंमें वासुकि हूँ ॥ १८ ॥ निष्पाप उद्धवजी
! मैं नागराजोंमें शेषनाग, सींग और दाढ़वाले प्राणियों
में उनका राजा सिंह, आश्रमों में संन्यास और वर्णों में ब्राह्मण हूँ ॥ १९ ॥ मैं तीर्थ
और नदियों में गङ्गा, जलाशयों
में समुद्र, अस्त्र-शस्त्रों में धनुष तथा धनुर्धरों में त्रिपुरारि शङ्कर हूँ ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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